Wednesday 2 December 2015

'क्या कहूँ आज जो ....'

                   क्या कहूं आज जो नहीं कही

                                        प्रभुदयाल मिश्र

      यह एक अतिरंजना ही होगी यदि मैं शीर्षक के पूर्वार्ध की काव्य पंक्ति-‘दुख ही जीवन की कथा रही ’ से यह आत्मकथ्य आरम्भ करता हूं । वैसे अपने आप को खास, अलग और महत्वपूर्ण सिद्ध करने का यह जरिया सर्व स्वीकृत है-विशेषकर रचना क्षेत्र में क्योंकि उसकी क्षमता इस निज को पर में ढाल चुकने का माद्दा रखती है -( कम से कम उसका दावा तो ऐसा होता ही है !) पर मुझे लगता है कि यह भी एक प्रकार का अतिक्रमण ही है-दूसरे की आजादी का । चूंकि दूसरों को अपने दुख से दबाने की कोशिश मात्र ही एक अन्याय, अत्याचार और नाफरमानी है, अस्तु! परन्तु....

    कहने और सुनाते रहने के लिए हम क्या-क्या रास्ते नहीं खोजते रहते हैं। क्या यह हमारा आत्मालाप ही नहीं है, प्रायः? पर अपने आपसे बतियाते रहने से कौन किसको रोक सकता है? इसमें दूसरे की आपत्ति का प्रश्न ही कहां उठता है?

   किन्तु शायद अपने आपको समझने और समझते रहने का हमारे पास इससे अच्छा कोई उपाय ही नहीं होता । आखिर धारणा, ध्यान अथवा समाधि क्या है? ये साधन हमें अपने आप ही के तो निकट पहुचाते हैं । यहां तक कि क्रिया, प्रेम और भक्ति भी आपने समर्पण की पूर्णता में अपनी फैली पहचान तक ही पहुंचाती है ।

   और ऐसे में यदि कोई अन्य आप बीती अथवा आगे पड़ती स्वयं की छाया को देखकर कुछ आनन्द ले सकता है तब तो यह रचनाकार की सिद्धि ही हो गई । सब दूर जो इतना छूटता जा रहा ह,ै समेटने स,े और जो एकदम आदमी के निकट है, उसे सहेजकर उसके हाथ में रख देने का संतोष भी कोई कम तो नहीं ही है ।

   मैं क्या कहूं अपने आपको-कवि, साहित्यकार, लेखक, विचारक अथवा कुछ और ? यह द्विविधा मेरे नाम जैसी ही है । एक सनातनी भक्त मेरी मां ने मेरा नाम रखा ‘प्रभ’ु । स्कूल में दर्ज होने पर यह हो गया ‘प्रभुदयाल मिश्र’। कालेज में आकर यह हो गया ‘मिश्रा प्रभुदयाल’ । सरकारी नौकरी में इसे गति देते हुए बना दिया गया-पी डी मिश्रा । यह निगुणीर्, निराकार नाम उच्चारण और प्रवाह की दृष्टि से करीब चालीस वर्ष तक बखूबी चला । बीच बीच में इसे कला और रचनाधर्मिता से जोड़ने के बाहर और भीतर के आग्रहों को दर किनार करते हुए मैंने जैसे ये दो छोर उनकी अपनी ही जोर आजमायश के लिए छोड़ रखे है । इतना जरूर हुआ कि आयातित नाम-पी डी मिश्रा मेरी अंग्रेजी रचनाओं से जुड़ गया । हिन्दी लेखन में अपने आपको और अधिक गुमशुदी में न डाल देने की चेष्टा में अब प्रभुदयाल मिश्र ही शेष हूं ।

   यही परेशानी जन्म तिथि के बारे में भी चल रही है । प्राईमरी कक्षा में मास्टर साहब ने अपने पूर्वानुमान से दो वर्ष आगे की तिथि दर्ज करली । मिडिल स्कूल में एक शुभ चिंतक ने इसे डेढ़ वर्ष पीछे एक मार्च 1948 कर दिया । ज्योतिष में भविष्य दर्शन के लिए जब 16 अक्तुबर 1946 की जन्मकुण्डली देखने की स्थिति आई तो देर हो चुकी थी । मित्रवर श्री कमलकान्त जी ने इसका एक हल निकाला है । उनका कहना है कि हम पैदा कभी भी हुए हों, हमारा वास्तविक जन्म तो हमारी लोक स्वीकृत पहचान ही सिद्ध करती है । ज्योतिष शास्त्र में भी प्रश्न कुण्डली और वर्ष कुण्डली बनती है । अतः उन्होंने सरकार की तरह 1 मार्च को ही मान्यता दी है । अब मैं अपने जन्म की तरह इस बेबशी को नकार भी कैसे सकता हूं !

