Monday 7 November 2022

अक्षरं ब्रह्म परमं

                   अक्षरं ब्रह्म परमम्

 

-    प्रभुदयाल मिश्र

 

गीता के आठवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने श्री कृष्ण से सीधा प्रश्न किया- किं तद् ब्रह्म- वह ब्रह्म क्या है ? इसका मूल संदर्भ अध्याय 7 के अनंतिम श्लोक 29 में है जहां श्री कृष्ण ने कहा था कि जो लोग उनके आश्रित होकर चेष्टा करते हैं वे उस ‘ब्रह्म’ को जानते हैं- ते ब्रह्म तद्विदु:। इस प्रश्न का बहुत सीधा और संक्षिप्त उत्तर श्री कृष्ण यह देते हैं-

‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ (गीता 8/3)

परम अक्षर ब्रह्म है । यह प्रश्न उठता है कि यह ‘परम’ विशेषण अक्षर का है कि ब्रह्म का ? तो यह दोनों में ही प्रयोक्तव्य है क्योंकि अक्षर और ब्रह्म भी तदरूप ही हैं। अक्षर के साथ प्रयुक्त करने पर इसका आशय है – परम अक्षर का नाम ब्रह्म है । और ब्रह्म के साथ प्रयोग कर कह सकते हैं- अक्षर ही परम ब्रह्म है ।

यहाँ यह प्रश्न भी उठेगा कि अव्यक्त ब्रह्म के लिए इन विशेषणों की क्या आवश्यकता है तो इसके लिए गीता में ब्रह्म की आवृत्ति जिस-जिस अर्थ में हुई है उस पर भी एक दृष्टि डाल ली जानी चाहिए । सबसे पहले गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक 15 में ब्रह्म शब्द इस प्रकार तीन बार आया है-

कर्म ब्रहमोद्भव विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।

अर्थात कर्म समुदाय वेद (ब्रह्म) से और वेद को अक्षर ब्रह्म से प्रकट जानो । इससे यही सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है ।

इसके अतिरिक्त गीता में व्यवहृत ब्रह्म के अन्यत्र आशय इस प्रकार स्पष्ट होते है-

 (गीता/अध्याय)                  श्लोक               आशय

  3                            15                  वेद

  4                            32                  वेद

  8                            3,24               परमात्मा

  8                            17                 ब्रह्मा

  11                           37                 ब्रह्मा 

  14                           3, 4               प्रकृति

  17                           24                 वेद

  18                           42                 ब्राह्मण

  ‘अक्षर ब्रह्म’ की इस विवृत्ति के साथ यहाँ यह भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि सर्वथा उपाधि रहित अव्यक्त ब्रह्म को कुछ विशेषणों से संपृक्त कर हम क्यों समझना चाहते हैं? ज्ञानेश्वर महाराज तो ब्रह्म की ‘सत् चित् और आनंद विभूतियों को भी बड़ा आक्षेपात्मक मानते हैं और कहते हैं कि इस तरह जैसे हम उसे असत्, अचित् और निरानंद से ऊपर उठाकर यह सिद्ध करना चाहते हैं मानो इन तत्वों की अवस्थिति परमात्मा से पृथक कोई अतिविशेष भी हो सकती है! ऋग्वेद (10/129) के नासदीय सूक्त में ‘नासदासीन्नो सदासीत्’    (तब नहीं असत् अथवा सत्) तो यही उद्घोष हुआ है कि सत् और असत् परमात्मा की सृष्टि संरचना की ही समवर्ती अनंतर धाराएं ही हैं ।

किन्तु यह स्पष्ट है कि हम ज्ञात से ही अज्ञात, कार्य से ही कारण का अनुसंधान कर सकते हैं, भले ही हमारी यह चेष्टा सर्वथा अविज्ञेय उस अनादि और अनंत ‘अक्षर ब्रह्म’ को जानने की हो जो हमारे सभी विज्ञात धर्मों का ‘विरुद्धाश्रयी’ ही क्यों न हो । वेदान्त के परम प्रकर्ष सिद्धांत ग्रंथ ‘पंचदशी’ में विद्यायरण्य स्वामी कहते हैं –

एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्

सृष्टे: पुराधुनाsप्यस्य तादृक्त्वं तदितीर्यते (15/5)

