श्रीमद्भगवद्गीता
के अध्याय १० और श्रीमद्भागवत के स्कंध एकादश के अध्याय १६ में भगवान की विभूतियों
का बहुत साम्य्तापूर्ण वर्णन है. स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उद्धव के द्वारा यह अनुरोध
करने पर कि ‘जिन रूपों और विभूतियों में आपकी भक्ति से उपासना कर सिद्धि प्राप्त
की जाती है, उनका वर्णन करें’, भगवान उन्हें बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में जब
अर्जुन के मनमें संदेह उत्पन्न हुआ था तो अर्जुन ने भी इसी प्रकार का प्रश्न किया
था –
एवमेतदहं
पृष्ठः प्रश्नं प्रश्नविदाम् वर
युयुत्स्ना
विनाश्ने सपत्नैरर्जुनेन वै .
(उ.११/१६/६)
उद्धव
गीता के सन्दर्भ से यह महत्वपूर्ण है कि इसके पूर्व अध्याय १५ में भगवान ने
विभिन्न सिद्धियों और विभूतियों का सविस्तार वर्णन किया है. उनके अनुसार ‘अठारह
प्रकार की सिद्धियों में आठ सिद्धियाँ तो प्रधान रूप में मुझ ही में रहती हैं’-
सिद्धियोऽष्टादश
प्रोक्ता धारणायोगपारर्गैः
तासामश्टौ मत्प्रधाना ...
(उ.
११/१५/३)
यहाँ
भगवान ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ‘समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही हेतु,
स्वामी और प्रभु हूँ’ (उ. ११/१५/३५) अतः उद्धव के इस प्रश्न की पूर्ण प्रासंगिकता
है. यह दुहराने की आवश्यकता नहीं है कि अर्जुन को भगवान का उपदेश कर्म में प्रवृत्त होने के लिए है जबकि उद्धव को अपने
महाप्रयाण पूर्व सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान किया जाना है. यद्यपि दोनों ही प्रसंगों
में भगवान ने यह भी दुहराया है कि उनकी विभूतियों का कोई छोर नहीं है अतः उन्होंने
उन्हें संक्षेप में ही कहा है . किन्तु स्वाभाविक रूप से अर्जुन को जहां ७३ (दशम
अध्याय में, अन्यथा अन्यत्र ७,९,११,१३,१५ और १८ वें अध्याय में भी ऐसी विभूतियों
का उल्लेख आता है) विभूतियों का वर्णन
किया गया है वहीं उद्धव के सामने वर्णित विभूतियों की संख्या अधिक है. इनमें
व्यापक समानताएं हैं किन्तु कुछ भिन्नताएं भी हैं. इन सभी के तुलनात्मक उल्लेख
सहित हम प्राप्त समानताओं और भिन्नताओं पर विचार करेंगे. इस प्रसंग के समुचित
समालोडन के लिए एक तुलना पत्र उपयोगी प्रतीत होता है. सुविधा की दृष्टि से मूल
क्रम हम उद्धव गीता का ले रहे हैं किन्तु सन्दर्भ दोनों ही ग्रंथों के दे रहे हैं –
क्रमांक विभूति उद्धव गीता भगवद्गीता
१. आत्मा ११/१६/९ १०/२०
२. गति ११/१६/१० ९/१८
३. काल ११/१६/१० १०/३०
४. साम्यावस्था ११/१६/१० ९/२९
५. मूल स्वभाव ११/१६/१० ७/१०
६. सूत्रात्मा ११/१६/११ ९/१६,१७
७. महत्तत्त्व ११/१६/११ 7/५
८. जीव ११/१६/११ १५/७
९. मन
११/१६/११ १०/२२
१०. हिरण्यगर्भ ११/१६/१२ १५/१५
११. ओंकार ११/१६/१२
७/८,९/१७,१०/२५
१२. अकार ११/१६/१२ १०/३३
१३. गायत्री ११/१६/१२ १०/३५
१४. इन्द्र ११/१६/१३ १०/२२
१५. अग्नि
११/१६/१३ ७/९-१०/२३
१६. विष्णु ११/१६/१३ १०/२१
१७. नील लोहित (रुद्र ) ११/१६/ १३ १०/२३
१८. भृगु ११/१६/१४ १०/२५
१९. मनु ११/१६/१४ १०/६
२०. नारद ११/१६/१४ १०/२६
२१. कामधेनु ११/१६/१४ १०/२८
२२. कपिल ११/१६/१५ १०/२६
२३. गरुड़ ११/१६/१५ १०/३०
२४. दक्ष ११/१६/१५
२५.
