निर्वचन मई 2022
स्वागतेय सांस्कृतिक अनुष्ठान
नव विक्रम संवत् 2079
के नवोन्मेष पर मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग के सौजन्य से महाराजा विक्रमादित्य
शोध पीठ और स्वराज संस्थान संचालनालय, मध्य प्रदेश भोपाल ने श्री राम तिवारी के
सम्पादन तथा पं चन्दन श्याम नारायण व्यास और राजेश्वर त्रिवेदी के सहयोग से 40
पृष्ठीय जिस विक्रम पंचांग का प्रकाशन किया है वह भारत-राष्ट्र के गौरव की उस महान् विरासत का अवलेख है जिसका हमारी वर्तमान शिक्षा, संस्कृति और
संदेश के रूप में अध्ययन और अध्यवसाय देश के प्रत्येक नागरिक का प्रथम कर्तव्य
होना चाहिए । ईशवी सन् से 57 वर्ष
पहले उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य ने शकों पर विजय के पश्चात् चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से आरंभ वर्ष ‘भारत के आत्म
गौरव तथा भारतीय अस्मिता का बोधक प्रतीक’ है । जिस महादानी, संस्कृति, विज्ञान और
अध्यात्म के पुरोधा की राज्य सभा में महाकवि कालिदास, वराहमिहिर, वेताल भट्ट, अमरसिंह, घटखर्पर, धन्वंतरि, वररुचि, शंकु, क्षपणक आदि नवरत्न उपस्थित हों उसका दिक्काल
दर्शन कितना बहुआयामी होगा, उसकी
आज तो कल्पना भी की जाना कठिन है ।
इस पंचांग की पृष्ठ सामग्री में वेद और विज्ञान
के त्रिकाल द्रष्टा ऋषि वामदेव, अंगिरा, अगस्त्य, भारद्वाज; भेषज धन्वन्तरि, सुश्रुत, चरक; वेदांग दर्शन
और विज्ञानविद् कणाद, बौधायन, लगध; राजनीति
शास्त्री चाणक्य; गणितज्ञ खगोल
शास्त्री वाराहमिहिर,
वररुचि; रसायन
शास्त्री व्याडि;
ज्योतिर्विद भास्कराचार्य और भोगवादी दर्शन के प्रणेता चार्वाक आदि
के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है साथ ही यह भी बताया गया है कि हम किस
प्रकार पश्चिम के पिछलग्गू बन उनके अधकचरे ज्ञान को बटोरकर अब तक वर्तमान के
अंधेरे में इठलाते रहे हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी ने संभवत:
उन्हीं के संबंध में यह सटीक टिप्पणी की है –
काँच किरिच बदले ते लेहीं । कर ते डारि परस मनि देहीं
। (उत्तरकाण्ड 120/12)
विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के मण्डल 1 के
दीर्घतमा ऋषि द्वारा संदृष्ट 164 वें सृष्टि सूक्त के मंत्र 11 में इस प्रकार 12
महीनों और 360 दिन तथा 360 रातों के संवत्सर की रोचक अवस्थिति अनुकल्पित की गई है –
द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वेति चक्रं परि द्यामृतस्य
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विश्तिश्च
तस्थु: ।
अर्थात सूर्य का बारह अरों (महीनों) वाला चक्र पृथिवी
के चारों ओर घूमता है और वह कभी भी जीर्ण नहीं होता । हे अग्ने! सात सौ बीस जोड़े
पुत्र (360 दिन और 360 रातें) हमेशा रहते हैं ।
इस प्रकार यहाँ सूर्य, पृथिवी और
भारतीय चांद्र पंचांग की अवधारणा की वेद मूलकता स्पष्टत: प्रतिपादित हुई है ।
इसी प्रकार अथर्ववेद कांड 10 के स्कंभ (विश्वरूप ज्योतिर्लिंग)
नाम के सातवें सूक्त की ऋचा 6 में भी अद्भुद् मंत्र सृष्टि की गई है-
क्व प्रेप्सन्ती युवती विरूपे अहोरात्रे द्रवत:
संविदाने
अहा ! ये दो श्याम (रात) और धवल (दिन) युवतियाँ किस
दिशा में भागी जा रही हैं !
वास्तव में अतीव वेगवान निर्वन्ध काल को लौकिक संगणना
की सीमाओं में बांधने का काम तो अपौरुषेय महाकाल की ही सामर्थ्य हो सकती है । अत:
यदि महाकाल की अवन्तिका के महाराज विक्रमादित्य ने उनकी कृपा से यह सामर्थ्य
प्राप्त की तो इसका समादर करना भारतीय प्रज्ञा का धर्म कर्तव्य ही है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक