वेद
व्याख्या की नई धाराएँ
प्रभुदयाल मिश्र
वर्ष 2007 से जबसे ‘ऋग्वेद की पहली परंपरा’ विषयक शोध
श्रंखला का नया ज्ञानोदय में प्रकाशन आरंभ हुआ तब से मैं लगभग नियमित रूप से इसे
पढ़ रहा हूँ । इस पत्रिका मे सबसे पहले मैं इसी आलेख को पढ़ता हूँ और दूसरों को भी प्रायः पढ़ने देता हूँ। कभी कभी तो मेने पत्रिक़ा मे केवल इसी आलेख को ही पढ़ा, और इसी
आलेख के लिए जैसे मुझे इसकी प्रतीक्षा भी थी। श्री भगवानसिंह जी ने इसका आरंभ करते
हुए हुए अपनी विशेष मान्यताओं के ऊपर
प्रतिक्रियाओं का भी आह्वान किया था। मुझे याद है पहले लेख पर राधावल्लभ त्रिपाठी ने
यह आक्षेप लिया था कि विना संदर्भ दिये अब तक की ज्ञात परंपरा को आक्षेपित करना
उचित नहीं है। श्री भगवान सिंह जी ने जहाँ त्रिपाठीजी के तर्कों का उत्तर दिया
वहीं उन्होने आगे वेद के सभी संदर्भों को देना स्वीकार किया। इस संबंध मे मेरी
श्री त्रिपाठीजी से भी बात हुई। मुझे यह समझना आसान नहीं था कि आरंभ में संदर्भ न देकर लेखक ने बाद मे क्यों इसे क्यों आरंभ
कर दिया ! मैं सोचता हूँ कि संभवतः आरंभ मे
श्री सिंह साहब ‘उपनिषद् की कहानियाँ’ अथवा ‘अपने अपने राम’ की तरह ‘अपने
अपने वेद’ जैसी कोई साहित्यिक शृंखला लिखना चाहते होंगे
किन्तु कालांतर मे उन्होने इसे एक सम्पूर्ण शोध का ही स्वरूप देना उचित माना। जो
भी हो एक प्रकार से उनकी अपनी मेधा और वर्तमान की आवश्यकता की दृष्टि से यह उचित
ही है।
इस संबन्ध मे आगे कुछ कहने के पहले मुझे एक संस्मरण बहुत
तीव्रता से याद आ रहा है। मैंने ‘आसमान मे
इंद्रसभा’ शीर्षक वाले आपके आलेख को डाक्टर प्रभु दयालु अग़्निहोत्रीजी
को पढ़ने को दिया था। उन्होने उस पर एक
लंबी प्रतिक़्रिया लिखकर उसे मुझे अपने पत्र के साथ साथ भेजने को दी । इसका एक अंश
मैं आप सबको उसकी और उनकी याद ताजा करने
के आशय से उद्धृत कर रहा हूँ-
‘पहली
परम्परा वह है जहॉं से पणियों और स्थानीय जनों के बीच संघर्ष प्रारंभ होता है।
पणियों का नेता था - शम्यु जो प्रायः स्थानीय आदर्श शासक सुदास पर आक्रमण करता
रहता था। दोनों के बीच प्रसिद्ध सरस्वती नदी बहती थी। सुदास् के राज्य की उत्तरी
सीमा परूषणी नदी थी। शम्यु की अपनी सेना थी जो प्राचीन भारतविरोधी पणि सैनिकों से
बनी थी। एक बार लगभग आधी रात के समय शम्यु ने कुछ सैनिकों को लेकर परूषणी का
तटबन्ध काट दिया और इस प्रकार क्रतुक्रिया के समर्थक सुदास् के नगर को जलाप्लावित
कर सारी बस्ती में हाहाकार मचा दिया। सब लोग अन्धकार में परिवारजनों और
सम्बन्धियों को ढूंढने के लिये क्रन्दन कर रहे थे। तब सुदास् ने नागरिकों का
चीत्कार सुन कर अपने विश्वस्त वास्तुविदों को बुलाया और उन्हें साथ लेकर अपने गुरू
वशिष्ठ ( जिन्हें मैत्रावरूणी भी कहते थे ) के साथ परूषणी के तट पर पहुंचकर दो
प्रहर तक घोर परिश्रम करके नदी के तोड़े हुये तटबन्ध को ज्यों का त्यों बॉंध दिया।
अपने परिश्रम को विफल देखकर शम्यु लज्जा के साथ जाकर पर्वतीय गुफा में छिप गया।
जनता की रक्षा प्राचीन भारत की पहली परम्परा थी। श्री भगवान सिंह चाहते तो भारत की
दूसरी परम्परा पर दृष्टि डाल सकते थे । यह परम्परा थी शत्रु के राज्य को नष्ट करके
भी उस पर आधिपत्य न जमाने की। यदि उन्होंने सेनापति पुष्यमित्र के आचरण की ओर थोड़ा
भी ध्यान दिया होता तो उन्हें कामुकता के स्थान पर नयी परम्परा दिखाई दे सकती थी।
पुष्यमित्र ने वेद विरोधी शासक राजा वृहदरथ की सैन्य निरीक्षण के समय हजारों
सैनिकों के सामने हत्या कर दी। तब मगध का राज्य पुष्यमित्र के हाथ में आ गया
किन्तु पुष्यमित्र ने महाराज पदवी को स्वीकार न कर स्वयं को सेनापति कहलाना ही
उचित समझा। इस वंश ने पुरानी परम्परा को स्थिर रखते हुये साकेत में अश्वमेध यज्ञ
के प्रथम ऋत्विक महाभाष्य के कर्ता महर्षि पत´जलि थे। तो ये थीं भारतीय परम्पराएं। परम्परा किसी
एक घटना से नहीं बनती। बार-बार किये जाने से कोई कृत्य परम्परा बनता है। प्रजा रक्षण
भारत की परम्परा है।
‘श्री
भगवान सिंह ने अपनी लम्बी-चौड़ी खोज के बाद वैदिक मान्यताओं को केवल कामी और लोभी
की परम्परा के रूप में देखा है जो न केवल भ्रान्ति या अन्याय है अपितु अपराध भी
है। उन्होंने अपने लेख में एक शीर्षक भी दिया है- आसमान में इन्द्रसभा। जिस अर्थ
में उन्होंने आसमान शब्द का प्रयोग किया है उस अर्थ में किसी भारतीय ग्रन्थ में
आसमान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । और इन्द्रसभा? वह तो
सर्वथा असत्य है क्योंकि आसमान में ऐसे इन्द्रों की सभा किसी ग्रन्थ में उपलब्ध
नहीं है। मेघ कभी सर्वोच्च देवता नहीं रहे और न वह वर्षा के देवता ही थे। वैदिक
साहित्य में इन्द्र का स्थान स्वाभाविक वर्षा के मार्ग में आने वाली बाधाओं यथा
घने घिरे हुये प्रावट् मेघों को छितरा कर इधर-उधर ले जाने वाली बाधक शक्ति को
मार्ग से हटा कर वर्षा के लिये उचित और अनुकूल मार्ग बनाना है। इस प्रसंग में कई
मन्त्रों मे शम्बर जैसे इन्द्र विरोधी
शत्रुओं का उल्लेख किया है। इन्द्र इनका हन्ता है। फिर श्री वर्षा के देवता
पर्जन्य हैं। ऋग्वेद में पर्जन्य सूक्त में यह बात कही गई है।‘
यह प्रतिकृया और
श्री सिंहजी का उत्तर जून 2008 के अंक मे छपा। श्री भगवानसिंह जी को अपना उत्तर
पूरा करते हुए अग्निहोत्री जी की मृत्यु
कि सूचना मिल गई थी अतः उन्होने उत्तर मे उसका भी उल्लेख किया । स्वाभाविक रूप से
श्री भगवानसिंहजी अपने मत पर तो दृढ़ थे ही उन्होने आक्षेपों पर अपने आपको संयत भी
रखा।
परंपरा की दृष्टि पर विचार करते हुए यह समझा जा
सकता है कि इस दिशा और धारा से पीछे की ओर जाने मे एक प्रमाणिकता का अनुमान होता
है। इतिहास जैसे हमसे कटा रहता है। पुराण या मिथकों मे जाना तो एक प्रकार से
साहित्यिक कथा कहानियों क़ी तुलना मे किसी और गहरी स्थूलता मे उतरना जैसा है। अतः
