Monday 12 September 2016

'अर्धालियों के पूर्णाकार' समीक्षा


पुस्तक-समीक्षा

एक समीक्षा संग्रह में पचहत्तर कृतियों
के पठन का रसास्वादन
युगेश शर्मा
    किसी भी साहित्यिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कृति की समीक्षा का कार्य समुद्र में डुबकी लगातार मोती निकालने जैसी श्रमसाध्य कवायद है। एक निष्पक्ष और कृति केन्द्रित समीक्षा के लिए प्रतिबद्ध समीक्षक जब किसी कृति की समीक्षा करता है-तब वह वस्तुतः एक न्यायाधीश जैसा पवित्र कर्म कर रहा होता है। तब उसके समीक्षा-कर्म का एकमेव लक्ष्य कृतिकार नहीं अपितु कृति ही रहती है। यद्यपि ऐसा समीक्षा-कर्म आजकल दुर्लभ होता जा रहा है। परिणामस्वरूप कृतिकार की ख्याति और उसके समग्र आभामंडल के मुकाबले कृति गौण दिखाई देने की स्थितियां बनती जा रही हैं। ये स्थितियां विषयनिष्ठ उत्कृष्ट लेखन के लिए एक अशुभ संकेत है और गुणवत्ता युक्त गंभीर लेखन के मार्ग में इनके द्वारा कांटे बिछाये जाने का काम किया जा रहा है। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता और वैदिक विषयों के मर्मज्ञ श्री प्रभुदयाल मिश्र के समीक्षा-कर्म की पूर्व पीठिका के रूप में उपरोक्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है। श्री मिश्र एक लंबे समय से साहित्यिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक कृतियों (पुस्तकों) की निष्पक्ष, सटीक और गहन-गंभीर समीक्षा कर रहे हैं। आपके समीक्षा-कर्म की सबसे बड़ी  विशेषता यह है कि वह केवल साहित्य तक सीमित नहीं है। उसके कई आयाम हैं। वे साहित्यिक कृतियों के साथ-साथ रामायण संबंधी शोध ग्रंथों, भक्ति-साहित्य की कृतियों और भारतीय संस्कृति की विभिन्न प्रशाखाओं से संबंधित मौलिक पुस्तकाकार सृजन को भी परख कर उस पर अपनी संतुलित टिप्पणी दे रहे हैं।
    श्री मिश्र के समीक्षात्मक आलेखों में एक बड़ी विशेषता यह भी सामने आती है कि उनके पठन से पाठक को मूल कृति के पठन जैसा रसास्वादन प्राप्त होता है। संभवतः ऐसा इस कारण संभव हो रहा है कि आपका समीक्षा-आलेख प्रारंभ से लेकर अंत तक कृति को ही अपने फोकस’ में रखता है। कृति में प्रतिपाद्य विषय और उससे निकलने वाली भाव-ध्वनियों की तरफ से अपना ध्यान भटकने नहीं देते। इसी कारण कृतिकार और पाठक दोनों स्वीकार करते हैं कि श्री मिश्र ने अपनी समीक्षा में पूरा-पूरा न्याय किया है। उनकी इस महारत में उनके विविध आयामी विशद् अध्ययन के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत रचनात्मक संस्थाओं के साथ आपके दीर्घकालीन जुड़ाव और लंबे प्रशासनिक अनुभवों ने भी आपकी समीक्षा-दृष्टि को नीर क्षीर विवेकी क्षमता प्रदान की है।
