Saturday 4 March 2017

संतोष चौबे की 'अकवि समय' पुस्तक की समीक्षा

समीक्षा- इस अकवि समय में/संतोष चैबे/मेधा बुक्स दिल्ली
       एक असंवेदी युग में कवित्व की संभावनाओं का उद्घोष
                                                   प्रभुदयाल मिश्र

        श्री संतोष चैबे की काव्य कृति इस अ-कवि समय में कविता की उस सार्वभौम शक्ति की उद्घोषणा है जो वस्तुतः काल को उसके अस्तित्व का बोध कराती है । अर्थात् कविता के लिए कवि को भाव अथवा भूमिका की तलाश में भटकने की आवश्यकता नहीं रहती । वह भी ठीक आदमी की आत्मा अथवा ब्रह्म की ही भाँति (तेरा साईं तुज्झ में कहना कुछ और भी निकट होगा) उसके बहुत ही करीब लगातार उसके साथ ही चलती रहती है । श्री चौबे को बखूबी उसकी अच्छी पहचान है । अतः वे समय को चुनौती देने में जैसे समर्थ हैं ।
        यूं श्री संतोष यह बखूबी समझते हैं कि कम से कम दुनियां के दूसरे लोगों के वास्ते ही सही, उन्हें समय का चुनाव कर लेना चाहिए । जाहिर है इसके लिए पहले उन्हें ऐसी तमाम स्थितियों का मुआयना कर लेना होगा जो उनके चैतन्य न रह पाने से उनके विरोध में खड़ी हो जाती हैं । इसके लिए वे अपने में अतीन्द्रिय सामरथ्य भी खोजने लगते हैं-
 इतना हल्का /कि उड़ सकूं/पूरे आकाश में
 इतना पवित्र/कि जुड़ सकूं/पूरी पृथ्वी से
इतना विशाल /कि समेट लूं /पूरा विश्व अपने में -पृ.14/15
    अब प्रश्न यही रहता है कि इस कवि की कविता उसे कितने दूर ले जाती है/ले गई है-
फिसलते /नेत्र फिसलते दृष्य/फिसलती /गति फिसलते सत्य
आदमी /की नीयत में खोट
सतह /के नीचे के विस्फोट- पृ. 92
-कोई सीमा नहीं है, कोई हद नहीं है । वह कहीं भी/किधर को भी चल पड़ता है । यह हद यदि अपने आपको बचा रखती है, तो बचाले,  कवि तो कितनी भी लम्बी रेखा खींच लेने का माद्दा रखता है !

  अच्छा हो समय को दी गई इस चुनौती को हम समय के सुपुर्द कर यह प्रतीक्षा करें कि कल -(- करीब एक चौथाई दशक का समय) कवि को क्या जबाब लेकर आता है!                                                                                        35, ईडन गार्डन, भोपाल, १६