   फेसबुक में यही तिथि दर्ज चल रही थी । बहुत से मित्रों ने इस पर जब बधाई देना भी शुरू कर दिया तो मैंने अपना धन्यबाद देते हुए एक समाधान गीता के इस श्लोक का उल्लेखा करते हुए प्राप्त किया-

   अजोपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्

   प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया । गीता 4 । 6

अर्थात् एक अर्थ में हम सभी अजन्मा ही हैं इसलिए पैदा होने की तिथि एक तात्कालिक सुविधा से अधिक और कुछ नहीं है। और यदि हमने कोई तिथि या तारीख निकाल या मान भी रखी है तब भी हमारी सनातन पहचान तो अप्रभावित ही रहेगी । अस्तु !

   अपने बहनोई श्री रामदेव जी मिश्र की कवितायें सुन-सुन कर लिखना मैंने 14 वर्ष की ही उम्र में शुरू कर दिया । उस समय अपने गांव पर लिखी एक लम्बी कविता की ये पंक्तियां मुझे अभी भी याद हैं-

      किन्तु बड़ी थी पुण्यमयी तू पुहुमि धन्य, गौरवशाली

      पाकर तुझ श्रेष्ठ अवनि तल को यह हुआ ग्राम समृद्धिशाली !

   ओरछा राज्य के कवि केशव और चालीस के दशक के कुण्डेश्वर से प्रकाशित ‘मधुकर’ की विरासत का जरूर कृछ असर होगा कि बी ए प्रथम की परीक्षा देकर मैंने ‘शिवप्रिया’ और बी ए अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर गर्मियों की छुट्टी में ‘समर्पण’ खण्डकाव्य लिखा । सागर विश्वविद्यालय पहुंचकर ऐसा लगा कि हिन्दी तो जैसे आ ही गई और शेष री आ भी जायेगी, किन्तु अंग्रेजी पढ़ लेना ज्यादा उपयोगी रहेगा । इसे जैसे मैं आज भी नकार न सकूंगा । और छूटा हुआ अतीत तो रह रह कर आता ही रहता है, अतः अब पछतावा भी किस बात का ?

   किन्तु क्या मैं कवि शेष रह सका? कविता के क्षेत्र में प्रकाशित कृतियां तो मुख्यतः काव्याानुवाद ही हैं-‘सौन्दर्य लहरी’ और ‘वेद की कविता’। आगे स्वतंत्र ‘वैदिक कविताओं’ के प्रकाशन का कब समय आयेगा, कौन जानता है!

   60-70 के दशक में प्रकाशित/अप्रकाशित कहानियों का संग्रह आ सकता था किन्तु तब प्रकाशक कहां होते थे! आखिर 96 में आत्मकथात्मक ‘उत्तर-पथ’ और 2001 में औपनिषिदिक उपन्यास ‘मैत्रेयी’ आया तो गद्य लेखन में जैसे प्रवृत्ति ही हो गई । योग और अध्यात्म का एक साहित्य पक्ष भी हो सकता है, यह मेरे मन में कहीं गहरे पैठा था । गीता और वेद के सम्बंध में अंग्रेजी और हिन्दी की दो-दो किताबें संभवतः इस धारणा की ही परिणति हैं ।

   ‘तंत्र दृष्टि और सौन्दर्य सृष्टि’ (विश्व विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 2007) की भूमिका में मैंने लिखा है-‘ कभी-कभी कविता कर्म को साधना का पर्याय भी माना जा सकता है । ऐसे में उसकी अनुष्ठानात्मक शक्ति बेजोड़ हो जाती है । जब कोई कविता शुद्ध साधनात्मक ही तो वह न केवल साहित्यकार, अपितु उसके पाठक और रस स्रोताओ की जीवन दृष्टि बदल सकती है ।’

    कविता यदि मनोमय कोष का उद्घाटन है तो बुद्धि निश्चित ही उसके परे है। क्या ज्ञानमय और विज्ञानमय कोष में पहुंचकर कविता छूट नहीं जायेगी, यह प्रश्न मेरे मन में बना रहा है । फिर आनन्दमय कोष की तो बात ही कहां उठती है! किन्तु इसमें दो मत नहीं हो सकते कि संसार का श्रेष्ठतम लेखन और संदेश कविता के माध्यम से ही युग युगों से लोक-लोकान्तर में प्रसरित हुआ है । वेदांे के मन्त्र द्रष्टा ऋषि, वेद व्यास और तुलसी आदि को कोई मनोमय कोष का यात्री कैसे कह सकता है!

