Thursday 29 December 2016

Foreword TO ABC; XYZ; GOD

One of the best readers ! Surely amazing and superb in its approach to the unfathomable knowledge of the Supreme Truth and Reality. I have all appreciations to Shri CB Rao for this masterpiece of deep understanding and exploration.
Basically a scientist, Mr Rao has an unshakable faith in Divine. His wisdom is all assuring and well signals a lasting reward for the awakened human race. Let us only see how long it takes a scientist to become the saint now ! It has been said that the greatness of GOD will remain ever unsung even if the ink pot earth finishes entire ocean of ink using all trees as pen writing in His praise all over the sky! I only wonder if it is a beginning of this process actually begun this way here. The manifold aspects and attributes which Mr Rao discusses in 'Titbits about GOD'  surely exhibit his deep insight of accumulated vast learning as well as the exact experience required in this direction.
I am also very much impressed by the command the author exercises in a foreign language, English. The selection of appropriate words, the precise and communicative use of the punctuations and the lucidity in expression- all mark the utmost care Mr Rao takes trying to bring home his point to the reader.
About the themes and contents of the book, I will only add that Shri Rao lays a little too much stress on the principle of Karma. This principle basically gets much related to the theory of cause and effect and the birth and rebirth idea on this earth. The Vedantic view of India is indeed the ultimate indication of Reality in true tradition of knowledge. When Gita compares death to be an other aspect of life like childhood, youth or old age, it assures that there is no break in the continuity of it by death as it is One Consciousness only ever living. Further in Chapter thirteen of it when Krishna declares that He is one Kshetragya ( cosmic soul) living in all bodies, there is no case of single outing any one  soul with any separable individual identity. We do no consider an electric bulb or a fan or a tube light having a distinct electric power to be used and reused!
Further, it may sometimes be concluded by Mr Rao's exposition that GOD being All Powerful and Competent, is the Supreme Performer. In the ninth Chapter of the Gita, Bhagwan very well explains that the nature in 'His Chairmanship performs and for no other reason than this, the world evolves'. To my mind, therefore, talking about GOD, as the Supreme Performer, may at times be misleading.
I have finished reading this book word by word amidst loud marriage ceremonial noise remaining totally undisturbed. This is perhaps because the author is silently in long persuasive conversation with his readers with all earnestness and sincerity. I wish this epoch building work a great success. 
President, Maharshi Agastya Vedic Santhanam, Bhopal 

पानी बिच मीन पियासी

कहानी खुद बोलती है

कहानी, उपन्यास और कविता की सामान्यतया कोई भूमिका नहीं होती. एक सर्जक की यह रचना अपने आप में स्वगत-कथन ही तो है ! वैसे तो एक रचनाकार जीवन को उसकी सम्पूर्णता में समझ लेने का कभी दावा ही नहीं करता दूसरे वह यह बखूबी जानता है कि वह अपनी सीमा में अंततः एकांगी ही रहेगा. अतः उसके कहे को सम्पूर्ण जीवन की प्रतिकृति मान लेने की भूल करना किसी के भी लिए उचित नहीं है. सामान्य तौर से प्रत्येक मनुष्य को यह भी लगभग बहुत साफ़ ही है कि यदि जीवन को कला से पृथक कर उसका यथातथ्य रूपांकन या चित्रण भी किया जाता है तो उसमें किसी को भी ऐसा तरतीब रेखांकन नहीं मिल सकता जो पूरी तरह से लकीरों और सीमाओं में बांधा जा सकता हो. तब भी एक रचनाकार अपनी कला साधना से एक परम चितेरे की कला का अनुगमन जरूर करते रहना चाहता है. इस प्रकार वह अवश्य ही जगत के सर्जक के निकट पहुँच कर उसके ऋण अथवा वरदान से कुछ अपनी भी छाप छोड़ रखना चाहता है ! अस्तु !
रामस्वरूप पाण्डेय की ‘जल बिच मीन पियासी’ कथा-रचना की पष्ठभूमि में प्रकट उक्त विचार आरम्भ में ही जैसे यह पूछ रहे हैं कि क्या यह भूमिका मैं एक समीक्षक की हैसियत  में लिख रहा हूँ ? यह स्पष्ट है कि पाण्डेय जी मेरे परम आत्मीय हैं अतः स्नेहाविष्ट होकर ही वे उनकी इस मनोज्ञ कृति पर मेरी सम्मति चाह रहे हैं. इस तरह मैंने इसे आदि से अंत तक सप्रेम पढ़ा है. रचनाकार, आस्थावान और शुद्ध सनातनी विचारक श्री पाण्डेय जी के चिंतन के सभी आयाम मेरी दृष्टिपटल में सजीव विद्यमान हैं. शुद्ध कला और साहित्य का जीवन से गहरा सरोकार उनकी कलम से अनुप्राणित रहता है. इस कृति में भी सनातन भारतीय समाज, परिवार, शिक्षा और संस्कारों के पुनर्स्थापन की महत्ता जीवन के कोमल पक्षों से सुसवेदित होकर मूर्तिवती हुई है.
किन्तु यह बात कला का यदि सम्पूर्ण उद्देश्य जीवन मानकर चला जाय तभी लागू होगी. मेरी समझ में जिस तरह कला कला के लिए अधूरी रहती है वैसे ही कला जीवन के लिए एक ध्येय लेकर चलती हुई भी अधूरी ही रहेगी. वास्तव में कला अर्थात साहित्य द्वारा कला का स्वतंत्र और जीवनोनमुखी –दोनों ही ध्येय सिद्ध होने चाहिए. इस अर्थ में विचार करते हुए इस रचना के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न स्वभावतः उद्भूत होते हैं. पहली बात तो यह कि साहित्य में सपाट चरित्र स्वाभाविक नहीं माने जाते. एक रचना का पात्र कोई मिट्टी का घडा नहीं होता कि उसे कुम्हार ने एक बार जैसा ढाल दिया अपने टूटने तक वह वैसा ही बना रहेगा. चरित्र विकास में मनोविज्ञान के अनुशीलन की महती आवश्यकता स्पष्ट रहती है. किस परिस्थिति में एक व्यक्ति अपने मूल चरित्र से एकदम भिन्न कब कैसा मोड़ ले लेगा, इसका पूर्वानुमान करना उसके स्वाभाविक विकास को रोक देना है. मन की यह चंचलता न केवल आज के विज्ञान का आधार है अपितु यह कृष्ण, महर्षि पतंजलि आदि भारतीय मनीषियों के चिंतन के भी केंद्र में है. इस मन या इसकी चित्तवृत्तियों के नियंत्रण के लिए सिद्ध, मुनि, साधू संत कितने पापड जीवन भर बेलकर भी ईमानदारी में यह दावा नहीं कर पाते कि उन्होंने अपने आप पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है. मन पर नियंत्रण की यह दरकार हमने इसलिए भी मान राखी है क्योंकि हमने प्रायः जीवन और संसार को स्वर्ग-नरक और अच्छे तथा  बुरे विभागों में बाँट डाला है. वास्तव में यह सरलीकरण भी मन की ही लीला है. विचित्र बात यह है कि सब कुछ करने धरने वाला यह मन साफ़ बच जाता है और वह किसी नाम और रूप को बदनामी के लिए अपने पीछे छोड़ जाता है.
सही अर्थ में एक साहित्यकार भी एक संत और सद्गुरु की भूमिका वाला होता है. जिस प्रकार सत और सद्गुरु दूसरों के दोषों के परिमार्जन में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं वैसे ही एक साहित्यकार को भी मात्र अपने पात्रों का ही नहीं अपने चरित्रों ही जैसे सभी सामान्य लोगों के परित्राण का कार्य विधेय है. उसकी यह शुद्ध जिम्मेवारी बनती है कि वह अपने चरित्रों में प्रवेश कर उनकी कमजोरी को मानव का स्थाई भाव न बनाते हुए किसी परिस्थिति विशेष में किसी आवेग का परिणाम सिद्ध कर उसे जन्मना दोषी होने के अपराध से मुक्ति प्रदान करे. उसे एक ऐसा धर्मगुरु कतई नहीं बनना है जो आदिकाल में कभी किसी प्रथम एक के किसी एक अपराध (जो अपराध भी स्वतः प्रश्नाधीन हो) के कारण सारी मानव जाति को सदा सदा के लिए अभिशप्त घोषित करता है. यहाँ तक कि वह भारतीय दर्शन के कर्म के सिद्धांत का भी निर्णायक बनने की भूमिका नहीं ले सकता क्योंकि यह सिद्धांत भी बहुत सूक्ष्म और अविज्ञेय है. संक्षेप में एक साहित्यकार की दृष्टि में यह स्वीकार ही अभीष्ट रहता है कि बुराई यदि ईश्वर के लिए भी इतनी बड़ी बुराई होती तो वह अच्छाई के साथ इसे गूंथता ही किसलिए? यह अवश्य है कि उसने मन की गतिशीलता और चंचलता के साथ बुद्धि का संकल्प और विकल्प भी मनुष्य को दिया गया है अतः इस मामले में भगवान् को बीच में न लाकर भी विचार और विश्लेषण का काम अच्छी तरह से चल सकता है.
यह सब मैंने इसलिए लिखा क्योंकि गौरी का अपाहिज ( शराबी, मांसभक्षी और दुर्व्यसनी मात्र नहीं) पति से आबद्ध रहना, नेताजी की अंत में पोल खुल जाना और गौरी की ससुराल की संपत्ति का कानूनन उसके हक़ में फैसला हो जाना इस रचना के लेखक का कर्तव्य नहीं बनता. प्रथम तो कथा का सुखान्त कथा की कोई शर्त नहीं है दूसरे कथाकार सभी परिस्थितियों के निबटारे के लिए किसी न्यायाधीश की भूमिका में नहीं होता. प्रत्येक के जीवन में प्रायः ऐसे अप्रत्याशित मोड़ आते हैं कि वे उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं. यह अप्रत्याशित विशिष्टता ही किसी कहानी को पढने योग्य बनाती है.
वास्तव में कहानी को अपने आप में जोर जोर से यह बोलने में समर्थ होना चाहिए कि हे प्रिय पाठक, मैं जो कह रही हूँ वह कुछ हेर फेर से तुम्हारी ही बात कह रही हूँ. तुमने भी अपने जीवन में ऐसे ही उतार चढ़ाव देखे हैं ? किन्तु तुम बहुत परेशान रहते आये हो इसलिए मैं अपनापन देकर तुम्हारा दुःख बांटने आई हूँ. तुम अब अपने आप को अपराध बोध में गाली देना बिलकुल बंद करदो. और हाँ यदि कुछ बदल सको तो बदलो नहीं तो मौके वेमौके मुझे याद भर कर लेना, हो सकता है इससे भी कुछ बात बने. अच्छा, अब मैं चली ...
पुस्तक के शीर्षक पर भी मुझे कुछ कहना और शेष रह जाता है. उपन्यास की केंद्रीय चरित्र गौरी किस पीड़ा में है ? ठीक है उसकी ससुराल में अटूट संपत्ति है तथा वह उसके उपभोग में आबद्ध नहीं है. मुकुंद उसके इतने निकट होकर भी कितनी दूर नहीं है. किन्तु क्या वह उससे प्रेम का प्रतिदान चाहती है ? और उसका एक पति भी है – अपग, पुसत्व हीन ! किन्तु क्या गौरी की चारित्रिक प्रष्ठभूमि उससे यह कहला सकती है ?
वास्तव में कबीर की उलटबांसी का यह ध्रुव पद जीवन में उत्पन्न आध्यामिक बिसंगति का सन्देश देता है. अतः इससे विज्ञ पाठकों के मन में यह प्रतीक्षा जग सकती है कि गौरी भी देर सबेर मीरा के मार्ग पर चल सकती है. पर इसमें देर किस बात की ? इतने सुन्दर राजमार्ग को प्रशस्त कर लेखक आगे ‘मार्ग अवरुद्ध’ का बोर्ड क्यों टांग देता है ?
सारतः इस उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र गौरी और मुकुंद हैं. ये दोनों ही पात्र सनातन भारतीयता के आदर्श हैं. इनमें प्रेम, संयम, त्याग, साधना, शिक्षा, अध्यवसाय, सेवा, परोपकार और समर्पण का परमोत्कट प्रकाश है. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इन दिनों युवा वर्ग के लिए देश में जिस शिक्षा और संस्कार की आवश्यकता प्रकट की जाती है, उसकी पूर्ति इस तरह की रचना बखूबी कर सकती है.
 प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम, भोपाल                                       


