निर्वचन जून 23
वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस
श्रुति वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति
(हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात् ज्ञान
के बिना मुक्ति नहीं । ज्ञान है सत्य का
स्वानुभव । और सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब
स्मरण किया जाता है तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है ।
श्रीमद्भागवत का तो प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं
परं धीमहि’ से ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ
वेद-वेदांग से लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द
प्रमाण’ भरे हुए हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण
ही हैं जिनसे इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।
गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञानं तेsहं
सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान
को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के
प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार करते
हैं –
‘मैं अरु मोर तोर तें माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहॅ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..
माया ईस
न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बन्ध मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । (
आरण्यकांड 15)
ईश्वर और मनुष्य के बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे
की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे तत्क्षण मुक्ति के द्वार में
प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री राम भरत को भी प्रदान करते
हैं –
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक
गुन यह उभय न देखिअहि देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड
41
अर्थात् हे भाई (भरत) माया के कार्य की अनेक सकारात्मक
और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही
श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है
(क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।
मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड और इंद्रादिक
देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे अन्य दूसरों की
तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को समझने के लिए
पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार प्रतिष्ठा करते
हैं-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु
पहिचाने
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई ।
बालकांड 112/1
असत् (माया) बोध से रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न
में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का
उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व
बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म और
प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस
प्रकार उन्मीलित करते हैं –
जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू
जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि
जदपि मृषा तेहुं काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड
117
विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया और ब्रह्म का यह
निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए संपादित मानव की
चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं । इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ सत्व
रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक (9425079072)
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