Saturday 29 July 2023

निर्वचन तुलसी मानस भारती माह अगस्त्य 2023

 निर्वचन अगस्त 23

 

 

                 गीता-प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी महोत्सव

7 जुलाई 2023 को भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस गोरखपुर में सम्पन्न गीता प्रेस की स्थापना के शताब्दी समारोह में उपस्थित हो संस्थान को करोड़ों भारतीयों के अन्त:स्थ मंदिर की संज्ञा प्रदान की । ठीक इसी भाव भूमिका में मानस भवन के श्री रामकिकर सभागार में तुलसी मानस प्रतिष्ठान, हिन्दी भवन और सप्रे संग्रहालय भोपाल के समन्वित प्रकल्प में एक दिन पूर्व 6 जुलाई को मध्य प्रदेश की प्रतिनिधि संस्थाओं की ओर से गीताप्रेस की पुस्तक प्रदर्शिनी सहित भगवतप्राप्त भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जयदयाल जी गोयंदका को पुष्पांजलि अर्पित की गई । इस अवसर पर विचारक मनीषियों ने व्यक्त किया गया कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी ने मध्य काल में लोकरक्षण का कार्य किया ठीक उसी प्रकार गीता प्रेस गोरखपुर ने वर्तमान काल में सनातन धर्म को अभिनव पहचान प्रदान कर भारत के विस्मृतप्राय अध्यात्म, दर्शन, साहित्य और इतिहास के प्रलुप्त गौरव को नई पीढ़ी के सुपुर्द किया है।

प्रकारांतर से इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा गीताप्रेस को प्रदत्त प्रतिष्ठित गांधी-सम्मान को लेकर उठाए गए प्रश्न पर भी वक्ताओं ने स्पष्ट रूप से ‘कल्याण’ पत्रिका तथा इसके संस्थापक संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार पर गांधी जी के प्रभाव और इनके संबंध की आंतरिकता पर भी प्रकाश डाला । एक अर्थ में श्री पोद्दार जी गांधी जी की उस वैष्णवता का ही विस्तार थे जिसमें स्वभावजन्य उदारता, परमार्थ, राष्ट्रप्रेम, सर्वजन हित और विश्व मानवता की प्रतिष्ठा होती है । यदि किसी की दृष्टि में अक्षय मुकुल द्वारा गीता प्रेस पर लिखी ‘मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ पुस्तक की राहु छाया पडी है तो वह एकांगी और पूर्वाग्रह ग्रसित ही है।

‘तुलसी मानस भारती’ ने गांधी जन्म शताब्दी के अवसर पर अपने अंक अक्टोबर 2020 में ‘श्वास श्वास में राम’, वार्षिकांक जनवरी 2023 में ‘गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष’ शीर्षक से संपादकीय और जून 23 के अंक में बालकृष्ण कुमावत के आलेख ‘ दैवी संपदा की प्रतिमूर्ति भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार’ प्रकाशित किए हैं । हमारी आगामी वार्षिकांक की योजना भी गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, भाषा और भारतीय लोक जीवन पर पड़े अमिट प्रभाव के समाकलन विषयक है । क्या यह एक विडंबना नहीं है कि जहां अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में गीताप्रेस के अभिदाय की अपरिहार्यता स्वीकार की जाती है, संस्कृत, हिन्दी, देश की अन्य भाषाओं तथा हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में इस संस्थान के योग को प्रायः बिसार दिया जाता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भारतीयता के जड़-मूल में पैठी इस संस्था को वह स्थान प्रदान नहीं किया गया जिसकी वह संपूर्ण अधिकारिणी है ।  

जिस संस्थान की गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, स्तोत्र, पूजा विधि, भाष्य, विशेषांक और कल्याण पत्रिका की शास्त्र सम्मतता के प्रति चारों प्रधान शंकराचार्य पीठ, काशी अयोध्या, वृंदावन, उज्जैन आदि के साधु-मनीषी और विद्वत समाज एकमतेन पूरी तरह आश्वस्त हों उसके परम प्रमाण पर संदेह जैसी स्थिति क्योंकर उत्पन्न हुई ? भारतीय ज्ञान परंपरा जहां वेद को ‘शब्द प्रमाण’ की सत्ता प्राप्त है, वहाँ गीता प्रेस के इतने कुशल, श्रम साध्य  और पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की संपूर्णता का सामान हो उसे किसी भी प्रकार से विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए ।

आइए, हम भारतीय मेधा के महर्षियों की श्रुति, स्मृति, संहिता, आख्यान और आचार विज्ञान को शब्दाकार देने वाले विश्व के सर्वाधिक उपकारी गीताप्रेस और उसके संस्थापकों को अपनी आदरांजलि प्रदान कर ऐसी धन्यता की प्रतीति करें जो परमार्थ का बोध कराती है ।

