Wednesday 27 July 2016

अर्धालियों के पूर्णाकार : पुस्तक और उनके लेखक

www.vishwatm.comप्रति,
श्री .....लेखक / प्रकाशक
कृति (सूची के अनुसार)

विषय- आपकी पुस्तक-समीक्षा का संकलन

महोदय,

         आपकी विषयोक्त पुस्तक की विचारक और साहित्यकार श्री प्रभुदयाल मिश्र द्वारा लिखी समीक्षा-संकलन का प्रकाशन हमारे द्वारा ‘अर्धालियों के पूर्णाकार’ शीर्षक पुस्तक से किया गया है. ७५ कृति समीक्षाओं की इस पुस्तक में अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति, भाषा और विशेषकर मानस संबंधी अनेक दुर्लभ कृतियों के सन्दर्भ सुलभ कराये गए हैं.
    पुस्तक १८८ प्रष्ठ की है तथा इसका मूल्य मात्र २००/ रुपये है.
यह सूचना भेजते हुए हम यह आशा करते हैं कि आवश्यक सन्दर्भ और संग्रह हेतु इस संकलन की कमसे कम दो पुस्तको को आप अवश्य क्रय करना चाहेंगे.
   आपकी सूचना प्राप्त होते ही हम तत्काल पुस्तक उल्लिखित मूल्य पर भेजने की व्यवस्था करेंगे. इसके लिए पृथक से कोई डाक व्यय देय नहीं होगा.
भवदीय

रमाकांत दुबे, कार्याध्यक्ष         
अर्धालियों के पूर्णाकार पुस्तक की कृति, कृतिकार और प्रकाशक विवरण
१.कृति   २. कृतिकार  ३. पता प्रकाशक/लेखक      
साहित्य
१.      अग्नि-द्वार : बिनय राजाराम/ सृजन भारती इलाहाबाद/ ९८२६२१५०७२    
२.       कामरूपा : रमानाथ त्रिपाठी/ ग्रन्थ अकादमी, नई दिल्ली   
३.       काशी मरणन्मुक्ति : मनोज ठक्कर/ शिव ॐ साईं प्रकाशन, ९५/३, वल्लभ नगर इंदौर ४५२००३   
४.       निर्बंध देह गंध : प्रेम भारती/ मीरा पब्लिकेशंस ४९ ब, न्याय मार्ग इलाहाबाद २११००३   
५.      कुहरीले झरोखों से : यतीन्द्रनाथ राही/ ऋचा प्रकाशन, १०६ शुभम ७ बी डी ऐ मार्किट, शिवाजी नगर, भोपाल १६ /९९९३५०११११      
६.       तलाश ही जीवन है : देव प्रकाश खन्ना/ जन परिषद् भोपाल/ ९४२४४४३३६८   
७.      दादा पोता पुराण :  देव प्रकाश खन्ना/ पहले पहल प्रकाशन, भोपाल  
८.      काऊ सें का कइए  :   बटुक चतुर्वेदी/ लोकवाणी प्रकाशन, इलाहाबाद ९४२४४७६२८८   
९.      कौंडिन्य:  सुशील कुमार पाण्डेय/ कौण्डिन्य साहित्य सेवा समिति, पटेलनगर, कादीपुर, सुल्तानपुर उ प ०९५३२००६९००     
१०.   त्रिपथगा :  शिवनारायण जौहरी 
११.   जग में मेरे होने पर :  विभा लक्ष्मी विभा/ साहित्य सदन, १४९/२ चकिया, इलाहाबाद    
  हाशिये में दूब: विद्यासागर जोशी/ शिवम् पूर्णा प्रकाशन, भोपाल   
१२.   विद्रोही-स्वर: नवल जायसवाल/ प्रेमन कमुनिकेशन, भोपाल   
१३.   एक थी राय प्रवीण : गुणसागर सत्यार्थी / नेशनल पब्लिशिंग हाउस, ४२३०/१ अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली ११०००२/ कुंडेश्वर, टीकमगढ़ ८९८९४८४९५१     
१४.   बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य : गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंयाँ / सन्दर्भ प्रकाशन अलोपीबाग, इलाहाबाद/९४२५३७६४१३    
१५.   विराम चिह्न:प्रकार एवं प्रयोग : प्रेम भारती/ सन्दर्भ एवं देववाणी प्रकाशन, इलाहाबाद/ ९४२४४१३१९०    
१६.   आदमी के गीत : कैलाश ‘आदमी’ निर्दलीय प्रकाशन, ३४/१ दक्षिण ती ती नगर भोपाल ४६२००३ 
१७.   मेरा कुसूर क्या है :  आनंद कुमार तिवारी/ पाथेय प्रकाशन जबलपुर    
१८.   श्री उलूकाय नमः : अभय तिवारी ‘व्यथित’/ आर्यन प्रकाशन, भोपाल/ ९४२४०६७८९०   
  २०.पांचवां क्षितिज : अनिलकुमार सिंह/ भार्गव एंड कंपनी, ४ बाई का बाग़, इलाहाबाद ३ / ९४२४७४६४९६     
  २१.बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष : दुर्गाचरण शुक्ल/ नूतन बिहार कोलोनी, टीकमगढ़ म प्र.
  २२. ऋतु संहार : प्रभुदयाल श्रीवास्तव ‘पीयूष’/ सरस्वती सदन पुस्तकालय, छतरपुर/ म प्र.   
  २३.देह धरे का दर्द: वीरेंद्र बहादुर खरे/ श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद्, अवस्थी चौराहा, टीकमगढ़ म प्र./९७५३४४२७००/०७६३२४२५३०     
  २४. गीत अष्टक - कमल : कमलकांत सक्सेना/ १६१ बी शिक्षक कांग्रेस नगर, बाग़ मुगालिया भोपाल ४६२०४३  
  २५. ओ समय के दूत: गंगानारायण माथुर ‘अद्वैत’/ शिव संकल्प प्रकाशन, होशंगाबाद   
  २६. चक्रव्यूह : प्रकाश पटेरिया ‘हृदयेश’/सरस्वती सदन छतरपुर म प्र.
  २७. सूत्रधार : चंद्रप्रकाश जायसवाल/ पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस काम्प्लेक्स, एम पी नगर, भोपाल / ९२००६०६१५०   
  २८. युगाधिपति: चंद्रप्रकाश जायसवाल/ पहले पहल प्रकाशन, भोपाल/ ९२००६०६१५०    

   रामायण-शोध
  २९.रामचरित मानस में प्रक्षेप : लालसिंह चौधरी/ सुरेन्द्रकुमार एंड सन्स, शहादरा, नई दिल्ली    
  ३०. तुलसी रामायण १००८ पंक्तियों में: ओमप्रकाश गुप्ता/ ह्यूस्टन, अमेरिका      
  ३१. मानस शब्द-कोष: ओम प्रकाश गुप्ता/ बी आर पब्लिशिंग कोर्पोरेशन, ४२५ नीम्री कोलोनी, अशोक बिहार फेज ४, दिल्ली ५२     
  ३२. चिदानंदमय देह तुम्हारी : प्रेम भारती / मीरा पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद 
३३. तुलसी अनुक्रमणिका: मुक्तेश्वर सिंह / तुलसी मानस भवन भोपाल
  ३४. वाल्मीकि रामायण : विजय रंजन / अवध अर्चना प्रकाशन, ४/१४/४१ए महताब बाग़, अवधपुरी कोलोनी/ फेज -२ / फैजाबाद, उत्तर प्रदेश २२४००१     
     ३५. भारतीय संस्कृति और रामचरित मानस : ज्ञानवती अवस्थी
