Sunday 15 March 2015

'अमेरिका का भारत' ( यात्रावृत्त )

‘अमेरिका’ का भारत
प्रभुदयाल मिश्र

अमेरिका में रहने वाले लगभग ३० लाख भारतीय औसत तौर पर जैसे प्रति एक भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करते हैं । अत: यह कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में कहीं भी आसपास बात करते हुये औसत तौर पर १० में से ऐसे दो व्यक्ति मिल ही जाते हैं जिनका बेटा या बेटी यू एस में काम कर रहा है तथा वे या तो वहाँ होकर आये हैं अथवा वहाँ जाने की तैयारी में हैं । यही दृश्य अमेरिका यात्रा में भी प्रत्येक भारतीय देखता और अनुभव करता चलता  है । कहीं भी बाहर सैर सपाटे- न्यूयार्क, वाशिंगटन, नियाग्रा, डिजनीलैंड, गोल्डन गेट ब्रिज, सेन फ़्रांस्सिको, चिड़ियाघर या एक्वेरियम आदि में जाते हुये ५ से १० प्रतिशत भारतीय परिवार ( बुज़ुर्ग माता-पिता, पोता- पोती और बेटी/ बेटा तथा बहू/ बेटी ) दिखना एक आम बात है ।
एक समय था जब अमरीका यात्रा में गये भारतीय का मक़सद अमरीकियों से मिलना और उनसे संवाद लक्ष्य हुआ करता था । किन्तु अब आम भारतीय तो अलग राजनेताओं, महात्माओं और व्यवसायियों की यात्रा के केन्द्र में भी अधिसंख्य स्वदेशी या प्रवासी भारतीय ही रहते हैं । स्पष्ट है कि अमेरिका में अब ऐसे अनेक भारतीय संगठन और समुदाय सक्रिय हैं जो भारतीय जीवन, परम्परा, भाषा  और संस्कृति को पुनर्जीवित करने के प्रति बहुत सचेष्ट हैं ।
ज़ाहिर है कि अपनी इस भूमिका की पृष्ठभूमि में मैं कोलेराडो की अपनी ताज़ी यात्रा में ‘ बोल्डर बाल विकास सेन्टर’ के सामाजिक और सांस्कृतिक आचार और व्यवहार को केन्द्र में रख रहा हूँ जिसने मेरी इस यात्रा में मुझे एक और आत्मीय परिवार में साथ रख मुझे इस दूसरे घर बराबर आते जाते रहने की आवश्यकता जताई है ।

कुछ समय पूर्व जब एक पाकिस्तानी चैनल एक-एक कर क़रीब ३० भारतीय मूल के नाम गिनाकर अमेरिकी प्रशासन में बड़े पदों पर उनकी पदस्थता गिना रहा था, या श्री नरेन्द्र मोदी न्यूयार्क के मेरीलैंड स्क्वायर पार्क में महानायक की तरह सितम्बर १४ में २० हज़ार प्रवासी भारतीयों का ऐतिहासिक सम्बोधन कर रहे थे अथवा २७ जनवरी को बराक ओबामा सीरी फ़ोर्ट ओडीटोरियम में अपने राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस में दिवाली मनाने की बात कर रहे थे, तो १८९३ के स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण की जैसे न केवल रह- रह कर आवृत्ति होती है, बल्कि स्वामी जी का विश्व मानवता के सपने के साकार होने का जैसे समय भी निकट आ रहा है ।
इस तरह जब मेरे कालरेडो के पिछले प्रवास के पहले बुधवार की शाम मेरी बहू शिल्पा ने बताया कि रात आठ बजे वह मुझे स्थानीय ‘बोल्डर बाल विहार केन्द्र’ प्रमुख प्रमिला पटेल के संयोजन में संचालित गीता गोष्ठी के दूर संचार सम्मेलन से जोड़ना चाहती है,तो मैंने प्रसन्नता पूर्वक इसकी सहमति दी । एक प्रकार से यह मेरी भोपाल की गतिविधि की ही निरन्तरता थी । यहाँ हमारी ६५ साल पुरानी गीता समिति रविवार को इसी तरह की प्रत्यक्ष गोष्ठी होती है ।यह परम्परा चिन्मय मिशन की वह लोक व्यापी पद्धत्ति है जो गीता के अध्ययन को सुगम बनाती है ।स्वभावत: यह मेरा अभीप्सित आयाम था तथा इससे मुझे एक प्रवास मात्र की यथास्थिति और डलनेस से मुक्ति प्राप्त होती थी। वाल संस्कार और भारतीय संस्कृति तथा साहित्य के इस भारतीय समुदाय के साथ नियमित संवाद और भागीदारी उत्साह वर्धक थी । इसकी बैठकों में सभी वर्ग - महिला, युवा, बुज़ुर्ग और बच्चों के लिये गतिविधियों की निश्चित रूपरेखा थी - प्रार्थना, संस्कृत पाठ और सूर्यनमस्कार आदि की सामूहिकता की अनिवार्यता सहित ।