श्री भगवान सिंहजी ने जब वेद, विशेषकर प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद की परंपरा
मे जाने का अनुष्ठान किया है तो वे उस मूल की तह मे जाने के लिए सचेस्ट हैं जिसने
हमें गढा है। इससे हम अपने पुरखो के साथ अपने आप को भी ठीक से समझकर अपने विकास के
अच्छे पैमाने खोज सकते हैं।
वेद के अध्ययन की दृष्टिया इनके रचनाकाल से ही अनेक रही हैं। वेद भाष्य की परंपरा अत्यंत
प्राचीन है । इसकी दिशायें भी अनेक हैं । यह अपने आपमें आश्चर्य ही है कि वेदों के
इतने व्यापक कलेवर को भारतीय मनीषा ने कण्ठस्थ रखते हुए भी उसके अर्थ के उद्घाटन
में उतनी तत्परता और निश्चयात्मकता की आवश्यकता नहीं समझी । यह और भी विस्मयकारी
है कि अनेकानेक व्याख्या पद्धतियों के प्रणयन और प्रचलन के बाद भी आज जैसे वेद के
मूल अर्थ के खोज की आवश्यकता बनी हुई है । अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत परक वेद व्याख्या की प्राचीनतम
पद्धति इस व्याख्या की दिशाओं के वैविध्य का ही संकेत देती है । पूर्व मध्यवर्ती
काल में अधियज्ञ के अंग के रूप में याज्ञिक कर्मकांड ने यद्यपि वैदिक संनिष्ठा में
वृद्धि की किन्तु वेदों की अर्थ निष्पत्ति विविध आयामों में ही भटकती रही । वेदांग
काल में यास्क की निर्वचनमूलक व्याख्या यद्यपि एक दृष्टि से बहुत वैज्ञानिक थी किन्तु उसकी
बहिरंगता भी अप्रकट नहीं कही जा सकती । उपबृंहणात्मक वेद की व्याख्या में इतने
पुराणों के लिखे जाने के बाद भी यह कहना कठिन है कि इस पद्धति से वेदों का कितना
ज्ञान सुलभ हुआ है । आधुनिक युग में पश्चिम के विद्वानों ने सायण भाष्य और तुलनात्मक
भाषावैज्ञानिक पद्धति का आश्रय लिया । स्वभावतः इन दृष्टियों की भी स्वतः
की सीमायें थीं। वर्तमानयुग में ऋषि दयानन्द जहां वेद संहिता के
पुनर्जागरणकर्ता के रूप में प्रख्यात हैं वहीं श्री अरविन्दो वेदों की
मनोवैज्ञानिक रहस्यात्मकता और श्री मधुसूदन ओझा इनकी पराभौतिकी वैज्ञानिकता के
पक्षधर रहे हैं । निश्चित ही वर्तमान युग के ये मनीषी, जिनमें वेदों के भाष्यकर्ता श्रीपाद दामोदर
सातवलेकर विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं, ने वेदाध्ययन में अनेकशः हमें प्रवृत्त और प्रतिबद्ध किया
है तथा वे हमारे भविष्य के भी प्रेरणा पुंज हैं । श्री अरविन्दो की परंपरा में
श्री कपाली शास्त्री और श्री अनिर्वाण के क्रमशः सिद्धान्जन भाष्य और ‘वेद मीमान्सा’ तथा श्री मधुसूदन ओझा की
परंपरा में श्री गिरधर शर्मा चतुर्वेदी आदि ने इन विशिष्ट धाराओं का सर्वथा
संवर्धन किया है ।
श्री टी वी कपाली शास्त्री ने ऋग्वेद के सिद्धान्जन भाष्य भाग 4 में अपने भाष्य की 83 पृष्ठ की संस्कृत मूल के
लगभग समान अंगेजी भाष्य सहित विस्तृत भूमिका में वेद भाष्य विषयक श्री अरविन्दो के
दृष्टिकोण को भी स्पष्ट किया है । इसमें उन्होंने भाष्य की प्रेरणा विषयक
पृष्ठभूमि में सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन की उस दृष्टि का मुखर विरोध किया है
जिसमें श्री राधाकृष्णन ने श्री अरविन्दो की उस धारणा को अस्वीकार्य माना था जिसके
अनुसार वेद संहिताओं के ऋषियों के मन्त्र वाक्यों को कालान्तर में समझा नहीं गया
क्योंकि वैदिक द्रष्टा ऋषियों की प्रतिभा का उनमें समावेश निःशेष हो चुका था ।
राधाकृष्णन जी का इस संबंध में प्रश्न था कि यह कैसे हो सकता है कि प्रातिभ ज्ञान
की यह परंपरा भारत में वैदिक ऋषियों के साथ ही एकदम विलुप्त हो गई तथा आज वह
वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति में दक्ष तुलनात्मक सान्स्कृतिक अध्ययन से
ही यह प्रतिफलित होने लगी हो! श्री कपाल शास्त्री ने अपने प्रभूत ज्ञान, अध्ययन और प्रकट श्रद्धा भाव
से तर्क, दृष्टान्त तथा अपने
विश्लेषणों से यही सिद्ध करना चाहा है कि श्री अरविन्दो की दृष्टि न केवल मन्त्र
द्रष्टा ऋषियों की क्रान्तदर्शी मेधा का साक्षात्कार करती है, अपितु वह आज की मानवता के
सुनिश्चित संतरण हेतु भी संकल्पित है । हमारी विडम्बना यह है कि श्री कपाली
शास्त्री जी का ऋग्वेद का भाष्य अपने 12 खडों में ऋग्वेद मंडल 1 के 121 सूक्त के आगे नहीं पहुंच सका है।
‘पहली परंपरा की खोज’ लेख शृंखला मे
श्री सिंह ने दिसंबर 2007 के आलेख मे आर्यों के भारत मे बाहर
से आने के प्रश्न पर कार्लिन रेनफू के ‘अनातोलियाई उद्भव सिद्धान्त' की विस्तृत समीक्षा करते हुए ही
स्थापित किया है कि ‘ कृषि विद्या का आविष्कार भारत मे हुआ था । ये कृषिकर्मी पूर्व से चलकर
कुरुक्षेत्र मे पहुंचे थे और उसे व्यवस्थित खेती के उपयुक्त बनाकर ही संतुष्ट नहीं हुए थे अपितु नए
क्षेत्रो की तलाश मे इनके कुछ जत्थे समय समय पर आगे बढ़ते हुए तुर्की तक पहुंचे थे।
यदि यह सच है तो बीज रूप मे प्राचीनतम भारतीय भाषा के तत्वों का प्रसार उस कल से
हजारों साल पहले हो चुका था जिससे हम बोग़ाजकुई के अभिलेखो और केन्स के असीरियाई
अभिलेखो के माध्यम से परिचित हैं।’ उल्लेखनीय है की इस आलेख मे बौद्ध।यन श्रौत्र
सूत्र के हवाले उर्वसी के दो बेटों -आयु और अमावसु के क्रमशः पूर्व और पश्चिम की
ओर प्रस्थित होने के प्रश्न पर बडी सूक्ष्मता से विचार किया गया है।
इसकी चर्चा मैने कुछ विस्तार से इसलिए भी की क्योंकि श्री अग्निहोत्री
ने मूलतः यह प्रश्न उठाया था की परंपरा की खोज के नाम पर की गई खोज के परिणाम भी
तो सामने आने चाहिए।
आगे श्री भगवानसिंहजी भाशाशास्त्रीय अध्ययन परंपरा को सर्वथा
एक नया आयाम देते हैं। सितम्बर 2012 के
नया ज्ञानोदय के अंक मे अपने इस दिशा संबन्धित तीन सूत्र इस प्रकार दिये गए
हैं-
1। हमारी लोकभाषाएं संस्कृत से नहीं निकली हैं । वे तो
वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं।
2। वे संस्कृत से अधिक समृद्धध हैं।
3। सभी बोलियाँ अनगिनत बोलियों के बिपाक से बनी हैं.
श्री भगवानसिंहजी की स्थापना है कि वेदों के काल मे पहुँचने
के लिए वेदों की भाषा को उसके मूल मे समझना आवश्यक है। इसके लिए एक तो संस्कृत
भाषा का मार्ग है और एक मार्ग है जन भाषा का। विद्वान विचारक के मत मे जन भाषा के
अध्ययन द्वारा हम वेद की भाषा ही नहीं वेद के मूल तक भी पहुँच सकते हैं।
यह स्थापना अभिनव और
विचारोत्तेजक है । वहीं इसकी जोखिम को भी समझना उचित होगा। प्रश्न यह है कि क्या
जनभाषा, बोलियाँ एक व्याकरण सम्मत
विशालकाय साहित्य संरचना के सागर को प्रभावित करती है? क्या
बोलचाल और साहित्य की भाषाओं के भेद को
लेकर चलना साहित्य, भाषाशास्त्र और सांस्कृतिक आरोह के
सिद्धान्त के अनुरूप है? आखिर भाषा का धातु रूप बोलियों पर
आश्रित है अथवा बोलियाँ कालांतर में भाषा के समानान्तर ही इसका संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि के रूप में विस्तार
करने में स्वतः समर्थ होती हैं?
प्राचीन साहित्य मे इस प्रकार की दो प्रकार की भाषा प्रयोग के
अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। वाल्मीकि रामायण मे ही हनुमान अपना संवाद जिस भाषा मे
राम से पहली वार करते हैं उस पर राम उन्हें संस्कृतनिष्ठ होने का प्रमाण पत्र देते
हैं। मध्य युग कि रचनाओं विशेषकर कालिदास, भवभूति आदि के नाटको मे सुशिक्षित और कम
शिक्षित पात्र क्रमशः संस्कृत और प्राकृत का प्रयोग करते हैं। यदि यह भी स्वीकार
कर लिया जाए कि लोकभाषा संस्कारित भाषा को प्रभावित करती है तो साहित्य की भाषा की उस पर ऐसी निर्भरता और उसके उत्स कि कुंजी या माध्यम मान लेना कठिन प्रतीत होता है। विशेषकर
संस्कृत की अपनी प्रकट समृद्धि, संभावनाऔं और व्याकरण की अनुशासनबद्धता ही इसे इतने अपार साहित्य सृजन के
क्षमता प्रदान करती प्रतीत होती है।
भारोपीय भाषा के सिद्धान्त ने हमारा सबसे बड़ा अहित तो आर्यों
के नाम पर हमारे ही देश को हमसे पराया बनाने के साथ साथ हमारे देश को भी
अप्राकृतिक भागों मे विभक्त किया । जबकि वास्तविकता एक यह है कि ‘आर्य’ एक सम्बोधन था, कोई जाति नहीं । हमारे इतिहास और पुराणो मे महानायक राम, उदाहरणार्थ, सीता को ‘आर्ये’ और सीता राम को ‘आर्य’
संबोधित करती हैं। अतः आर्यों के आने जाने
के नाम पर इतना फितूर खड़ा करना किसी सिद्धान्त की खातिर सत्य को जैसे झुठलाना ही तो
रहा है । सबसे पहले तो मुझे यहाँ अरविन्दों ही याद आते हैं । उन्होने भाषा
शास्त्रीय सिद्धान्त पर जो विचार रखे
उन्हें मै उन्हें प्रथमतः उद्धृत करता हूँ –
When Max Muller trumpeted forth
to the world in his attractive studies the great rapprochement, pita, pater, pater, vater,
father, he was preparing the bankruptcy of the new science; he was leading it
away from the truer clues, the wider vistas that lay behind….
The philologists have, for
instance, split up, on the strength of linguistic differences the Indian
Nationality into the Northern Aryan race and the Southern Dravidian, but sound
observation shows a single physical type with minor variations pervading the
whole India from Cape Comorin to Afghanistan. (ऑन दी वेदा 565/566)
श्री ओरोबिंदो ने स्वयं भाषा के
आधार पर विभाजित संस्कृत और तमिल की एकता पर विस्तार से विचार कर यह भी सिद्ध किया
कि अन्यथा भी आर्य और द्रविड़ का भेद स्थिर नहीं रखा जा सकता । जहां तक इस परंपरा
और इतिहास के प्रामाणिक अद्ध्य्यन का प्रश्न है श्री औरोबिंदो ने दृढ़ता पूर्वक यही
कहा है-
“In this ancient tongue alone, we
see not entirely in all the original forms, but in the original essential parts
and rules formation, the skeleton, the members, the entrails of this organism.
It is through this study, then, of Sanskrit, especially aided by whatever light
we can get from the more regular and richly structured among the other Aryan
languages that we must seek for our origins.” Page 384
वस्तुतः हमारी इतिहास दृष्टि और इतिहास
के प्रति हमारा आग्रह पशिचमी प्रभाव का एक
दूसरा प्रकोप है जो हमे लगातार अपने आप से दूर ले जा रहा है। आगे विडम्बना यह भी
है की जहां इससे पश्चिम अपनी श्रेष्ठता का बोध हमे कराता है वहीं वह हमे अपनी
न्यूनता का एहसास कराने से भी नहीं चूकना चाहता है। हम अपने रामायण महाभारत के
इतिहास बोध को पश्चिम से प्रमाणित न भी कराएं तब भी पश्चिम की जो इतिहास दृष्टि है
उसकी सीमा और इतिहास दृष्टि के अपने विभ्रमों से भी बच पाना क्या आसान काम है?
यहाँ मुझे डाक्टर धनंजय वर्मा के
साथ हुई अपनी उस चर्चा की भी याद आती है जो रामविलास जी की 2006 की 10 अक्टोबर
को पड़ने वाली जन्मतिथि के उपलक्ष्य में कुछ वर्ष पहले ‘साक्षात्कार’ भोपाल ने छपी थी। इसमे श्री
वर्माँ जी ने कुछ सवाल इस प्रकार उठाए थे – ‘एक बिल्कुल सीधा सवाल -क्या
रामविलास जी पुरातत्ववेत्ता हैं ? क्या वे पुराइतिहासज्ञ हैं ? क्या वे पुरानृतत्वशास्त्री हैं ? क्या वे पुराभाषाविद् है ? क्या वे पुरा-भूगोलशास्त्री हैं ? इन सबके अपने-अपने अनुशासन हैं
। वे किस आधार पर इनमें से किसी के भी निष्कर्षो को रिफ्यूट कर सकते हैं ? क्या वे ऋग्वेद के विशेषज्ञ
हैं ? क्योंकि उन्होंने जो
उद्धरण दिए है वे भी सातवलेकर के अनुवाद हैं ।..... मै इनमें से कुछ भी होने का
दावा नहीं कर सकता । हॉं , वेद मैंने पढ़े हैं, मगर अनुवाद से और प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का भी मैं एक विनम्र
विद्यर्थी रहा हॅूं.... एक जिज्ञासु लेकिन जागरूक पाठक.....उसी हैसियत से मेरे ये
सवाल हैं !
इन दिनो राजीव मल्होत्रा की किताब ‘बीइंग डिफ़्रेंट’ काफी चर्चा मे है। इसमे लेखक ने
पश्चिम के इतिहास वोध की इस सीमा का बहुत
अच्छा विश्लेषण किया है। लेखक ने इसमे बताया है की जिस इतिहास को अपनी संस्कृति और
सोच का वह आधार मानता है उसमे ही अनेक विसंगतियों को दर किनार रखा गया है। विशेषकर
इसको लेकर इतना दुराग्रह पालना कि इतिहास की अन्य परिभाषा वाले अविकसित गड़रिये ही
थे, अलगाओ की खाई को लगातार फैलाते
रहना ही है।
हम लोग इन दिनो अपने अगस्त्य
संस्थानम की ओर से कुछ भाष्य संबंधी कार्य कर रहे हैं। हमारे आचार्य दुर्गाचरण जी
शुक्ल ने अभी अगस्त्य के 27 सूक्तों के 239 मंत्रों का भाष्य किया है। इस सब पर
विचार करते हुए स्वभावतः उन सभी समस्याओं पर ध्यान जाता है जो इस दिशा मे काम करने
वालों की रही हैं। उदाहरण के लिए अगस्त्य एक
ध्रुव पद- ‘विद्यामेषं वृजनं
जीरदानुम्’ का 21 बार प्रयोग करते है । इस संबंध में श्री शुक्लजी ने अपनी व्याख्या में कहा है कि यद्यपि स्कन्द
स्वामी और मुद्गल का भाष्य अगस्त्य के इन 27 सूक्तों पर उपलब्ध नहीं है किन्तु वेंकट, सायण, दयानन्द, सातवलेकर तथा श्री अरविन्दो का भाष्य सुलभ है । यह आश्चर्य
ही है कि इसके तीन विशेष पदों ‘इषम्’, ‘वृजनं’ और ‘जीरदानुम्’ की इन व्याख्याकारों ने अनेकशः व्याख्या की है । उदाहरण
के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘इषम्’ के आठ, वृजनम् के सात और जीरदानुम् के दश अर्थ दिए हैं । श्री सातवलेकर
जी ने जीरदानुम् का 9 प्रकार से अर्थ किया हैं । स्वभाविक तौर पर जैसे यह आवश्यकता आज भी शेष है कि
हम ऋषि द्वारा प्रयुक्त मूल अर्थ तक पहुचें ताकि उनके द्वारा संद्रष्ट रहस्य ‘सत्य धर्मानुसन्धानुकर्ताओं’
को सुलभ हो सके ।
इसी तरह एक दिन शुक्लजी ने ऋषिकाओं के मंत्रो पर काम करते
हुए ऋग्वेद मण्डल 1 के सूक्त 126 के रोमशा के इस सातवें मंत्र का उल्लेख करते हुए
उस पर ग्र्फ़िथ के मत को जानना चाहा । बहुत खोजने पर परिशिष्ट भाग मे ग्रिफ़िथ का यह मत मिला कि किसी लौकिक
प्रेमकथा का संदर्भ यहाँ जुड़ गया है ।
सरवाहमस्मि रोमशा गांधारीणामिवाविका । ऋग्वेद 1/126/7
एक सहज संवेद्य भाव के रूप में मुझे यहाँ जयशंकर प्रसाद कि
कामायनी कि ये पंक्तियाँ याद आ गईं
-मशृण गांधार देश के नील / रोमो वाले मेषो के वर्म / ढँक
रहे थे उसका वपु कान्त/ बना था जो अति सुंदर वर्म ।
वेद व्याख्या की दो
दृष्टियों के संबंध में मुझे ऋग्वेद में
ही प्रथमतः जो कहा गया है उसका स्मरण होता है । मन्डल 10 के 71 वें सूक्त के पहले ही मंत्र में ऋषि ब्रहस्पति ज्ञान देवता
से कहते हैं –
‘बृहस्पते प्रथमम् वाचो अग्रम् यत्प्रैरत नामधेयम दधानः’ यह जैसे ऋषि दृष्टि है । दूसरे मंत्र में जिस मुनि दृष्टि का संकेत है
उसमें कहा गया है- ‘सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र
धीरा मनसा वाचमक्रत’ ।
एक प्यारी बात ‘वेद मीमांसा’ में अनिर्वाण जी ने कही है। उनके अनुसार एक दृष्टि है ऋषि और
एक है मुनि दृष्टि- इस प्रसंग में महर्षि सान्दीपनि वेदविद्या प्रतिष्ठान द्वारा प्रायोजित
ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित श्री अनिर्वाण की वेद-मीमांसा के प्रथम खण्ड में
परिदर्शित वेदाध्ययन की दृष्टि विषयक यह महत्वपूर्ण कथन मिलता है- ‘देवदर्शन और आत्मदर्शन
दोंनों का ही मार्ग समान रूप से अतिप्राकृत अथवा अलौकिक है । ....देववादी भी उस
बृहत् को ही बोधिग्राह्य वस्तु के रूप में हृदय के आवेग द्वारा प्राप्त करते हैं,
एवं आत्मवादी उसे अपने ही
आत्मरूपायन के रूप में आत्मशक्ति के द्वारा प्राप्त करते हैं । वेद की भाषा में एक
को आवेगकम्पित ‘विप्र’ और एक को पौरुषदृप्त ‘नर’ कहा गया है । एक की प्राप्ति का माध्यम ‘श्रद्धा’ एवं ‘बोधि’ या ‘परम ज्ञान’ है एवं दूसरे का माध्यम तर्क एवं बुद्धि है ।’
मैं समझता हूँ की इतने प्रशस्त पथ को छोडकर इधर उधर भटक कर
हम भारतीय संस्कृति की कितनी सेवा कर रहे हैं, इस पर हमारा ध्यान तो
जाना ही चाहिए।
अध्यक्ष,
महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम, भोपाल 462016 web. www,vishwatm.com
pdmishrabpl67@hotmail.com