Thursday 22 December 2016

OS Atri's letter's extract

An extract from a letter of Shri O S Atri who was my first English lecturer in Degree College Tikamgarh and who indeed provided me the first experience of hearing a teacher speak throughout in English in the class!

' I discovered you accidentally at Ajmer in a std shop  - like Columbus discovered America. My friend Mr Singala gave me a magazine or a weekly to read - And lo ! There was the article on Tikamgarh by Shri PD Mishra ( along with his address). You have come a long way - The Way Farther ( the name of my book published in 2013) since TKG days ! I am really fortunate in having a lot of students who have done so well in life and a few are on the top of the world- or I should say at Himalayan height. Surely you are one of them. I wish you still greater successes and attainments. That you are still actively so active reminds me a quote from Milton-
' The last infirmity of noble minds is to scorn delight and live laborious days !'
Since you are a Yogi, it should still be a ' labour of love'- I mean a more pleasant exercise !'

Om Sharan, Atri, Jhansi 14-12-2016 

Monday 12 September 2016

'अर्धालियों के पूर्णाकार' समीक्षा


पुस्तक-समीक्षा

एक समीक्षा संग्रह में पचहत्तर कृतियों
के पठन का रसास्वादन
युगेश शर्मा
    किसी भी साहित्यिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कृति की समीक्षा का कार्य समुद्र में डुबकी लगातार मोती निकालने जैसी श्रमसाध्य कवायद है। एक निष्पक्ष और कृति केन्द्रित समीक्षा के लिए प्रतिबद्ध समीक्षक जब किसी कृति की समीक्षा करता है-तब वह वस्तुतः एक न्यायाधीश जैसा पवित्र कर्म कर रहा होता है। तब उसके समीक्षा-कर्म का एकमेव लक्ष्य कृतिकार नहीं अपितु कृति ही रहती है। यद्यपि ऐसा समीक्षा-कर्म आजकल दुर्लभ होता जा रहा है। परिणामस्वरूप कृतिकार की ख्याति और उसके समग्र आभामंडल के मुकाबले कृति गौण दिखाई देने की स्थितियां बनती जा रही हैं। ये स्थितियां विषयनिष्ठ उत्कृष्ट लेखन के लिए एक अशुभ संकेत है और गुणवत्ता युक्त गंभीर लेखन के मार्ग में इनके द्वारा कांटे बिछाये जाने का काम किया जा रहा है। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता और वैदिक विषयों के मर्मज्ञ श्री प्रभुदयाल मिश्र के समीक्षा-कर्म की पूर्व पीठिका के रूप में उपरोक्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है। श्री मिश्र एक लंबे समय से साहित्यिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक कृतियों (पुस्तकों) की निष्पक्ष, सटीक और गहन-गंभीर समीक्षा कर रहे हैं। आपके समीक्षा-कर्म की सबसे बड़ी  विशेषता यह है कि वह केवल साहित्य तक सीमित नहीं है। उसके कई आयाम हैं। वे साहित्यिक कृतियों के साथ-साथ रामायण संबंधी शोध ग्रंथों, भक्ति-साहित्य की कृतियों और भारतीय संस्कृति की विभिन्न प्रशाखाओं से संबंधित मौलिक पुस्तकाकार सृजन को भी परख कर उस पर अपनी संतुलित टिप्पणी दे रहे हैं।
    श्री मिश्र के समीक्षात्मक आलेखों में एक बड़ी विशेषता यह भी सामने आती है कि उनके पठन से पाठक को मूल कृति के पठन जैसा रसास्वादन प्राप्त होता है। संभवतः ऐसा इस कारण संभव हो रहा है कि आपका समीक्षा-आलेख प्रारंभ से लेकर अंत तक कृति को ही अपने फोकस’ में रखता है। कृति में प्रतिपाद्य विषय और उससे निकलने वाली भाव-ध्वनियों की तरफ से अपना ध्यान भटकने नहीं देते। इसी कारण कृतिकार और पाठक दोनों स्वीकार करते हैं कि श्री मिश्र ने अपनी समीक्षा में पूरा-पूरा न्याय किया है। उनकी इस महारत में उनके विविध आयामी विशद् अध्ययन के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत रचनात्मक संस्थाओं के साथ आपके दीर्घकालीन जुड़ाव और लंबे प्रशासनिक अनुभवों ने भी आपकी समीक्षा-दृष्टि को नीर क्षीर विवेकी क्षमता प्रदान की है।
    तुलसी मानस प्रतिष्ठान मध्यप्रदेश, भोपाल ने श्री प्रभुदयाल मिश्र द्वारा समय-समय पर लिखित पचहत्तर कृतियों की समीक्षाओं को अर्धालियों के पूर्णाकार’ नाम से इसी वर्ष-2016 में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है। इस समीक्षा संग्रह में शामिल 75 समीक्षाओं में से अधिकतर तुलसी मानस प्रतिष्ठान की मुख पत्रिका तुलसी मानस भारती’ में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। 187 पृष्ठों की इस समीक्षा-कृति में 176 पृष्ठ समीक्षाओं को दिये गये हैं। प्रत्येक समीक्षा के प्रारंभ में कृतिकार, प्रकाशक और मूल्य बाबत विवरण दिये जाने से समीक्षा की उपादेयता पाठकों के लिए काफी बढ़ गई है। इस विवरण की मदद से वे इच्छित कृति को प्राप्त कर उसके पठन का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। संग्रह के अंतिम तीन पृष्ठों पर समीक्षक श्री प्रभुदयाल मिश्र का विस्तृत परिचय भी छापा गया है, जो संभवतः अद्यतन रूप में पहली बार आया है।
