Wednesday 23 September 2020

निर्वचन-मानस भारती /समपादकीय

 निर्वचन (माह जून 2020)


      कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेत् शतं सम:.... 


पुण्यश्लोक श्री नन्नूलाल जी खंडेलवाल को लेकर मुझे ईशावाश्योपनिषद् का यह महावाक्य सदा याद आता रहा । मेरी इस अभीप्सा में तुलसी मानस प्रतिष्ठान में देश विदेश के पधारे मूर्धन्य भक्त और विद्वान तथा रामभद्र के चरणों में प्रीति रखने वाले ‘तुलसी मानस भारती’ परिवार के हजारों श्रद्धा सम्पन्न महानुभाव भी सदा सम्मिलित रहे । हमारा यह विश्वास इस तथ्य से भी प्राय: पुष्ट ही रहा कि वे कुछ महीनों से हड्डी की चोट के कारण अस्वस्थ्य होते हुये भी पूर्ण चैतन्य अवस्था में लगातार मानस भवन और ‘तुलसी मानस भारती’ के सम्पादन का कार्य अंतिम क्षण तक कर रहे थे । इस तरह ‘काम करते हुये सौ वर्ष जीने’ की अभिज्ञा से वे जैसे पाँच कदम पहले, 95 वर्ष की अवस्था में साकेतधाम प्रस्थान कर गये । अब ऐसा तो धर्मराज युधिष्ठिर के साथ भी नहीं हुआ कि वे चलते हुये ही स्वर्गारोहण करते । अत: श्री खंडेलवाल जी की राम से यह सायुज्यता हमारे शोक नहीं, उनके रामानुराग की फलान्विति की परिसिद्धि की ही परिचायक होनी चाहिए । 

विगत तीन महीनों से मनुष्य मात्र की बुद्धि, ज्ञान, विज्ञान और आस्था को चुनौती दे रही इस भुवन-भेदी महामारी का हम जैसे अब सीधा सामना करने के लिए मैदान में ही खड़े हो गए हैं । इतने दिनों तक जब हवा, पानी, बादल और समय अपनी गति से बराबर चलते रहे हों तो हम भी अपने थम जाने को लेकर पूर्ण आश्वस्त नहीं रह सकते थे । ‘तुलसी मानस भारती’ के भी आगे नियमित प्रकाशन की इसी सुचेष्टा में हम अब पुन: सन्नद्ध हैं ।  स्वभावत: हमारा यह अंक ‘तुलसी मानस भारती’ के पूर्व प्रधान संपादक और तुलसी मानस प्रतिष्ठान के पूर्व सचिव श्री एन एल खंडेलवाल जी पर ही केन्द्रित और उनकी स्मृति को समर्पित है । यह हमारी आज की विडम्बना ही है कि पूरे देश और दुनिया को अपनी ‘कारा’ में कैद करने वाली इस कराल ‘कौरोना’ ने हमें पत्रिका और प्रतिष्ठान के बहुसंख्य रामानुरागियों से इस संबंध में यथेष्ट संपर्क का पर्याप्त अवसर नहीं दिया । अत: इस संबंध में आगे भी प्राप्त होने वाली योग्य सामग्री और प्रतिक्रियाओं का हम यथा योग्य समावेश करेंगे । 

यह हमारा अपना सौभाग्य और परम आश्वस्ति है कि हम उस साधन के साध्य हैं जिसकी खोज में आज पूरा मानव समाज प्रायः असहाय ही दिखाई पड़ता है । गोस्वामी तुलसीदास ने यह समाधान संभवत: इसीलियी इतने पूर्व हमें प्रदान किया था – ‘रामकथा कलि पन्नग भरनी’। अर्थात् राम की यह कथा इस कलियुग के नाग के लिए जैसे मोरनी है ! अब हम यह विश्वास क्यों न करें कि इस विषाणु की महौषधि सदा से हमारे कितने निकट नहीं है !

‘तुलसी मानस भारती’ विगत लगभग आधी सदी से इस ‘राम रसायन’ की प्रयोगशाला का काम कर रही है । हम कामना करते हैं कि ‘विराट विश्व’ के उर प्रदेश को छीलते इस ‘रावण रोग’ को दूर करने के लिए परम ‘रसायनी समीर-सूनु’ श्री हनुमानजी महाराज की शीघ्र ही मानव समाज पर कृपा- वृष्टि होगी ।        

                                                       प्रभुदयाल मिश्र 

                                                      प्रधान संपादक  


निर्वचन

(सितंबर 20)