अर्थात् सभी धर्मों (नाम और रूप) के परे परम ब्रह्म सृष्टि के आदि में अवस्थित था । सृष्टि के अनंतर भी वह अपरिवर्तित है। इसका ‘तत्’ पद (तत् त्वमसि) के रूप में शोधन किया जाता है । भगवत्पाद आदिशंकर अपने परम प्रमाण सिद्धांत दर्शन ‘विवेक चूडामणि’ (237) में इस परम तत्व की अवधारणा इस प्रकार करते हैं –

अत: परं ब्रह्म सदाद्वितीयं  विशुद्ध विज्ञानघनं निरंजनम्

प्रशांतमाद्यंतविहीनमक्रियं निरंतरानंदरस्वरूपम् । (237)

-इस प्रकार विशुद्ध चेतन- प्रकाश, प्रशांत, आदि और अंत रहित, निश्चेष्ट, सदा आनंद रस-रूप परम ब्रह्म सर्वदा अद्वितीय ही है ।

ब्रह्म के ‘परम’ युक्त सामासिक परंब्रह्म की तरह ही अक्षर ब्रह्म के समास योग की सार्थकता पर भी किंचित विचार उचित प्रतीत होता है । यद्यपि अक्षर एक प्रकार से परम का अर्थ पर्याय ही प्रतिध्वनित करता है किन्तु इसकी वर्णमाला संगत भाषा और ध्वनि की वैज्ञानिकता भी अर्थ संश्लिष्ट हो जाती है । मैं इस सुविधा के लिए विकी पीड़िया से साभार निम्न उद्धरण गृहण कर रहा हूँ –

अक्षर शब्द का अर्थ है - 'जो न घट सके, न नष्ट हो सके'। इसका प्रयोग पहले 'वाणी' या 'वाक्‌' एवं शब्दांश के लिए होता था। 'वर्ण' के लिए भी अक्षर का प्रयोग किया जाता रहा है। यही कारण है कि लिपि संकेतों द्वारा व्यक्त वर्णों के लिए भी आज 'अक्षर' शब्द का प्रयोग सामान्य जन करते हैं। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन ने अक्षर को अंग्रेजी 'सिलेबल' का अर्थ प्रदान कर दिया है, जिसमें स्वर, स्वर तथा व्यंजन, अनुस्वार सहित स्वर या व्यंजन ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। 

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वररत्‌ (वोक्वॉयड) व्यंजन होता है। व्यंजन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अस्तु, अक्षर में स्वर ही मेरुदंड है। अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वररत्‌ व्यंजन के अक्षर का निर्माण ही संभव है। उच्चारण में यदि व्यंजन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह। यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यंजन अशक्त राजा। इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किंतु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।‘

गीता के दशम अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण अपने आपको ‘अक्षरणामकारोsस्मि’ (10/33) बताते हैं । स्पष्ट है कि स्वर ‘अ’ वर्णमाला की प्रथम और सर्वाधिक निश्चेष्ट उच्चारण योग्य ध्वनि है । ‘अ’कार से रहित व्यंजन भी उच्चारण योग्य नहीं रहता ।  इसके उच्चारण के लिए, ओष्ठ, दंत्य, जिह्वा या कंठ्य किसी की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यह केवल मुख से वायु के निष्करण मात्र से संभव है जिसे मूक व्यक्ति और पशुवर्ग भी उच्चारित करता है । इससे इसकी सार्वभौमिकता सिद्ध है । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है – ‘अकारो वै सर्वा वाक्’ अर्थात समस्त वाणी अकार है ।

नाद और बिन्दु के शैव-शाक्त तंत्र में तो सबकुछ अर्धनारीश्वर लीला-लास्य ही है जैसाकि पश्चात महामाहेश्वर आचार्य अभिनव गुप्त की स्तुति ‘ तव च का किल न स्तुतिरम्बिके सकल शब्दमयी किल ते तनु:’, आर्थर अवलोन के ‘सरपेंट आफ लेटर्स’ अथवा कुमार स्वामी की ‘डाँस आफ शिवा’ से प्रतिपादित हुआ है, अत: अक्षर को ब्रह्म के विशेषण के स्थान पर विशेष्य मानना ही सर्वथा उचित है ।

ब्राहदारण्यक उपनिषद में राजर्षि जनक की ज्ञान सभा में याज्ञवल्क्य और गार्गी के ब्रह्मज्ञान विषयक शास्त्रार्थ के अंतिम चरण के इस संवाद को मैं अपने औपनिषदिक उपन्यास ‘मैत्रेयी’ से निम्नवत उद्धृत करता हूँ –

“गार्गी, जो द्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे और जो दयुलोक और पृथ्वी के मध्य में है और स्वयं भी जो दयुलोक और पृथिवी है तथा जिन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान कहते हैं, वे सब आकाश में ओतप्रोत हैं’

‘आपको मेरा नमस्कार है। अब मैं दूसरा और अंतिम प्रश्न आपसे यह पूछती हूँ कि यह आकाश अंतत: किसमें ओत-प्रोत है?’