  ३६. लोक मंगल के कवि तुलसीदास : शोभाकांत झा /सुमित्रा प्रकाशन, कुशालपुर, रायपुर 
  ३७. मानस मकरंद : रमाकांत शर्मा/प्रेरणा प्रकाशन महानंदानगर, उज्जैन   
  ३८. मानस संजीवनी : तुंगनाथ चतुर्वेदी / तुलसी पब्लिक चेरीटेबल ट्रस्ट, मुम्बई 
     ३९. रामचरित मानस में उद्भिज प्रसंग : उग्रनाथ मिश्र/ नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना   
    ४०. तुलसी वांग्मय, विविध कोनों से : दादूराम शर्मा/ तुलसी मानस भवन    
    ४१. तुलसीदास का चिंतन : परशुराम शुक्ल ‘विरही’/ अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद नई दिल्ली/ विरही- ९८९८९००७९९९   
    ४२. रामकथा मंदाकिनीरामसनेहीलाल यादव/ शिवांक प्रकाशन, नई दिल्ली   
   ४३. रामकथा- पात्रामतम : राम सनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’/शिवांक प्रकाशन, अंसारी रोड, दिल्ली  
  ४४. नयन बिनु वाणी :  मूलाराम जोशी/ भावना प्रकाशन दिल्ली /   
  भक्ति-साहित्य 
  ४५. संत कवि सुन्दरदास : एन एल खंडेलवाल/ खंडेलवाल कल्याण मंडल, भोपाल   
  ४६. महारास शतक : लक्ष्मीनारायण गुप्त/ शिवानी प्रकाशन, भोपाल १६    
  ४७. अक्रूरतक : लक्ष्मीनारायण गुप्त / शिवानी प्रकाशन भोपाल १६ / गुप्तजी- ९८२७०५५६००
  ४८. वचन : टी जी प्रभाशंकर ‘प्रेमी’/ वासव समिति बंगलौर  
  ४९. ह्रदय मंथन : स्वामी शिवोमतीर्थ / शिवोम्तीर्थ आश्रम, सुलीवान काउंटी न्यूयार्क  
  ५०. परिताप: उत्तरार्ध रामकथा: चंद्रप्रकाश सिंह/ बिस्वारा प्रकाशन, उन्नाव   

  संस्कृति
  ५१. भारतीय सांस्कृतिक कथाएँ : मूलाराम जोशी/ गणपति प्रकाशन, दिल्ली   
  ५२. मैं प्रह्लाद हूँ : प्रेम भारती / आचार्य प्रकाशन, इलाहाबाद 
  ५३॰ संस्कृति के स्वर : नन्नूलाल खंडेलवाल / मानस भवन भोपाल
  ५४. वेदवाणी का रहस्य :  गिरीश गोवर्धन / अक्षर अनुसंधान केंद्र, उज्जैन- ९४२५०७४०७२   
  ५५. महाभारत का कालनिर्णय : मोहन गुप्त/ विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी २२१००१/ गुप्त- ९४०७१४००१०       
  ५६.  राष्ट्र चिंतनम : रामकृष्ण सराफ/ आदित्य प्रकाशन, भोपाल  
  ५७. योग एक कल्पबृक्ष :  प्रेम भारती/ साक्षर प्रकाशन, इलाहाबाद   
  ५८. स्वामी विवेकानंद और अस्पर्श्यता: देवेन्द्र दीपक/ विवेकानंद केंद्र, गीताभवन,जोधपुर/ दीपकजी- ९४२५६७९०४४      
  ५९. बुंदेलखंड क शिलालेख :  हरिविष्णु अवस्थी/मरुभूमि शोध संस्थान, डूंगरगढ़ राजस्थान/ अवस्थी- ०७६८३-२४२५३०      
  ६० . हस्त रेखाएं रोग और भाग्य : ईशनारायण जोशी/ लोकप्रिय प्रकाशन, ७९, चंदुपर्क गली २० , दिल्ली ११००५१    
