Monday 7 November 2022

अक्षरं ब्रह्म परमं

                   अक्षरं ब्रह्म परमम्

 

-    प्रभुदयाल मिश्र

 

गीता के आठवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने श्री कृष्ण से सीधा प्रश्न किया- किं तद् ब्रह्म- वह ब्रह्म क्या है ? इसका मूल संदर्भ अध्याय 7 के अनंतिम श्लोक 29 में है जहां श्री कृष्ण ने कहा था कि जो लोग उनके आश्रित होकर चेष्टा करते हैं वे उस ‘ब्रह्म’ को जानते हैं- ते ब्रह्म तद्विदु:। इस प्रश्न का बहुत सीधा और संक्षिप्त उत्तर श्री कृष्ण यह देते हैं-

‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ (गीता 8/3)

परम अक्षर ब्रह्म है । यह प्रश्न उठता है कि यह ‘परम’ विशेषण अक्षर का है कि ब्रह्म का ? तो यह दोनों में ही प्रयोक्तव्य है क्योंकि अक्षर और ब्रह्म भी तदरूप ही हैं। अक्षर के साथ प्रयुक्त करने पर इसका आशय है – परम अक्षर का नाम ब्रह्म है । और ब्रह्म के साथ प्रयोग कर कह सकते हैं- अक्षर ही परम ब्रह्म है ।

यहाँ यह प्रश्न भी उठेगा कि अव्यक्त ब्रह्म के लिए इन विशेषणों की क्या आवश्यकता है तो इसके लिए गीता में ब्रह्म की आवृत्ति जिस-जिस अर्थ में हुई है उस पर भी एक दृष्टि डाल ली जानी चाहिए । सबसे पहले गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक 15 में ब्रह्म शब्द इस प्रकार तीन बार आया है-

कर्म ब्रहमोद्भव विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।

अर्थात कर्म समुदाय वेद (ब्रह्म) से और वेद को अक्षर ब्रह्म से प्रकट जानो । इससे यही सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है ।

इसके अतिरिक्त गीता में व्यवहृत ब्रह्म के अन्यत्र आशय इस प्रकार स्पष्ट होते है-

 (गीता/अध्याय)                  श्लोक               आशय

  3                            15                  वेद

  4                            32                  वेद

  8                            3,24               परमात्मा

  8                            17                 ब्रह्मा

  11                           37                 ब्रह्मा 

  14                           3, 4               प्रकृति

  17                           24                 वेद

  18                           42                 ब्राह्मण

  ‘अक्षर ब्रह्म’ की इस विवृत्ति के साथ यहाँ यह भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि सर्वथा उपाधि रहित अव्यक्त ब्रह्म को कुछ विशेषणों से संपृक्त कर हम क्यों समझना चाहते हैं? ज्ञानेश्वर महाराज तो ब्रह्म की ‘सत् चित् और आनंद विभूतियों को भी बड़ा आक्षेपात्मक मानते हैं और कहते हैं कि इस तरह जैसे हम उसे असत्, अचित् और निरानंद से ऊपर उठाकर यह सिद्ध करना चाहते हैं मानो इन तत्वों की अवस्थिति परमात्मा से पृथक कोई अतिविशेष भी हो सकती है! ऋग्वेद (10/129) के नासदीय सूक्त में ‘नासदासीन्नो सदासीत्’    (तब नहीं असत् अथवा सत्) तो यही उद्घोष हुआ है कि सत् और असत् परमात्मा की सृष्टि संरचना की ही समवर्ती अनंतर धाराएं ही हैं ।

किन्तु यह स्पष्ट है कि हम ज्ञात से ही अज्ञात, कार्य से ही कारण का अनुसंधान कर सकते हैं, भले ही हमारी यह चेष्टा सर्वथा अविज्ञेय उस अनादि और अनंत ‘अक्षर ब्रह्म’ को जानने की हो जो हमारे सभी विज्ञात धर्मों का ‘विरुद्धाश्रयी’ ही क्यों न हो । वेदान्त के परम प्रकर्ष सिद्धांत ग्रंथ ‘पंचदशी’ में विद्यायरण्य स्वामी कहते हैं –

एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम्

सृष्टे: पुराधुनाsप्यस्य तादृक्त्वं तदितीर्यते (15/5)