‘ गार्गी! इस तत्व को ही ब्रह्मवेत्ता अक्षर कहते हैं । वह न मोटा है, न पतला है; न छोटा है, न बड़ा है; न द्रव है न छाया है; वह नभ, वायु, आकाश, रस, गंध, नेत्र, कान, वाणी, मन, तेज, प्राण, मुख आदि कुछ भी नहीं है । वह न तो भीतर है और न ही बाहर है। गार्गी, इस अक्षर के प्रशासन में सूर्य, चंद्रमा, दिन-रात, ऋतु, संवत्सर स्थित हैं । गार्गी, जो कोई इस अक्षर को जाने बिना मरता है, वह अत्यंत दयनीय है । और जो इसे जानकार मारता है, वही ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण है । यह अक्षर दृष्टि का विषय नहीं, किन्तु द्रष्टा है; श्रवण का विषय नहीं, किन्तु श्रोता है; मनन का विषय नहीं, किन्तु मन्ता है; यह स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरों का विज्ञान है । हे गार्गी ! निश्चय ही इस अक्षर में आकाश ओत-प्रोत है ।“

इस तरह जैसे लोक से लोकोत्तर और द्वैत से अद्वैत के निर्विशेष परमतत्त्व की प्रत्यभिज्ञा के लिए ही महत्पुरुष ‘अक्षर’ का उन्मेष करते हैं । अब प्रश्न है कि तब विसर्जनीय ‘क्षर’ क्या है ?

गीता के आठवें अध्याय (श्लोक 4) में श्री कृष्ण ‘अधिभूत’ को क्षर भाव बताते हैं । उनके अनुसार अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न विनाशशील क्षयी तत्त्व का नाम ‘क्षर’ है । तेरहवें अध्याय (श्लोक 1) में इसी को वे ‘क्षेत्र’ तथा सातवें अध्याय (श्लोक 5) में ‘अपरा प्रकृति’ और नवें अध्याय (श्लोक 19) में ‘असत्’ बताते है ।

गीता के बारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन भगवान की उपासना की पद्धति की निष्पत्ति का प्रश्न जो करते हैं उसमें निराकार साधन को वे ‘अक्षर अव्यक्त’ की साधना कहते हैं –

‘ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तम:’ (गीता 12/1)

अर्थात् भक्त और निर्गुणोपाषकों में उत्तम कौन है ?

इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि सम्पूर्ण समर्पण भाव से उनकी उपासना करने वाले उत्तम हैं किन्तु ‘अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त’ के उपासक भी उन्हें ही प्राप्त करते हैं परन्तु उन्हें सभी के हित की कामना करने वाले समत्व बुद्धि से युक्त होना चाहिए । दूसरे शब्दों में इसका आशय यही है कि भक्त के लिए जहां भगवान ही ‘सब कुछ’ है वहीं ज्ञानी के लिए ‘सब कुछ में भगवान’ ही है बोध होना चाहिए। इस प्रकार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ के समन्वय का सूत्र ही जैसे भगवान ने यहाँ प्रदान कर दिया है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में ज्ञान के दीपक और भक्ति की मणि के रूपक के विस्तार द्वारा लगभग ऐसा ही समन्वय सूत्र प्रदान कर अंतत: कहते हैं

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भांति कोउ करै उपाई

तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई'

                             (रामचरित मानस उत्तर 119/ 5-6) 