  ६१. भावोन्माद का मारगान्तरीकरण : संतोष द्विवेदी/ आचार्य मंदिर, नयागाओं, चित्रकूट, सतना    
    ६२. नचिकेता : शंकर शरण लाल बट्टा/ हिंदी भवन भोपाल/ बट्टा ९६६९६९९३८१    
  ६३. कांवर श्रवणकुमार की : देवेन्द्र दीपक / सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली 
  ६४. वासुदेवः इदं सर्वम् : आई डी खत्री / इंदिरा पब्लिशिंग हाउस भोपाल/ ०९९७७२४०८६१ 
  ६५. महर्षि अगस्त्य द्रष्टय ऋक मंत्र भाष्य : दुर्गाचरण शुक्ल/ संदीपनी वेड विद्या प्रतिष्ठान, चिंतामन गणेश, जवासिया उज्जैन ४५६००६   
  ६६. युग प्रेरक स्वामी विवेकानन्द : प्रेम भारती/ मयंक प्रकाशन, प्रतापगढ़   
  ६७. एकलव्य: रामगोपाल भावुक/ दरयागंज नई दिल्ली/ भावुक- ९४२५७१५७०७    
  ६८. संस्कृति और साहित्य : राम सनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’/ मीनाक्षी प्रकाशन, दिल्ली 
  ६९. संस्कृति के दूत! : परशुराम शुक्ल ‘विरही’/ यूनीवर्सल कम्पूटर्स, रायपुर 
  ७०. सुन्दरकाण्ड एक पुनर्पाठ : मनोज श्रीवास्तव/ मेधाबुक्स,एक्स ११, नवीन शहादरा, दिल्ली ११००३२   
  ७१. भारत में महाभारत : प्रभाकर श्रोत्रिय/ भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन, नई दिल्ली   
  ७२. प्रशासन और पारदर्शिता : मुनि श्री चिन्मय सागर
  ७३. नानक दुखिया सब संसारा : वी डी श्रीवास्तव/ श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद्, किले का मैदान, टीकमगढ़, म प्र.    
  ७४. हिमस आफ हिमालायाज : डा. अखिलेश गुमाश्ता/ प्रभात प्रकाशन, दिल्ली   
  ७५. चित्रांश : विनोदकुमार श्रीवास्तव / ग्लोबल ग्रन्थ, स्टेशन चौराहा के पास, सिविल वार ८, दमोह – ४७०६६१     



Tuesday 19 July 2016

प्रणाम कपिला सन्दर्भ

गोरक्षा अभियान प्रसंग
सन्दर्भ : प्रणाम कपिला
प्रभुदयाल मिश्र

   प्रख्यात विचारक और साहित्यकार डा. देवेन्द्र दीपक द्वारा संकलित तथा संपादित पुस्तक ‘प्रणाम कपिला’ आर्य प्रकाशन मंडल नयी दिल्ली से हाल में ही प्रकाशित होकर सामने आयी है. इसमें १३५ कवियों की १४५ कवितायें संग्रहीत हैं. इनमें वेद की ऋचाओं से लेकर सूरदास, रसखान, मैथिलीशरण गुप्त तथा सभी मत और वादों के वर्तमान कवि पूर्ण प्रचुरता में विद्यमान हैं. भोपाल में कुछ दिन पूर्व ही संपन्न इसके लोकार्पण समारोह की विशेषता यह थी कि इसमें ऐसे करीब बीस कवि स्वयं कविता पाठ के लिए मौजूद थे जिनकी रचनाएँ इसमें संकलित हैं. इस अवसर पर महामनडलेश्वर श्री अखिलेश्वारानंद गिरि की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण थी. वे गो संवर्धन बोर्ड के वर्तमान में अध्यक्ष भी हैं.
   अपने संवोधन में स्वामी श्री अखिलेशवरानंद जी गिरि महाराज ने अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ इस पुस्तक में श्री दीपक जी की भूमिका की बहुत प्रशंसा करते हुए कहा कि २ दिन में उन्होंने इसे लगभग १८ बार पढ़ डाला है. इस भूमिका पढने वाले को इस कथन में कहीं अतिशयोक्ति नहीं लगेगी क्योकि सचमुच ही श्री दीपक जी ने इसमें न केवल पूरी निष्ठा और ईमानदारी प्रदर्शित की है, इसमें अनेक ऐसे रोचक तथ्य भी दिए गए हैं जो प्रत्येक भारतीय मानस के ह्रदय में प्रतिष्ठित होने चाहिए. ज्ञातव्य है कि श्री दीपक ने इस कृति को लगभग १० वर्ष के गहन श्रम, संकल्प और साधना से संवारकर रचा है. इसमें उनके धैर्य, सर्व समाहार और अद्भुत संयोजन क्षमता के प्रति कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता.
यहाँ मैं अपने एक आलेख “ गो-भक्त श्री रामस्वरूपदास की साहित्य साधना” का एक संक्षिप्त अंश संदार्भोपयुक्त मानते हुए नीचे उद्धृत कर रहा हूँ.  
“मध्ययुगीन संतों की भक्ति परम्परा में विशाल ‘गो भक्तमाल’ के सहृदय कवि श्री रामस्वरूप दास ने विश्व के विराटतम गो धाम पथमेड़ा, राजस्थान में १६ माह की पंचगव्य आहार आश्रित एकांत साधना अवधि में ‘गोपाल कहे गोपाल’ (कविता), ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ’ (कहानी) और ‘चलो घर लौट चलें’ (उपन्यास) भी लिखा है.
मुझे प्रसन्नता हुई जब प्रख्यात रचनाकार डा. देवेन्द्र दीपक की हाल में ही प्रकाशित कृति ‘प्रणाम कपिला’ में मैंने श्री पांडेजी की ‘गो-भक्तमाल’ का ससम्मान उल्लेख पाया. इस कृति में देश के १४५ कवियों की कपिला-केन्द्रित कवितायें हैं.”            
सबसे पहले पुस्तक की भूमिका का उल्लेख ही बहुत सटीक है. इसमें डा. दीपक ने रचनाकारों का ‘कपिला’ केन्द्रित कविताओं के लिए इस प्रकार आह्वान किया-
‘ आप राष्ट्रीय से जुड़े एक समर्थ और आस्थावान रचनाकार हैं. हम चाहते हैं कि गाय आपकी कविता का विषय बने. उससे जुड़े विविध आयाम आपकी संवेदना में सजीव हों. गाय की गुहार आपके कानों में पड़े और आप गीत, नवगीत, दोहा, मुक्तक, गजल, नई कविता, लोकगीत आदि जो भी लिखते हैं, उसमें गाय की गुहार को कलातमक रूप दें.’
  गोस्वामी तुलसी दास ने मानस में देवताओं द्वारा भगवान् के अवतार लेने के लिए की गयी स्तुति के प्रसंग में लिखा ‘संग भूमि विचारी गोतनु धारी’ लिखा ! वास्तव में यह ‘गुहार’ गाय से अधिक धरती की है. गाय धरती का ही प्रतिरूप है. अथर्ववेद कहता है –
 ‘सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरंती’.(अथर्ववेद १२/१/४५) अर्थात ‘हे पृथिवी, तुम सहस्र स्तन-धाराओं वाली कपिला के रूप में हमारी पोषणकारी हो !’                
 डा. दीपक ने इस्लाम और मुसलमान शासक तथा विचारकों के सन्दर्भ से गाय के सार्वभौमिक स्वरूप का बहुत शोध परक विवेचन किया है. उन्होंने मुजफ्फर हुसैन के हवाले प्राप्त ‘इस्लाम और शाकाहार’ पुस्तक के लेख ‘गाय और कुरआन’ में से सविस्तार उद्धरणोॱ द्वारा इतिहास, परम्परा और इस्लामिक विद्वानों के सन्दर्भ से यह प्रतिपादित किया है कि ‘अब तक ११७ बार ‘मुसलामानों द्वारा गाय को न काटे जाने के फतवे जारी किये गए हैं,’ ‘अल शफ़ीअ फ़ार्म में इस समय कुल ३६००० गायें हैं. इनमें पांच हजार भारतीय नस्ल की हैं.’ तथा ‘बीकानेर में दूध की मंडी लगती है जिसके २५००० सदस्य मुस्लिम हैं’. कवि नरहरि द्वारा बादशाह अकबर को ‘दन्त में तण’ लिए हुए गाय की गयी यह फरयाद तो लोक प्रसिद्ध है ही –
 ‘सुन शाह अकब्बर ! अरज यह करत गऊ जोरे करन
 कौन चूक मोहि मारियत मुयेह चाम सेवत चरन’
 जिसे सुनकर अकबर ने अपने साम्राज्य में गोवध निषेधित कर दिया था. स्वयं श्री दीपक का इस संग्रह की कविताओं के सम्बन्ध में यह सारयुक्त कथन कम महत्वपूर्ण नहीं है –
‘सभी कवितायें गाय पर केन्द्रित हैं, अतः आवृत्ति और आवृत्तिजन्य एकरसता से बचना संभव नहीं है. कुछ कविताओं में भावोद्रेक है. ऐसी कवितायें जन-जागृति और जन-आन्दोलन के लिए उपयोगी हैं. कुछ कवितायें समस्या के भीतरी रेशों तक प्रवेश करती हैं. ये कवितायें बार-बार गाय से हमारे रिश्तों की याद दिलाती हैं. इन कविताओं में पूजा है, धिक्कार है, खिन्नता है, आक्रोश है, आह्वान है, प्रश्न है, चेतावनी है, अतीत है, वर्तमान है, भविष्य भी है.’ (पुस्तक की पूर्विका)
 संग्रह की रचना प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रथमतः मूलभूत प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि क्या किसी विशेष विषय केन्द्रित लेखन में शुद्ध साहित्य और सृजनातक प्रतिभा से साक्षात्कार संभव है ? गो-भक्त श्री राम स्वरूपदास के साहित्यिक मूल्यांकन के सन्दर्भ में भी मैंने यही प्रश्न उठाया-
‘साहित्य में यह सदा से विचार के केंद्र में रहा है कि साहित्य कितना यथार्थ और कितना आदर्श है? यदि यह समाज और जीवन का ‘दर्पण’ है तो उसमें यथार्थ की ही बहुलता होगी. यह उसे प्रामाणिकता भी देता है. यह एक रचनाकार की ईमानदारी का भी तकाजा है कि वह वही कहे जो उसने देखा, सुना, जाना और अनुभव किया है. वह वास्तव में समय की साक्ष्य में निसर्ग के न्यायालय में खडा एक गवाह मात्र है. अतः झूठी गवाही उसकी रचना को ही उखाड़कर फेंक सकती है !
 दूसरी ओर उपदेश कथन को ग्रहण करने के लिए पाठक से श्रद्धावान होने की दरकार हो जाती है. सामान्य पाठक किसी भी रचना में लेखक से मौलिकता, नवीनता, मूलभूत मानवीय भावों का स्वीकार और सार्वभौमिकता की अपेक्षा रखता है. यदि लेखक पाठक को तर्क के सहारे अपने रास्ते पर चलने की प्रेरणा ही देना चाहता है तो लिखने और कहने के स्थान पर उसके पास अन्य अनेक माध्यम हो सकते हैं. वह उपदेशक, प्रवाचक, प्रवचन करता, गुरु, वकील, समाज सुधारक आदि कुछ भी हो सकता है. ऐसे लेखन को यदि एक वर्ग विशेष की स्वीकार्यता भी मिल रही हो तब भी उसकी सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता संदिग्ध ही रहेगी.’
    इस प्रश्न के समाधान हेतु मैं इस संग्रह में से सूरदास के एक पद की यह पंक्ति-
 ‘ऊधौ, इतनी कहियो जाय
 अति कृशगात भी ये तुम बिनु परम दुखारी गाय’
तथा प्रेमशंकर रघुवंशी की ये कविता पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ –
‘गंडासे से काटकर/ ठीहे पर बिक रहा
पंचगव्य और गोमांस एक साथ
गोबर से निर्मित मंगल आकृतियाँ
गणेश-पूजा के पूर्व हलाल हो रहीं.’ 
और क्या इसे मैथिली शरण गुप्त की इन पंक्तियों का आधुनिक संस्करण नहीं माना जा सकता –
‘दांतों तले तण दाबकर, ये दीन गायें कह रहीं
हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया !’
एक सहृदय व्यक्ति, सनातनी संवेद्य समाज और मूलभूत मानवीय संवेदना क्या इस हृदय विदारक भावभूमि से प्राप्त प्रेरणा में सहज संग्राह्य नहीं है? ठीक वैसे ही जैसे कोई मातृभूमि, राष्ट्र, माता, प्रेयसी या प्रेमी के लिए कविता लिखने के लिए प्रेरित होता है उसी स्वाभाविकता से कामधेनु या कपिला भी उसकी प्रेरणा के मूल में क्यों प्रतिष्ठित नहीं हो सकती !            
इस संग्रह की कविताओं के सम्बन्ध में डा. दीपक ने स्वतः अवगत कराया है कि इसके दो प्रखंड हैं- प्रथम खंड की कवितायें छन्दस और ‘दूसरे खंड में छंदमुक्त कवितायें हैं.’ इस प्रकार इनके संकलन का क्रम ऐतिहासिक अथवा किसी वरिष्ठता-कनिष्ठता पर आधारित न होकर एक सार्वभौम यज्ञ की सार्वलौकिक आहुतिपरक है. जिस प्रकार ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में ‘सर्वहुत’ यज्ञ में ऋषि, देवता, मनुष्य यहाँ तक कि अरण्य का पशु वर्ग भी सृष्टि संसर्जन की प्रक्रिया में अपनी भागीदारी देता है, इस ग्रन्थ के रचनाकार भी नाना वर्ग, समुदाय, विरादरी और काल खंड से उपस्थित होकर इस महानुष्ठान में अपना आहुतिदान करते हैं.
 यहाँ यह प्रश्न मौजूं हो जाता है कि विश्व की अनेक सभ्यताओं के घालमेल और विज्ञान की नास्तिक बौद्धिकता के इस युग में पुराण-परक भारतीयता के इस दर्शन की क्या स्वीकार्यता है? मुझे स्मरण आता है कि यह कहा जा रहा है कि बहुत शीघ्र ही, संभवतः २०२० के बाद ही, एन्टीबायोटिक औषधियों की प्रभावात्मिकता समाप्तप्राय रहेगी. ऐसे समय गोमूत्र, पंचगव्य और आयुर्वेद आदि की प्रचंड आवश्यकता संसार को महसूस होगी. अकेले गोमूत्र में ही साठ से अधिक रोगों, और वे भी प्रायःअसाध्य, के निदान की क्षमता का वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा सत्यापन किया जा चुका है. यह अपने आप में कितना बिस्मयकारी नहीं है कि संसार में गाय को छोड़कर ऐसा अन्य कोई जीवधारी नहीं है जिसका मलमूत्र उसके अन्य उत्पाद्य के समान ही उपयोगी हो. अतः यदि भाव और संवेदना को एक क्षण के लिए बिसार भी दें, तब भी गाय की प्रकट और प्रत्यक्ष उपयोगिता का कोई अस्वीकार नहीं हो सकता.