    समीक्षा-संग्रह अर्धालियों के पूर्णाकार’ को श्री मिश्र ने तीन खंडों अर्थात पटल में वर्गीकृत किया है। श्री मिश्र की सर्जनात्मक और अनुष्ठानात्मक सक्रियता के साथ लंबे समय से अभिन्न रूप से जुड़े तुलसी मानस भारती’ के संपादक श्री एन.एल. खंडेलवाल ने अपने ढंग की इस अनूठी कृति की भूमिका लिखी है। इस कृति में शामिल समीक्षाओं और इस संग्रह के पुस्तकाकार प्रकाशन की अंतर्कथा को रेखांकित करते हुए मानस मर्मज्ञ श्री खंडेलवाल ने संग्रहित समीक्षाओं को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ने और उनके रसास्वादन के जैसे द्वार ही खोल दिये हैं। आठ पृष्ठों की इस विश्लेषणात्मक भूमिका में श्री मिश्र के समीक्षकीय व्यक्तित्व को बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है। श्री खंडेलवाल लिखते हैं- आजकल पत्र-पत्रिकाओं में जो पुस्तक-समीक्षा प्रकाशित की जाती है, उसमें पुस्तक पर न तो गहरी नज़र डाली जाती है और न ही किसी पुस्तक का बहिरंग और अंतरंग पाठक के सामने लाना अपेक्षित रहता है। इसमें समीक्षाकार का अभिप्रेत पाठक के सामने पुस्तक विशेष की खूबियां लाना होता है। कहना न होगा कि श्री प्रभुदयाल मिश्र की समीक्षा दृष्टि इस कसौटी पर खरी उतरती है।
    समीक्षा-संग्रह के प्रथम खंड अर्थात प्रथम पटल में 28 साहित्यिक कृतियों की समीक्षाएँ शामिल हैं। यह सिलासिला डा. विनय षडंगी राजाराम के कविता संग्रह स्वर्ग का अग्नि-द्वार’ से प्रारंभ होकर रामकथा पर एकाग्र उपन्यास युगाधिपतिपर विराम लेता है। यह उपन्यास श्री चन्द्रप्रकाश जायसवाल की कृति हैं। इस खंड में जिन प्रमुख लेखकों की कृतियों की समीक्षाओं का समावेश है’ वे हैं- डा. रमानाथ त्रिपाठी, डा. प्रेम भारती, डा. देवप्रसाद खन्ना, श्री बटुक चतुर्वेदी, डा. गंगाप्रसाद गुप्त बरसैंया, और आचार्य दुर्गाशंकर शुक्ल। द्वितीय खंड को समीक्षाकार ने द्वितीय पटल कहा है और उसमें रामायण-शोध से संबंधित 16 कृतियों को लिया गया है। इस खंड में डा. लालसिंह चौधरी की पुस्तक रामचरित मानस में प्रक्षेप’ से लेकर प्रो. मूलाराम जोशी की कृति नयन बिनु वाणी’ तक कृतियों को समाविष्ट किया गया है। इस खंड में डा. प्रेम भारती, डा. शोभाकांत झा, डा. दादूराम शर्मा, डा. परशुराम शुक्ल विरही’ तथा डा. रामस्नेहीलाल शर्मा यायावर’ की शोधपरक कृतियां प्रमुख रूप से संग्रहित हैं। तृतीय खंड-तृतीय पटल में शामिल समीक्षाओं का केन्द्रीय विषय भक्ति-साहित्य’ है। इस खंड में मात्र छह कृतियां शामिल हैं। इन कृतियों के प्रमुख लेखक हैं- सर्वश्री नन्नूलाल खंडेलवाल’ डा. लक्ष्मीनारायण गुप्त विश्वबंधु’ तथा स्वामी शिवोम्।
    संस्कृति’ पर एकाग्र कृतियों को समीक्षा-संग्रह के चतुर्थ पटल (खंड) में शामिल किया गया है, जिनकी संख्या 25 है। इस खंड में प्रमुख रूप में प्रो. मूलाराम जोशी, डा. प्रेम भारती, अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, डा. मोहन गुप्त, डा. देवेन्द्र दीपक, पं. ईशनारायण जोशी, डा. परशुराम शुक्ल विरही, मनोजकुमार श्रीवास्तव, डा. प्रभाकर श्रोत्रिय, मुनिश्री चिन्मय सागर तथा विनोदकुमार श्रीवास्तव की कृतियों की समीक्षाओं का समावेश हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित डा. श्रोत्रिय की कृति भारत में महाभारत’ की समीक्षा करते हुए श्री मिश्र ने लिखा है- भारत में महाभारत वस्तुतः महाभारत विषयक एक ऐसा विश्वकोश है, जो अध्यात्म, दर्शन और पुराकथा की अमूल्य धरोहर के साथ-साथ सनातन साहित्य की अपने मूल और प्रभावात्मिकता में अप्रतिम है।‘ इसी प्रकार सुन्दरकांड: एक पुनर्पाठ में वे लिखते हैं- मनोजकुमार श्रीवास्तव की असामान्य मेधा गति और शक्ति की तारीफ ही करनी होगी, यह पुस्तक एक लेखकीय क्रा्रंति है।‘
    जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है, श्री मिश्र अध्यात्म और वेदों की गहराई में उतरे हुए एक सतत चिंतनशील अघ्येता हैं। हिन्दी के अलावा संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है। इन सब खूबियों का दर्शन संग्रह की 75 में से अधिकांश समीक्षाओं में सहज ही हो जाता है। उन्होंने कृति विशेष को कसौटी पर कस्ते समय अपने निष्कर्षों को पुष्ट और समाधानकारी बनाने के लिए पौराणिक ग्रंथों के उदाहरण भी यथास्थान दर्ज किये हैं’ जो प्रायः संस्कृत भाषा में हैं। इसके अलावा जहां भी आवश्यक हुआ है अपनी बात के समर्थन में अंग्रेजी के उद्धरणों की मदद भी उन्होंने ली है। समीक्षाओं की भाषा प्रवाहपूर्ण, स्वयं स्पष्ट और सहजग्राह्य है। समीक्षाओं में प्रयुक्त शब्दों एवं भावों के वे ही अर्थ-पाठक तक पहुंचते हैं जो समीक्षक द्वारा अपेक्षित हैं। फलस्वरूप ये समीक्षाएँ न तो किसी प्रकार का भ्रम पैदा करती हैं और न ही कृतिकारों के श्रम को नकारती हैं। मैं सार रूप में कह सकता हूँ कि संग्रह की समीक्षाओं में कहीं भी अति रंजना नहीं है। कृति में जो है- वही समीक्षा में उभरकर सामने आया है। श्री मिश्र ने अपनी समीक्षा को न्यायपूर्ण बनाये रखने के लिए बड़े लेखकों की गलतियों और कमियों की ओर संकेत करने में भी परहेज नहीं किया है।
    समीक्षा-कर्म के साथ न्याय करने वाली समीक्षा कृति अर्धालियों के पूर्णाकार’ के लिए श्री प्रभुदयाल मिश्र को साधुवाद। उन्होंने पाठकों को एक ही कृति में पचहत्तर कृतियों का रसास्वादन करा दिया है, जो एक अनूठा साहित्यिक उपक्रम माना जाएगा।

                                      
पुस्तक  - अर्धालियों के पूर्णाकार
लेखक  -  प्रभुदयाल मिश्र
प्रकाशक - तुलसी मानस प्रतिष्ठान, भोपाल
मूल्य   -  250 रुपये

व्यंकटेश कीर्ति,
11 सौम्या एन्क्लेव एक्सटेशन
चूना भट्टी, भोपाल-462016
मो. 9407278965


Wednesday 27 July 2016

अर्धालियों के पूर्णाकार : पुस्तक और उनके लेखक

www.vishwatm.comप्रति,
श्री .....लेखक / प्रकाशक
कृति (सूची के अनुसार)

विषय- आपकी पुस्तक-समीक्षा का संकलन

महोदय,

         आपकी विषयोक्त पुस्तक की विचारक और साहित्यकार श्री प्रभुदयाल मिश्र द्वारा लिखी समीक्षा-संकलन का प्रकाशन हमारे द्वारा ‘अर्धालियों के पूर्णाकार’ शीर्षक पुस्तक से किया गया है. ७५ कृति समीक्षाओं की इस पुस्तक में अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति, भाषा और विशेषकर मानस संबंधी अनेक दुर्लभ कृतियों के सन्दर्भ सुलभ कराये गए हैं.
    पुस्तक १८८ प्रष्ठ की है तथा इसका मूल्य मात्र २००/ रुपये है.
यह सूचना भेजते हुए हम यह आशा करते हैं कि आवश्यक सन्दर्भ और संग्रह हेतु इस संकलन की कमसे कम दो पुस्तको को आप अवश्य क्रय करना चाहेंगे.
   आपकी सूचना प्राप्त होते ही हम तत्काल पुस्तक उल्लिखित मूल्य पर भेजने की व्यवस्था करेंगे. इसके लिए पृथक से कोई डाक व्यय देय नहीं होगा.
भवदीय

रमाकांत दुबे, कार्याध्यक्ष         
अर्धालियों के पूर्णाकार पुस्तक की कृति, कृतिकार और प्रकाशक विवरण
१.कृति   २. कृतिकार  ३. पता प्रकाशक/लेखक      
साहित्य
१.      अग्नि-द्वार : बिनय राजाराम/ सृजन भारती इलाहाबाद/ ९८२६२१५०७२    
२.       कामरूपा : रमानाथ त्रिपाठी/ ग्रन्थ अकादमी, नई दिल्ली   
३.       काशी मरणन्मुक्ति : मनोज ठक्कर/ शिव ॐ साईं प्रकाशन, ९५/३, वल्लभ नगर इंदौर ४५२००३   
४.       निर्बंध देह गंध : प्रेम भारती/ मीरा पब्लिकेशंस ४९ ब, न्याय मार्ग इलाहाबाद २११००३   
५.      कुहरीले झरोखों से : यतीन्द्रनाथ राही/ ऋचा प्रकाशन, १०६ शुभम ७ बी डी ऐ मार्किट, शिवाजी नगर, भोपाल १६ /९९९३५०११११      
६.       तलाश ही जीवन है : देव प्रकाश खन्ना/ जन परिषद् भोपाल/ ९४२४४४३३६८   
७.      दादा पोता पुराण :  देव प्रकाश खन्ना/ पहले पहल प्रकाशन, भोपाल  
८.      काऊ सें का कइए  :   बटुक चतुर्वेदी/ लोकवाणी प्रकाशन, इलाहाबाद ९४२४४७६२८८   
९.      कौंडिन्य:  सुशील कुमार पाण्डेय/ कौण्डिन्य साहित्य सेवा समिति, पटेलनगर, कादीपुर, सुल्तानपुर उ प ०९५३२००६९००     
१०.   त्रिपथगा :  शिवनारायण जौहरी 
११.   जग में मेरे होने पर :  विभा लक्ष्मी विभा/ साहित्य सदन, १४९/२ चकिया, इलाहाबाद    
  हाशिये में दूब: विद्यासागर जोशी/ शिवम् पूर्णा प्रकाशन, भोपाल   
१२.   विद्रोही-स्वर: नवल जायसवाल/ प्रेमन कमुनिकेशन, भोपाल   
१३.   एक थी राय प्रवीण : गुणसागर सत्यार्थी / नेशनल पब्लिशिंग हाउस, ४२३०/१ अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली ११०००२/ कुंडेश्वर, टीकमगढ़ ८९८९४८४९५१     
१४.   बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य : गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंयाँ / सन्दर्भ प्रकाशन अलोपीबाग, इलाहाबाद/९४२५३७६४१३    
१५.   विराम चिह्न:प्रकार एवं प्रयोग : प्रेम भारती/ सन्दर्भ एवं देववाणी प्रकाशन, इलाहाबाद/ ९४२४४१३१९०    
१६.   आदमी के गीत : कैलाश ‘आदमी’ निर्दलीय प्रकाशन, ३४/१ दक्षिण ती ती नगर भोपाल ४६२००३ 
१७.   मेरा कुसूर क्या है :  आनंद कुमार तिवारी/ पाथेय प्रकाशन जबलपुर    
१८.   श्री उलूकाय नमः : अभय तिवारी ‘व्यथित’/ आर्यन प्रकाशन, भोपाल/ ९४२४०६७८९०   
  २०.पांचवां क्षितिज : अनिलकुमार सिंह/ भार्गव एंड कंपनी, ४ बाई का बाग़, इलाहाबाद ३ / ९४२४७४६४९६     
  २१.बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष : दुर्गाचरण शुक्ल/ नूतन बिहार कोलोनी, टीकमगढ़ म प्र.
  २२. ऋतु संहार : प्रभुदयाल श्रीवास्तव ‘पीयूष’/ सरस्वती सदन पुस्तकालय, छतरपुर/ म प्र.   
  २३.देह धरे का दर्द: वीरेंद्र बहादुर खरे/ श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद्, अवस्थी चौराहा, टीकमगढ़ म प्र./९७५३४४२७००/०७६३२४२५३०     
  २४. गीत अष्टक - कमल : कमलकांत सक्सेना/ १६१ बी शिक्षक कांग्रेस नगर, बाग़ मुगालिया भोपाल ४६२०४३  
  २५. ओ समय के दूत: गंगानारायण माथुर ‘अद्वैत’/ शिव संकल्प प्रकाशन, होशंगाबाद   
  २६. चक्रव्यूह : प्रकाश पटेरिया ‘हृदयेश’/सरस्वती सदन छतरपुर म प्र.
  २७. सूत्रधार : चंद्रप्रकाश जायसवाल/ पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस काम्प्लेक्स, एम पी नगर, भोपाल / ९२००६०६१५०   
  २८. युगाधिपति: चंद्रप्रकाश जायसवाल/ पहले पहल प्रकाशन, भोपाल/ ९२००६०६१५०    