अर्थात् सभी धर्मों (नाम और रूप) के परे परम ब्रह्म सृष्टि के आदि में अवस्थित था । सृष्टि के अनंतर भी वह अपरिवर्तित है। इसका ‘तत्’ पद (तत् त्वमसि) के रूप में शोधन किया जाता है । भगवत्पाद आदिशंकर अपने परम प्रमाण सिद्धांत दर्शन ‘विवेक चूडामणि’ (237) में इस परम तत्व की अवधारणा इस प्रकार करते हैं –

अत: परं ब्रह्म सदाद्वितीयं  विशुद्ध विज्ञानघनं निरंजनम्

प्रशांतमाद्यंतविहीनमक्रियं निरंतरानंदरस्वरूपम् । (237)

-इस प्रकार विशुद्ध चेतन- प्रकाश, प्रशांत, आदि और अंत रहित, निश्चेष्ट, सदा आनंद रस-रूप परम ब्रह्म सर्वदा अद्वितीय ही है ।

ब्रह्म के ‘परम’ युक्त सामासिक परंब्रह्म की तरह ही अक्षर ब्रह्म के समास योग की सार्थकता पर भी किंचित विचार उचित प्रतीत होता है । यद्यपि अक्षर एक प्रकार से परम का अर्थ पर्याय ही प्रतिध्वनित करता है किन्तु इसकी वर्णमाला संगत भाषा और ध्वनि की वैज्ञानिकता भी अर्थ संश्लिष्ट हो जाती है । मैं इस सुविधा के लिए विकी पीड़िया से साभार निम्न उद्धरण गृहण कर रहा हूँ –

अक्षर शब्द का अर्थ है - 'जो न घट सके, न नष्ट हो सके'। इसका प्रयोग पहले 'वाणी' या 'वाक्‌' एवं शब्दांश के लिए होता था। 'वर्ण' के लिए भी अक्षर का प्रयोग किया जाता रहा है। यही कारण है कि लिपि संकेतों द्वारा व्यक्त वर्णों के लिए भी आज 'अक्षर' शब्द का प्रयोग सामान्य जन करते हैं। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन ने अक्षर को अंग्रेजी 'सिलेबल' का अर्थ प्रदान कर दिया है, जिसमें स्वर, स्वर तथा व्यंजन, अनुस्वार सहित स्वर या व्यंजन ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। 

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वररत्‌ (वोक्वॉयड) व्यंजन होता है। व्यंजन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अस्तु, अक्षर में स्वर ही मेरुदंड है। अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वररत्‌ व्यंजन के अक्षर का निर्माण ही संभव है। उच्चारण में यदि व्यंजन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह। यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यंजन अशक्त राजा। इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किंतु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।‘

गीता के दशम अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण अपने आपको ‘अक्षरणामकारोsस्मि’ (10/33) बताते हैं । स्पष्ट है कि स्वर ‘अ’ वर्णमाला की प्रथम और सर्वाधिक निश्चेष्ट उच्चारण योग्य ध्वनि है । ‘अ’कार से रहित व्यंजन भी उच्चारण योग्य नहीं रहता ।  इसके उच्चारण के लिए, ओष्ठ, दंत्य, जिह्वा या कंठ्य किसी की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यह केवल मुख से वायु के निष्करण मात्र से संभव है जिसे मूक व्यक्ति और पशुवर्ग भी उच्चारित करता है । इससे इसकी सार्वभौमिकता सिद्ध है । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है – ‘अकारो वै सर्वा वाक्’ अर्थात समस्त वाणी अकार है ।

नाद और बिन्दु के शैव-शाक्त तंत्र में तो सबकुछ अर्धनारीश्वर लीला-लास्य ही है जैसाकि पश्चात महामाहेश्वर आचार्य अभिनव गुप्त की स्तुति ‘ तव च का किल न स्तुतिरम्बिके सकल शब्दमयी किल ते तनु:’, आर्थर अवलोन के ‘सरपेंट आफ लेटर्स’ अथवा कुमार स्वामी की ‘डाँस आफ शिवा’ से प्रतिपादित हुआ है, अत: अक्षर को ब्रह्म के विशेषण के स्थान पर विशेष्य मानना ही सर्वथा उचित है ।

ब्राहदारण्यक उपनिषद में राजर्षि जनक की ज्ञान सभा में याज्ञवल्क्य और गार्गी के ब्रह्मज्ञान विषयक शास्त्रार्थ के अंतिम चरण के इस संवाद को मैं अपने औपनिषदिक उपन्यास ‘मैत्रेयी’ से निम्नवत उद्धृत करता हूँ –

“गार्गी, जो द्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे और जो दयुलोक और पृथ्वी के मध्य में है और स्वयं भी जो दयुलोक और पृथिवी है तथा जिन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान कहते हैं, वे सब आकाश में ओतप्रोत हैं’

‘आपको मेरा नमस्कार है। अब मैं दूसरा और अंतिम प्रश्न आपसे यह पूछती हूँ कि यह आकाश अंतत: किसमें ओत-प्रोत है?’