   अर्थात् कवि अपनी सामर्थ्य के बूते सात लोक और सातों समन्दर पार कर सकता है, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। और कहीं यदि संदेह है तो वह निश्चित ही कवि की क्षमता का होगा, कविता का नहीं ।

    कविता के उपासकों के लिए भी संभवतः योग साधकों की भंाति श्री कृष्ण का यह आश्वासन लागू हो सकता है-

     पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते

     न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति

                               गीता 6-40

    शर्त केवल ठीक पैमानेे की ही है । कविता के (यज्ञ ) लोक-कल्याण के पक्ष को अनदेखा न करने की है । ऐसे कवि और कविता के संबंध में ही वेद स्पष्ट घोषणा करता है-

     प्राप्त करते प्राप्य वे वक्ता प्रखर

     यज्ञ से गौरव गिरा

     जे निहित सप्तर्षि स्वर में

     मन्त्र, लय विस्तार वाली

     देश-देशान्तर गई

     वह ऋचा, कविता

     छन्दमय रचना ।

                      ( वेद की कविता/वि.वि.प्र./58)

                       35, ईडन गार्डन, राजाभोज (कोलार मार्ग) भोपाल 462016

Wednesday 11 November 2015

समर्पण ( खंडकाव्य, अप्रकाशित)

खण्डकाव्य (अप्रकाशित)

                        समर्पण
                                              प्रभुदयाल मिश्र

                  मिलन
               1
कितना था लावण्य भरा उन दो नयनों में
प्रहरी पलक सदा जिनकी रखवाली करते
कितने जग के सत्य दृष्टि उन्मीलन में थे
मेरे उर में जिनकी अब तक ज्योति समाई ।
              2
ओठ शुष्क से अपनी कम्पन मय जड़ता में
कहते थे कुछ समझ सका न जिनकी भाषा
चिर जड़ता में भी गतिमयता आ जाती थी
वाहों के तट सागर की नीरव अंगड़ाई ।
             3   
श्वासाहत विच्छिन्न वदन कंप कंप जाता था
वाणी स्वर संधान भूलकर थम जाती थी
निश्वासें कहती थीं कुछ कुछ मौन व्यथायें
साधन के अद्वैत क्षणों के उस आलिंगन ।
            4
आज मूक भाषा कुछ कुछ कहती लगती है
प्रतिध्वनि कानों तक आ आकर अर्थ बताती
मेरे प्रियप्राणों से प्रिय जीवनगत साथी
नहीं विरहयह किसी समय का अमर मिलन है!
            5
मिलनआह! मदकता! विस्मृति! स्वर्गिक वैभव
स्वप्निल सत्यों की रोचक मनमोहक दुनियां
तन्द्रिल पलकों का मदमाता कंपित सागर
जिसमें हम अस्तित्व हीन खोए खेाए थे ।
          6
दो विहगों में होड़ लगी थीपर फैलाये
उड़ते थे जो नभ के नीरव शून्य क्षितिज पर
छोड़ एक को कोई दूर नहीं जाता था
ज्यों अनन्त की ओर बढ़ें दो सम रेखायें ।
          7
कितने स्रोत लवणमय गिरि से फूट फूटकर
नयनों के सागर में सीधे आ जाते थे
भीगी आंखें बिजली से क्षण क्षण टकरा कर
प्यासी धरती पर शत-शत बादल बरसाती ।
         8
मदकता के प्यालों से मधु छलक छलक कर
विस्मृति उत्पीड़न का सर भरता जाता था
वर्षें से प्यासा जैसे मैं एक बटोही
गर्वोन्नत बैठा करता था मुख प्रक्षालन ।
        9
मन्द पवन की लहरों की नौका पर बैठे
जड़ता के सागर के उस अनन्त आंगन में
ब्रह्माण्डों के पार चले थे दो अन्वेशी
निश्चलपर संचालित गतिमय एक सत्य से ।
          10   
सत्य सत्य! कैसे इस धरती पर लाया
मुझको मेरे परम सत्य से आज अलग कर
सत्य कहां यह कोई स्वप्न सत्य बन बैठा
दिन में भी जो कभी-कभी सिर पर छा जा जाता ।
         11
किन्तु मार्ग यह और सामने की गिरि माला
पेड़ों के उड़ते तत्तेहिलती शाखायें
आने वाले पथिकों की पैनी सी आंखें
कैसे हो सकतीं हैं सब सपनों की बातें!
       12
स्वप्न सत्य यह नहीं मनुज का प्रखर सत्य है
कुछ आगे चलकर मिलता तंद्रिल वेला के
जीवन के निस्सीम समय के पुनरावर्तन
आज मुझे है ले आया इस कर्म क्षेत्र में ।
      13
प्रात किरण मध्यान्ह भानु में अब ढलती है
पगडण्डी ने राजमार्ग कां पांव पसारे
सिन्धु किनारे पर यूं तक इठलाती नौका
लहरों से टकरानेलड़ने अब जाती है 
        14
प्रिय! कैसे मैं आज चुकाऊं मूल्य प्रणय का
जीवन है कितना छोटा इसकी तुलना में
नभ के छोरों को निज में भी बांध सके जो
कैसे बाहों से मापू उस प्रणय सूत्र को!
      15
कितने स्वर्गो का था सुख मादक आलिंगन
कितने जग बनते मिटते अभिनव हृत्कंपन
कितने वैभव के सागर लहरा उछते थे
कम्पनमय लज्जारुण नयनों के उन्मीलन ।
     16
जीवन शुष्क मरुस्थल में अमराई भी है 
खारे सागर में भी है मधु का संचालन
स्वर्गिक वैभव नहीं कल्पना की रंगरेली
जना था तब सुस्ताये से इस मानस ने ।
         17
बीता जीवन दूर क्षितिज में जा अटका था
जब तुम आई थी बनकर मेरी परछाईं
स्वप्न सत्य का भेद कौन तब कर सकता था
वर्तमान पर भूत भविष्यत् थे न्यौछावर ।
       18
सुस्मित आभाओं के नव- नव सुमन सजाकर
कितने बार बनाई गूंथी थीं मालायें
वरद देव थे दोनों दोनों ही थे साधक
अमर साधना लीन साधना मय होकर भी ।
            19
कितने चित्र बनाये जग की चित्र-पटी पर
जीवन को तूलिका बनाकर हंसते हमने
कितने गीत सुनाए गा पाषाण जगत को
सींच सींचकर प्रेम सुधा से जड़तामय उर ।
        20
मेरे मानस की तट वासिनि राज मराली
श्यामल घन के बीच समाई हीरक माला
नभ के दो छोरों तक भी हम आ जा करके
सदा मिलेंगे सन्ध्या रवि ऊषा दिनकर से ।
      21
आज मांगता है जग मुझसे दिवस उजाला
आज विश्व ने मांगी है मुझसे तरुणाई
आज चुकाना है मुझको वह मूल्य प्रणय का
पाकर जिसको कभी न कोई उऋण हुआ है।
       22
प्रेम सदा निष्कलुष यथा गंगा की धारा
प्रेम जीव की अमर आत्मा की छाया है
प्रेम मनुज उर की कोमलतामानवता है
अमरों के ऊपर उसको है जो ले जाती ।
        23
प्रेम प्राण में चलती कुछ सांसों का स्वर है
प्रेम मनुज उर में बसती सी है अमराई
जहां भूलता है मानव खुद अपनी सत्ता
दर्शन के अद्वैत शिखर का बन आरोही ।
         24
किन्तु प्रेम का मूल्य बहुत ज्यादा होता है
इसे चुका पाता कोई विरला साधक ही
विक्रेता-जग उससे मुंह भर दाम मांगता
अथवा लेता छीन इसे वह आगे बढ़कर ।
           25
उसी मूल्य को आज चुकाने मैं जाता हूं
जीवन की गठरी सिर पर साधे परदेशी
प्राण! आत्मा अमर नहीं होती हो तब भी
आज समर्पण की कर देगी शाश्वत धारा । 