निर्गुण-सगुण की साधना का यह समन्वय ज्ञान और भक्ति उपासना ही नहीं दर्शन की द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत, द्वैताद्वैत, शैव और शाक्त पद्धतियों में भी विधेय है । किन्तु अध्यात्म विषयक इस भ्रांति का निवारण भी आवश्यक है कि जीव और ब्रह्म के एकत्व के परम प्रमाण महावाक्य-  (अहं ब्रह्मास्मि- बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद), तत्त्वमसि - ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ), अयम् आत्मा ब्रह्म - ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद ), प्रज्ञानं ब्रह्म - ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद), सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) यह प्रतिपादित करते हैं कि ब्रह्म से ऐक्य का यह उद्घोष जहां सार्वभौम है वहीं वह यह स्थापना नहीं करता कि इस बुद्धत्व को प्राप्त कर कोई सांसारिक व्यवहार की जीवन स्थितियों से पृथक हो जाता है  कभी कोई विज्ञान, भ्रम या सिद्धि से यदि कोई चमत्कार भी प्रदर्शित करता है तो उसे अध्यात्म नहीं कहा जा सकता । शुद्ध अध्यात्म पारमार्थिक बोध के साथ व्यवहारिक निर्वाह की उस अवस्था का द्योतक है जहां एक सामान्य व्यक्ति जिस प्रकार मृग मरीचिका, नीले आकाश और दर्पण के प्रतिबिंब को देखते हुए भी इनके मिथ्यात्व को स्वीकार करता है ठीक वैसे ही संसार के सभी नाम और रूपों को व्यवहार के बाद भी उनके मिथ्या होने की प्रतीति रखता है । अध्यात्म की यह यात्रा - रूपात्मक संसार ही नहीं इसकी अनुभोक्ता देह के स्वत्व को अस्वीकार कर जीव की स्वतंत्र सत्ता का भी परिहार कर देती है । जब श्री कृष्ण गीता के तेरहवें अध्याय में क्षेत्रज्ञ की परिभाषा प्रदान करते हैं तो उनका स्पष्ट यही कथन है कि सभी क्षेत्रों (शरीर) के क्षेत्रज्ञ एकमात्र वही हैं –

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम् । (13/2)

यह कुछ वैसा ही जैसे विद्युत प्रवाह के टुकड़े अलग-अलग यंत्रों,पंखा, वाल्व, फ्रीजर के लिए स्वतंत्र सत्तात्मक इकाई नहीं बनते अथवा मुट्ठी या किसी भवन का सीमित आकाश, परम आकाश का स्वतंत्र भाग नहीं बन जाता, वैसे ही जीव परमात्मा से पृथक कोई स्वतंत्र सत्तात्मक इकाई नहीं है । जीव और ब्रह्म का भेद हमारे मन और बुद्धि का ही विभ्रम है । इनकी सत्तात्मक अवस्थिति का भाव अद्वैत चैतन्य की समग्रता से द्वैत के संसार में स्थित हो जाना मात्र है । इस प्रकार संसार में सभी कुछ मात्र आभासात्मक है, यथार्थ नहीं ।  

प्रसंगत: यहाँ वर्ष 2022 के भौतिक शास्त्र के नोबेल सम्मान विभूषित तीन वैज्ञानिकों अलैन आस्पेक्ट (फ्रांस),  जॉन एफ क्लाजेर (यू एस) और ऐन्टिन जेलिंजर (आस्ट्रिया) की इस शोध का उल्लेख उचित प्रतीत होता है जिसने आइंस्टीन के क्वांटम मकैनिक्स के सिद्धांत में परिवर्तन कर यह प्रतिपादित किया है कि क्वेन्टम स्टेट एक पारटिकिल से दूर के पारटीकिल में स्थान्तारित हो जाती है । इस प्रकार उन्होंने ‘लोकल रियलिटी’ की सत्तात्मक इकाई को अस्वीकार किया है जो कि एक पदार्थ की वस्तुनिष्ठ भौतिक सत्ता को स्पष्ट चुनौती देती है ।    

अक्षर ब्रह्म के अनुयायियों को अब अंत में श्री कृष्ण की एक चेतावनी मात्र के प्रति सजग करना अभीष्ट रह जाता है जो इस प्रकार है –

क्लेशोsधिकतरसतेषामव्यासक्तचेतसाम

अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते । (गीता 12/5)

-आसक्त चित्त व्यक्ति को ‘अक्षर’ ब्रह्म की साधना में विशेष परिश्रम आवश्यक है क्योंकि देहाभिमानी द्वारा अव्यक्त की प्राप्ति कष्ट पूर्वक ही संभव है ।

अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल, 462016 (9425079072)