मुझे यहाँ विशेष रूप से  ‘ फ़ोर पाथ्स आफ योगा’ विषय पर अपने व्याख्यान और इसके पूर्व और पश्चात् भारत के अनेक भागों में रहने वाले भारतीयों द्वारा उठाये गये कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न सहज ही याद आते हैं ।ऐसे भारतीय परिवार जिनकी पिछली कई पीढ़ियाँ अमेरिका में रही बसी हैं, वे कहीं और भी तीव्रता से अपनी मूल पहचान में सचेष्ट हैं। भारतीय मूल की अमरीकी सांसद तुलसी गैलार्ड द्वारा सदन में ली गई गीता की शपथ और गीता पर उसकी बहुप्रचारित वीडियो क्लिपिंग बहुसंख्य भारतीयों की आँख खोलने का काम करती है ।
मेरे पहुँचने के साथ ही मेरी छ साल की पोती की मार्फ़त बहू शिल्पा ने मुझे इन्टरस्टेलर फ़िल्म देखने के लिये राज़ी कर लिया । उस बर्फ़ीली रात जहाँ थियेटर के बाहर बेटे अनुभव को गाड़ी पार्क करना मुश्किल हो रहा था, वहीं उसे यह भी चिन्ता थी कि टिकिट मिल जाने के बाद भी भीड़ के कारण कहीं फ़िल्म खड़े होकर ( बच्चों के साथ!)  देखने की नौबत आ सकती है ।यह मुझे भारत लौटकर ९ जनवरी के गार्जियन में ‘हाऊ मूवीज़ एम्ब्रेस हिन्दूइज्म’ पढ़कर ठीक समझ आया कि किस प्रकार समय के वर्तुल होने की भारतीय अवधारणा समय की सापेक्षता के परे पहुँचाने के अमरीकी आयाम को दिशा दे रही है ।
छ वर्षीय अन्वी ( पौत्री) और २ वर्ष के अव्ययन (पौत्र) जिनका जन्म अमेरिका में ही हुआ है, घर में अधिकतम हिन्दी ही बोलते हैं । अमेरिका में नवम्बर में मनाये जाने वाले महोत्सव पंपकिन के लिये कद्दू के देवता को अव्ययन ने ‘कम्पन’ नाम दे डाला है । इन कम्पन महाराज की रावण के सेनापति अकम्पन से तुलना कर मुझे पुराण कथा सुनाने में ख़ूब रस मिलता है । अन्वी ने सौन्दर्य की अमरीकी नारी प्रतीक एलसा तथा अव्ययन ने एन्ना को अपना फ़ेवरिट बनाया है । डिजनीलैंड में उनका इनसे साक्षात्कार भी हो चुका है । मैं लक्ष्मी और सरस्वती सी इन देवियों की कथा सुनने और सुनाने में मिथक की समान महिमा से अभिभूत हूँ ।
अपनी कुछ नई पुरानी किताबों पर लैपटॉप या आईपैड पर पौढाते मुझे देखकर प्रायः: घर से ही आफिस का
काम करने वाली शिल्पा मेहमानों को बताती है ‘पापाजी तो मुझसे भी ज़्यादा बिजी रहते हैं ।’ जब एक दिन मैंने अमेजान की सहयोगी क्रियेटस्पेस द्वारा प्रकाशित अपनी ‘देवस्य काव्यं’ पुस्तक का नाम लिया तो तीसरे दिन घर में पुस्तक बुलाकर शिल्पा ने बताया कि उसके अमेजान की सदस्य होने कारण बिना परिवहन व्यय के घर किताब प्राथमिकता से आ जाती है ।रचनात्मकता, भाव और साहित्य की सार्वभौमिकता के वर्तमान डिजीटलाइज्ड विश्व में मानवीय सभ्यता और अभिव्यक्ति के माध्यम भाषा संबंधी मूल पहचान की चेष्टा में भाषाविदों ने भारतीय भाषा परिवार विषय पर व्यापक शोध किये हैं ।२४ जनवरी के गार्जियन में प्रकाशित ‘लैंग्वेज ट्री’ के शोधपूर्ण आलेख को शिल्पा ने भेजकर संभवत: यही प्रकट किया है कि भारत- अमेरिका का भाषाई मेल युगों पूर्व का है ।( आगे यहां यह कथन परिशिष्ट भाग ही बनता है कि मैंने जहाँ अपनी टिप्पणी में सभी भाषाओं के मूल संस्कृत में भी जाने की आवश्यकता बताई वहीं ईशान थरूर ने दक्षिण भाषा परिवार के योग का माहात्म प्रतिपादित किया।)
दुनिया में तेज़ी से फैल रहे आतंकवाद और इसमें सर्वथा अयुद्धवादी भारतीय यदि अनिश्चित भविष्य और आत्मरक्षा के प्रति आशंकित है, तो कोई अचरज नहीं । योग और अध्यात्म की चर्चा से अलग प्रायः प्रवासी मित्रों का यही प्रश्न होता था । वे आत्म त्राण के साथ भारतीय प्रज्ञा की रक्षा में भी सचेष्ट रहना चाहते थे । और यह प्रश्न तो स्वभाविक था ही कि ईश्वर स्वयं यह सब क्योंकर सहता है ?