                   वियोग 
                 1
आह ! गया जैसे आया निर्मम निर्मोही
सपनों की दुनियां में भटका विकल वटोही
जीवन यह कैसी विडम्बना कैसी माया
काया लगती है छायाछाया वह काया !
                2
कितना खोया किन्तु न पाया कण भर मैंने
जीवन का आराध्य लखा न क्षण भर मैंने
मधुऋतुजिसके लिए प्राण पतझर कर डाला
हायवहीं आकर जीवन ने डेरा डाला !
               3
जड़ जीवन में जिसको चेतन सत्य बनाया
जिस अनपाए की आशा में छोड़ा पाया
कितना बड़ा स्वप्न था ये अब मैंने जाना
जग ने जिसको सत्य-सत्य कहकर सन्माना!
             4
स्वप्न! आह पर कितनी तड़पन कितनी पीड़ा
कितने कम्पक्षणिक उद्वेलन सिहरण ब्रीड़ा
प्राणों में कैसी मरोड़ मसलन होती है
उर सागर में बाड़व ज्वाला ही सोती है!
           5
सचमुच आगत! क्या तुम ही थे देव हमारे
वर्षों से पागल मन ने जिसको आराधा
हाय! सुनी न मैंने तो वह पग-ध्वनि भी थी
कानों ने जिसके सुनने का ब्रत साधा था!
          6
स्वाती जिसकी आश लिए प्यासी मैं भटकी
धरती अम्बर में जा छोड़ा नीर सुधोपम
प्यास बुझाने का जिस दिन पर वह अवसर आया
जड़ता का दुस्सीम शिखर दीवार बन गया ।
         7
हाय नीड़, जिसके श्वासों के तार बनाए
प्राणों के प्रहरी ने जिसकी की रखवाली
किन्तु एक दिन जब आगत पंछी वह आया
जीवन के निश्वास चेष्टाशून्य हो गए ।
        8
कैसे बचूं आज मैं अब इस दावानल
कैसे पार करूं यह उफनाता सागर
कैसे लाघूं आज थकी मैं चलती चलते
भू अम्बर को छूता ये प्राचीर प्रणय का!
      9
प्रणय! प्रणय!! क्रन्दन तड़पन जर्जर प्राणों का
उच्छ्वासों का आहत उर पुर से उद्वेलन
प्रणय! प्राण की पाटी पर असि की नोकों से
लिखी गई जीवन की कोई मर्म कथा है !
    10
सिहरनकम्पनब्रीड़ापुलकमधुर मुस्कानें
हावों की दुनियां की दुनियां में भावों का अभिनन्दन
व्यंग्यवक्रतापलकअलस भरी भौंहों से
दृष्टि हीन चलना सुलगा प्राणों  की बाती ।
        11
यही प्रणय का काव्य अन्त में जिसका अथ है
पठन नहीं पर लेखन इसका चलता रहता
बड़े बड़े विद्वान् न इसको कह पाते हैं
शब्द साधना हीन यहां आकर रुक जाते ।
      12
प्रणय स्वप्न है, बिना नींद के जो आ जाता
आंखें खुली शून्य छाया में लिपटी रहतीं
पागल मन पंछी उड़ उड़कर भग जाता है
जर्जर प्राणों का बिखरा सा नींड़ तोड़कर ।
   13
बेाझिल पलकों पर सहसा कोई आ जाता
आंखें भी न उसको देख समझ पाती हैं
मुस्काता बैठा बैठा वह क्रन्दन सुनता
देख देखकर दग्ध शिराओं का क्रीड़ांगन ।
 14
कभी हवा आती बायें से चुटकी भरकर
अपना सारा भार शीश पर रख जाती है
तारे सहसा झांक झांककर छुप जाते हैं
मेरे व्याकुल मानस की आकुल रंगशाला ।
15
अन्तर बीच कभी बडवानल आ जाता है
अंगड़ाई सी लेता लगता प्रणय-पुरुष ही 
उरप्राणोंखों को क्षण भर आहत करके
किसी गहन रव शून्य गुहा में खो जाता है ।
16
भीषण ज्वार कभी आता आकुल मानस में
तट को तोड़ भयंकर बाढ़ समा जाती है
तन मन छोड़ प्राण का तब एकान्त बटोही
जाता डूब चेतना हत सा किसी भंवर में ।
17
जीवन से वैराग्य कभी मुझको भाता है
ल्गता कभी तोड़ ही दूं यह सूत्र प्रणय का
जिसके झूठे बंधन में विस्मृति वैभव को
मेरी ममता ने सबकुछ अनजान लुटाया ।
18
काराजिसको जीवन का प्रासाद सुना था
छोड़ दिया था जिसको अपना घर भी मैंने
लगता तोड़ अभी डालूं भ्रम मय दीवारें
जे निश्वासों की छाया में पलती आईं ।
19
जग का हंसना मुझको कभी बहुत खलता है
खों से ओझल रहकर उसका ठिठलाना
व्यंग्यों की बौछार न जब मैं सह पाती हूं
लगता शीघ्र फाड़ ही डालूं प्रणयी अम्बर ।
20
अबला! हाअबला ही रहती प्रणय-तराजू
कितना चतुर पुरुष नहीं वह वणिक-लुटेरा
किया पुरुष-जीवन का जिसने पलड़ा भारी
धरती में इतना भरा भेद कर पक्षपात !
21
नारी पर न इसको सोच कभी पाती है 
विस्मृति की सांसों में है उसका जी पलता
स्वर्गिक सुमनों की शैया का सुख लेती वह
पा खुद को निर्जीव विकल नर की वाहों में ।
22
उफनाते अपने उर-सागर में जब नारी
नर को निज किश्ती समेत जाने देती है
अपना घर लुटते लखतीं पथराई आखें
दिवा-स्वप्न की जैसे उन पर छाई छाया ।
23
स्वप्न-स्वप्न! विस्मृतिप्रमादमादक पागलपन
संसृति की सांसों पर निश्चल सी यह छाया
प्राणों का एकान्त शिविर मन मोहक दुनियां
भावों का क्रीड़ा आंगन निस्सीम प्रणय सा ।
24
प्रणय! प्रणय! मानव सचमुच न कुछ कह सकता
विवश प्राण का मादकतामय चिर नर्तन यह
जीवन का दर्शनसंयमतप और साधना
जिसके पावों की थिरकन पर सदा डोलते ।
25
मेरे प्राण! भुलाऊं कैसे वह छवि अब मैं
आंखों ने जिसका अब तक श्रंगार किया है
कैसे लौटाऊं वह आया गंतुक
मन ने सौ सौ बार द्वार पर जिसे बुलाया!
26
कैसे मानूं चले गए तुम मुझे छोड़कर
जब मेरे अन्तर अनेक संसार सजे हैं
कितने दूर कहो जा सकते विकल बटोही
अन्तर में प्रणयी का भार भरे दुर्वह !
27
ओ प्राणों के तार बजो अब अपनी लय में
जीवन की किश्ती मानस में छोड़ रही हूं
आहत उर को बना जीर्ण सा स्यंदन अपना
खोल दिगंतर का पट जातीं मन की राहें ।
28
प्रेमबहुत कह चुकीशेष फिर भी है सारा
शब्दों में जीनाहोना कैसे संभव है
अक्षरक्षर जीवन की गहराईमाप कहां है
प्रेम नहीं फल प्राप्यएक यह क्रियासमर्पण!    

                             मई 1965

Thursday 2 July 2015

आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल के बुन्देली व्युपत्ति कोष की भूमिका





   
बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष : एक अभिनव पहल

वेदज्ञ आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल द्वारा बुन्देली भाषा के वैज्ञानिक विवेचन’ के पश्चात् इसकेशब्दों के व्युत्पत्ति कोषका प्रणयन उनकी भाषा के सूत्र के सहारे भारतीय वाक् के मूल में प्रवेश की एक चिर अभीप्सित पहल है इन दिनों वैदिक संस्कृत की समझ में सहायक तत्कालीन लोक जीवन और व्यवहार के उस पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन में एक विचारक वर्ग गंभीरता पूर्वक संलग्न है विगत अनेक वर्षों तक पुरा चिन्तन से जुड़े श्री भगवान सिंह के ऋग्वेद संबंधी अनेक आलेख इस दृष्टि को दिशा देते रहे हैं श्री भगवानसिंहजी भाषाशास्त्रीय अध्ययन परंपरा को सर्वथा एक नया आयाम देते हैं। सितम्बर 2012 के नया ज्ञानोदय के अंक मे उन्होंने  इस दिशा से संबन्धित तीन सूत्र इस प्रकार दिये गए हैं-
1. हमारी लोकभाषाएं संस्कृत से नहीं निकली हैं वे तो वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं।
2 .वे संस्कृत से अधिक समृद्धध हैं।
3.सभी बोलियाँ अनगिनत बोलियों के बिपाक से बनी हैं.
श्री भगवानसिंहजी की स्थापना है कि वेदों के काल मे पहुँचने के लिए वेदों की भाषा को उसके मूल मे पहचानना आवश्यक है। इसके लिए एक तो संस्कृत भाषा का मार्ग है और एक मार्ग है जन भाषा का। विद्वान विचारक के मत मे जन भाषा के अध्ययन द्वारा हम वेद की भाषा ही नहीं, वेद के मूल तक भी पहुँच सकते हैं।  
यह स्थापना अभिनव और विचारोत्तेजक है वहीं इसकी जोखिम को भी समझना उचित होगा। प्रश्न यह है कि क्या जनभाषा, बोलियाँ  एक व्याकरण सम्मत विशालकाय साहित्य संरचना के सागर को प्रभावित कर सकती है? क्या बोलचाल और साहित्य की भाषाओं के भेद को लेकर चलना साहित्य, भाषाशास्त्र और सांस्कृतिक आरोह के सिद्धान्त के अनुरूप है? आखिर भाषा का धातु रूप बोलियों पर आश्रित है अथवा बोलियाँ कालांतर में भाषा के समानान्तर ही इसका  संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि के रूप  में विस्तार करने में स्वतः समर्थ हो जाती हैं ?  
प्राचीन साहित्य मे इस प्रकार की दो प्रकार की भाषा प्रयोग के अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। वाल्मीकि रामायण मे ही हनुमान अपना संवाद जिस भाषा मे राम से पहली वार करते हैं उस पर राम उन्हें संस्कृतनिष्ठ होने का प्रमाण पत्र देते हैं। मध्य युग रचनाओं, विशेषकर कालिदास, भवभूति आदि के नाटको मे सुशिक्षित और कम शिक्षित पात्र क्रमशः संस्कृत और प्राकृत का प्रयोग करते हैं। यदि यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि लोकभाषा संस्कारित भाषा को प्रभावित करती है तो साहित्य की भाषा की उस पर ऐसी निर्भरता और उसके उत्स कि कुंजी या माध्यम मान लेना सामान्यतः कठिन प्रतीत होता है। विशेषकर संस्कृत की अपनी प्रकट समृद्धि, संभावना और व्याकरण की अनुशासनबद्धता ही इसे इतने अपार साहित्य सृजन के क्षमता प्रदान करती प्रतीत होती है
अत: यह स्वभाविक ही है कि आचार्य शुक्ल ने बुन्देली भाषा का मूल संस्कृत धातुओं, ध्वनि परिवर्तन, निर्वचन,सन्धि ऊष्मीकरण, अनुनासिकीकरण, घोषी-अघोषीकरण, अल्प- महाप्राणीकरण, अभिस्वीकृति और अपस्वीकृति आदि पर आधारित किया है
अभी कुछ समय पूर्व ही राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, भोपाल परिसर ने लगभग ११००० बुन्देली शब्दों का एक कोष प्रकाशित किया है. अब संस्थान की केन्द्रीय सहायता से प्रकाशित होने वाला यह ‘बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष’ महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम द्वारा प्रकाश में लाया जा रहा है. इसकी यद्यपि शब्द संख्या सीमित (लगभग १५०० ) है, किन्तु इसकी अपनी अनेक विशेषताएं हैं. यह अपने आप में चकित करने वाली बात है कि विद्वान आचार्य शुक्ल ने अपने इस कोष के प्रत्येक बुन्देली शब्द को वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक की अखिल भारतीय परम्परा और संस्कृति की धारा में पूर्ण वेग से परिप्रवाहित देखा है. वेद, ब्रह्मण, उपनिषद, पाणिनि, पतंजलि, काशकृत्स्न, यास्क और संस्कृत कवि कालिदास आदि से लेकर वर्तमान तक की विकास यात्रा में यदि मानव पीढ़ी ने अनेक हिचकोले खाए हैं तो हमारा शब्द भी समय की आंच में तपकर कुंदन की तरह उभरा है. बुन्देली के ‘सपरबो’ शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘सपर्य’ से स्थापित करते हुए कोशकार कहता है-
‘ यहाँ बड़ी दूर की कौड़ी लाई गयी है. लक्षणा शक्ति का प्रयोग है. पूजा के लिए स्नान पहले आवश्यक है. ‘सपर्या’ (पूजा) संपन्न करने के पूर्व आवश्यक रूप से स्नान की क्रिया संपन्न करनी होती है. अतः ‘सपर्या’ के संकेतित अर्थ में स्नान भी आवश्यक रूप से विहित था. यही अर्थ बुन्देली ने ले लिया. पूजा गायब हो गयी, अकेला स्नान बच रहा है. अर्थापकर्ष की घटना शब्द के संसार में घट गयी.’
आज हिन्दी भाषा की राष्ट्रभाषा के रूपमें प्रतिष्ठा में दक्षिण के कुछ राज्यों की क्षेत्रीयता वाधा उत्पन्न करती है. किन्तु यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि इस व्युत्पत्ति कोष में विद्वान लेखक ने लगभग ७५ प्रतिशत शब्दों की व्यत्पत्ति में कर्नाटक के काशकत्ष्ण और उनके टीकाकार कर्नाटक के प्रसिद्ध कवि चन्नवीर का आधार लिया है.
आचार्य शुक्ल की स्थापना की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने इस कोष में ऐसे अनेक बुन्देली के शब्दों की खोज की है जो आज भी शुद्ध तत्सम और वेद कालीन स्वरूप में यथावत विद्यमान हैं जबकि उनके समानार्थी हिन्दी के शब्द तद्भव रूप में व्यवहृत हो रहे हैं. इससे बुन्देली भाषा की प्राचीनता तो प्रतिपादित होती ही है, यह सत्य भी प्रमाणित होता है कि भाषा की स्वयं की सतता अपरिसीम है तथा उसे इतिहास, भूगोल, समाज, राज्य या सम्प्रदाय की हथकड़ियाँ और सीमाएं कभी स्वीकार नहीं रही हैं.
‘वैश्य’ शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लेखक ने वैदिक ‘शब्द’ वणिक को आधार माना है . इसी सन्दर्भ में यास्क द्वारा ‘पणि’ को ‘वणिक का आधार मानने पर पाणिनि और काशकृत्श्न के आधार पर धातु व्यवहार का अर्थ लेते हुए उसने अपना यह रोचक विश्लेषण भी दिया है-
‘ मूल में वणिक शब्द एकार्थी था. पर बाद में बनिया होते ही वह अनेकार्थी हो गया. बनियां का एक अर्थ हो गया कंजूस. बनियां व्यापारी तो है ही, अतः साहचर्य के कारण उसके गुणों को भी बनियां पर आरोपित कर दिया गया.’
पुस्तक में लेखक ने प्रत्येक शब्द के बुन्देली व्यवहार के जो उदाहरण दिए हैं वे अपनी रोचकता और पुनर्रचना क्षमता में इतने अनूठे हैं कि यदि उन्हें क्रमानुसार गल्प बद्ध कर दिया जाय तो यह पुस्तक  एक सशक्त आंचलिक उपन्यास की भी जन्मदात्री बन सकती है. विशेषकर, लेखक ने ‘माते’, ‘बब्बा’, ‘कक्का’, ‘छोटी बहू’ आदि पात्रों को जो संवेदना की अतल गहराई प्रदान की है, वह इन्हें पूर्ण जीवंत बना देती है. स्वाभाविक रूप से कोई भी पाठक इनकी सजीवता देखकर इन्हें इतिहास के गर्भ से उठाकर काल की अजस्रता में अवश्य ही प्रतिष्ठित कर देना चाहेगा.      
महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम् के संस्थापक वरिष्ठ और संस्थापक सदस्य आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल के इस अभिनव अभिदाय के लिए संस्थानम् उनकी अखंड भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की संपोषणकारी क्षमता की सराहना करता है तथा इसके प्रकाशन का दायित्व संस्थानम् को सौंपने के लिये उनके प्रति आभार प्रकट करता है.
संस्थानम् राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान् नई दिल्ली, विशेषकर उसके कुलपति प्रो. परमेशवर नारायण शास्त्री के प्रति भी आभार मानता है कि संस्थान ने पुस्तक प्रकाशन हेतु योग्य आर्थिक सहायता की स्वीकृति देकर इस प्रबंध को विद्वत् जनों और शोधार्थियों को शीघ्रतर उपलब्ध करा सकने के योग्य बनाया.

प्रभुदयाल मिश्र
अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, भोपाल मध्य प्रदेश