अर्यमा ११/१६/१५ १०/२९
२६. प्रह्लाद ११/१६/१६ १०/३०
२७. चन्द्रमा ११/१६/१६ १०/२१
२८. सोम ११/१६/१६ १५/१३
२९. कुबेर ११/१६/१६ १०/२३
३०. ऐरावत ११/१६/१७ १०/२७
३१. वरुण ११/१६/१७ १०/२९
३२. सूर्य ११/१६/१७ १०/२१
३३. राजा ११/१६/१७ १०/२७
३४.
उच्चैस्रवा ११/१६/१८ १०/२७
३५.
स्वर्ण ११/१६/१८
३६.
यम ११/१६/१८ १०/२९
३७.
वासुकि ११/१६/१८ १०/२८
३८.
शेषनाग ११/१६/१९ १०/२९
४०.
सिंह ११/१६/१९ १०/३०
४१.
संन्यास आश्रम ११/१६/१९
४२.
ब्राह्मण वर्ण ११/१६/१९ ९/३३
४३.
गंगा ११/१६/२० १०/३१
४४.
समुद्र ११/१६/२० १०/२४
४५.
धनुष ११/१६/२०
४६.
धनुर्धारी शिव ११/१६/२०
४७.
सुमेरु ११/१६/२१ १०/२३
४८.
हिमालय ११/१६/२१ १०/२५
४९.
अश्वत्थ ११/१६/२१ १०/२६
५०.
यव ११/१६/२१
५१.
वसिष्ठ ११/१६/२२
५२.
ब्रहस्पति ११/१६/२२ १०/२४
५३. स्कन्द
११/१६/२२ १०/२४
५४. ब्रह्मा ११/१६/२२ १०/३३
५५. ब्रह्म (स्वाध्याय) यज्ञ ११/१६/२३ १८/४७
५६.
अहिंसा व्रत ११/१६/२३
५७.वायु,अग्नि,सूर्य,जल,वाणी,आत्मा
११/१६/२३ १५/१२,१३,१४
५८.
समाधि ११/१६/२४
५९.
मंत्र (कोड) ११/१६/२४
६०.
आन्वीक्षिकी (आत्मा) ११/१६/२४ १८/५७
६१.
विकल्प ११/१६/२४ १०/३२
६२.
शतरूपा ११/१६/२५
६३.
मनु ११/१६/२५ १०/६
६४.
नारायण ११/१६/२५ ११/५०
६५.
सनत्कुमार ११/१६/२५ १०/६
६६.
संन्यास धर्म/कर्म ११/१६/२६ १८/५७
६७.
आत्मानुसंधान ११/१६/२६ १८/५१,५२,५३
६८.
मौन ११/१६/२६ १०/३८
६९.
प्रजापति(स्रष्टा) ११/१६/२६ ७/१०,१०/३९
७०.
संवत्सर ११/१६/२७
७१.
बसंत ११/१६/२७ १०/३५
७२.
मार्गशीर्ष ११/१६/२७ १०/ ३५
७३.
अभिजित नक्षत्र ११/१६/२७
७४.
सत्ययुग ११/१६/२८
७५.
देवल, असित ११/१६/२८ १०/१३ (सन्दर्भ से)
७६.
द्वैपायन व्यास ११/१६/२८ १०/३७
७७.
शुक्राचार्य
११/१६/२८ १०/३७
७८.
वासुदेव ११/१६/२९ १०/३७
७९.