 

प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक (9425079072)                              

निर्वचन तुलसी मानस भारती माह जुलाई 23

 निर्वचन जुलाई 23

 

                      काव्य का प्रयोजन

भारतीय साहित्य परंपरा में काव्य के प्रयोजन पर भरत मुनि, भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, आनंद वर्धन, कुंतक, महिम भट्ट, अभिनव गुप्त, भोज, मम्मट और विश्वनाथ आदि आचार्यों ने व्यक्ति और वैश्विक दोनों ही परिप्रेक्ष्य में बहुत परिपूर्णता से विचार किया है । सामान्यतया उनके अनुसार जहां काव्य व्यक्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) का साधन है वहीं यह महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) की तरह अशिव के निवारण का भी कार्य करता है । इस प्रकार प्रातिभ रचनाकार्य परमात्मा की सृष्टि की ही एक पूरक इकाई हो जाता है । पश्चिम के विचारकों में प्लेटो, अरस्तू, रस्किन, टालस्टाय, कॉलरिज, आर्नोल्ड और आई ए रिचार्ड्स भी प्राय: इन्हीं धारणाओं के हैं ।   गोस्वामी तुलसीदास ने जैसे इसका सम्पूर्ण समाहार करते हुए मानवीय अस्तित्व के सभी आयामों की सार्थकता और सिद्धि को अपूर्व रीति से इस प्रकार परिभाषित कर दिया –

कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर हित होई ।       

अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा भोज के समकालीन आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में कविता के बहुआयामी समन्वित छ: उद्देश्य इस प्रकार बताए हैं –

कावयं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये

सद्य: परनिवृततये कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।

इनमें चतुर्थ अशिव के क्षय विषयक कार्य है । शिव मंगल के प्रतीक हैं । यजुर्वेद में ‘नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च’ (16/41) इस मंत्र के छहों विशेषण शिव के कल्याणकारी होने के ही विधायक और परिचायक हैं । अत: एक कवि की कारयित्री क्षमता का अशिव के शमन में योग महत्वपूर्ण हो जाता है । कवि यह कार्य नवरस की वर्षा के अतिरिक्त यथा स्थिति व्यंग्य, वक्रोक्ति और लक्षणा शब्द शक्ति के माध्यम से भी पूरा किया करता है ।    

हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग में भी महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, नन्द दुलारे वाजपेयी प्रभृति रचनाकार कवित्व की इसी प्रकृत धारा के पैरोकार रहे हैं । विगत सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम के भौतिक यथार्थ बोध की प्रतिस्पर्धा में प्रतिनिधि हिन्दी कविता भी जैसे अपनी प्रकृत पहचान से दूर हो चली थी जबकि थोरो, इमर्सन, वहाल्ट व्हिटमैन, एट्स और इलियट आदि सनातन भारतीय दृष्टि के अनुसंधान में लगे थे ।

यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भारतीय ज्ञान भंडार के सम्यक अन्वीक्षण और द्रष्टा ऋषियों की परादृष्टि की प्रकृत पहचान की नित नूतन पहल हो रही है । उसे यह समझ आने लगा है कि साहित्य और कला जीवन के भौतिक उपादान तक सीमित किए जाकर उपभोग के पर्याय बनाकर नहीं छोड़े जा सकते । जिस प्रकार मनुष्य के अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) की अवस्थाओं के प्रकटीकरण के लिए स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति और समाधि की अवस्थाएँ आवश्यक हैं, वैसे ही समग्र जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान, विज्ञान, कला-साहित्य और परा-दृष्टिवत्ता भी आवश्यक है ।

गोस्वामी तुलसीदास ने इस सत्य का साक्षात्कार किया था तथा उन्होंने विवेकी जनों को इस हेतु आवश्यक दर्पण भी दिखाया –

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक

सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक । बाल. 9

 

प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक (9425079072)                 

निर्वचन तुलसी मानस भारती माह जून 23

 निर्वचन जून 23

 

                  वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस

 

श्रुति वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति (हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ।  ज्ञान है सत्य का स्वानुभव । और सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब स्मरण किया जाता है तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है । श्रीमद्भागवत का तो प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं परं धीमहि’ से ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ वेद-वेदांग से लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द प्रमाण’ भरे हुए हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण ही हैं जिनसे इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञान तेsहं सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार करते हैं –

‘मैं अरु मोर तोर तें  माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया

गो गोचर जहॅ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..       

   माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव

   बन्ध  मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । ( आरण्यकांड 15) 

ईश्वर और मनुष्य के बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे तत्क्षण मुक्ति के द्वार में प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री राम भरत को भी प्रदान करते हैं –

सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक

गुन यह उभय न देखिअहि देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड 41

अर्थात् हे भाई (भरत) माया के कार्य की अनेक सकारात्मक और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है (क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।   

मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड और इंद्रादिक देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे अन्य दूसरों की तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को समझने के लिए पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार प्रतिष्ठा करते हैं-

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने

जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई । बालकांड 112/1

असत् (माया) बोध से रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस प्रकार उन्मीलित करते हैं –

जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू

जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया

रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि

जदपि मृषा तेहुं काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड 117            

विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया और ब्रह्म का यह निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए संपादित मानव की चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं ।  इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ सत्व रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।

प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक (9425079072) 

Tuesday 6 June 2023

तुलसी मानस भारती -निर्वचन मई 2023


 

निर्वचन तुलसी मानस भारती माह अप्रैल 2023

 निर्वचन अप्रैल 23

 

भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रकर्ष श्रीरामचरित मानस

 

वेद, वेदांग, उपांग, उपवेद, स्मृति, इतिहास, पुराण और दर्शन की अजस्र ज्ञान परंपरा के सनातन भारतीय कोश के यदि किसी एक प्रतिनिधि ग्रंथ की हमें यदि पहचान करनी है तो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित मानस की ओर हमारा ध्यान स्वभावत: जाता है । गीर्वाण गिरा (संस्कृत) की ओर ध्यान जाने पर यद्यपि श्रीकृष्ण की गीता विश्व पटल पर इस दृष्टि से साधिकार प्रतिष्ठित है, किन्तु वेद के लौकिक प्राकार के साक्षात्कार हेतु श्रीरामचरित मानस के जन-जन के कंठहार मानने के लिए सभी प्राज्ञ और परमार्थी महानुभावों की सहमति देखी जा सकती है । यह स्पष्ट है कि काशी के शेष सनातन गुरुकुल में पढे गोस्वामी तुलसीदास समग्र भारतीय ज्ञान-कोश में पारंगत तो थे ही, उनके व्यक्तित्व में शील, सौष्ठव, लोकधारा और साधुत्व की जो असाधारण प्रतिष्ठा थी, उसने उन्हें अपने इस महाग्रन्थ के माध्यम से एक अजस्र-काल की धारा का सुमेरु ही समा देने की सामर्थ्य प्रदान की थी ।

मानस के भरत वाक्य ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतम्’ में तुलसी का मानस की प्रामाणिकता का उद्घोष तुलसी की विनयशीलता में जैसे एक ‘ढिठाई’ ही थी तथा इस अपराध बोध से उन्हें ‘सुनि अघ नरकहुं नाक सकोरी’ की प्रतीति हुई थी । किन्तु तुलसी की शास्त्रज्ञता के प्रति किसी भी अधिकारी विद्वान, मठाधीश, काव्यशात्री, लोकनायक और सक्षम प्रवक्ता ने कभी, कहीं संदेह प्रकट नहीं किया। प्रसिद्ध है कि धर्मसम्राट श्री करपात्री जी जब चातुर्मास काल में केवल संस्कृत में ही संवाद करते थे तब भी वे मानस का पारायण यथाविधि करते हुए यही कहते थी कि मानस तो संपूर्णतया मंत्रात्मक रचना है । इसलिए यहाँ यह विचार उचित प्रतीत होता है कि हम भारतीय ज्ञान-परंपरा की मानस में विद्यमान उस शीर्ष धारा का अनुसंधान करें जो सार्वभौमिक तौर पर सभी के लिए अवलंवनीय है ।  

भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद सर्वथा परम प्रमाण हैं । तुलसी ने वेद की सार्वभौमिक और सार्वकालिक प्रामाणिकता के इस संदर्भ को कभी भी विस्मृत नहीं किया । वेद के सृष्टि के नियंता ईश्वर में अवतार लेने की सामर्थ्य इसीलिए है क्योंकि वह इस रचना का कारण और उपादान दोनों है । यह ज्ञातव्य ही है कि अन्य मताबलम्बियों के ईश्वर में चूंकि अवतार लेने की जब सामर्थ्य ही जब नहीं है तो वह सर्वशक्तिशाली कैसे हो सकता है ! भगवान शिव कौशलपति श्री राम को जब समस्त संरचना और प्रलय की सामर्थ्य से युक्त बताते हैं तो वेद का यही साक्ष्य उनकी परिदृष्टि में है –