‘ गार्गी! इस तत्व को ही ब्रह्मवेत्ता अक्षर कहते हैं । वह न मोटा है, न पतला है; न छोटा है, न बड़ा है; न द्रव है न छाया है; वह नभ, वायु, आकाश, रस, गंध, नेत्र, कान, वाणी, मन, तेज, प्राण, मुख आदि कुछ भी नहीं है । वह न तो भीतर है और न ही बाहर है। गार्गी, इस अक्षर के प्रशासन में सूर्य, चंद्रमा, दिन-रात, ऋतु, संवत्सर स्थित हैं । गार्गी, जो कोई इस अक्षर को जाने बिना मरता है, वह अत्यंत दयनीय है । और जो इसे जानकार मारता है, वही ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण है । यह अक्षर दृष्टि का विषय नहीं, किन्तु द्रष्टा है; श्रवण का विषय नहीं, किन्तु श्रोता है; मनन का विषय नहीं, किन्तु मन्ता है; यह स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरों का विज्ञान है । हे गार्गी ! निश्चय ही इस अक्षर में आकाश ओत-प्रोत है ।“

इस तरह जैसे लोक से लोकोत्तर और द्वैत से अद्वैत के निर्विशेष परमतत्त्व की प्रत्यभिज्ञा के लिए ही महत्पुरुष ‘अक्षर’ का उन्मेष करते हैं । अब प्रश्न है कि तब विसर्जनीय ‘क्षर’ क्या है ?

गीता के आठवें अध्याय (श्लोक 4) में श्री कृष्ण ‘अधिभूत’ को क्षर भाव बताते हैं । उनके अनुसार अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न विनाशशील क्षयी तत्त्व का नाम ‘क्षर’ है । तेरहवें अध्याय (श्लोक 1) में इसी को वे ‘क्षेत्र’ तथा सातवें अध्याय (श्लोक 5) में ‘अपरा प्रकृति’ और नवें अध्याय (श्लोक 19) में ‘असत्’ बताते है ।

गीता के बारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन भगवान की उपासना की पद्धति की निष्पत्ति का प्रश्न जो करते हैं उसमें निराकार साधन को वे ‘अक्षर अव्यक्त’ की साधना कहते हैं –

‘ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तम:’ (गीता 12/1)

अर्थात् भक्त और निर्गुणोपाषकों में उत्तम कौन है ?

इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि सम्पूर्ण समर्पण भाव से उनकी उपासना करने वाले उत्तम हैं किन्तु ‘अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त’ के उपासक भी उन्हें ही प्राप्त करते हैं परन्तु उन्हें सभी के हित की कामना करने वाले समत्व बुद्धि से युक्त होना चाहिए । दूसरे शब्दों में इसका आशय यही है कि भक्त के लिए जहां भगवान ही ‘सब कुछ’ है वहीं ज्ञानी के लिए ‘सब कुछ में भगवान’ ही है बोध होना चाहिए। इस प्रकार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ के समन्वय का सूत्र ही जैसे भगवान ने यहाँ प्रदान कर दिया है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में ज्ञान के दीपक और भक्ति की मणि के रूपक के विस्तार द्वारा लगभग ऐसा ही समन्वय सूत्र प्रदान कर अंतत: कहते हैं

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भांति कोउ करै उपाई

तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई'

                             (रामचरित मानस उत्तर 119/ 5-6) 

निर्गुण-सगुण की साधना का यह समन्वय ज्ञान और भक्ति उपासना ही नहीं दर्शन की द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत, द्वैताद्वैत, शैव और शाक्त पद्धतियों में भी विधेय है । किन्तु अध्यात्म विषयक इस भ्रांति का निवारण भी आवश्यक है कि जीव और ब्रह्म के एकत्व के परम प्रमाण महावाक्य-  (अहं ब्रह्मास्मि- बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद), तत्त्वमसि - ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ), अयम् आत्मा ब्रह्म - ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद ), प्रज्ञानं ब्रह्म - ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद), सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) यह प्रतिपादित करते हैं कि ब्रह्म से ऐक्य का यह उद्घोष जहां सार्वभौम है वहीं वह यह स्थापना नहीं करता कि इस बुद्धत्व को प्राप्त कर कोई सांसारिक व्यवहार की जीवन स्थितियों से पृथक हो जाता है  कभी कोई विज्ञान, भ्रम या सिद्धि से यदि कोई चमत्कार भी प्रदर्शित करता है तो उसे अध्यात्म नहीं कहा जा सकता । शुद्ध अध्यात्म पारमार्थिक बोध के साथ व्यवहारिक निर्वाह की उस अवस्था का द्योतक है जहां एक सामान्य व्यक्ति जिस प्रकार मृग मरीचिका, नीले आकाश और दर्पण के प्रतिबिंब को देखते हुए भी इनके मिथ्यात्व को स्वीकार करता है ठीक वैसे ही संसार के सभी नाम और रूपों को व्यवहार के बाद भी उनके मिथ्या होने की प्रतीति रखता है । अध्यात्म की यह यात्रा - रूपात्मक संसार ही नहीं इसकी अनुभोक्ता देह के स्वत्व को अस्वीकार कर जीव की स्वतंत्र सत्ता का भी परिहार कर देती है । जब श्री कृष्ण गीता के तेरहवें अध्याय में क्षेत्रज्ञ की परिभाषा प्रदान करते हैं तो उनका स्पष्ट यही कथन है कि सभी क्षेत्रों (शरीर) के क्षेत्रज्ञ एकमात्र वही हैं –

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम् । (13/2)

यह कुछ वैसा ही जैसे विद्युत प्रवाह के टुकड़े अलग-अलग यंत्रों,पंखा, वाल्व, फ्रीजर के लिए स्वतंत्र सत्तात्मक इकाई नहीं बनते अथवा मुट्ठी या किसी भवन का सीमित आकाश, परम आकाश का स्वतंत्र भाग नहीं बन जाता, वैसे ही जीव परमात्मा से पृथक कोई स्वतंत्र सत्तात्मक इकाई नहीं है । जीव और ब्रह्म का भेद हमारे मन और बुद्धि का ही विभ्रम है । इनकी सत्तात्मक अवस्थिति का भाव अद्वैत चैतन्य की समग्रता से द्वैत के संसार में स्थित हो जाना मात्र है । इस प्रकार संसार में सभी कुछ मात्र आभासात्मक है, यथार्थ नहीं ।  

प्रसंगत: यहाँ वर्ष 2022 के भौतिक शास्त्र के नोबेल सम्मान विभूषित तीन वैज्ञानिकों अलैन आस्पेक्ट (फ्रांस),  जॉन एफ क्लाजेर (यू एस) और ऐन्टिन जेलिंजर (आस्ट्रिया) की इस शोध का उल्लेख उचित प्रतीत होता है जिसने आइंस्टीन के क्वांटम मकैनिक्स के सिद्धांत में परिवर्तन कर यह प्रतिपादित किया है कि क्वेन्टम स्टेट एक पारटिकिल से दूर के पारटीकिल में स्थान्तारित हो जाती है । इस प्रकार उन्होंने ‘लोकल रियलिटी’ की सत्तात्मक इकाई को अस्वीकार किया है जो कि एक पदार्थ की वस्तुनिष्ठ भौतिक सत्ता को स्पष्ट चुनौती देती है ।    

अक्षर ब्रह्म के अनुयायियों को अब अंत में श्री कृष्ण की एक चेतावनी मात्र के प्रति सजग करना अभीष्ट रह जाता है जो इस प्रकार है –

क्लेशोsधिकतरसतेषामव्यासक्तचेतसाम

अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते । (गीता 12/5)

-आसक्त चित्त व्यक्ति को ‘अक्षर’ ब्रह्म की साधना में विशेष परिश्रम आवश्यक है क्योंकि देहाभिमानी द्वारा अव्यक्त की प्राप्ति कष्ट पूर्वक ही संभव है ।

अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल, 462016 (9425079072)   

            

  

Tuesday 19 July 2022

समीक्षा सुषेण पर्व

 सुषेण पर्व / डा. देवेंद्र दीपक/ इंद्रा पब्लिशिंग हाउस

 

 

                आयुर्वेद का सिद्धान्त और दर्शन पक्ष

प्रभुदयाल मिश्र

 

आयुर्वेद प्रज्ञा के आदिस्रोत ऋग्वेद का उपवेद है यद्यपि इसका विस्तार चतुर्थ वेद संहिता अथर्ववेद में हुआ है। ऋग्वेद के मण्डल 2 के रुद्र सूक्त 33 में ऋषि गृत्स्मद प्रार्थना करते हैं –

त्वादत्तेभी रुद्र शंतमेभि: शत हिमा

(तुम्हारी दिव्य औषधियाँ बनाई प्रीतिकर/हमें शतवर्ष जीवन दें।)

वेदों के भाष्यकार श्रीसातवलेकर तो औषधि-देव अश्विनीकुमारों को विश्व सरकार का स्वास्थ्य मंत्री ही बताते हैं । वेद में वर्णन आता है कि इन्होने किस प्रकार च्यवन को वृद्ध से युवा बनाया और अंधत्व से मुक्ति दी। श्याब को तीन घाव लगे थे जिसे  तत्काल चलने योग्य कर दिया । विश्पला की कटी हुई टांग जोड़ दी, इत्यादि । आगे इस संबंध में बहुत कुछ तो इस काव्य नाटक के रचनाकर डा. देवेन्द्र दीपक ने विज्ञात इतिहास के चरक और सुश्रुत के संदर्भ से इस शास्त्र पर बहुत कुछ कहा ही है जिसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । किन्तु जब नाटककार इस मंचीय विधा की प्रदर्शनीय कृति को पर्व की संज्ञा देता है तो आज की संस्कृति के महाभारत के अठारह पर्वों में एक और पर्व का जुड़ना कहीं अधिक प्रासांगिक हो जाता है । 18 पर्वों वाले महाभारत में तो औषधेय अनेक प्रसंग हो सकते थे किन्तु अश्विनीकुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में सदा ही उपस्थित थे । पर राम चिकित्सक तो दूर की बात, उनकी तो अपनी कोई सेना भी साथ नहीं गई थी, अत: लक्ष्मण पर हुये घातक प्रहार के निदान के लिए एक योग्य चिकित्सक की आवश्यकता उन्हें अपरिहार्य हो गई जिसके लिए सुषेण के संदर्भों पर दीपक जी ने गहन शोध कर एक भेषज-धर्म की संस्थापना के सूत्र खोजे हैं जो सार्वभौमिक तौर पर महत्वपूर्ण हैं ।

एक कहानी या नाटक की कथावस्तु में आवश्यक इस रचना के कथा नायक सुषेण के सामने आंतरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार का अंतर्द्वंद्व विद्यमान है । परंपरा से राम की भक्ति अथवा हनुमान का पराक्रम सुषेण की उपस्थिति के उतने सशक्त आधार नहीं हो सकते थे, अत: विचारशील रचनाकार ने इसमें नेपथ्य की शक्ति सुषेण की पत्नी सूर्या की परिकल्पना की है । इसके अतिरिक्त एक विद्या और कला के निर्मुक्त होने का प्रतीकार्थ भी श्री राम के इस कथन में अपनी परिपूर्णता से उभरता है –

सुषेण

पहले तुम राजवैद्य थे

अब तुम वैद्यराज हो ।

श्री राम का यह संयोजन जैसे सर्वथा एक निष्कलुष, निर्मल और लोककल्याणकारी विज्ञान को किसी अनधिकृत अत्याचारी से मुक्त कराने के साथ ही उसे एक सार्वभौम सत्ता सौंपने का उपक्रम ही था । इस प्रकार यह ठीक कच के द्वारा मरणान्तक पीड़ा सह शुक्राचार्य से देवों की रक्षा के लिए संजीवनी विद्या प्राप्त करने जैसा एक अभियान ही ठहरता है । महाभारत की कथा बताती है कि शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखने के लिए पहुंचे इंद्र पुत्र कच को राक्षसों ने मार-जला कर उनकी भस्म को शुक्राचार्य को ही पिला दिया था तब शुक्राचार्य के उदर में इस विद्या से जीवित हो वे विद्यावान होकर शुक्राचार्य के पेट को फाड़कर बाहर आए और उन्हें जीवित भी कर दिया ।

श्री धर्मवीर भारती का काव्य-नाटक अंधायुग महाभारत जहां पाठकों/दर्शकों को उद्वेलित कर छोड़ देता है वहीं श्री दीपक के इस अनुष्ठान में नट-नटी, सैनिकों, नागरिकों और राम के सैन्य दल की सक्रियता वैद्य के ऐसे समाज शास्त्र की रचना करती है जो अपनी सुंदरता (वैद्य का सौन्दर्यशास्त्र) और धर्म सम्मतता (वैद्य का धर्मशास्त्र) की निष्पत्ति में सर्व सुखान्तक बन जाती है ।

कोरोना की विश्व व्यापी महाव्याधि की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस काव्य नाटक को तुलसी मानस भारती ने जनवरी 2021 के अपने वार्षिकांक में इसके पुस्तकाकार में आने के पहले ही प्रकाशित किया था जिस पर अनेक अनुकूल प्रतिक्रियाएँ हमें प्राप्त हुईं। देश के प्रख्यात और समादृत रचनाकार डा. देवेंद्र दीपक की इस महनीय कृति को समीक्षा दृष्टि से एक बार पुनः स्मरण कर हम उनकी रचनाधर्मिता का प्रभूत अभिवादन करते हैं ।

 

35 ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल 462016 (9425079072)                

             

     

Sunday 26 June 2022

कथा-कठौती की समीक्षा

 कृति - कथा कठौती

लेखिका - बिनय षडंगी रामाराम 

प्रकाशक- शिवम् प्रकाशन, प्रयागराज 

मूल्य - रुपये ४००

 

                   लोक की वेद-व्याप्ति अर्थात् कथा कठौती 

                  प्रभुदयाल मिश्र 

 

'स्वर्ग का द्वार', 'किसी को तो शिव बनना होगा' और 'तथैव ' आदि कालजयी कृतियों के बाद जब डा बिनय राजराम जी बाल मनोविज्ञान परक 'कथा कठौती' बाल-कथा संग्रह की रचना करती हैं तो चिरंजीवी मार्कण्डेय से सम्बन्धित भगवान् विष्णु की प्रलय-पार की बाल छबि- दर्शन के इस श्लोक का स्मरण हो आना स्वाभाविक है

करारविन्देन पदारविंदं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् 

वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालमुकुन्दं मनसा स्मरामि  

इस परम साक्षात्कार की पृष्ठभूमि भी अद्भुत है भगवान् शंकर की कृपा से अपनी किशोर वय में ही सदा स्थित रह जब मार्कण्डेय जी ने छ: मन्वंतरों की चिरजीविता में भगवान् विष्णु से उनकी माया का साक्षात्कार करने की प्रार्थना की तो उन्होने विष्णु की दुस्तर माया से उत्पन्न महाजल प्लावन में अपने आपको स्थित पाया आकाश, पाताल और पृथ्वी के थपेड़ों के बीच अनेक कल्पांतों के बीत जाने पर अतिशय संतप्त उन्हें अंतत: बालमुकुन्द के दर्शन हुये और इसके बाद उन्होने अपने आपको पूर्ववत् यज्ञाग्नि में आहुति दान के लिये उठाये गये हाथ सहित यथावत उद्यत पाया

जब बिनय कहती हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा ।  इस छोटी-सी 'कथा-कठौती' में बाल-कथाओं की गंगा का पुनीत प्रभाव समा जाने की चाह है- तो राम के पाँव धोने के लिये केवट के 'पानि कठौता भरि ले आवा' का स्मरण आना स्वभाविक है वह कठोता कुछ बड़ा रहा होगा बिनय की इस कठौती से क्योंकि उसके पास दृश्यमान भूत और भविष्य का सत्य भी था पर बिनय जी ने जीवन के थपेड़ों और तीखे आघात से उबरने के लिये कालक्षेप का अब बड़ा सशक्त माध्यम अपना लिया है इस प्रकार बालमुकुन्द के अवराधन और केवट-पात्र की निश्छल, निर्मलता में अपने को निखारने का यह उपक्रम उनकी परायात्रा का मंगलायतन है  

बिनय ने अपनी पूर्विका में उपनिषद्, जैन, बौद्ध आख्यान, बाइबिल, पंचतंत्र, जातक कथाओं, सिंहासन वत्तीसी और कथा सरित्सागर आदि का सम्यक् उल्लेख किया है जिनमें मानवीय शैशव, प्रकृति, नीति, रस और जीवन के आदर्श जीवन की समरसता के सार स्वर  विद्यमान रहे हैं यहाँ मुझे अंग्रेज़ी के रोमान्टिक ऐरा के कवि वर्ड्सवर्थ की प्रसिद्ध कविता टिंटर्न ऐबी की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का मन है जिसमें प्रकृति के साथ बाल मन की उदात्त निश्छलता की अलौकिक झलक दिखाई पड़ती है इसमें कवि अपनी छोटी बहिन डोरोथी को भी प्रकृति के एकाकार देखता है -

But oft, in lonely rooms, and 'mid the din

Of towns and cities, I have owed to them, 

In hours of weariness, sensations sweet, 

Felt in the blood, and felt along the heart;

And passing even into my purer mind

With tranquil restoration

.....

How often has my sprit turned to thee! 

...

And this green pastoral landscape, were to me 

More dear, both for themselves and for thy sake! 

सूर के कृष्ण कभी ऐसे ही भाव बोध की लीला में उद्धव को कह रहे थे

जबहि सुरति आवत वा सुख की जिय उमगत तनु माहीं 

ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं  

भक्ति की पुष्टि मार्गीय परंपरा में अष्टछाप के कवि छीत स्वामी की एक कथा का स्मरण भी मुझे यहाँ हो रहा है जब बाल-कृष्ण आधी रात उनकी कुटिया में प्रकट होकर उन्हें एक भक्त गोपिका के यहाँ मक्खन की चोरी करने ले साथ गए और छीतस्वामी को पकड़वा कर खुद साफ बचकर निकल आए ! इससे तो यही समझ आता है कि भगवत साक्षात्कार का सरल और सिद्ध मार्ग तो जैसे वतसलता से ही गुजरता है ! और यह तो कहा ही जाना चाहिए कि अध्यात्म में गति और जीवन में प्रगति का पर्याय संभवत: बचपन का भाव, प्रपन्नता का लौटना ही है – सकृदेव प्रपनय तवास्मि इति याचते – (वाल्मीकि रामायण)

समीक्ष्य पुस्तक के तीन प्रमुख खण्ड हैं - बाल मनोभावों की साम्यता में पशु-पक्षियों के कथा-रूप इसमें चटोरा कौआ गोकि इतना चटोरा भी नहीं लगता वह कुंदरू खाने के लिये कितने- कितने बेगार नहीं उठाता माली की खुरपी की आवश्यकता, लोहार की मटकी की आवश्यकता और कुम्हार के गधे की सेवा की पूर्ति कर ही उसे कागभुषुण्डि की तरह संतोष का महामन्त्र मिलता है इस तरह उसमें श्रम, कुशलता, बुद्धि और लक्ष्य के प्रति तल्लीनता की अद्भुत मानवीय क्षमतायें दिख जाती हैं  

और तो और एक कोयल के साथ तुलना किये जाने पर भी कौआ इक्कीस ही ठहरता है कोयली के अंडों को अपने घोंसले में सेते हुये कोयली के ताने सुनने और सहने की क्षमता में बिनय द्वारा उसे सभी युगीन अभिशाप से मुक्त करने का यह एक अच्छा उपक्रम है  

तीसरी कहानी के कुयें और तालाब के मेंढक का संवाद मुझे ऋग्वेद के प्रसिद्ध मंडूक सूक्त की ओर ले जाता है  

वैसे मंडूक के वेदपाठी होने का प्रमाण तो गोस्वामी दे ही देते हैं - दादुर धुनि चहुँ दिसा सोहाई वेद पढहिं जनु वटु समुदाई  

बिनय के इन मेंढकों ने कुछ तरीक़ा तो वेद से ही उठाया है ज़रा ध्यान दें मंडल १० के सूक्त ८२ के मंत्र के इस काव्यानुवाद पर  

एक बोली सीख 

वह दूसरा

दुहराता 

कुशलता पूर्वक जल में 

कि जैसे शिष्य गुरु से 

सीखता होता

इस खण्ड का गप्पू हाथी और चितेरा मोर भी अपनी रोचकता और संदेशवत्ता में परिपूर्ण हैं न्याय प्रिय राजा का न्याय तो सचमुच ही निराला और कल्पनातीत ही है एक साथ ही लोक और परलोक को साध लेने की ऐसी क्षमता किसी वेताल विजयी विक्रम की हो सकती है यह ज़रूर है कि कोई बड़ा बच्चा लेखिका से यह पूछ भी सकता है कि क्या विक्रमादित्य ने कभी कॉमन सिविल कोड पर कोई विचार कर रखा था

'बच्चों की भीड़ से 

राज्य को बचाना था 

दो ही बच्चे अच्छे हैं 

यह संदेश भी देना था ( पृष्ठ ४१

दूसरा खण्ड लोक-कथा प्रधान है इसकी मुख्य विशेषता यह है कि चूँकि ये कथायें लेखिका के जन्म स्थल उत्कल प्रदेश -उड़ीसा प्रान्त की हैं अत: पश्चिमी, मध्य और उत्तर भारत के हिन्दी पाठकों को इनमें नवीनता मिलेगी ग्रामीण बालक बलराम के भय को दूर करने के लिये स्वयं गोपाल का आना, ईर्ष्या द्वेष और स्वार्थ के स्थान पर वनदेवी तपई में सदाशयता की जय और चंड अशोक का धर्म-अशोक बन जाना इतिहास की लोक लेखनी से जैसे एक पुनर्लेखन का कार्य ही है इसी तरह चाहे कोणार्क निर्माण के शिल्प कौशल की अलौकिकता और नन्हें शहीद बाज़ी का जंगल की रक्षा में आत्म वलिदान के चरित्र हों, वे पूर्व के इस महाकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जो अचल और अमिट ही रहने वाले हैं  

तीसरे खण्ड में लेखिका जैसे अपने वर्तमान को भी अतीत की चादर में ओडाने के लिये सन्नद्ध है इसमें चार कहानियाँ हैं पहली उज्जैन के अतीत में ले जाती है, दूसरी दीपावली त्योहार के दिनों का सिलसिलेवार विवरण पहुँचाती है, तीसरी जंगल के राजा शेर तथा चौथी शक्तिमान बरगद की आत्मकथायें हैं ज़ाहिर है इन सभी विषयों पर बड़े शोधपूर्ण आलेख, उपन्यास और बड़े ग्रन्थ भी लिखे जा सकते हैं किन्तु कथाकार बिनय ने यहाँ अपनी भूमिका एक बाल-कथाकार की ही अख़्तियार की है अत: इनका बाना आत्मकथा, डायरी और यात्रा वृतान्त जैसा है इसमें उज्जैन के सिंहस्थ का कारण संशोधित करने का परामर्श मुझे देना है सिंहस्थ ' तिथि के अनुसार वह दिन सिंह राशि में पड़ने के कारण' नहीं बृहस्पति गृह के सिंह राशिस्थ होने के कारण है यह स्थिति १२ वर्षों में पुन: लौटती है क्योंकि बृहस्पति को प्रत्येक राशि में एक-एक वर्ष चलते हुये सिंह राशि में वापिस आने के लिये १२ वर्ष लग जाते हैं  

अंतिम कहानी शक्तिमान बरगद में बौन्साई के बरगद का विराट में रूपान्तरण बहुत रोचक है ठीक सप्तवर्णी साहित्य कला केन्द्र की पहचान की तरह ! स्वयं ही सिद्ध है यह कि राजाराम दंपत्ति ने इस उद्यान को सजाने संवारने में कितनी तपस्या और श्रम नहीं किया है !  

 

आवरण, चित्रांकन कृति में प्रख्यात् महा कला मर्मज्ञ रामाराम जी की विरासत और कल-छाया के पग-पग पर दर्शन होते हैं - आवरण पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक निर्वाध। चित्र बाल मनोविज्ञान के समनुरूप कथा-सूत्रों को बुनने, संवारनें और कथा मर्म को पैनापन प्रदान करने वाले हैं  

काव्य कलियाँ - प्रत्येक कहानी के आदि, मध्य और अंत में नट-नटी, नांदी कथन और भरत-वाक्य जैसी कविता पंक्तियाँ यह उद्घोष करती चलती हैं कि यह कृति काव्य कारयित्री शक्ति वाली बिनय षडंगी रामाराम की स्वयं की प्रकृत पहचान है  

प्रूफ़ सुधार

1.     पृष्ठ १६ अंतिम पैरा, अंतिम पंक्ति - उपहरा - उपहार 

2.     पृष्ठ ३३ नीचे चौथा पैरा - पसनद -पसंद 

3.     पृष्ठ ८३ - ऊपर से चौथी पद पंक्ति - देखा - देखी 

4.     पृष्ठ ९१- नीचे से चौथी पंक्ति - भैवर - भैरव 



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