Thursday 14 November 2013

एक नया (पुराना) गीत



अनुत्तरित प्रश्न

जो नहीं मैं हुआ शेष वह
हल सभी प्रश्न को दे दिए
मन्त्र निष्फल, निरर्थक हुए
शब्द के अर्थ मेरे लिए ।

हर पतन ने गगन को छुआ
सांस का विश्व ऐसा बसा
कुछ करूंगा, किया पर नहीं
लालसा पर रुदन आ हंसा
वक्त के ठीक इंतजार में
हम ठगे से खडे रह गये  ़

स्वप्न संसार में सृष्टि स्वप्निल, नहीं
मानकर मैं चला सत्य की खोज में
सूर्य की रौशनी में न देखा शहर
दामिनी से ठगा मेघ की मौज में
दृष्टि में, आंख में, देख कर भी जिसे
पास जो, दूर है, मानकर ही जिए....

ब्रह्म सच, विश्व भ्रम
सुन लिया, पर गुना है नहीं
तुम वही, वह यही,
सब कहीं है वही, यह सही
शून्य में पर लिखी थी गई जीवनी
और चित्रित कथानक सजे हाशिये !
मन्त्र ़..

दूर धरती नयी, नित्य दुनियां अलग
देखता मैं रहा आपको, शुक्रिया
एक ओझल रहा ही हूं मैं
मृत्यु की एक जीवन-क्रिया
विष, अमृत पिया है किसे यह पता
आप चाहें स्वयं ज्ञात कर लीजिये ।
मन्त्र ़

मैं था, मैं रहूंगा, नहीं इसलिए
हो सका, जोकि हूं
पास काफी नमी के पहूंच
दंश अभिव्यक्ति के बस सहूं
शेष कहने ही की आंच में
उड़ गए सब कथन दूधिए
मन्त्र निष्फल, निरर्थक हुए
शब्द के अर्थ मेरे लिए ।

Monday 28 October 2013

वेद की कविता- सूर्या -विवाह



वेद की कविता   - प्रभुदयाल मिश्र 

            सूर्या विवाह
(ऋग्वेद मंडल १० सूक्त ८५ मंत्र ६.....)

रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्तम् . ६
ऋचा थी परिचारिका उसकी सखी
जब सूर्या परिणीत पतिगृह जा रही थी
आवरण उसका मनोहर, भव्य
दिव्य गाथा प्रेम की तब कह रहा था .

चित्तिरा उपबर्हणम् चक्षुरा अभ्यन्जनम्
द्यौभूमिः कोश आसीद यद्यात सूर्या पतिम् . ७
चारु चित आभरण, अंजित नयन
धन पृथिवी-गगन थे उसके
उस समय जब सूर्या परिणीत
पति के भवन प्रस्थान करने जा रही थी .

स्तोमा आसन प्रतिधयः कुरीरं छंद ओपशः
सूर्याया अश्विना वरा ऽग्निरासीत् पुरोगवः. ८
स्तोत्र ही थे चक्र के आरे सुशोभित छांदस-स्यंदन
वर थे अश्विनी-सुत दोनों पवन था अग्रगामी सूर्या का .

सोमो वधूयुर्भवद्श्विनास्तामुभा वरा
सूर्याम् यत् पत्ये संशंतीम् मनसा सविताददात् . ९
वधू की कामना तब सोम ने की थी
कि दोनों अश्विनी सुत का वरन करने समुत्सुक थी स्वयं सूर्या
तथा संकल्प इसका सूर्य ने साधा .

मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुच्छदिः
शुक्रावनड़्वाहावास्ताम् यद्यात् सूर्या गृहम् . १०
मन हुआ था सूर्या का रथ, छत्र आच्छादित गगन
सूर्य-शशि थे सारथी जब सूर्या पति के भवन
प्रस्थान करने जा रही थी .

ऋक्सामाभ्यामभिहितो गावौ ते सामनावितः
श्रीत्रं ते चक्रं आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः . ११
साम-ऋक् थे वृषभ सम् अनुरूप उस रथ के
श्रवण जैसे चक्र थे और पथ था ज्यों परम आकाश .

शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः
अनो मनस्मयम् सूर्या ऽऽरोहत् प्रयती पतिं . १२
दो चक्र उस गतिशील रथ के कान थे था पवन रथ का धुरा
आरूढ़ थी सूर्या मनोमय रथ
उस समय परिणीत वह प्रस्थान करने जा रही थी जब .
  क्रमशः                  
        
सूर्याया बहतुः प्रागात् सविता यमवासृजत्
अघासु हन्यन्ते गावो ऽर्जुन्योः पर्युह्यते . १३ .
पिता रवि ने दान बहुधा
पूर्व इसके कि पति गृह सूर्या पहुंचे
वहाँ भेजा
मघा वह नक्षत्र था जब धेनु धन पहुंचा
बधू के फाल्गुनी में बहाँ पहुँचने के लिए .

यदश्विना पृच्छ्मानावयातम्  त्रिचाक्रेंण वह्तुम् सूर्यायाः
विश्वे देवा अनु तद्धामजानन् पुत्रः पितराववृणीत पूषा . १४ .
तीन पहियों से बने रथ में
स्वयं जब सूर्या का अश्विनीसुत आये वरण करने
देवताओं ने किया इसका समर्थन
पुत्र पूषा ने तुम्हारा भी
तत्समय ही कर लिया जैसे चयन .

यदयातं शुभस्पती वरेयम् सूर्यामुप
क्वैकम् चक्रं वामासीत् क्व देष्टाय तस्थथुः . १५ .
अश्विनी सुत, जब वरण करने चले तुम सूर्या का
चक्र रथ का तुम्हारा पहला कहाँ था ?
कहाँ रहते उस समय थे तुम
जिस समय प्रस्ताव तुमने यह किया ?

द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः
अथैकं चक्रं यादृहा तदध्दातय इद्विदुः . १६.
चक्र हैं दो तुम्हारे शशि-सूर्य
ऋतुकर तीसरा तो एक संवत्सर अलख है
ज्ञात है यह मात्र
वेदविद् विद्वतजनों को ही .

सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्यो ऽकरं नमः . १७ .
देव, रवि, मित्रा वरुण
सब प्राणियों के सुखद, हितप्रद देवताओं को
है नमन यह मेरा .

पूर्वापरम् चरतो माययेतौ शिशु क्रीडन्तौ परियातो अध्वरम्
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतुरंयो विद्धज्जायते  पुनः  . १८.
पूर्व पश्चिम में विचरते तेज अपने
यज्ञ में आते सदा क्रीडा सहज
देखता रवि एक सारा भुवन यह निर्भ्रांत
दूसरा- शशि
मास, संवत्सर द्विधा निर्माण करता है .   


नवो नवो भवति जायमानो ऽह्नाम केतुरुषसामेत्याग्रम्
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन् प्र चंद्र्मास्तिरते दीर्घमायुः . १९ .
चन्द्रमा नूतन, नया प्रतिदिन उदित नभ में
अग्रतर आता उषा के कृष्ण पखवाड़े
इस तरह जैसे कि वह हवि देवताओं के लिए देता
हमें दे दीर्घायु सुखकर, शीतकर.  १९ ,     

सुकिंशुकं शल्मालिम् विश्वरूपं हिरण्यवर्णंम् सुवृतम् सुचक्रम्
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनम् पत्ये वहतुम् कृणुश्व . २० .
सुकिशुक, शाल्मलि विनिर्मित
स्वर्ण द्युति, सुवृत्त सुन्दर चक्र वाले
सूर्ये रथ पर चडो पति का वरण करने
बनाओ अमृतपुर को और भी सुखकर . २० .

उदीर्श्वातः पतिवती ह्येषा विश्ववासुम् नमसा गीर्भिरीले
अन्यामिच्छ पितृशदम् व्यक्तम् स ते भागो जनुषा तस्य विद्धि . २१ .
यहाँ से उठो विश्वावसो अब, संस्तुत्य तुम, लो नमन यह
सूर्या ने पति का वरण तो कर लिया है
तुम पितृ कुल पोषित सुकन्या दूसरी देखो
तुम्हारा भाग जो
उसे जानो, उसे पहचान लो तुम जन्मना . २१ .

उदीश्वार्वातो विश्वावसो नम्सेलामाहे त्वा
अन्यामिच्छ प्रफर्व्यम् सम् जायां पत्याम सृज . २२.
अब तो उठो विश्वावसो लो नमन फिर, संस्तुति गान यह
तुम बृहत् नितम्बिनी जो दूसरी जाया
उसको बनाओ भार्या वरणीय पति की इस तरह . २२.

अन्रृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था एभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्
समयर्मा सम् भागो नो निनीयात् सम् जास्पत्यम् सुयममस्तु देवाः . २३ .
मार्ग निष्कंटक, सरल हों वे
मित्र जिनसे वधू का अनुसरण करते
अर्यमा, भग ठीक हमको ले चलें उनपर
सूत्र परिणय में बंधे दोनों
देवताओ सुखी हों . २३ .

प्र त् मुन्चामि वरुणस्य पाशाद् एन त्वाबध्नात् सविता सुशेवः
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोके ऽरिश्टाम् तवा सह पत्याम दधामि . २४.
मुक्त करता हूँ तुम्हें मै अब वरुण के बंधनों से
तुमें बांधा सेव्य सविता ने जहां
ऋत भवन, सुकृत भुवन में अब रहो तुम अप्रतिहत
पति के सहित आह्लादयुत . २४ .  

प्रेतो मुन्चामि नामुतः सुबद्दामामुस्करम्
यथेयमिन्द्र मीड्ध्वः सुपुत्र सुभगासति . २५.
यहाँ से उन्मुक्त करता हूँ
नहीं उस भवन से
वहाँ तो आबद्ध तुम अब हो
इन्द्र दाता, यह सपुत्रा
भाग्य वर्धित हो .

पूषा त्वेतो नयतु हस्त्ग्रह्या ऽश्विना तवा प्र वह्ताम् रथेन
गृहान् गच्छ गृहपत्नी यथासो वृष्नी त्वं विदथमा वदासि . २६.
तुझे लेकर चलें पूषा
कर ग्रहण करके
अश्वि रथ में बिठा पहुचाएं तुझे
स्वामिनी गृह की बनो तुम वहाँ जाकर
स्वबश कारिणि
बुद्धि सम्मत तुम वचन बोलो .

इह प्रियं प्रजया ते समृध्य्तामस्मिन गृहे गार्हपत्याय जागृहि
एना पत्या तन्वं सं सृजस्वाऽधा जिव्री विदथमा वदाथः . २७ .
वृद्धि हो, समृद्धि हो, संतान प्रिय सबकी यहाँ
तुम रहो जागृत सदा ही इस भवन
बसो तुम सदा ही अर्धांग पति के
वचन बोलो सदा पारमार्थिक वृद्ध होने पर.

नील लोहितं भवति क्रित्याशक्तिव्यज्य्ते
एधन्ते अस्या ग्यातायुः पतिर्बंधेषु बद्ध्य्ते . २८ .
लाल नीली कभी वः होती
ध्वंसकारी मति मचलती है
लोग आ जाते कुशलता पूछने वाले
निकट के सम्बन्ध सूचक
भवन पति आबद्ध होता तब
है बंधनों में .

परा देहि शामुल्यम् ब्रह्मभ्यो वि भाजा वसु
क्रित्येषा पद्धती भूत्वा जाया विशते पतिम् २९ .
वस्त्र त्यागो मलिन अपनी देह से
दान दो सद्ब्ब्राह्मणों को प्रायश्चित में
जा चुकी है दूर कृत्या मलिन ज्वाला
और बन पत्नी बसी यह देह पति की

अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया
पतिर्वध्वो वाससा स्वमंग्मभिधित्स्ते . ३० .
श्री रहित, रोगादियुत ही रहे पति
वधू के वह स्वयं धारे यदि वसन
अशुचिता तो पापमूलक है सदा .

ये वध्वश्चन्तुं वह्तुम् यक्ष्मा यन्ति जनादनु
पुनस्तान् यज्ञिया देवा नयन्तु यत् आगतः . ३१ .
वधू अथवा वधू के सम्बन्धियों से
व्याधियाँ वर को मिली जो यक्ष्मा आदिक
देवता यज्ञादि पोषक
उन्हें ले जाएँ वहाँ
आई जहां से हों वे मूलतः .

मा विदन् परिपन्थनो या आसीदन्ति दम्पती
सुगोभिर्दुर्गमतीता मप द्रान्त्वरायः . ३२ .
शत्रु, प्रतिद्वंद्वी नहीं आयें विभेदक वर वधू के
लौट जाएँ वे सरल पथ, दिशा दुर्गम
दूर, अति ही दूर वे भागें वहाँ से शीघ्र ही .

सुमंगलीरियम् वधूरिमाम समेत पश्यत 
सौभाग्यमस्यै दत्त्वाया ऽथास्तम् वि परेतन. ३३.
सुमंगली है यह वधू देखें इसे शुभतर
सभी आशीष दें इसको
करें प्रस्थान गृह अपने तभी .

त्रिष्टमेतत् कटुकमेत दपाष्ठवद्विषवन्नैतदर्त्तवे
सूर्या यो ब्रह्मा विद्यात् स इद्वाधूयमर्हति . ३४ .
वस्त्र यह दाहक, मलिन, विषवत्
नहीं किंचित कहीं यह व्यवहारवर्ती
ब्रह्मविद जो जानता है सूर्या को
ग्रहण कर सकता वही इसको कहीं .

आशसनं विशसन मथो अधिविकर्तनम्
सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धाति . ३५ .
आभरण, भूषण शिरों के, विकर्तन
तीन भागों में विभाजित यह वसन
सूर्या के तीन रूपों को दिखाता है
ब्रह्मविद ब्राह्मण उन्हें पर जानता केवल.

ग्रिभणामि ते सौभग्त्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्थासः
भागो अर्यमा सविता पुरन्धिर्म्हयम् त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः . ३६.
हाथ तेरा ग्रहण करता भाग्य वर्धिनि
जरावस्था तक रहो तुम साथ मेरे
देवता, भग, अर्यमा, सविता, सुरेश्वर
आदि सबने धर्मतः
तुझे सौंपा है मुझे गार्हस्थ्य वैभव .

तां पूषन्छिवत्मामेरय्स्व यस्यां बीजं मनुष्याः वपन्ति
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशंतः प्रहराम शेषम् .३७.
करो प्रेरित शिवतमा को देव पूषा
श्रृष्टि रचना में मनुज का बीज कारण
उरु समाश्रित पुरुष की जो संग कांक्षी
कामना का वेग निज में धारती है .

तुभ्यमग्रे पर्यवहन् त्सूर्यां बह्तुना सह
पुनः पतिभ्यो जायाम् दा अगर प्रजया सह . ३८.
तुम्हें सूर्या को समर्पित किया देवों ने प्रथम, हे अग्नि
उपहारों सहित
सोम को सौंपा जिसे तुमने
भार्या वह हमारी सुख वढाए संतति सहित.

पुनः [पत्नीमग्निदादायुषा सह वर्चसा
दीर्घायुरस्या यः पति जीवति शरदः शतम् . ३९ .
आयु, शोभा अग्नि ने दी है जिसे भार्या वह
दीर्घ, पति की आयु का कारण बने 
बिठाये वह  स्वयं भी जिससे आयु के सौ वर्ष अपने भी .

सोमः प्रथमो विविदे गंधर्वो विविद उत्तरः
तृतीयो अग्निश्टे पतिस्तुरयस्ते मनुष्यजः . ४०
सोम ने पाया तुम्हें पहले
मिली तुम गन्धर्व को तब जाकर
तुम्हारा तीसरा पति बना पावक था
मनुज चौथा पति तुम्हारा है .

सोमो दद्गंधार्वाय गंधर्वो ददग्न्ये
रयि च पुत्रान्श्चादा दग्निर्म्ह्य्माथो इमाम . ४१ .
सोम ने गन्धर्व को सौंपा जिसे पहले पहल
अग्नि को अर्पित किया गन्धर्व ने जिसको
कीर्ति संतति सहित पावक ने उसे
अब मुझे सौंपा बनाकर भार्या .

इहैव स्तम् माँ वि यौष्टम् विश्वमायुव्यर्ष्नुतम्
क्रीलन्तो पुत्रैर्नप्तरि्भि मोदमानौ स्वे गृहे . ४२ .
रहो तुम दोनों कभी मत प्रथक होना
प्राप्त करना आयु अपनी पूर्ण
रहो क्रीडारत स्वसुत, पौत्रादिकों के साथ
भवन निज आमोद में .

आ नः प्रजां जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा
अदुर्मंगलीः पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम् चतुष्पदे . ४३ .
प्रजापति हमें दें संतति भली
रक्षक अर्यमा हों हमारे जब हम बृद्ध हों
वधू पति के भवन पहुँची मांगलिक
स्वजन सब पशुवर्ग को शुभ हो .

अघोरचक्षुरपतिघ्न्योधि शिवा पशुभ्यः सुमनः सुवचः
वीरसूर्देवकामा स्योना शम् नो भाव द्विपदे शम् चतुष्पदे . ४४ .
दृष्टि हो निर्मल, न तुम पति पीड़ित करो
जीव, पशु की बनो हितकारी सुमना, सत्कीर्ति से संयुत
वीर पुरुषों की प्रसविनी, देव पूज्या, सदा सुखकारी बनो
चार, द्विपद जीव सबकी ही .

इमां तवमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगाम् कृणु
दशास्याम् पुत्राणा धेहि पतिमेकादशम् कृधि . ४५ .
सुपुत्रा और सुख सौभाग्यकान्क्षिणि बनाओ देवेन्द्र इसको
पुत्र दश दो इसे, पति हो पुत्र एकादश .

सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम् भव
ननान्दरि सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु . ४६.
श्वशुर, सासू की बनो तुम स्वामिनी
ननद देवर सभी हों तुम्हारे अनुगत .

समंजन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ
सं मातरिश्वा सं धाता सं देष्ट्री दधातु नौ . ४७ .
मिलादें देवता उर हमारे
वायु, जल, धाता, सरस्वती सब
करें संयुत हमें जग कर्त्तव्य में.                                    
                                     

      
                       
             


                   ...                                    





   सूर्या विवाह ( अथर्ववेद कांड १४ सूक्त १ )
सम्राग्येधि स्वशुरेषु सम्राग्युत देवृषु
ननान्दुहु सम्राग्येधि सम्राग्युत श्वश्रवा . ४४.
श्वसुर की स्वामिनी बनो
तुम अधीश्वरी देवरों की
ननद की रानी
महारानी रहो सासू की तुम बनकर .   

या अक्रिंतस्न्वयन याश्च तत्निरे या देवीरंता अभितोऽददन्
तास्त्वा जरसे सं व्यय्न्त्वायुष्मतीदम पारी धत्स्व वासः . ४५ .
जिन्होंने सूत काता है
या इसको बुना है
ताना तानती जो हैं
या बाना ठीक रखती हैं
बुनें वे देवियाँ सब तुम्हें
तुम दीर्घ वय धारण करो जिससे . ४५ .

जीवं रुदन्ति वि नयन्त्यध्वरम दीर्घामनु प्रसितिम दीर्घ्युर्नर
वामं पितृभ्यो य इदं समीरिरे मयः पतिभ्यो जनयै परिश्वजे . ४६.
सभी रोते विदाई पर
कि जब कोई स्वजन
पथ दीर्घ जाता है अलग हमसे
किन्तु माता पिता को भी प्रीतिकर
तेरी विदाई
यज्ञ जैसी
तुम्हें पति का साथ हो सुखकर . ४६ .

स्योनम् ध्रुवं प्रजायै धारयामि ऽतेष्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे
तमा तिश्ठानुमाद्या सुवार्चा दीर्घ त आयुः सविता कृणोतु . ४७.
प्रबल यः आधार प्रस्तर
देवि पृथिवी के निकट
सुस्थिर रहो इस पर
दीर्घ हो जीवन
बल, वैभव तुम्हारा
देव सविता कृपा से सर्वदा . ४७.

येनाग्निरस्या भूम्या हस्ते जग्राह दक्षिणं
तें गृह्णामि ते हस्तं माँ व्यथिष्ठा मया सह प्रजया च धनेन च. ४८.
भूमि का कर अग्नि जैसे धारता है
कर लिया पाणिग्रहण वैसे तुम्हारा अब
दुखी मत हो/ साथ होगा हमारा
एश्वर्य, धन, संतति सहित

देवस्ते सविता हस्तं गृह्णातु सोमो राजा सुप्रजसम् कृणोतु
अग्निः सुभगाम् जातवेदाः पतये पत्नीं जर्दष्टिं कृणोतु . ४९.
देव सविता करें यह पाणिग्रहण
सोम राजा तुम्हें दें संतान सुख
भाग्यावार्धिनि भार्या हो साथ/ जरावस्था तक
अग्नि दें आशीष ऐसी आज .

गृह्नामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जर्दाश्तटर्यथासः
भगो अर्यमा सविता पुर्धिर्मह्यम त्वादुर्गाहपत्याय देवाः. ५०.
ग्रहण करता हाथ तेरा आज मैं सौभाग्यवर्धिनि
जरावस्था तक रहो तुम साथ मेरे भार्या बन
तुम्हीं सौंपा है मुझे भग, अर्यमा, सविता, सुरेश्वर
आदि देवों ने लोक में गार्हस्थ्य जीवन बिताने.

भगस्ते हस्तमग्रहीत सविता हस्त्मग्रहीत्
पत्नी त्वामासि धर्मणा ऽहं गृह्पतिस्तव . ५१ .
हाथ तेरा ग्रहण भाग ने है किया
देव सविता ने तथा धारा उसे
भार्या तुम हमारी हो
धर्म से हूँ पति तुम्हारा मैं

ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाह्ब्रहस्पतिः
मया पत्या प्रजावति सं जीव शरदः शतं . ५२ .
तुम सुपोष्या हो हमारी
ब्रहस्पति ने तुम्हें सौंपा है मुझे
संतति शील, सुख सौभाग्यदायी देवि
वर्ष सौ तुम जियो अबसे साथ मेरे.   

त्वष्टा वासो व्य दधाच्छुभे कं ब्रहस्पतेः प्रशिषा कवीनां
तेनेमाम् नारीम् सविता भगश्च सूर्यामिव परिं धत्ताम् प्रजया. ५३.
ब्रहस्पति, विद्वान जन आशीष से
तुम्हारे हेतु त्वष्टा ने वसन निर्मित किया
सूर्य, भग ने जिसे सौंपा है तुम्हें
यह  बने सौभाग्य, सुख का तुम्हारा कारण.

इन्द्राग्नी द्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा
ब्रहास्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु . ५४.
इन्द्र, पावक, भूमि, द्यावा, मातरिश्वा
मित्र, जल, भग, अश्विनीसुत, सोम
ब्रहस्पति, मरुत, ब्रह्मा देवता सब
देवि को दें वर कि वह संतति बढाए .

ब्रहस्पतिः प्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशां अकल्पयत्
तेनाम्श्विना नारीं पत्ये सं शोभयामासि. ५५.
ब्रहस्पति ने प्रथमतः शिर सूर्या के
केश परिकल्पित किये 
कि अश्विनीसुत उसे शोभा दें
बनाएँ भार्या अपनी . 

इदं तद्रूपं यद्वस्त योषा जायां जिज्ञासे मनसा चरन्तीम्
तामंवतिष्ये सखिभिर्नवग्वैः क इमान् विद्वान् वि चचर्त पाशान्. ५६.
रूप इसका जो वसा मुझमें

देखता हूँ नीड के मन जो अवस्थित
यह नहीं गोपन, सहज संप्राप्त यह
यज्ञपति ऋत्विज कृपा
काट सकता कौन ये बंधन कदाचित अन्यथा !

अहं वि ष्यामि मयिम् रूप्मस्या वेदवित् पश्यन् मनसः कुलायम्
न स्तेय्मद्मि मनसोद्मुच्ये स्वयं श्रथ्नानोः वरुणस्य पाशान . ५७ .
खोलकर अपने करों से यह वरुण बंधन
रूप जो इसका वसा मुझमें
देखता हूँ नीड के मन जो अवस्थित
यह नहीं है अपहरण
वरुण के बंधन स्वयं ही कर शिथिल
मुक्त हूँ मैं आज स्वसंकल्प से.

प्र त्वा मुन्चामि वरुणस्य पाशात् यें त्वाऽबध्नात् सविता सुशेवाः
उरुम् लोकं सुगमत्र पन्थां कृणोमि तुभ्यं सह्पत्न्यै वधु . ५८.
खोलता हूँ मैं तुम्हारे वरुण बंधन
जिनसे सेव्य सविता ने तुम्हें बांधा
मार्ग यह गमनीय, विस्तृत लोक यह
धर्मचारिणि, तुम रहो अब साथ मेरे.

उद्यच्छध्वमप रक्षोहनाथेमाम् नारीम् सुकृते दधात
धाता विपश्चित् पतिमस्यै विवेदु भगो राजा पुर एतु प्रजानन् . ५९.
करो संहार दुष्टों का
उठाओ शास्त्र ऊपर
सुबाला पुण्य पोषित करो
विधाता वेदविद् ने पति इसे सौंपा
कि राजा भग बढ़ें आगे सभी कुछ जानकर

भगस्त्ततक्ष चतुरः पादान् भगस्त्ततक्ष चत्वार्युश्पलानि
त्वष्टा पिपेश मध्यतोऽनु वर्ध्रान्त्सा नो अस्तु सुमंगली . ६०.
चार आभूषण पगों के
चार सरसिज देह पर शोभा बढाते
बनाए भग ने
त्वष्टा ने कधानी उसकी बनाई
मांगलिक यः वधू हो सबके लिए.

सुकिंशुकुम् वहतुम् विश्वरूपं हिरण्यवर्नम् सुवृतम् सुचक्रम् 
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनम् पतिभ्यो वहतुम् कृणु त्वं . ६१.
सुकिशुक, विविध वर्णों, स्वर्ण आभा
सुवेष्टित चक्र सुन्दर
सूर्ये आरूढ़ हो रथ पर
बनाओ सुखी पति गृह और परिजन
अमृत भव में सर्वदा

अभ्रात्रिघ्नीम् वरुणाप शुघ्नीम् बृहस्पते
इन्द्रापतिघ्नीम् पुत्रिणीमास्मभ्यम् सवितर्वह. ६२ .
बंधु, पति, पशु आदि कोई भी
कभी न नष्ट हों इससे
ब्रहस्पति, इन्द्र हे सविता
पुत्रिणी बनाओ इसको
अपनी कृपा . 

माँ हिसिष्टम् कुमार्यम् स्थूणे देव्क्रिते पथि
शालाया देव्या द्वारं स्योनम् क्रिण्मो बधूपथं . ६३
यह चले अक्षत, अप्रतिहत
देवकृत पथ, स्थूण द्वय
मार्ग हो निर्विघ्न, सुखकर
देवपुर के द्वार तक इसको .

ब्रह्मापरम् युज्यताम् ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः
अनाव्याधाम् देवपुराम् प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके वि राज .
बाद में, पहले
तथा आरम्भ याकि अंत अथवा मध्य में
ब्रह्म हो सर्वत्र संस्थित
देवपुर हो प्राप्त
व्याधि वाधाहीन यह
पतिपुर विराजे .