Thursday 23 January 2014

'देवस्य काव्यम्' की समीक्षा



समीक्षा
देवस्य काव्यम्ः शाश्वत जीवन दर्शन का दिशा बोध
डा. प्रेम भारती
विद्वता की आंच में तपकर बहुधा व्यक्तियों की रचनात्मक ऊर्जा उनकी बुद्धि और तर्क को पुष्टकर अपने व्यक्तित्व को ढालने में ही स्थानांतरित रहती है. विरले ही ऐसे विचारक होते हैं जो विद्वता के साथ-साथ रचनात्मकता को साध पाते हैं और वह भी कौशल के साथ. श्री प्रभुदयाल मिश्र एक ऐसे ही व्यक्तित्व की संज्ञा हैं जो वेद-ज्ञान के क्षेत्र में तो एक जाना पहचाना नाम हैं, पर काव्य के अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में यह नाम सर्वथा नया और अजनवी है. देवस्य-काव्यम (वैदिक-काव्यधारा) के कवि प्रभुदयाल जी एक बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी हैं. महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानं भोपाल के अध्यक्ष के रूप में प्रकाशित ‘देवस्य काव्यम्’ उनका ऐसा काव्य संग्रह है जो उनके अंतरर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व को उजागर करता है.
यह कृति ‘ देवताओं द्वारा, देवताओं के लिए देवता की कृति’ कही जा सकती है. इसमें कवि ने देवऋण के लिए ‘देव कविता’, ऋषि ऋण के लिए ‘वेद कविता’ तथा पितृ ऋण के लिए ‘तर्पण कविता’ शीर्षक से अपनी भावान्जलियाँ अर्पित की हैं. कृति के विषय में कुछ भी कहने के पूर्व रचनाकार का यह मंतव्य उल्लेखनीय है-
‘’ काव्य यहाँ मात्र वह दृष्टि है जिसके द्वारा वेद के एक पक्ष को समझने की चेष्टा की गयी है. काव्य वेद की तरह तथा वेद काव्य की तरह सनातन और सार्वकालिक है.’’ (भूमिका, ‘पश्य देवस्य काव्यम’)  
जो लोग वाल्मीकि से लेकर आज तक की काव्य यात्रा को शास्त्रीय कसौटी पर कसते हैं, संभव है वे इस कथन से सहमत न हों. उनकी दृष्टि में यह एक आंशिक सत्य हो सकता है, किन्तु काव्य की जिस सनातनता की श्री मिश्र चर्चा करना चाहते है, वह भावना और विवेक, नैतिकता और निसर्ग, कर्त्तव्य और प्रेम, संस्कृति और प्रकृति, संयम और समागम का सनातन द्वंद्व है और यह द्वंद्व ही इस काव्य का सौंदर्य है. इस दृष्टि से कविता धारा उतनी पुरानी है जितनी जीवन धारा. मानव जब कभी भावनाओं अथा बौद्धिक प्रवृत्ति की तीव्रता से उद्वेलित हुआ, उसके आंतरिक मानसरोवर में उसने काव्य के माध्यम से अभिव्यंजना का स्वरूप खड़ा किया है.
‘देवस्य काव्यम’ की विषय वस्तु में कवि द्वारा ऐसी ही भाव संजीवनी पाठक वर्ग को परोसे जाने का प्रयत्न किया गया है जो आज के आपाधापी के युग की अचेत जड़ता एवं मूर्छा को दूरकर उसे नूतन ऊर्जा और नव जीवन प्रदान करे . इस काव्य-धारा के माध्यम से कवि ने अतीत के सन्दर्भ खोजकर उस परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है जो हमारे भीतर संचेतना के रूप में शताब्दियों से प्रवाहमान है. इस द्रष्टि से यह रचना अद्भुत है. आज मनुष्य का जीवन सौंदर्य रहित, गंधहीन कागज के फूल के समान  हो गया है. कवि की अपेक्षा है कि इस गंध का आस्वादन करने में वे सभी सहायक होंगे जो भारत की अप्रतिम धरोहर में प्रीति और श्रद्धा रखते हैं.
भारत ही एक ऐसा देश है जहां कविता और धर्म एक साथ चलते हैं. इस द्रष्टि से ‘देवस्य कावयम’ की रचना का उत्स वह भाव-भूमि है जहां संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत मूल्यों का कवि की प्रतिभा के माध्यम से प्रकटीकरण हुआ है. वस्तुतः संसार की रचना करने वाला भी तो स्वयं एक ‘कवि’ ही है और यह संसार उसकी ऐसी काव्य कृति है जो नित नवीन होती जाती है !