                     राम धामदा पुरी सुहावन

धरती की शोभायमान पुरी ‘अयोध्या’ राम के सालोक्य वास को प्रदान करने वाली है – यह गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस की रचना की संकल्पना की भूमिका में ही लिख देते हैं । उनका कहना है कि सभी चार प्रकार के जीवधारी-  अण्डज, स्वेदज, उद्भिज और जरायुज, कोई भी हो उनके यहाँ देह त्याग करने के बाद उसे धरती पर वापिस लौटने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यह मान्यता तो जन मानस में सुस्थापित है ही कि श्री राम ने स्वधाम गमन करते हुये इच्छुक सभी अयोध्या वासियों को अपने साथ ही साकेत धाम के लिए ले लिया था । अत: स्वभावत: ही तुलसी ने ऐसी मनोहर, सिद्धिदायक और मांगलिक नगरी में बैठकर ही रामचरित मानस के ‘कथारम्भ’ का निश्चय किया था – आज से 446 वर्ष पूर्व । लगभग पंद्रह सौ वर्ष पहले आदिशंकर ने भी ‘सौन्दर्यलहरी’ में अयोध्या को त्रिपुरसुंदरी की आँखों की तरह ‘विशाल, मंगलकारी, प्रस्फुटित कमल जैसी तथा अपराजेय’ कहा था । किन्तु काल की कराल कला में विकास और लय का क्रम किसी सामान्य ज्ञान और अनुमान का विषय नहीं बनता। शायद इसीलिए सूर्य-कुल भूषण रामलला को इस बार अपने मणि खचित जन्म स्थान  से लगभग पांच सौ वर्ष के दूसरे निर्वासन को पूर्ण कर 5 अगस्त को अपने जन्मस्थल पर विराजमान होने का अवसर आया है । इस इतिहास और घटना के साक्षी हम सब का यह धन्यभाग है कि कलियुग में ‘त्रेता’ के इस युगांतर को हमने अपनी आँखों से भरपूर देखा है । 

अयोध्या में निर्माणाधीन भगवान राम के विशालतम मंदिर की शिला-स्थापन के समारोह पर देश के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का सम्बोधन श्रद्धा, भक्ति, गवेषणा, उत्साह और सम्प्रेरणा की दृष्टि से अप्रतिम था। अतः इसे एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में हम इस अंक में इस पत्रिका की शीर्ष संचिति के रूप में सँजो रहे हैं ताकि भविष्य में यह रामानुरागियों और रामकथा, रामायण और राम से संबन्धित शोध, अध्ययन, सांस्कृतिक परिष्कार के व्यापक विश्वहित की विचार भूमिका का कार्य कर सके। हमने अपने रंगीन पृष्ठ पर उन 12 डाक टिकिटों को भी स्थान दिया है जिनमें रामकथा के अनेक आयामों को लेकर भारत सरकार ने इस अवसर पर परिप्रसारित किया है ।

ऋग्वेद में भगवान विष्णु की आराधना करते हुये वेद के द्रष्टा ऋषि दीर्घतमा प्राथना करते हैं – ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै

 यत्र गावो भूरिशृंङ्गा  अयास: । (ऋग्वेद 1/154/6)

अर्थात् हे महाविष्णु ! हम आपके रहने के लिए एक ऐसा भवन बनाना चाहते हैं जहां ऊंचे सींग वाली गायें आराम से चरन-विचरण कर सकें । 

श्री राम मंदिर की विशालता का यह आयाम हमारे लिए भौतिक ही नहीं है यह हमारा सांस्कृतिक और मानवता के वैश्विक जीवन मूल्यों का भी परमादर्श है । रामराज्य का वर्णन करते हुये तुलसीदास जी ने लिखा है – ‘बयरु न कर काहू सन कोई’ । अर्थात राम के राज्य में जीव मात्र में सद्भाव काम करता है । यहाँ तक कि 

खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बधाई ।

और 

कूजहि खग मृग नाना वृंदा । अभय चरहि बन करहि अनंदा ।                                                      

जिस राम राज्य में पशु-पक्षियों में भी इतना सद्भाव काम करता है उसकी अनुवर्तिनी आज की बुद्धिमान, विवेकी और संवेदनशील युवा हो रही इक्कीसवीं सदी की समग्र मानव पीढ़ी से इसके आदर्शों के समादर की हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है । हमारा विश्वास भी कहता है कि हमारे देश का वर्तमान नेतृत्व जिसमें अटूट क्षमता और पूर्ण वैराग्य का अद्भुद समन्वय है, इस दर्शन और दृष्टि को अवश्य दिशा प्रदान करेगा ।    

प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक, तुलसी मानस भारती