मेरा इस पर यही कहना था कि यह कुछ वैसा ही है जैसे कोई प्रति व्यक्ति एक परमात्मा की तैनाती मानकर चल रहा हो ।इतना ही नहीं उसे ( परमात्मा को) हमारी जैसे सहायता की भी दरकार हो गई है । इस तरह उसकी प्रार्थना या आलोचना करने वाले को हम पुरस्कृत या दंडित करते हैं । ( शायद उसकी सहायता में और शायद उसकी असहायता दोनों में!) यह हमें स्मरण नहीं आता कि इतने विराट ब्रह्माण्ड, जिसकी आकाशगंगाओं की गणना भी हम न कर सकते हों, उसके निर्माता ( यदि हम ईश्वर का यह कार्य मानना ही चाहते हैं) के इस सीमित संसार पृथ्वी की एक सीमित समय की घटना विशेष से क्या किसी को  इतना प्रभावित होना चाहिये?
भारतीय वेदान्त दर्शन ऐसे सभी जटिल प्रश्नों का बहुत प्रभावी समाधान प्रस्तुत करता है ।हिंसा और हत्याओं से आत्मा की अविनश्वरता के आश्वासन पर ही यह नहीं ठहर जाता । यह आत्मा की किसी पृथक सत्ता का दर्शन न होकर एक ऐसी सार्वभौम, सार्वकालिक, सनातन सत्ता की स्वीकृति है जिसमें कुछ बढ़ने या कम होने का कहीं प्रसंग ही नहीं है ।हमारा शाश्वत दर्शन जीवन और मृत्यु तथा सभी स्थान और समय के परे ऐसी निरन्तरता है जिसमें न तो अल्प विराम की सत्ता है और न ही पूर्ण विराम का अस्तित्व ।
वर्ष १९७० में जब मैं भारत में आयोजित एक शिविर में अमरीकी शान्ति सैनिकों को हिन्दी और भारतीय संस्कृति समझाता था तो एक सुवह केन क्लीवलैंड ने आकर मुझे अपना सपना सुनाया -
‘मैंने आज देखा है कि हमलोग सेनफ्रान्सिसको में साथ-साथ घूम रहे हैं । मैं देखता हूँ कि आप एक सड़क दुर्घटना में आहत हो जाते हैं । मैं एम्बुलेंस के लिये दौड़ता हूँ । लौटकर देखता हूँ कि आप एकदम बदले हुये हैं । आपकी वेशभूषा एक योगी की है ।’
 इस बार मैंने अनुभव को केन के इस सपने को साशय सुनाया । अनुभव ने कहा कि ज़रूर जायेंगे और गाड़ी सावधानी से ही चलायेंगे । फिर बच्चे भी साथ हैं । और आलोक ( अनुभव के मित्र)  ने बार-बार कहा भी है कि पापा को इस बार ज़रूर लाना। अत: हम लोग तीन दिन लासएंजेलिस और डिजनीलैंड में बिताकर जब ८ घंटे सड़क यात्रा कर अमेरिका के इस पश्चिम द्वार पहुँचे- पश्चिम द्वार रहा बलवाना । मेघनाद सन करि लराई, टूट न द्वार बहुत कठिनाई ! यह तो हनुमान के सामने की लंका की चुनौती थी । पर इस सिलीकोन वैली का हमारा मार्ग मेघमाला और तूफ़ान रोक रहा था । इस प्रकार हमारा वह सपना चकचूर हो रहा था जिसने हमें यह समझाया था कि मौसम के मामले में सेनफ्रान्सिसको भारत जैसा ही है और हमें डेनवर के एक दिन में ऊपर- नीचे २० डिग्री तक गुलांच लेने वाले मौसम से निजात मिल जायेगी । बहरहाल एप्पल, फ़ेसबुक और जीमेल आदि के अहातों को छूकर जब हम आलोक के यहाँ पहुँच गये तो भारत के तात्कालिक समय की तेज़ी से तजबीज करने लगे जिससे कुछ समय की टूटी कड़ी को जोड़कर फ़ेस टाइम पर अपने ताज़े समाचार पहुँचा सकें ।
अनुभव ने सचमुच ही बड़ी सावधानी से गाड़ी चलाकर गोल्डन गेट ब्रिज, क्रकुड लेन,घिराडेली चाकलेट फ़ैक्टरी, समुद्र तट आदि की यात्रा कराई । मेरी नज़र समुद्र पार इस महानगर में कहीं किसी कोने में रहने वाले ( अब संभवत: ही) केन क्लीवलैंड की झलक पाने की थी । किन्तु यहाँ जिस परिमाण में मुझे पूर्वी जापान, चीन और भारत आदि से आयी आकृतियाँ दिख रहीं थीं, उससे यह संभावना क्षीण हुई जा रही थी ।जैसे पश्चिम का यह पूरा अमेरिका ही पूर्वान्तरित हो चुका था ।


दूसरे दिन हम लोग पैसिफ़िक समुद्र में बने विशाल मोन्टेरी बे एक्वेरियम देखने गये । यह ऐसा पहला एक्वेरियम हम देख रहे थे जिसमें विराट समुद्री जीव मूल समुद्र के पानी से तर अत्याधुनिक विशाल मत्स्य भवन में रहते थे । तब भी इन प्राणियों को भोजन तो अलग से ही दिया जाता है । इस ज्ञान से दर्शकों को क़तई महरूम नहीं रखा जाता । उन्हें तो भोजन कराते समय समूह में आमंत्रित कर प्रश्न पूछने का भी अवसर दिया जाता है । ऐसे ही मौक़े पर पेंग्युन पक्षियों को मेरी पौत्री अन्वी ने पहला प्रश्न यह पूछा था कि यह पानी और पानी के बाहर उड़ने वाली चिड़िया पानी के अन्दर कितनी देर रहती है और मैंने यह कि पेंग्युन प्रकाशक ने आख़िर इन्हें क्यों अपना ट्रेड मार्क बनाया ?

अनेक व्यक्तियों और जगहों के नए से नाम बिना नोट किये कोई कैसे याद करे ? वह तो यहाँ मुझे गूगल महान् के निकट से गुज़रने का लाभ कहीं बाद में जाकर पता चला जब बापस लौटने पर मेरे आई पैड में एक चित्रमाला - प्रभु मिश्र की सिलीकोन वैली यात्रा - उभर कर आ गई ।बन गया काम ।
स्वामी विवेकानन्द के बाद अमेरिका में सनातन भारतीयता और वेदान्त दर्शन को शहर-शहर पहुँचानेवाले स्वामी चिन्मयानन्द जी का कहना था कि कोई देश अपने भूगोल, सम्पन्नता अथवा शक्ति से महान् नहीं बनता । उसकी महानता का वास्तविक पैमाना उसके आदर्श, उसके नागरिकों की बौद्धिक, वैज्ञानिक और मानव - मूल्य प्रधान क्षमता तथा इन विचारों की निरन्तरता है । भारत और अमेरिका इस पैमाने पर समतुल्य ठहरते हैं । जैसाकि अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने २७ जनवरी को  सीरी फ़ोर्ट ओडीटोरियम में भी कहा, इन दोनों सबसे बड़े जनतांत्रिक राष्ट्रों की क्षमता की परीक्षा इनकी विविध संस्कृतियों, विश्वास और मान्यताओं के मेल से उत्पन्न विविधता लगातार कर रही है ।
१९वीं सदी के अमरीकी रोमान्टिक ट्रान्सडेंटलिस्ट कवि थोरो, इमर्सन, वाल्ट विटमैन, मैलविल आदि पर भारतीय उपनिषदों के प्रभाव से सभी परिचित हैं । इधर महात्मा गांधी पर थोरो के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रभाव की भी स्पष्ट पहचान है । आगे मार्टिन लूथर किंग पर गांधी का असर हुआ । भक्ति वेदान्त प्रभुपाद, महर्षि महेश योगी, ओशो आदि ने तो यहाँ अमिट छाप छोड़ी ही है, वर्तमान में भी अनेक भारतीय अध्यात्म गुरु और योगी अमेरिका में भारत की धूम क़ायम किये हुये हैं । अत: अब हर संदेह से परे अमेरिका में एक ऐसा भारत स्थित है, जिसकी वास्तविक पहचान शुद्ध सनातन भारतीयता है ।