संग्रह के पांच पटल हैं. इनमें २७ कविताओं का संकलन है. प्रथम पटल में तीन कवितायें ‘ वैदिक कविता’ के नाम से हैं. द्वितीय पटल में जीवन-दर्शन से सम्बन्धित बारह कवितायें हैं जिनके शीर्षक हैं- जीवन कविता, यात्रा कविता, प्रार्थना कविता, आनंद कविता, विषाद कविता, वर्तमान कविता, निरपेक्ष कविता, न्याय कविता, प्रतिकृति कविता, क्रिया कविता, प्रतिकार कविता और समय कविता. कवि का विश्वास है- ‘जीवन का विकल्प बन नहीं सकती कविता/ क्योंकि कविता स्वयं है जीवन/ सतत प्रवाहमान/ जीवन धारा जैसी.
(प्रस्ठ १७)
सचमुच में बारह कविताओं की विषयवस्तु दार्शनिक द्रष्टिकोण से से ‘ईश्वर अथवा कविता के समानांतर’ इस प्रकार गडी गयी है जिसमें गहन दार्शनिक भावों को लेकर जीवन के विविध आयामों को परिभाषित किया गया है. न्याय कविता की इन पंक्तियों में –
आदमी के भीतर/ जब लड़ने लगते हैं दो आदमी/ उनमें से प्रत्येक का दावा होता है / कि सही वही है/ एक मात्र और सम्पूर्ण सही/ तब कविता ही करती है कोई निदान. (प्रष्ट -३९)
सत्य की सहज अभिव्यक्ति प्रकट हुई है.
तृतीय पटल ‘देव कविता’ के नाम से है जिसमें पांच कवितायें वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरुत और मरुद्गण से सम्बंधित हैं. ‘वरुण’ कविता ऋग्वेद मंडल ७ के सूक्त ८६ का रूपांतरण है जिसकी मूल रचना का छंद त्रिष्टुप है तथा इसके द्रष्टा ऋषि हैं वशिष्ट. इसी प्रकार ऋग्वेद के अन्य मंडलों से अन्य ऋषियों द्वारा संद्रष्ट मन्त्रों पर आधारित कवितायें हैं इन्द्र, रुद्र और मरुत आदि. इनमें ऋषि देवताओं से प्रायः प्रार्थना करते हैं –
हमें शत वर्ष जीवन दें/ पाप पीड़ा रोग भागें दूर/ सब
चतुर्थ पटल में ‘वेद कवितायें’ हैं. इनमें अस्यवामीय (ऋग्वेद मंडल १ सूक्त १६४) के काव्यानुवाद के ५२ छंद हैं. इनमें व्यंजना और बिम्ब विधान से सृष्टि की रचना और इसके रचयिता का परिचय दिया गया है. यजुर्वेद के अंतिम ४०वें अध्याय ‘ईशावास्य’ के १८ वे छंद हैं जो शाश्वत सनातन जीवन दर्शन का सरसता पूर्ण निदर्शन कराते हैं.
पंचम पटल ‘ तर्पण कविता’ में पांच कवितायें क्रम से पिता, दादा, ताऊ, नाना और माँ संकलित हैं. अर्थात् मातृ और पितृ दोनों ही पक्ष का परम्परा के अनुरूप संस्मरण ! पितर, पूर्वजों के प्रति क्रतज्ञता का यह बोध वह सनातनी निष्ठा है जिसका प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर पड़ता ही है. और अंतिम कविता की यह पंक्ति जैसे उस धारा का ही पर्याय है जिसे सदा बहते रहना अभीष्ट है-
अपूर्ण ही रहनी है यह कविता इस तरह
लौटा कब पाया कोई तर्पण का जल
किसी बिछुडे पूर्वज को (प्रस्ठ १११ )
इस प्रकार आज की नयी कविता के शिल्प विधान को अपनाकर श्री मिश्रजी ने कविता को शाश्वत जीवन धारा से तो जोड़ा ही है, इन कविताओं में हमारा वर्तमान भी अपनी पूरी जीवन्तता से धधकता है. इन कविताओं में वास्तव में वह क्षमता है जो हमें हमारी पहचान कराती है.
समीक्ष्य संग्रह के सम्पूर्ण परिशीलन से यह निचोड़ निकलता है कि यह कृति पठनीय तथा माननीय है. यह वर्तमान समाज का दर्पण बने और नौशिखिये कवियों के लिए प्रेरणाश्रोत- यही कामना है. इस प्रकार के चिंतन से मानवता प्राणवती होती है तथा राष्ट्रियता परिपुष्ट. मैं इसके लिए रचनाकार को बहुत बहुत साधुवाद देता हूँ.
                                     एफ ९१/४९, तुलसीनगर भोपाल                                  
                                         ९४२४४१३१९०
पुस्तक – देवस्य काव्यम
रचनाकार- प्रभुदयाल मिश्र
प्रकाशक- अमेजोन, चार्ल्सटन, यू एस ए
प्रष्ट संख्या – ११२       

Thursday 2 January 2014

अमेजोन पुस्तक वितरक द्वारा प्रकाशित मेरी 'देवस्य काव्यं' की भूमिका



 i’; देवस्य काव्यं....
      
क्या मेरे विषय का केन्द्र काव्यहै जिसमें वेदों के लिए स्थान खोजना मुझे अभीष्ट हो गया है? अर्थात् कहीं वेद की उपादेयता सिद्ध करने के लिए मुझे उनकी साहित्यिकता का परीक्षण तो आवश्यक नहीं हो गया है? दूसरे शब्दों में जैसे काव्य एक कसौटी हो तथा वेद का इस कसौटी पर परीक्षण कर जैसे वेद का नया महिमा पक्ष प्रतिपादित करने का संकल्प मैंने ले रखा हो !
  अतः आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि काव्य यहां मात्र वह दृष्टि है जिसके द्वारा वेद के एक पक्ष को समझने की मेरी चेष्टा है । यह भी कहना मेरी क्षमता के एकदम बाहर की बात है कि यह दृष्टि इतनी परिपूर्ण हो सकती है जो वेदों के उन विभिन्न भाष्यकारों के पास थी जिन्होंने वेदों का कर्मकाण्ड परक, प्रकृति प्रधान, वैज्ञानिक, रहस्य परक अथवा राष्ट्रीयता पूर्ण भाष्य किये हैं । दूसरी ओर यह स्पष्ट ही है कि यदि मैं इसे देव काव्यशीर्षक नाम देता हूं तो इस विषय का इतना विस्तार हो जाता है जो मेरी क्षमता के साथ-साथ इस भूमिका की सीमा का भी अतिक्रमण कर देगा । अस्तु स्वयं और अपनी इस विषय वस्तु का इस प्रकार अभिज्ञान करते हुए कुछ आरम्भिक विषय बिन्दुओं की ओर ध्यान केन्द्रित कर रहा हूं ।
  शुरू-शुरू में ही मुझे इस स्वभाविक से प्रश्न का भी हल खोज लेना है कि क्या मैं सहित्य को वह दर्पण मानकर चल रहा हूं जिसमें प्रतिच्छायित वेदों को तत्कालीन समाज, संस्कृति और जीवन का प्रतिनिधि लेखा मानकर न केवल भारतीय वल्कि संपूर्ण मानवीय जीवन विकास का पुनरावलोकन कर सकता हूं? अर्थात् सहित्य पहले और वेद बाद में आए । अर्थात् वेद अपौरुषेय यानी कि स्वयं परमात्मा प्रणीत नहीं हैं? संयोग से कुछ हल्कों में यह बहस बहुत जोरदार तरीके से चल रही है । कुछ आर्य समाज की विचारधारा में ही विकसित और विचारगत लोग वेदों के अन्तः साक्ष्य और नाना तर्कों से यह सिद्ध करने में लगे हैं कि वेद अपौरुषेय नहीं हैं । उनके अनुसार जब प्रथम वेद ऋग्वेद का पहला ही मन्त्र-अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं । होतारं रत्नधातमम्-अथात् उस अग्नि-परमेश्वर- की मैं आराधना करता हूं जो पहले से विद्यमान है । इस प्रकार यह एक स्तोता मात्र है जो अग्नि या परमात्मा की स्तुति कर रहा है । भला इसे परमात्मा का कथन किस प्रकार कहा जा सकता है! इसमें परमात्मा को स्वयं ही