‘जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान

सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ।‘ बालकांड 118

ऋग्वेद के पुरुष, नासदीय, हिरण्यगर्भ, अस्यवामीय; यजुर्वेद के ईशावास्य और अथर्ववेद के स्कंभ तथा उच्छिष्ठ ब्रह्म आदि सूक्त इसी दृष्टि के आधार हैं जिनका इतिहास और पुराणों में ‘उपब्रहमण' हुआ है तथा जो वाल्मीकि के ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ (वा.रा.1/11) तथा वेदव्यास के ‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परम्’ (भाग. 1/1/1) हैं । व्यास जी ने यहाँ एक और चेतावनी दी है कि ईश्वर की इस ‘अभिज्ञ स्वराट्’ ब्रह्म की पहचान करते हुए परम प्रबुद्ध भी विमूढ़ित हो जाते हैं- मुहयन्ति यत् सूरय:’ । यह स्वयं ब्रह्मा, शिव, सती और इंद्रादि सहित उन षड्दर्शन शास्त्रियों के संबंध में भी सही प्रतीत होता है जो इस अगोचर सत्य को एक देशीयता में खोजने में कभी-कभी प्रवृत्त हुए हैं । तुलसी ने स्वयं वेदों से श्री राम की स्तुति में इसी सत्य का निदर्शन इस प्रकार किया है-

‘तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे

भव पंथ भ्रमत अमिट दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ।‘ उत्तरकाण्ड 13क    

यहाँ तुलसी के ‘मानस’ में छ: वेदांग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छंद और निरुक्त; उपांग-इतिहास-पुराण, धर्मशास्त्र, न्याय और मीमांसा अथवा 4 उपवेद- धनु:, गांधर्व, आयुर्वेद तथा स्थापत्य आदि के विवरण विस्तार में जाने का प्रसंग नहीं है । इसके अध्येताओं को यह प्रायः सुविज्ञात ही है तुलसी ने लगभग 56 वार्णिक और मात्रिक छंदों का अपने काव्य में भाषाई सौष्ठव और रस परिपाक सहित निर्दोष काव्यशास्त्रीय अनुशासन में प्रयोग किया है । राम रावण युद्ध में धनुर्विद्या के प्रयोग तथा मानस रोग प्रसंग में आयुर्वेद और श्री राम के जन्म काल में जोग लगन ग्रह बार तिथि’ आदि ज्योतिषीय ज्ञान की परिपूर्णता का वे परिचय देते हैं । इसी तरह मिथिला और अयोध्या वर्णन काल में स्थापत्य विधान का भी अद्भुद दिग्दर्शन है। यहाँ तक कि प्रकृति से योग्य मानवीय संव्यवहार के पारिस्थितिक विज्ञान के भी अनेक प्रसंग इसमें संदृष्टव्य हैं । पर हम यहाँ उनके कुछ ऐसे समन्वयक सूत्रों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं जो ज्ञान की बहुमुखी धाराओं में एकतानता स्थापित करते हैं ।  

दर्शन के सिद्धांत, मत और धारणाओं में लोक और काल में ही नहीं, इनके इतर भी विरोध का काम करता है जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान की प्रकट और परिसिद्ध परंपरा भी काल-क्रम में परिलुप्त हो जाती है । ज्ञान की परंपरा में इन द्वंद्वाभाषों के अतिरिक्त लोक और वेद की मान्यताएँ भी संघर्ष करती हैं जिसके कारण यह धारा अवरुद्ध प्रतीत होने लगती है । श्रीरामचरित मानस में तुलसी ने इन सब खाइयों के बीच जिन सेतुओं का निर्माण किया है वे सर्वदा अनूठे हैं । उनकी रामकथा की सरयू के दो किनारे ‘लोक बेद मत’ के ‘मंजुल कूल’ ( बाल. 39/6) तो हैं ही, चित्रकूट की महती राजसभा को श्री राम का स्पष्ट परामर्श है-

‘भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि

करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।‘ अयो. 258

निगम-आगम, वैष्णव-शैव, द्वैत-अद्वैत, उपासना-ज्ञान, सगुण-निर्गुण, साधु-असाधु, सत्-असत् माया-जीव-ब्रह्म तथा देश, काल, वर्ण, आश्रम आदि की शास्त्रीय धारणाओं का ‘रस’ रूप ‘सार’ प्रस्तुत कर पाने की तुलसी की क्षमता असीम है । इसलिए तुलसी के ही शब्दों में –

‘ गावत बेद पुरान अष्टदस, छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस

मुनि जन धन संतन को सरबस, सार अंस सम्मत सबही की।‘      

मानस है और इसकी भारतीय ज्ञान परंपरा के सार सर्वस्व के रूप में आरती की जाना सर्वथा ही योग्य है ।

प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक