समीक्षा- इस अकवि समय
में/संतोष चैबे/मेधा बुक्स दिल्ली
एक
असंवेदी युग में कवित्व की संभावनाओं का उद्घोष
प्रभुदयाल मिश्र
श्री संतोष चैबे की काव्य कृति इस अ-कवि
समय में कविता की उस सार्वभौम
शक्ति की उद्घोषणा है जो वस्तुतः काल को उसके अस्तित्व का बोध कराती है । अर्थात्
कविता के लिए कवि को भाव अथवा भूमिका की तलाश में भटकने की आवश्यकता नहीं रहती ।
वह भी ठीक आदमी की आत्मा अथवा ब्रह्म की ही भाँति (तेरा साईं तुज्झ में कहना कुछ और भी निकट होगा) उसके बहुत ही करीब लगातार उसके साथ ही चलती रहती है । श्री चौबे को बखूबी उसकी
अच्छी पहचान है । अतः वे समय को चुनौती देने में जैसे समर्थ हैं ।
यूं श्री संतोष यह बखूबी समझते हैं कि कम
से कम दुनियां के दूसरे लोगों के वास्ते ही सही, उन्हें समय का चुनाव कर लेना चाहिए । जाहिर है इसके लिए
पहले उन्हें ऐसी तमाम स्थितियों का मुआयना कर लेना होगा जो उनके चैतन्य न रह पाने
से उनके विरोध में खड़ी हो जाती हैं । इसके लिए वे अपने में अतीन्द्रिय सामर्थ्य भी खोजने लगते हैं-
इतना हल्का /कि उड़
सकूं/पूरे आकाश में
इतना पवित्र/कि जुड़ सकूं/पूरी पृथ्वी से
इतना विशाल /कि समेट लूं
/पूरा विश्व अपने में -पृ.14/15
अब प्रश्न यही रहता है कि इस कवि की
कविता उसे कितने दूर ले जाती है/ले गई है-
फिसलते /नेत्र फिसलते
दृष्य/फिसलती /गति फिसलते सत्य
आदमी /की नीयत में खोट
सतह /के नीचे के विस्फोट-
पृ. 92
-कोई सीमा नहीं है, कोई हद नहीं है । वह कहीं भी/किधर को भी चल पड़ता है । यह हद
यदि अपने आपको बचा रखती है, तो बचाले, कवि तो कितनी भी लम्बी रेखा खींच लेने का माद्दा रखता है !
अच्छा हो समय को दी गई इस चुनौती को हम समय के
सुपुर्द कर यह प्रतीक्षा करें कि कल -(- करीब एक चौथाई
दशक का समय) कवि को क्या जबाब लेकर आता है!
35, ईडन गार्डन, भोपाल, १६