   रामायण-शोध
  २९.रामचरित मानस में प्रक्षेप : लालसिंह चौधरी/ सुरेन्द्रकुमार एंड सन्स, शहादरा, नई दिल्ली    
  ३०. तुलसी रामायण १००८ पंक्तियों में: ओमप्रकाश गुप्ता/ ह्यूस्टन, अमेरिका      
  ३१. मानस शब्द-कोष: ओम प्रकाश गुप्ता/ बी आर पब्लिशिंग कोर्पोरेशन, ४२५ नीम्री कोलोनी, अशोक बिहार फेज ४, दिल्ली ५२     
  ३२. चिदानंदमय देह तुम्हारी : प्रेम भारती / मीरा पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद 
३३. तुलसी अनुक्रमणिका: मुक्तेश्वर सिंह / तुलसी मानस भवन भोपाल
  ३४. वाल्मीकि रामायण : विजय रंजन / अवध अर्चना प्रकाशन, ४/१४/४१ए महताब बाग़, अवधपुरी कोलोनी/ फेज -२ / फैजाबाद, उत्तर प्रदेश २२४००१     
     ३५. भारतीय संस्कृति और रामचरित मानस : ज्ञानवती अवस्थी
  ३६. लोक मंगल के कवि तुलसीदास : शोभाकांत झा /सुमित्रा प्रकाशन, कुशालपुर, रायपुर 
  ३७. मानस मकरंद : रमाकांत शर्मा/प्रेरणा प्रकाशन महानंदानगर, उज्जैन   
  ३८. मानस संजीवनी : तुंगनाथ चतुर्वेदी / तुलसी पब्लिक चेरीटेबल ट्रस्ट, मुम्बई 
     ३९. रामचरित मानस में उद्भिज प्रसंग : उग्रनाथ मिश्र/ नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना   
    ४०. तुलसी वांग्मय, विविध कोनों से : दादूराम शर्मा/ तुलसी मानस भवन    
    ४१. तुलसीदास का चिंतन : परशुराम शुक्ल ‘विरही’/ अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद नई दिल्ली/ विरही- ९८९८९००७९९९   
    ४२. रामकथा मंदाकिनीरामसनेहीलाल यादव/ शिवांक प्रकाशन, नई दिल्ली   
   ४३. रामकथा- पात्रामतम : राम सनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’/शिवांक प्रकाशन, अंसारी रोड, दिल्ली  
  ४४. नयन बिनु वाणी :  मूलाराम जोशी/ भावना प्रकाशन दिल्ली /   
  भक्ति-साहित्य 
  ४५. संत कवि सुन्दरदास : एन एल खंडेलवाल/ खंडेलवाल कल्याण मंडल, भोपाल   
  ४६. महारास शतक : लक्ष्मीनारायण गुप्त/ शिवानी प्रकाशन, भोपाल १६    
  ४७. अक्रूरतक : लक्ष्मीनारायण गुप्त / शिवानी प्रकाशन भोपाल १६ / गुप्तजी- ९८२७०५५६००
  ४८. वचन : टी जी प्रभाशंकर ‘प्रेमी’/ वासव समिति बंगलौर  
  ४९. ह्रदय मंथन : स्वामी शिवोमतीर्थ / शिवोम्तीर्थ आश्रम, सुलीवान काउंटी न्यूयार्क  
  ५०. परिताप: उत्तरार्ध रामकथा: चंद्रप्रकाश सिंह/ बिस्वारा प्रकाशन, उन्नाव   