स्वयं की स्तुति करते हुए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां कतिपय विषेषणों सहित द्वैत की स्पष्ट परिकल्पना की गई है । यदि परमात्मा से भिन्न कोई व्यक्ति या ऋषि इस मन्त्र की रचना कर रहा है या वेद के व्याख्याताओं के अनुसार वह उनका द्रष्टा है तो वह स्वयं परमात्मा तो नहीं हो सकता ! किन्तु यह विषय विस्तार भी मेरा अभिप्रेत नहीं है ।
  अलवत्ता इस विचार भूमि में मैं एक सुविधा अवश्य देखता हूं । जिसे ऋग्वेद का ऋषि पूर्व द्रष्टा के रूप में याद कर रहा है वह एक रचना और रचनाकार की सनातनता की परिकल्पना कर रहा है । एक रचना यदि कलम और कागज पर नहीं भी उतारी जा सकी किन्तु यदि वह श्रुतिऔर स्मृतिमें विद्यमान है तो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह कैसे लगाया जा सकता है? कोई नहीं जानता ऐसा कब से हो रहा है सिबाय इसके कि ऐसा पहला व्यक्ति परमात्मा स्वयं ही हो सकता है क्योंकि उसकी स्वयं की कल्पना मात्र ही उसके अस्तित्व या अवतरण का संसार निर्मित करती है । अतः इसका निदान कि पहले परमात्मा था याकि उसकी परिकल्पना, निहायत बेमानी प्रतीत होता है । दूसरे शब्दों में काव्य वेद की तरह और वेद काव्य की ही तरह सनातन और सार्वकालिक हैं । इनमें से एक को समझने के लिए दूसरे का आधार आवश्यक है । मैंने सुविधा की दृष्टि से वेद को समझने के लिए काव्य का सहारा लिया है ।
  अपने विषय की सीमा को लेकर एक स्पष्टीकरण और जरूरी है । संपूर्ण वैदिक वाङ्मय बहुत व्यापक और लगभग असीम विस्तार वाला है । संहिता भाग मात्र अर्थात् चारों वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुल 20379 मन्त्र हैं । प्रथम वेद ऋग्वेद में ही 1028 सूक्त 10552 मन्त्रों में निबद्ध हैं । यद्यपि ऋग्वेद के 801 मन्त्र ऋग्वेद सहित अन्य वेदों में पुनरुक्त हुए हैं किन्तु चूंकि वेद प्रार्थना, संबोधन, विचार, अभिव्यक्ति, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, भूगोल, ज्योतिष, राष्ट्रीयता, समाज, मानव शास्त्र, चिकित्सा, वास्तु और प्रत्येक कल्पित-प्रकल्पित विधायुक्त अभिलेख हैं, अतः मुझे ऐसे सूक्त/मन्त्रों पर केन्द्रित रहना होगा जिनमें हमारी आज की कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध विधा प्रकट होती है तथा अभिव्यक्ति के आयाम-विभिन्न छन्द, भाषा प्रयोग और उक्ति कौशल के दर्शन होते हैं । आशा है मेरी इस यात्रा में वे सब साथ होंगे जो भारत की इस अप्रतिम धरोहर में प्रीति और श्रद्धा रखते हैं ।

