Wednesday 11 November 2015

समर्पण ( खंडकाव्य, अप्रकाशित)

खण्डकाव्य (अप्रकाशित)

                        समर्पण
                                              प्रभुदयाल मिश्र

                  मिलन
               1
कितना था लावण्य भरा उन दो नयनों में
प्रहरी पलक सदा जिनकी रखवाली करते
कितने जग के सत्य दृष्टि उन्मीलन में थे
मेरे उर में जिनकी अब तक ज्योति समाई ।
              2
ओठ शुष्क से अपनी कम्पन मय जड़ता में
कहते थे कुछ समझ सका न जिनकी भाषा
चिर जड़ता में भी गतिमयता आ जाती थी
वाहों के तट सागर की नीरव अंगड़ाई ।
             3   
श्वासाहत विच्छिन्न वदन कंप कंप जाता था
वाणी स्वर संधान भूलकर थम जाती थी
निश्वासें कहती थीं कुछ कुछ मौन व्यथायें
साधन के अद्वैत क्षणों के उस आलिंगन ।
            4
आज मूक भाषा कुछ कुछ कहती लगती है
प्रतिध्वनि कानों तक आ आकर अर्थ बताती
मेरे प्रियप्राणों से प्रिय जीवनगत साथी
नहीं विरहयह किसी समय का अमर मिलन है!
            5
मिलनआह! मदकता! विस्मृति! स्वर्गिक वैभव
स्वप्निल सत्यों की रोचक मनमोहक दुनियां
तन्द्रिल पलकों का मदमाता कंपित सागर
जिसमें हम अस्तित्व हीन खोए खेाए थे ।
          6
दो विहगों में होड़ लगी थीपर फैलाये
उड़ते थे जो नभ के नीरव शून्य क्षितिज पर
छोड़ एक को कोई दूर नहीं जाता था
ज्यों अनन्त की ओर बढ़ें दो सम रेखायें ।
          7
कितने स्रोत लवणमय गिरि से फूट फूटकर
नयनों के सागर में सीधे आ जाते थे
भीगी आंखें बिजली से क्षण क्षण टकरा कर
प्यासी धरती पर शत-शत बादल बरसाती ।
         8
मदकता के प्यालों से मधु छलक छलक कर
विस्मृति उत्पीड़न का सर भरता जाता था
वर्षें से प्यासा जैसे मैं एक बटोही
गर्वोन्नत बैठा करता था मुख प्रक्षालन ।
        9
मन्द पवन की लहरों की नौका पर बैठे
जड़ता के सागर के उस अनन्त आंगन में
ब्रह्माण्डों के पार चले थे दो अन्वेशी
निश्चलपर संचालित गतिमय एक सत्य से ।
          10   
सत्य सत्य! कैसे इस धरती पर लाया
मुझको मेरे परम सत्य से आज अलग कर
सत्य कहां यह कोई स्वप्न सत्य बन बैठा
दिन में भी जो कभी-कभी सिर पर छा जा जाता ।
         11
किन्तु मार्ग यह और सामने की गिरि माला
पेड़ों के उड़ते तत्तेहिलती शाखायें
आने वाले पथिकों की पैनी सी आंखें
कैसे हो सकतीं हैं सब सपनों की बातें!
       12
स्वप्न सत्य यह नहीं मनुज का प्रखर सत्य है
कुछ आगे चलकर मिलता तंद्रिल वेला के
जीवन के निस्सीम समय के पुनरावर्तन
आज मुझे है ले आया इस कर्म क्षेत्र में ।
      13
प्रात किरण मध्यान्ह भानु में अब ढलती है
पगडण्डी ने राजमार्ग कां पांव पसारे
सिन्धु किनारे पर यूं तक इठलाती नौका
लहरों से टकरानेलड़ने अब जाती है 
        14
प्रिय! कैसे मैं आज चुकाऊं मूल्य प्रणय का
जीवन है कितना छोटा इसकी तुलना में
नभ के छोरों को निज में भी बांध सके जो
कैसे बाहों से मापू उस प्रणय सूत्र को!
      15
कितने स्वर्गो का था सुख मादक आलिंगन
कितने जग बनते मिटते अभिनव हृत्कंपन
कितने वैभव के सागर लहरा उछते थे
कम्पनमय लज्जारुण नयनों के उन्मीलन ।
     16
जीवन शुष्क मरुस्थल में अमराई भी है 
खारे सागर में भी है मधु का संचालन
स्वर्गिक वैभव नहीं कल्पना की रंगरेली
जना था तब सुस्ताये से इस मानस ने ।
         17
बीता जीवन दूर क्षितिज में जा अटका था
जब तुम आई थी बनकर मेरी परछाईं
स्वप्न सत्य का भेद कौन तब कर सकता था
वर्तमान पर भूत भविष्यत् थे न्यौछावर ।
       18
सुस्मित आभाओं के नव- नव सुमन सजाकर
कितने बार बनाई गूंथी थीं मालायें
वरद देव थे दोनों दोनों ही थे साधक
अमर साधना लीन साधना मय होकर भी ।
            19
कितने चित्र बनाये जग की चित्र-पटी पर
जीवन को तूलिका बनाकर हंसते हमने
कितने गीत सुनाए गा पाषाण जगत को
सींच सींचकर प्रेम सुधा से जड़तामय उर ।
        20
मेरे मानस की तट वासिनि राज मराली
श्यामल घन के बीच समाई हीरक माला
नभ के दो छोरों तक भी हम आ जा करके
सदा मिलेंगे सन्ध्या रवि ऊषा दिनकर से ।
      21
आज मांगता है जग मुझसे दिवस उजाला
आज विश्व ने मांगी है मुझसे तरुणाई
आज चुकाना है मुझको वह मूल्य प्रणय का
पाकर जिसको कभी न कोई उऋण हुआ है।
       22
प्रेम सदा निष्कलुष यथा गंगा की धारा
प्रेम जीव की अमर आत्मा की छाया है
प्रेम मनुज उर की कोमलतामानवता है
अमरों के ऊपर उसको है जो ले जाती ।
        23
प्रेम प्राण में चलती कुछ सांसों का स्वर है
प्रेम मनुज उर में बसती सी है अमराई
जहां भूलता है मानव खुद अपनी सत्ता
दर्शन के अद्वैत शिखर का बन आरोही ।
         24
किन्तु प्रेम का मूल्य बहुत ज्यादा होता है
इसे चुका पाता कोई विरला साधक ही
विक्रेता-जग उससे मुंह भर दाम मांगता
अथवा लेता छीन इसे वह आगे बढ़कर ।
           25
उसी मूल्य को आज चुकाने मैं जाता हूं
जीवन की गठरी सिर पर साधे परदेशी
प्राण! आत्मा अमर नहीं होती हो तब भी
आज समर्पण की कर देगी शाश्वत धारा । 







                   वियोग 
                 1
आह ! गया जैसे आया निर्मम निर्मोही
सपनों की दुनियां में भटका विकल वटोही
जीवन यह कैसी विडम्बना कैसी माया
काया लगती है छायाछाया वह काया !
                2
कितना खोया किन्तु न पाया कण भर मैंने
जीवन का आराध्य लखा न क्षण भर मैंने
मधुऋतुजिसके लिए प्राण पतझर कर डाला
हायवहीं आकर जीवन ने डेरा डाला !
               3
जड़ जीवन में जिसको चेतन सत्य बनाया
जिस अनपाए की आशा में छोड़ा पाया
कितना बड़ा स्वप्न था ये अब मैंने जाना
जग ने जिसको सत्य-सत्य कहकर सन्माना!
             4
स्वप्न! आह पर कितनी तड़पन कितनी पीड़ा
कितने कम्पक्षणिक उद्वेलन सिहरण ब्रीड़ा
प्राणों में कैसी मरोड़ मसलन होती है
उर सागर में बाड़व ज्वाला ही सोती है!
           5
सचमुच आगत! क्या तुम ही थे देव हमारे
वर्षों से पागल मन ने जिसको आराधा
हाय! सुनी न मैंने तो वह पग-ध्वनि भी थी
कानों ने जिसके सुनने का ब्रत साधा था!
          6
स्वाती जिसकी आश लिए प्यासी मैं भटकी
धरती अम्बर में जा छोड़ा नीर सुधोपम
प्यास बुझाने का जिस दिन पर वह अवसर आया
जड़ता का दुस्सीम शिखर दीवार बन गया ।
         7
हाय नीड़, जिसके श्वासों के तार बनाए
प्राणों के प्रहरी ने जिसकी की रखवाली
किन्तु एक दिन जब आगत पंछी वह आया
जीवन के निश्वास चेष्टाशून्य हो गए ।
        8
कैसे बचूं आज मैं अब इस दावानल
कैसे पार करूं यह उफनाता सागर
कैसे लाघूं आज थकी मैं चलती चलते
भू अम्बर को छूता ये प्राचीर प्रणय का!
      9
प्रणय! प्रणय!! क्रन्दन तड़पन जर्जर प्राणों का
उच्छ्वासों का आहत उर पुर से उद्वेलन
प्रणय! प्राण की पाटी पर असि की नोकों से
लिखी गई जीवन की कोई मर्म कथा है !
    10
सिहरनकम्पनब्रीड़ापुलकमधुर मुस्कानें
हावों की दुनियां की दुनियां में भावों का अभिनन्दन
व्यंग्यवक्रतापलकअलस भरी भौंहों से
दृष्टि हीन चलना सुलगा प्राणों  की बाती ।
        11
यही प्रणय का काव्य अन्त में जिसका अथ है
पठन नहीं पर लेखन इसका चलता रहता
बड़े बड़े विद्वान् न इसको कह पाते हैं
शब्द साधना हीन यहां आकर रुक जाते ।
      12
प्रणय स्वप्न है, बिना नींद के जो आ जाता
आंखें खुली शून्य छाया में लिपटी रहतीं
पागल मन पंछी उड़ उड़कर भग जाता है
जर्जर प्राणों का बिखरा सा नींड़ तोड़कर ।
   13
बेाझिल पलकों पर सहसा कोई आ जाता
आंखें भी न उसको देख समझ पाती हैं
मुस्काता बैठा बैठा वह क्रन्दन सुनता
देख देखकर दग्ध शिराओं का क्रीड़ांगन ।
 14
कभी हवा आती बायें से चुटकी भरकर
अपना सारा भार शीश पर रख जाती है
तारे सहसा झांक झांककर छुप जाते हैं
मेरे व्याकुल मानस की आकुल रंगशाला ।
15
अन्तर बीच कभी बडवानल आ जाता है
अंगड़ाई सी लेता लगता प्रणय-पुरुष ही 
उरप्राणोंखों को क्षण भर आहत करके
किसी गहन रव शून्य गुहा में खो जाता है ।
16
भीषण ज्वार कभी आता आकुल मानस में
तट को तोड़ भयंकर बाढ़ समा जाती है
तन मन छोड़ प्राण का तब एकान्त बटोही
जाता डूब चेतना हत सा किसी भंवर में ।
17
जीवन से वैराग्य कभी मुझको भाता है
ल्गता कभी तोड़ ही दूं यह सूत्र प्रणय का
जिसके झूठे बंधन में विस्मृति वैभव को
मेरी ममता ने सबकुछ अनजान लुटाया ।
18
काराजिसको जीवन का प्रासाद सुना था
छोड़ दिया था जिसको अपना घर भी मैंने
लगता तोड़ अभी डालूं भ्रम मय दीवारें
जे निश्वासों की छाया में पलती आईं ।
19
जग का हंसना मुझको कभी बहुत खलता है
खों से ओझल रहकर उसका ठिठलाना
व्यंग्यों की बौछार न जब मैं सह पाती हूं
लगता शीघ्र फाड़ ही डालूं प्रणयी अम्बर ।
20
अबला! हाअबला ही रहती प्रणय-तराजू
कितना चतुर पुरुष नहीं वह वणिक-लुटेरा
किया पुरुष-जीवन का जिसने पलड़ा भारी
धरती में इतना भरा भेद कर पक्षपात !
21
नारी पर न इसको सोच कभी पाती है 
विस्मृति की सांसों में है उसका जी पलता
स्वर्गिक सुमनों की शैया का सुख लेती वह
पा खुद को निर्जीव विकल नर की वाहों में ।
22
उफनाते अपने उर-सागर में जब नारी
नर को निज किश्ती समेत जाने देती है
अपना घर लुटते लखतीं पथराई आखें
दिवा-स्वप्न की जैसे उन पर छाई छाया ।
23
स्वप्न-स्वप्न! विस्मृतिप्रमादमादक पागलपन
संसृति की सांसों पर निश्चल सी यह छाया
प्राणों का एकान्त शिविर मन मोहक दुनियां
भावों का क्रीड़ा आंगन निस्सीम प्रणय सा ।
24
प्रणय! प्रणय! मानव सचमुच न कुछ कह सकता
विवश प्राण का मादकतामय चिर नर्तन यह
जीवन का दर्शनसंयमतप और साधना
जिसके पावों की थिरकन पर सदा डोलते ।
25
मेरे प्राण! भुलाऊं कैसे वह छवि अब मैं
आंखों ने जिसका अब तक श्रंगार किया है
कैसे लौटाऊं वह आया गंतुक
मन ने सौ सौ बार द्वार पर जिसे बुलाया!
26
कैसे मानूं चले गए तुम मुझे छोड़कर
जब मेरे अन्तर अनेक संसार सजे हैं
कितने दूर कहो जा सकते विकल बटोही
अन्तर में प्रणयी का भार भरे दुर्वह !
27
ओ प्राणों के तार बजो अब अपनी लय में
जीवन की किश्ती मानस में छोड़ रही हूं
आहत उर को बना जीर्ण सा स्यंदन अपना
खोल दिगंतर का पट जातीं मन की राहें ।
28
प्रेमबहुत कह चुकीशेष फिर भी है सारा
शब्दों में जीनाहोना कैसे संभव है
अक्षरक्षर जीवन की गहराईमाप कहां है
प्रेम नहीं फल प्राप्यएक यह क्रियासमर्पण!    

                             मई 1965