निर्वचन अगस्त 23
गीता-प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी महोत्सव
7 जुलाई 2023 को भारत के प्रधान मंत्री श्री
नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस गोरखपुर में सम्पन्न गीता प्रेस की स्थापना के शताब्दी
समारोह में उपस्थित हो संस्थान को करोड़ों भारतीयों के अन्त:स्थ मंदिर की संज्ञा
प्रदान की । ठीक इसी भाव भूमिका में मानस भवन के श्री रामकिंकर सभागार
में तुलसी मानस प्रतिष्ठान, हिन्दी भवन और सप्रे संग्रहालय भोपाल के समन्वित
प्रकल्प में एक दिन पूर्व 6 जुलाई को मध्य प्रदेश की प्रतिनिधि संस्थाओं की ओर से गीताप्रेस
की पुस्तक प्रदर्शिनी सहित भगवत्प्राप्त
भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जयदयाल जी गोयंदका को पुष्पांजलि अर्पित की गई ।
इस अवसर पर विचारक मनीषियों ने व्यक्त किया गया कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी ने मध्य
काल में लोकरक्षण का कार्य किया ठीक उसी प्रकार गीता प्रेस गोरखपुर ने वर्तमान काल
में सनातन धर्म को अभिनव पहचान प्रदान कर भारत के विस्मृतप्राय अध्यात्म, दर्शन,
साहित्य और इतिहास के प्रलुप्त गौरव को नई पीढ़ी के सुपुर्द किया है।
प्रकारांतर से इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा गीताप्रेस
को प्रदत्त प्रतिष्ठित गांधी-सम्मान को लेकर उठाए गए प्रश्न पर भी वक्ताओं ने
स्पष्ट रूप से ‘कल्याण’ पत्रिका तथा इसके संस्थापक संपादक श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार पर गांधी जी के प्रभाव और इनके संबंध की आंतरिकता पर भी
प्रकाश डाला । एक अर्थ में श्री पोद्दार जी गांधी जी की उस वैष्णवता का ही विस्तार
थे जिसमें स्वभावजन्य उदारता, परमार्थ, राष्ट्रप्रेम, सर्वजन हित और विश्व मानवता
की प्रतिष्ठा होती है । यदि किसी की दृष्टि में अक्षय मुकुल द्वारा गीता प्रेस पर लिखी
‘मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ पुस्तक की राहु छाया पडी है तो वह एकांगी और पूर्वाग्रह
ग्रसित ही है।
‘तुलसी मानस भारती’ ने गांधी जन्म शताब्दी के अवसर पर
अपने अंक अक्टोबर 2020 में ‘श्वास श्वास में राम’, वार्षिकांक जनवरी 2023 में
‘गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष’ शीर्षक से संपादकीय और जून 23 के
अंक में बालकृष्ण कुमावत के आलेख ‘ दैवी संपदा की प्रतिमूर्ति भाईजी श्री हनुमान
प्रसाद पोद्दार’ प्रकाशित किए हैं । हमारी आगामी वार्षिकांक की योजना भी गीता
प्रेस गोरखपुर के अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, भाषा और भारतीय लोक जीवन पर पड़े अमिट
प्रभाव के समाकलन विषयक है । क्या यह एक विडंबना नहीं है कि जहां अध्यात्म और
संस्कृति के क्षेत्र में गीताप्रेस के अभिदाय की अपरिहार्यता स्वीकार की जाती है,
संस्कृत, हिन्दी, देश की अन्य भाषाओं तथा हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में इस
संस्थान के योग को प्रायः बिसार दिया जाता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भारतीयता के जड़-मूल में पैठी इस संस्था को वह स्थान
प्रदान नहीं किया गया जिसकी वह संपूर्ण अधिकारिणी है ।
जिस संस्थान की गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद,
स्तोत्र, पूजा विधि, भाष्य, विशेषांक और कल्याण पत्रिका की शास्त्र सम्मतता के
प्रति चारों प्रधान शंकराचार्य पीठ, काशी अयोध्या, वृंदावन, उज्जैन आदि के साधु-मनीषी
और विद्वत समाज एकमतेन पूरी तरह आश्वस्त हों उसके परम प्रमाण पर संदेह जैसी स्थिति
क्योंकर उत्पन्न हुई ? भारतीय ज्ञान परंपरा जहां वेद को ‘शब्द प्रमाण’ की सत्ता प्राप्त
है, वहाँ गीता प्रेस के इतने कुशल, श्रम साध्य और पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की संपूर्णता का
सामान हो उसे किसी भी प्रकार से विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए ।
आइए, हम भारतीय मेधा के महर्षियों की श्रुति, स्मृति,
संहिता, आख्यान और आचार विज्ञान को शब्दाकार देने वाले विश्व के सर्वाधिक उपकारी गीताप्रेस
और उसके संस्थापकों को अपनी आदरांजलि प्रदान कर ऐसी धन्यता की प्रतीति करें जो
परमार्थ का बोध कराती है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक (9425079072)