Wednesday 2 December 2015

'क्या कहूँ आज जो ....'

                   क्या कहूं आज जो नहीं कही

                                        प्रभुदयाल मिश्र

      यह एक अतिरंजना ही होगी यदि मैं शीर्षक के पूर्वार्ध की काव्य पंक्ति-‘दुख ही जीवन की कथा रही ’ से यह आत्मकथ्य आरम्भ करता हूं । वैसे अपने आप को खास, अलग और महत्वपूर्ण सिद्ध करने का यह जरिया सर्व स्वीकृत है-विशेषकर रचना क्षेत्र में क्योंकि उसकी क्षमता इस निज को पर में ढाल चुकने का माद्दा रखती है -( कम से कम उसका दावा तो ऐसा होता ही है !) पर मुझे लगता है कि यह भी एक प्रकार का अतिक्रमण ही है-दूसरे की आजादी का । चूंकि दूसरों को अपने दुख से दबाने की कोशिश मात्र ही एक अन्याय, अत्याचार और नाफरमानी है, अस्तु! परन्तु....

    कहने और सुनाते रहने के लिए हम क्या-क्या रास्ते नहीं खोजते रहते हैं। क्या यह हमारा आत्मालाप ही नहीं है, प्रायः? पर अपने आपसे बतियाते रहने से कौन किसको रोक सकता है? इसमें दूसरे की आपत्ति का प्रश्न ही कहां उठता है?

   किन्तु शायद अपने आपको समझने और समझते रहने का हमारे पास इससे अच्छा कोई उपाय ही नहीं होता । आखिर धारणा, ध्यान अथवा समाधि क्या है? ये साधन हमें अपने आप ही के तो निकट पहुचाते हैं । यहां तक कि क्रिया, प्रेम और भक्ति भी आपने समर्पण की पूर्णता में अपनी फैली पहचान तक ही पहुंचाती है ।

   और ऐसे में यदि कोई अन्य आप बीती अथवा आगे पड़ती स्वयं की छाया को देखकर कुछ आनन्द ले सकता है तब तो यह रचनाकार की सिद्धि ही हो गई । सब दूर जो इतना छूटता जा रहा ह,ै समेटने स,े और जो एकदम आदमी के निकट है, उसे सहेजकर उसके हाथ में रख देने का संतोष भी कोई कम तो नहीं ही है ।

   मैं क्या कहूं अपने आपको-कवि, साहित्यकार, लेखक, विचारक अथवा कुछ और ? यह द्विविधा मेरे नाम जैसी ही है । एक सनातनी भक्त मेरी मां ने मेरा नाम रखा ‘प्रभ’ु । स्कूल में दर्ज होने पर यह हो गया ‘प्रभुदयाल मिश्र’। कालेज में आकर यह हो गया ‘मिश्रा प्रभुदयाल’ । सरकारी नौकरी में इसे गति देते हुए बना दिया गया-पी डी मिश्रा । यह निगुणीर्, निराकार नाम उच्चारण और प्रवाह की दृष्टि से करीब चालीस वर्ष तक बखूबी चला । बीच बीच में इसे कला और रचनाधर्मिता से जोड़ने के बाहर और भीतर के आग्रहों को दर किनार करते हुए मैंने जैसे ये दो छोर उनकी अपनी ही जोर आजमायश के लिए छोड़ रखे है । इतना जरूर हुआ कि आयातित नाम-पी डी मिश्रा मेरी अंग्रेजी रचनाओं से जुड़ गया । हिन्दी लेखन में अपने आपको और अधिक गुमशुदी में न डाल देने की चेष्टा में अब प्रभुदयाल मिश्र ही शेष हूं ।

   यही परेशानी जन्म तिथि के बारे में भी चल रही है । प्राईमरी कक्षा में मास्टर साहब ने अपने पूर्वानुमान से दो वर्ष आगे की तिथि दर्ज करली । मिडिल स्कूल में एक शुभ चिंतक ने इसे डेढ़ वर्ष पीछे एक मार्च 1948 कर दिया । ज्योतिष में भविष्य दर्शन के लिए जब 16 अक्तुबर 1946 की जन्मकुण्डली देखने की स्थिति आई तो देर हो चुकी थी । मित्रवर श्री कमलकान्त जी ने इसका एक हल निकाला है । उनका कहना है कि हम पैदा कभी भी हुए हों, हमारा वास्तविक जन्म तो हमारी लोक स्वीकृत पहचान ही सिद्ध करती है । ज्योतिष शास्त्र में भी प्रश्न कुण्डली और वर्ष कुण्डली बनती है । अतः उन्होंने सरकार की तरह 1 मार्च को ही मान्यता दी है । अब मैं अपने जन्म की तरह इस बेबशी को नकार भी कैसे सकता हूं !

   फेसबुक में यही तिथि दर्ज चल रही थी । बहुत से मित्रों ने इस पर जब बधाई देना भी शुरू कर दिया तो मैंने अपना धन्यबाद देते हुए एक समाधान गीता के इस श्लोक का उल्लेखा करते हुए प्राप्त किया-

   अजोपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्

   प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया । गीता 4 । 6

अर्थात् एक अर्थ में हम सभी अजन्मा ही हैं इसलिए पैदा होने की तिथि एक तात्कालिक सुविधा से अधिक और कुछ नहीं है। और यदि हमने कोई तिथि या तारीख निकाल या मान भी रखी है तब भी हमारी सनातन पहचान तो अप्रभावित ही रहेगी । अस्तु !

