ओ़़ ़़़़री
ओ ़़़़री
मां ़़़़
कहां, कहां नहीं गया
पर रहा कहा अनकहा
अनकहा कहा यदि कभी कुछ
स्मरण सब समय तेरा रहा
अभिव्यक्ति के आंचल गहा एक छोर
छरहरा, हरा !
मुंह अंधेरी भोर छुट्टियों की
आम, महुआ, जामुन, अचार, तेंदू
अथवा इमली की
पेड़ों पर जब लग जाती थी दूकान
तो उसका मूल्य तुम दे देती थी एक टोकनी बड़ी
भरा होता जिसमें उन्मुक्त आकाश
धरती इस तरह लौटने पर होती एकदम ही पास
और दूध में मीडी रोटी में
भर आती थी कुछ अलग ही मिठास !
इस कविता की शुरूआत यहां है
अथवा पुरानी किताबों / कागजों के उन बण्डलों में जहां
पाप-पुण्य, सुख- दुख, वेद-अायुर्वेद के हस्त लिखित वृत्त
एक अंतहीन दुनियां रच जाते थे
और उसकी डोर होती थी तुम्हारे हाथ
मेरे अस्तित्व को उकेरती सायाश !
और एक दिन आ ही पहुंचा कविता का वह पल
जिसे तुमने दीवाली के दिये में तेल की धार से उकेरा
घर के घुप्प अंधेरे कमरे तक
कोसों दूर से लाई पोतनी ने जिसे पखारा था महीनों पहले
निर्जला एकादशी और रात भर जगी तीज ने
जब सुबह के जगने के पहले ही नहा कर
भोग लगा दिया भगवान को
अथवा ठिठुरती रात में डुबकी लेकर
हाथी - घोड़े की पालकी मीठी चट करली
संक्रान्ति वेला मैंने !
याद करने से क्या कभी लौट सकता है वह पल
जिसे संभाल न सका कोई कल
अविकल आराधना सदी आधी
और संवल केवल हो उसांस भरता एक विश्वास
निकट ही कराहता उच्छ्वास
भूमिशाायी चिदविलास
कला कौतूहल विस्मित काल में!
अपूर्ण ही रहनी है यह कविता इस तरह
लौटा कब पाया कोई
तर्पण का जल किसी विछुडे़ पूर्वज को
मैं भी अब कहां पढ़ सकता हूं वह अमृत-संदेश
कटोरे में बार बार जिसे तुमने भरा
कठिन वक्त में साथ चलता
धूप, शीत, ठिठुरन में
आवरण एक
कवच तुम्हारा प्रेम का
श्रद्धा सना एक अधूरी कविता सा!
प्रभुदयाल मिश्र
१८ मई २०१३