    तुलसी मानस प्रतिष्ठान मध्यप्रदेश, भोपाल ने श्री प्रभुदयाल मिश्र द्वारा समय-समय पर लिखित पचहत्तर कृतियों की समीक्षाओं को अर्धालियों के पूर्णाकार’ नाम से इसी वर्ष-2016 में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है। इस समीक्षा संग्रह में शामिल 75 समीक्षाओं में से अधिकतर तुलसी मानस प्रतिष्ठान की मुख पत्रिका तुलसी मानस भारती’ में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। 187 पृष्ठों की इस समीक्षा-कृति में 176 पृष्ठ समीक्षाओं को दिये गये हैं। प्रत्येक समीक्षा के प्रारंभ में कृतिकार, प्रकाशक और मूल्य बाबत विवरण दिये जाने से समीक्षा की उपादेयता पाठकों के लिए काफी बढ़ गई है। इस विवरण की मदद से वे इच्छित कृति को प्राप्त कर उसके पठन का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। संग्रह के अंतिम तीन पृष्ठों पर समीक्षक श्री प्रभुदयाल मिश्र का विस्तृत परिचय भी छापा गया है, जो संभवतः अद्यतन रूप में पहली बार आया है।
    समीक्षा-संग्रह अर्धालियों के पूर्णाकार’ को श्री मिश्र ने तीन खंडों अर्थात पटल में वर्गीकृत किया है। श्री मिश्र की सर्जनात्मक और अनुष्ठानात्मक सक्रियता के साथ लंबे समय से अभिन्न रूप से जुड़े तुलसी मानस भारती’ के संपादक श्री एन.एल. खंडेलवाल ने अपने ढंग की इस अनूठी कृति की भूमिका लिखी है। इस कृति में शामिल समीक्षाओं और इस संग्रह के पुस्तकाकार प्रकाशन की अंतर्कथा को रेखांकित करते हुए मानस मर्मज्ञ श्री खंडेलवाल ने संग्रहित समीक्षाओं को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ने और उनके रसास्वादन के जैसे द्वार ही खोल दिये हैं। आठ पृष्ठों की इस विश्लेषणात्मक भूमिका में श्री मिश्र के समीक्षकीय व्यक्तित्व को बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है। श्री खंडेलवाल लिखते हैं- आजकल पत्र-पत्रिकाओं में जो पुस्तक-समीक्षा प्रकाशित की जाती है, उसमें पुस्तक पर न तो गहरी नज़र डाली जाती है और न ही किसी पुस्तक का बहिरंग और अंतरंग पाठक के सामने लाना अपेक्षित रहता है। इसमें समीक्षाकार का अभिप्रेत पाठक के सामने पुस्तक विशेष की खूबियां लाना होता है। कहना न होगा कि श्री प्रभुदयाल मिश्र की समीक्षा दृष्टि इस कसौटी पर खरी उतरती है।
    समीक्षा-संग्रह के प्रथम खंड अर्थात प्रथम पटल में 28 साहित्यिक कृतियों की समीक्षाएँ शामिल हैं। यह सिलासिला डा. विनय षडंगी राजाराम के कविता संग्रह स्वर्ग का अग्नि-द्वार’ से प्रारंभ होकर रामकथा पर एकाग्र उपन्यास युगाधिपतिपर विराम लेता है। यह उपन्यास श्री चन्द्रप्रकाश जायसवाल की कृति हैं। इस खंड में जिन प्रमुख लेखकों की कृतियों की समीक्षाओं का समावेश है’ वे हैं- डा. रमानाथ त्रिपाठी, डा. प्रेम भारती, डा. देवप्रसाद खन्ना, श्री बटुक चतुर्वेदी, डा. गंगाप्रसाद गुप्त बरसैंया, और आचार्य दुर्गाशंकर शुक्ल। द्वितीय खंड को समीक्षाकार ने द्वितीय पटल कहा है और उसमें रामायण-शोध से संबंधित 16 कृतियों को लिया गया है। इस खंड में डा. लालसिंह चौधरी की पुस्तक रामचरित मानस में प्रक्षेप’ से लेकर प्रो. मूलाराम जोशी की कृति नयन बिनु वाणी’ तक कृतियों को समाविष्ट किया गया है। इस खंड में डा. प्रेम भारती, डा. शोभाकांत झा, डा. दादूराम शर्मा, डा. परशुराम शुक्ल विरही’ तथा डा. रामस्नेहीलाल शर्मा यायावर’ की शोधपरक कृतियां प्रमुख रूप से संग्रहित हैं। तृतीय खंड-तृतीय पटल में शामिल समीक्षाओं का केन्द्रीय विषय भक्ति-साहित्य’ है। इस खंड में मात्र छह कृतियां शामिल हैं। इन कृतियों के प्रमुख लेखक हैं- सर्वश्री नन्नूलाल खंडेलवाल’ डा. लक्ष्मीनारायण गुप्त विश्वबंधु’ तथा स्वामी शिवोम्।