 मैं यहां हिन्दी भवन, भोपाल में वैदिक काव्य पाठकार्यक्रम में इस संग्रह की कविताओं के प्रस्तुति कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री रमेशाचन्द्र शाह के ऋषि परम्परा ओैर भावी भारतशीर्ष का निम्न अंश साभार उद्धृत कर रहा हूं-
  अनायास ही मुझे इंगलैंड की वरिष्ठ कवियत्री कैथनीन रैन की एक बात याद आ रही है जो उन्होंने लंदन की टैमनास एकेडेमी में वैदिक और वेदोत्तर काव्य पर दी गई मेरी व्याख्यान श्रंखला के समापन पर अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए कही थी। उनका कहना था-भारत ही एक ऐसा देश है जहां धर्म की उत्पत्ति के मूल में ही काव्य है और जहां की संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत मूल्यों की रचना ही कवि प्रतिभा के माध्यम से हुई । यह बात मैंने इस तरह से और किसी के मुख से नहीं सुनी थी इसलिए सुखद विस्मय की अनुभूति होना स्वभाविक था किन्तु देखा जाय तो यह एक सहज स्वभाविक प्रतीति होनी चाहिए । हम भारत वासियों की, जिनके सारे मूल्य, आदर्श, सारे रोल माडल्स कवियों द्वारा ही गढ़े गए हैं । चाहे वह सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्ठिर हों, चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम राम हों, चाहे कृष्णार्जुन सख्य हों, चाहे मृत्यु से साक्षात्कार का साहस प्रदर्शित करने वाली सावित्री या नचिकेता हों-सभी कवि/ ऋषि याकि ऋषितुल्य मनीषियों की ही तो कृतियां है।
    वेद का कविता के प्रति यदि सारभूत दृष्टिकोण समझने की चेष्टा की जाय तो यह कहना होगा कि कविता वेद के कवि का दृष्य संसार है । स्वभावतः यह संसार दृष्टि की सामान्य कोटि से भिन्न है । यह कवि यथातथ्य औेर भोक्ता भाव के परे जा सकता है । एक तरह से उसकी दृष्टि ऐसा आकाश है जिसमें सत्य अपना साक्षात्कार कराने स्वयं प्रकट होता है । उसके इस असीमित और विराट फलक का कोई पैमाना खड़ा नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि उसके अनुभव में एक विराटता है ।
    वस्तुतः संसार का बनाने वाला स्वयं भी एक कवि ही है । यह संसार उसकी काव्य कृति है । यह अनूठी दुनियां नित-नवीन होती जाती है-
   पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यते । अथर्ववेद
   ऐसे अद्भुद्, अपरिसीम और नई नई जिज्ञासाओं को जन्म देने वाले विश्व को बनाने वाला ईश्वर अपने कवित्व की पराकाष्ठा में अनेक विषेषताओं को धारण करता है । यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय, जो कि ईशोपनिषद् के रूप में सर्वत्र समादृत है, के आठवें मन्त्र में ईश्वर को कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूकहा गया है । संसार में जो कुछ भी जहां जैसा है सदा-सदा से सदा-सदा के लिए उसके द्वारा अपनी इसी क्षमता के कारण एक आंतरिक परिपूर्णता में व्यवस्थित किया गया है । गीता के अनुसार वह कविं पुराणमनुषासितारम्अर्थात् सर्वज्ञ, अनादि और सबका नियंता है । (गीता अध्याय 8-9) वस्तुतः इस संसार को समझने के लिए भी एक कवि दृष्टि की ही आवश्यकता है । इसे समझने की चेष्टा अपने आपमें ही तलवार की धार पर चलने जैसा है । और यह कथन करने वाला अैार कोई न होकर कठोपनिषद् के अनुसार ज्ञाता कवि ही है-
   क्षुरस्य धारा निषिता दुरत्या दुर्गं पथं तत् कवयोः वदन्ति ।
     जिस कविता से हम परिचित हैं वह प्रायः लक्षणा और व्यंजना में कवि के भावोद्रेक की अभिव्यक्ति होती है । इसमें कवि का प्रगाढ़ अनुभव निस्सरित होता है किन्तु इसे वह अपनी क्षमता के सहारे एक सार्वलौकिक आयाम प्रदान करता है । जीवन, जगत और अज्ञात ईश्वर की जो अनेक रहस्य तहें हैं,  इनकेा भेदने की उसकी क्षमता असामान्य होती है । स्वयं के बाहर और भीतर जिन आंतरिक स्पन्दनों के सहारे वह बहुत दूर और गहरे उतर पाता है वे उसे एक ऐसी पहचान देते हैं जो स्थान, समय और व्यक्ति की सीमा का अतिक्रमण करती है । यही कारण है कि चाहे एक कवि हो अथवा कि उसकी कविता का संसार, उसे उसकी रचना में पकड़ पाना प्रायः असंभव है क्योंकि वह कालजयी और लोकातीत हो जाता है ।
     इस संग्रह के पंच पटल हैं । प्रथमतः इसमें वे कवितायें सम्मिलित हैं जिनकी प्रेरणा भूमि वेद अथवा वैदिक ऋचायें हैं । इसके अतिरिक्त इसमें कुछ वैदिक सूक्तों का काव्यान्तर मेरी पूर्व में प्रकाशित वेद की कविताशं`खला में विस्तार है ।
   कवि, मनीषी, परिभूः स्वयंभूःकी यथास्थित इस विराट कृति का कोई एक अंश उसका प्रतिनिधित्व न भी करे तब भी अन्ततः वह है तो उसी का ही कृतृत्व है- सदा से सदा के लिये आगे-   
  
मनीषी, कवि
श्रेष्ठतम सबसे
स्वयं ही उत्पन्न
सब कुछ जो जहां जैसा
बनाया है उसी ने
सदा से
सदा के लिए आगे । यजुर्वेद 40- 8

भोपाल                              प्रभुदयाल मिश्र
23 नवंबर २०१३ (सत्यसाई जन्मोत्सव)

prabhudmishra@yahoo.co.in