Saturday 7 April 2012

Mata Bhumi aur Prithivi Putra

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आज के वैज्ञानिक शोध की यह स्थापना है कि यह विराट ब्रह्माण्ड अपनी अनन्त आकाशगंगाओं, प्रकाश की गति, गुरुत्वाकर्षण और कृष्ण विवर आदि की सारी संयोजनाओं में जैसे एक अच्छे सिलाई मास्टर की तरह ही अपनी कतर ब्योंत से धरती को हमारे रहने का आकार देने में समर्थ हुआ है। यदि उसकी नाप जोख में कहीं रंच मात्र का भी अंतर आ जाता तो यह उपग्रह भी अन्य ठंडे, सूखे और वियाबान मंडराते डोलते आकाश पिंडों की कतार में पड़ा भटक रहा होता । यदि हमारी दृष्टि में यह विराटता नहीं भी समाती तब भी हम इतना तो अनुमान लगा ही सकते हैं कि जैसे इस धरती को हमारी संपूर्ण आवश्यकताओं का कितना परिपूर्ण अनुमान है! हम स्वयं कुछ समय के बाद जर्जर, क्षीण हाकर कूच कर जाते हैं, हमारी बनाई, समझी सभी सामग्री और पदार्थ कुछ समय बाद निःसत्व और निस्सार हो जाते हैं, किन्तु यह धरती हमारी प्रत्येक आवश्यकता के पूर्वानुमान से जैसे हमें निहाल करने को संकल्पित बनी हुई है ! ऐसी धरती को देख उससे तादात्मीकृत होकर ही वैदिक ऋषि यह कह सकता है-
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु । 3 ।