   अपने बहनोई श्री रामदेव जी मिश्र की कवितायें सुन-सुन कर लिखना मैंने 14 वर्ष की ही उम्र में शुरू कर दिया । उस समय अपने गांव पर लिखी एक लम्बी कविता की ये पंक्तियां मुझे अभी भी याद हैं-

      किन्तु बड़ी थी पुण्यमयी तू पुहुमि धन्य, गौरवशाली

      पाकर तुझ श्रेष्ठ अवनि तल को यह हुआ ग्राम समृद्धिशाली !

   ओरछा राज्य के कवि केशव और चालीस के दशक के कुण्डेश्वर से प्रकाशित ‘मधुकर’ की विरासत का जरूर कृछ असर होगा कि बी ए प्रथम की परीक्षा देकर मैंने ‘शिवप्रिया’ और बी ए अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर गर्मियों की छुट्टी में ‘समर्पण’ खण्डकाव्य लिखा । सागर विश्वविद्यालय पहुंचकर ऐसा लगा कि हिन्दी तो जैसे आ ही गई और शेष री आ भी जायेगी, किन्तु अंग्रेजी पढ़ लेना ज्यादा उपयोगी रहेगा । इसे जैसे मैं आज भी नकार न सकूंगा । और छूटा हुआ अतीत तो रह रह कर आता ही रहता है, अतः अब पछतावा भी किस बात का ?

   किन्तु क्या मैं कवि शेष रह सका? कविता के क्षेत्र में प्रकाशित कृतियां तो मुख्यतः काव्याानुवाद ही हैं-‘सौन्दर्य लहरी’ और ‘वेद की कविता’। आगे स्वतंत्र ‘वैदिक कविताओं’ के प्रकाशन का कब समय आयेगा, कौन जानता है!

   60-70 के दशक में प्रकाशित/अप्रकाशित कहानियों का संग्रह आ सकता था किन्तु तब प्रकाशक कहां होते थे! आखिर 96 में आत्मकथात्मक ‘उत्तर-पथ’ और 2001 में औपनिषिदिक उपन्यास ‘मैत्रेयी’ आया तो गद्य लेखन में जैसे प्रवृत्ति ही हो गई । योग और अध्यात्म का एक साहित्य पक्ष भी हो सकता है, यह मेरे मन में कहीं गहरे पैठा था । गीता और वेद के सम्बंध में अंग्रेजी और हिन्दी की दो-दो किताबें संभवतः इस धारणा की ही परिणति हैं ।

   ‘तंत्र दृष्टि और सौन्दर्य सृष्टि’ (विश्व विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 2007) की भूमिका में मैंने लिखा है-‘ कभी-कभी कविता कर्म को साधना का पर्याय भी माना जा सकता है । ऐसे में उसकी अनुष्ठानात्मक शक्ति बेजोड़ हो जाती है । जब कोई कविता शुद्ध साधनात्मक ही तो वह न केवल साहित्यकार, अपितु उसके पाठक और रस स्रोताओ की जीवन दृष्टि बदल सकती है ।’

    कविता यदि मनोमय कोष का उद्घाटन है तो बुद्धि निश्चित ही उसके परे है। क्या ज्ञानमय और विज्ञानमय कोष में पहुंचकर कविता छूट नहीं जायेगी, यह प्रश्न मेरे मन में बना रहा है । फिर आनन्दमय कोष की तो बात ही कहां उठती है! किन्तु इसमें दो मत नहीं हो सकते कि संसार का श्रेष्ठतम लेखन और संदेश कविता के माध्यम से ही युग युगों से लोक-लोकान्तर में प्रसरित हुआ है । वेदांे के मन्त्र द्रष्टा ऋषि, वेद व्यास और तुलसी आदि को कोई मनोमय कोष का यात्री कैसे कह सकता है!

   अर्थात् कवि अपनी सामर्थ्य के बूते सात लोक और सातों समन्दर पार कर सकता है, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। और कहीं यदि संदेह है तो वह निश्चित ही कवि की क्षमता का होगा, कविता का नहीं ।

    कविता के उपासकों के लिए भी संभवतः योग साधकों की भंाति श्री कृष्ण का यह आश्वासन लागू हो सकता है-

     पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते

     न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति

                               गीता 6-40

    शर्त केवल ठीक पैमानेे की ही है । कविता के (यज्ञ ) लोक-कल्याण के पक्ष को अनदेखा न करने की है । ऐसे कवि और कविता के संबंध में ही वेद स्पष्ट घोषणा करता है-

     प्राप्त करते प्राप्य वे वक्ता प्रखर

     यज्ञ से गौरव गिरा

     जे निहित सप्तर्षि स्वर में

     मन्त्र, लय विस्तार वाली

     देश-देशान्तर गई

     वह ऋचा, कविता

     छन्दमय रचना ।

                      ( वेद की कविता/वि.वि.प्र./58)

                       35, ईडन गार्डन, राजाभोज (कोलार मार्ग) भोपाल 462016