हनुमान ११/१६/२९
८०.
सुदर्शन विद्याधर ११/१६/२९
८१.
पद्मराग (लाल) रत्न ११/१६/३०
८२.
पद्मकोश ११/१६/३०
८३.
कुश ११/१६/३०
८४.
गो घृत ११/१६/३०
८५.
लक्ष्मी ११/१६/३१ १०/३४
८६
द्यूत ११/१६/३१ १०/३६
८७.
तितिक्षा ११/१६/३१ १०/३४
८८.
सत्त्व ११/१६/३१ १०/३६
८९.
ओज ११/१६/३२ ७/१० (सन्दर्भ से)
९०.
निष्काम कर्म ११/१६/३२ १८/४९
९१.
नौ में से प्रथम श्रेष्ठ
मूर्ति कृष्ण ११/१६/३२
९२.
विश्वावसु ११/१६/३३
९३.
पूर्वचिति अप्सरा ११/१६/३३
९४.
स्थिरता ११/१६/३३ ९/७
९५.
गंध ११/१६/३३ ७/९ (सन्दर्भ से )
९६.
रस ११/१६/३४ ७/८
९७.
अग्नि ११/१६/३४ ७/९,१०/२३
९८.
प्रभा ११/१६/३४ ७/८
९९.
शब्द ११/१६/३४ ७/८
१००.
बलि ११/१६/३५
१०१.
अर्जुन (वीरों में) ११/१६/३५ १०/३७ (पांडवों में )
१०२.
स्थिति, उत्पत्ति, प्रलय ११/१६/३५
१०/२०,१०/३२,१३/१६
१०३.
चलने,बोलने,विसर्जन,ग्रहण,भोग की शक्ति
११/१६/३५ १५/१४
१०४.
स्पर्श,दृष्टि,स्वाद,श्रवण,जिघ्रण की शक्ति
११/१६/३५ १५/१५
१०५.
पृथ्वी,वायु,आकाश,जल,तेज,अहंकार,महत्तत्त्व,जीव,अव्यक्त,प्रकृति,सत्त्व,रज,तम और
ब्रह्म ११/१६/३७
७/४,५,६,७,१२,
१०६.
गणना,ज्ञान,तत्त्वज्ञान,फल ११/१६/३८
१०/३८,१३/१७,१५/१५
१०७.
ईश्वर,जीव,गुण,गुणी ११/१६/३८ १३/१७
,१५/१५
१०८.
सर्वात्मन ११/१६/३८ १३/१३, १५/१८
१०९.
असंख्यता ११/१६/३९ १०/४०
११०.
श्री,कीर्ति,ऐश्वर्य,लज्जा,त्याग,सौंदर्य,सौभाग्य,पराक्रम,विज्ञान आदि
११/१६/४०
१०/३४
१११.
सामवेद
१०/२२
११२.
चेतना १०/२२
११३
. जपयज्ञ १०/२५
११५.
चित्ररथ
१०/२६
११६.
कामदेव
१०/२८
११९.
परशु राम १०/३१
१२०.
मगर १०/३१
१२१.आदि,मध्य,अंत १०/३२
१२२.
अध्यात्म विद्या
१०/३२
१२३.
द्वंद्व समास
१०/३३
१२४.
मृत्यु, उद्भव, भविष्य
१०/३४
१२५.
कीर्ति,श्री,वाक्,स्मृति,मेधा,धृति,क्षमा १०/३४
१२६.
बृहत्साम
१०/२५
१२७.
गायत्री १०/३५
१२८.
जय १०/३६
१२९.
निश्चय १०/३६
१३०.
दंड
१०/३८
१३१.
नीति
१०/३८
१३२.
मौन
१०/३८
मैंने आरम्भ में यह चेष्टा करनी चाही कि इन
दोनों गीताओं में उल्लिखित और वर्णित विभूतियों की संख्या के आधार पर इनके रहस्य
का विश्लेषण करूं. इस प्रकार से कुछ मनीषियों ने विचार भी किया है. यह भी विचार का
बिंदु बनता है कि इनमें सन्दर्भ विशेष के उल्लेख के आधार पर इनके क्रम और महत्व पर
भी विचार हो. किन्तु उद्धव गीता में कृष्ण ने एक प्यारी बात यह कही है कि यह वर्णन
वाणी का विषय बन जाने के बाद तो एक प्रकार का ‘मनोविकार’ (१६/४१) ही हो जाता है.
भगवद्गीता में दूसरी ओर कृष्ण ने अर्जुन को प्रकारांतर से यह कहा है कि आखिर इस
विषद संख्या में पड़ने की आवश्यकता ही क्या है ? क्या किसी को भी यह समझ लेना
पर्याप्त नहीं है कि ईश्वर ने अपने एक अंश मात्र से इस ब्रह्मान्ड में व्याप्त रहकर इसे धारण किया हुआ
है! अतः यत्किंचित शोध दृष्टि से इतना ही विचार अभीष्ट प्रतीत होता है कि इन
विभूतियों के प्रकट पारिभाषिक आशय को दृष्टिगत रखते हुए इनकी संक्षिप्त तुलना तो
की ही जा सकती है.
यह स्पष्ट है कि श्रीमद्भागवत अत्यंत
काव्यात्मक कृति है. यह दर्शन तत्त्व प्रधान है किन्तु इसकी दार्शनिकता कविता की
अभिव्यंजना में संग्रिथित है. इसकी कविता की रसात्मकता तो लोक विश्रुत है ही जिसे
भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के भी अनेक रस सिद्ध कवियों ने अपनी कविता का
आधार बनाया है. यहाँ सूरदास, तुलसीदास, केशव, मीराबाई, बिहारी, नन्ददास, रसखान, रत्नाकर,
हरिऔध, भारती आदि कितने कवियों के नाम नहीं लिए जा सकते हैं!
यह भी कितना अर्थपूर्ण नहीं है कि जिस उद्धव के
ज्ञान के गुमान को कृष्ण ने गोपियों की गालियों में घुल जाने दिया था उसे अंतिम
सन्देश के रूप में परिपुष्ट करने का अंततः उसे ही माध्यम बनाया. व्यास के इस उत्कृष्ट काव्य की अभियंजना में इतिवृत्त के
इतने अनूठे उत्कर्ष की परिकल्पना अन्यत्र दुर्लभ ही है. अर्जुन के सामने यदि
मृत्यु और संहार की विभीषिका है तो उद्धव के सामने प्रत्यक्ष परमात्मा के विछोह का
संताप है. एक अर्थ में भगवद्गीता की
पृष्ठभूमि नाटकीय है तो उद्धव गीता परम यथार्थ के बोध से उत्पन्न ज्ञान की परिसीमा
है. यह गीता कहते हुए श्रीकृष्ण के पास अपने पूर्व कथन का न केवल सुस्मरण है वल्कि
इस अवसर पर पर उनके परमात्म तत्त्व का प्रकट प्रत्यक्ष विवेक भी है. इस तरह उद्दव
गीता अर्जुन गीता के समाकलन का एक ऐसा पैमाना है जो अन्यथा और अन्यत्र संभव ही
नहीं हो सकता है.
सबसे पहले हमारा ध्यान उन विभूतियों की और जाता
है जो भगवद्गीता के दशम अध्याय में ही नहीं इसमें अन्यत्र भी नहीं हैं. दक्ष, स्वर्ण, संन्यास आश्रम, ब्राह्मण वर्ण,
शिव, यव, वशिस्ठ, समाधि, धनुष, हनुमान, बलि, नौ में से प्रथम श्रेष्ठ मूर्ति कृष्ण, विश्वावसु, पूर्वचिति अप्सरा, सुदर्शन
विद्याधर, पद्मराग (लाल) रत्न, पद्मकोश,
कुश, गो घृत, अहिन्सावृत, समाधि, मंत्र, शतरूपा, संवत्सर, अभिजित नक्षत्र, सत्ययुग
आदि कुछ वर्णनात्मक ऐसे बिंदु हैं जो केवल भागवत में
ही हैं.
इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवद्गीता के विशिष्ठ
बिंदु हैं- सामवेद १०/२२,
चेतना १०/२२, जपयज्ञ १०/२५, चित्ररथ
१०/२६, कामदेव १०/२८, परशुराम १०/३१, मगर, १०/३१, आदि, मध्य, अंत १०/३२, अध्यात्म
विद्या १०/३२, द्वंद्व समास १०/३३, मृत्यु, उद्भव, भविष्य १०/३४, कीर्ति, श्री, वाक्,
स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा १०/३४,
बृहत्साम १०/२५, गायत्री १०/३५, जय,१०/३६, निश्चय १०/३६, दंड १०/३८, नीति
१०/३८ , मौन १०/३८ इत्यादि.
जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया गया है, भागवत के १६वें अध्याय की अन्य अनेक विभूतियों के संकेत
गीता के विभूति योग से भिन्न अन्य अध्यायों से प्राप्त कर लेने के बाद भी एक विस्तृत स्वतंत्र सूची दोनों ही स्थानों पर शेष
रह जाती है. भगवान के अनुसार यद्यपि यह अपूर्ण है और इसको पूरा नहीं किया जा सकता
किन्तु दोनों गीताओं के पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में इनके कुछ भेद के आशय को
समझने की चेष्टा की जा सकती है.
यह स्पष्ट है कि भागवत की सूची जहां वर्णन
प्रधान है वहीं गीता की सूची विस्मय और भगवत्ता के वोध को बढाने वाली है. उद्धव को
कृष्ण के परमात्म स्वररूप में कोई संदेह नहीं है अतः कृष्ण उसके लिए इतिवृत्तात्मक
गणना करते हुए आगे बढ़ सकते हैं. किन्तु अर्जुन तो युद्ध भूमि में खडा है तथा उसके
संशय के निवारण के लिए कुछ कौतुक और चमत्कार तो समीचीन है ही.
भागवत की रचना परवर्ती है. इसकी पृष्ठभूमि में
महाभारत का संताप तो है ही, वेदव्यास द्वारा प्रणीत अनेक पुराणों की सरंचना और उन श्रेष्ठ पात्रों का संस्मरण
भी है जो इनके चरित नायक हैं. शतरूपा, दक्ष, शिव, हनुमान, बलि, विश्वावसु,
पूर्वचिति, सुदर्शन आदि के उल्लेख का प्रथमतया यही कारण प्रतीत होता है. आगे इसमें
संन्यास आश्रम, ब्राह्मण वर्ण, समाधि, अहिंसा, सत्ययुग, यव, कुश, गोघृत, अभिजीत
नक्षत्र, पद्मराग आदि तत्कालीन समाज व्यवस्था के भी परिचायक हैं जो एक महाकाव्य की
विषय वस्तु के निकट माना जा सकता है.
भगवद्गीता को तो विद्वान प्रधानतया कर्मयोग का ही
ग्रन्थ मानते हैं. यह शिक्षा युद्धभूमि में खड़े सैनिक वेशधारी अर्जुन के लिए सर्वथा
उपयुक्त तो है ही, भारतीय मनीषा की समग्रता की अपनी स्वयं की पहचान भी है. किन्तु तत्त्ववोध
और ज्ञान की जिस पराकाष्ठा पर पहुंचकर भारतीय ऋषियों ने वेदान्त के इस चरम और परम निष्कर्ष
को प्राप्त किया था वह अपनी सारवत्ता में कर्म अथवा योग आदि को साधन मात्र मानकर अद्वैत
में ही प्रतिष्ठित होता है. शुद्ध और सम्पूर्ण ज्ञान का यह अन्वीक्षण उस वैराग्य वृत्ति
में ही प्रतिफलित हो सकता है जिसकी शिक्षा कृष्ण ने उद्धव को दी.
३५, ईडन गार्डन,
राजाभोज मार्ग, भोपाल १६. ९४२५०७९०७२