    संस्कृति’ पर एकाग्र कृतियों को समीक्षा-संग्रह के चतुर्थ पटल (खंड) में शामिल किया गया है, जिनकी संख्या 25 है। इस खंड में प्रमुख रूप में प्रो. मूलाराम जोशी, डा. प्रेम भारती, अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, डा. मोहन गुप्त, डा. देवेन्द्र दीपक, पं. ईशनारायण जोशी, डा. परशुराम शुक्ल विरही, मनोजकुमार श्रीवास्तव, डा. प्रभाकर श्रोत्रिय, मुनिश्री चिन्मय सागर तथा विनोदकुमार श्रीवास्तव की कृतियों की समीक्षाओं का समावेश हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित डा. श्रोत्रिय की कृति भारत में महाभारत’ की समीक्षा करते हुए श्री मिश्र ने लिखा है- भारत में महाभारत वस्तुतः महाभारत विषयक एक ऐसा विश्वकोश है, जो अध्यात्म, दर्शन और पुराकथा की अमूल्य धरोहर के साथ-साथ सनातन साहित्य की अपने मूल और प्रभावात्मिकता में अप्रतिम है।‘ इसी प्रकार सुन्दरकांड: एक पुनर्पाठ में वे लिखते हैं- मनोजकुमार श्रीवास्तव की असामान्य मेधा गति और शक्ति की तारीफ ही करनी होगी, यह पुस्तक एक लेखकीय क्रा्रंति है।‘
    जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है, श्री मिश्र अध्यात्म और वेदों की गहराई में उतरे हुए एक सतत चिंतनशील अघ्येता हैं। हिन्दी के अलावा संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है। इन सब खूबियों का दर्शन संग्रह की 75 में से अधिकांश समीक्षाओं में सहज ही हो जाता है। उन्होंने कृति विशेष को कसौटी पर कस्ते समय अपने निष्कर्षों को पुष्ट और समाधानकारी बनाने के लिए पौराणिक ग्रंथों के उदाहरण भी यथास्थान दर्ज किये हैं’ जो प्रायः संस्कृत भाषा में हैं। इसके अलावा जहां भी आवश्यक हुआ है अपनी बात के समर्थन में अंग्रेजी के उद्धरणों की मदद भी उन्होंने ली है। समीक्षाओं की भाषा प्रवाहपूर्ण, स्वयं स्पष्ट और सहजग्राह्य है। समीक्षाओं में प्रयुक्त शब्दों एवं भावों के वे ही अर्थ-पाठक तक पहुंचते हैं जो समीक्षक द्वारा अपेक्षित हैं। फलस्वरूप ये समीक्षाएँ न तो किसी प्रकार का भ्रम पैदा करती हैं और न ही कृतिकारों के श्रम को नकारती हैं। मैं सार रूप में कह सकता हूँ कि संग्रह की समीक्षाओं में कहीं भी अति रंजना नहीं है। कृति में जो है- वही समीक्षा में उभरकर सामने आया है। श्री मिश्र ने अपनी समीक्षा को न्यायपूर्ण बनाये रखने के लिए बड़े लेखकों की गलतियों और कमियों की ओर संकेत करने में भी परहेज नहीं किया है।
    समीक्षा-कर्म के साथ न्याय करने वाली समीक्षा कृति अर्धालियों के पूर्णाकार’ के लिए श्री प्रभुदयाल मिश्र को साधुवाद। उन्होंने पाठकों को एक ही कृति में पचहत्तर कृतियों का रसास्वादन करा दिया है, जो एक अनूठा साहित्यिक उपक्रम माना जाएगा।

                                      
पुस्तक  - अर्धालियों के पूर्णाकार
लेखक  -  प्रभुदयाल मिश्र
प्रकाशक - तुलसी मानस प्रतिष्ठान, भोपाल
मूल्य   -  250 रुपये

व्यंकटेश कीर्ति,
11 सौम्या एन्क्लेव एक्सटेशन
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