Tuesday 11 April 2023

तुलसी मानस भारती -संपादकीय मार्च 2023



 




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  1. इस संपादकीय का पूर्व भाग माह फरवरी में -निर्वचन फरवरी -23

    उत्तर रामायण अर्थात् उत्तर कांड
    आद्य रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के स्वरूप का निर्धारण करते हुए बालकाण्ड के चतुर्थ सर्ग में इसका निम्न निदान प्रदान किया है –
    चतुरविंशत्सहस्राणि शलोकानामुक्तवानृषि:
    तथा सर्गशतान् पञ्च षट्कांडानि तथोत्तरम् । (वा. रा. 1/4/2 )
    अर्थात् इसमें महर्षि ने चौबीस हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग, छ: कांड और ‘उत्तर’ भाग की रचना की है ।
    यह श्लोक उन सभी महा मनीषी, उद्भट, अधीत महानुभावों को रामायण के रचनाकार का स्वत: स्पष्ट समाधान है जो इस बात को लेकर सदियों से अपनी शक्ति का क्षरण करते आ रहे हैं कि वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड एक उत्तरवर्ती प्रक्षिप्त भाग है जिसकी रचना वाल्मीकि जी ने नहीं की है । वास्तव में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरित मानस के ‘उत्तरकाण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है क्योंकि इसकी रचना में जहां गोस्वामी जी ने आदि कवि की कुशल विधा का अभीष्ट उपयोग किया है वहीं उनके समान ही इसमें कुछ कूट और गुत्थियाँ भी रख छोड़ी हैं जिनका शंका समाधान करते हुए रामायण के पाठकों और अध्येताओं को लगातार परिश्रम करना पड़ता है ।
    रामचरित मानस के बालकाण्ड में पार्वती जी ने भगवान शिव से जो निम्न आठ प्रश्न किए हैं वे एक प्रकार से रामकथा के कांडों का ही परिचय हैं-
    प्रथम सो कारण कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन् बपु धारी
    पुनि प्रभु कहउ राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा (बाल कांड)
    कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं । (बाल, अयोध्या कांड)
    बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहउ नाथ जिमि रावन मारा । (आरण्य, किष्किन्धा, सुंदर और लंका कांड)
    राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहउ संकर सुखसीला । (उत्तर कांड)
    बहुरि कहउ करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम
    प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम । बालकाण्ड 110 (उत्तर रामायण!)
    पार्वती जी ने अपने इन प्रश्नों में श्री राम के स्वधाम गवन के जिस वृत्त के समाहार का अनुरोध किया है वह वस्तुत: बाल्मीकि की ‘उत्तर रामायण’ की कथा है जिसे तुलसी ने स्पष्टतया छोड़ दिया है । उत्तरकाण्ड में अपनी कथा का उपसंहार करते हुए श्री शिव जब कहते है ‘राम कथा गिरिजा मैं बरनी’ तो पार्वती जी उसे यथावत स्वीकार करते हुए कहती हैं ‘नाथ कृपा मम गत संदेहा ‘(उत्तरकांड 129)। रामकथा के भाष्यकार इसका समाधान करते हुए प्रायः यही कहते हैं कि श्री राम के स्वधाम गवन की लीला तुलसी को प्रीतिकर नहीं होने से स्वीकार ही नहीं थी । इसी तरह शिव और पार्वती संवाद के संदर्भ में भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रश्न पूछते समय यद्यपि पार्वती जी की इस प्रश्न के प्रति जिज्ञासा रही होगी किन्तु भगवान की नित्य लोकोत्तर कथा सुन लेने के बाद उनका सम्पूर्ण समाधान हो गया, अतः उन्हें अपने मूल प्रश्न को पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई ।
    किन्तु इससे यह संकेत तो गृहण किया ही जा सकता है कि तुलसी को अपने युग और अपनी दृष्टि में इस कथा विस्तार का बोध था । किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने उपोद्घात में स्पष्ट किया है निगम, आगम, पुराण आदि से सुसंगत कथानक के अतिरिक्त उन्होंने ‘कुछ’ अन्यत्र अर्थात अपनी कल्पना, काव्य कला, शील और संस्कार-परंपरा से भी संपृक्त किया । इसमें युग-बोध, भाषा-विज्ञान, समाज-दर्शन, साहित्य के प्रतिमान और कवि की अपनी प्रतिभा की छाप भी स्वत: आती ही है । और तुलसी के संदर्भ में इन परिमाणों को किसी प्रकार न्यूनतर मानकर नहीं चला जा सकता क्योंकि जहां उनकी वेद-वेदांग की शिक्षा शेष सनातन के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई वहीं उन्हें भक्ति परंपरा के आद्याचार्य रामानंद जी महाराज के शिष्य श्री नरहर्याचार्य की कृपा भी प्राप्त हुई थी । इस प्रकार उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा का संस्कार, शिक्षा और स्वयं की युगांतरकारी प्रतिभा से प्रामाणिक प्रतिनिधि पुरुष ही कहा जाना उचित ठहरता है।
    इतना सब इस इस धारणा की प्रतीति में है कि उत्तरकाण्ड में तुलसीदास जी ने इसकी कथावस्तु का जो स्वरूप अवधारित किया है उसमें मुख्य रूप से वाल्मीकि की उत्तर रामायण का आधार देखा जा सकता है ।
    प्रभुदयाल मिश्र, प्रधान संपादक (9425079072)

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