  संस्कृति
  ५१. भारतीय सांस्कृतिक कथाएँ : मूलाराम जोशी/ गणपति प्रकाशन, दिल्ली   
  ५२. मैं प्रह्लाद हूँ : प्रेम भारती / आचार्य प्रकाशन, इलाहाबाद 
  ५३॰ संस्कृति के स्वर : नन्नूलाल खंडेलवाल / मानस भवन भोपाल
  ५४. वेदवाणी का रहस्य :  गिरीश गोवर्धन / अक्षर अनुसंधान केंद्र, उज्जैन- ९४२५०७४०७२   
  ५५. महाभारत का कालनिर्णय : मोहन गुप्त/ विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी २२१००१/ गुप्त- ९४०७१४००१०       
  ५६.  राष्ट्र चिंतनम : रामकृष्ण सराफ/ आदित्य प्रकाशन, भोपाल  
  ५७. योग एक कल्पबृक्ष :  प्रेम भारती/ साक्षर प्रकाशन, इलाहाबाद   
  ५८. स्वामी विवेकानंद और अस्पर्श्यता: देवेन्द्र दीपक/ विवेकानंद केंद्र, गीताभवन,जोधपुर/ दीपकजी- ९४२५६७९०४४      
  ५९. बुंदेलखंड क शिलालेख :  हरिविष्णु अवस्थी/मरुभूमि शोध संस्थान, डूंगरगढ़ राजस्थान/ अवस्थी- ०७६८३-२४२५३०      
  ६० . हस्त रेखाएं रोग और भाग्य : ईशनारायण जोशी/ लोकप्रिय प्रकाशन, ७९, चंदुपर्क गली २० , दिल्ली ११००५१    
  ६१. भावोन्माद का मारगान्तरीकरण : संतोष द्विवेदी/ आचार्य मंदिर, नयागाओं, चित्रकूट, सतना    
    ६२. नचिकेता : शंकर शरण लाल बट्टा/ हिंदी भवन भोपाल/ बट्टा ९६६९६९९३८१    
  ६३. कांवर श्रवणकुमार की : देवेन्द्र दीपक / सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली 
  ६४. वासुदेवः इदं सर्वम् : आई डी खत्री / इंदिरा पब्लिशिंग हाउस भोपाल/ ०९९७७२४०८६१ 
  ६५. महर्षि अगस्त्य द्रष्टय ऋक मंत्र भाष्य : दुर्गाचरण शुक्ल/ संदीपनी वेड विद्या प्रतिष्ठान, चिंतामन गणेश, जवासिया उज्जैन ४५६००६   
  ६६. युग प्रेरक स्वामी विवेकानन्द : प्रेम भारती/ मयंक प्रकाशन, प्रतापगढ़   
  ६७. एकलव्य: रामगोपाल भावुक/ दरयागंज नई दिल्ली/ भावुक- ९४२५७१५७०७    
  ६८. संस्कृति और साहित्य : राम सनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’/ मीनाक्षी प्रकाशन, दिल्ली 
  ६९. संस्कृति के दूत! : परशुराम शुक्ल ‘विरही’/ यूनीवर्सल कम्पूटर्स, रायपुर 
  ७०. सुन्दरकाण्ड एक पुनर्पाठ : मनोज श्रीवास्तव/ मेधाबुक्स,एक्स ११, नवीन शहादरा, दिल्ली ११००३२   
  ७१. भारत में महाभारत : प्रभाकर श्रोत्रिय/ भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन, नई दिल्ली   
  ७२. प्रशासन और पारदर्शिता : मुनि श्री चिन्मय सागर
  ७३. नानक दुखिया सब संसारा : वी डी श्रीवास्तव/ श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद्, किले का मैदान, टीकमगढ़, म प्र.    
  ७४. हिमस आफ हिमालायाज : डा. अखिलेश गुमाश्ता/ प्रभात प्रकाशन, दिल्ली   
  ७५. चित्रांश : विनोदकुमार श्रीवास्तव / ग्लोबल ग्रन्थ, स्टेशन चौराहा के पास, सिविल वार ८, दमोह – ४७०६६१