गौ सर्वदेवमयी है. अथर्ववेद में इसे रुद्रों की माता, वसुओं की दुहिता, आदित्यों की स्वसा और अमृत की नाभि-संज्ञा से विभूषित किया गया है. अकेली गाय में ही तेतीस कोटि देवताओं का वास माना गया है. उसकी पीठ में ब्रह्मा, गले में विष्णु और मुख में रूद्र आदि देवताओं का निवास है. इस अर्थ में यदि गाय को वेद में विश्व-माता ( गावो विश्वस्य मातरः) कहा गया है, तो कोई अत्युक्ति नहीं है. गौ सेवा से जीवन के चारों पुरषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि प्रकट है. गौ से ही मनुष्यों की जाति में ‘गोत्र’ का परिचालन आरम्भ हुआ है. वैदिक काल की ऋषि परम्परा में गाय संवर्धन के जिस स्थान को ‘गो-उत्र’ कहा जाता था, उसी परम्परा से ऋषियों पर आधारित कुल-गोत्र भारतीय परम्परा में आज भी विद्यमान हैं.
श्रीमद्भागवत में कहा गया है-वेदादिर्वेदमाता च पौरुषं सूक्त्मेव च/ त्रयी भागवतं चैव द्वादशाक्षर एव च. अर्थात गाय में, वेद में, द्वादशाक्षर मंत्र में, सूर्य में, गायत्री में, वेदत्रयी में अंतर नहीं है. अर्थात ये सभी प्रत्यक्ष परमात्मा के प्रकट प्रतिबिम्ब हैं !
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भी ‘रघुवंश’ के महाराज दिलीप की तरह ‘कपिला’ कीर्ति- वत्सला ‘नंदिनी’ की सेवा में अनेक विचारक और भावग्राही महानुभाव तत्पर हैं. प्रबुद्ध समाज द्वारा इसका समुचित समादर किया जाना सर्वथा अभीष्ट है.
३५, ईडन गार्डन चूनाभटटी, कोलार रोड भोपाल, ९४२५०७८९०७२     

Sunday 3 July 2016

 गो-भक्त रामस्वरूप दास की साहित्य-साधना
  मध्ययुगीन संतों की भक्ति परम्परा में विशाल ‘गो भक्तमाल’ के सहृदय कवि श्री रामस्वरूप दास ने विश्व के विराटतम गो धाम पथमेड़ा, राजस्थान में १६ माह की पंचगव्य आहार आश्रित एकांत साधना अवधि में ‘गोपाल कहे गोपाल’ (कविता), ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ’ (कहानी) और ‘चलो घर लौट चलें’ (उपन्यास) भी लिखा है. इन तीनों कृतियों को श्री कामधेनु प्रकाशन समिति, पथमेड़ा ने मनोयोग से प्रकाशित किया है. इन कृतियों के अनुशीलन से श्री रामस्वरूप दास पांडे की ‘अंतर्मुखी’ साधना का बहिर्मुखी पक्ष अपनी परिपूर्णता में समुद्घटित हुआ है. एक अर्थ में यह कहना अधिक सही होगा कि कि श्री पांडेजी के व्यक्तित्व के ये दो पक्ष इतने संगुम्फित हो गए हैं कि इनमें एक दूसरे का पूरक हो जाता है.
 यहाँ क्या यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि इनमें प्रधान स्वर कौनसा है ? श्री पांडे जी मूलतः साहित्यकार हैं अथवा साधक? साहित्य उनकी साधना है अथवा सिद्धि ? अथवा ये दोनों एक दूसरे के पर्याय बन कर श्री पांडे के जीवन दर्शन के परिचायक हैं?
 यह अनुमान किया जा सकता है कि पांडे जी के अनुसार साहित्य महत्तर जीवन ध्ययों की पूर्ति का एक योग्य माध्यम है. साहित्य भावना, विचार और आदर्श को अभिव्यक्ति तो देता ही है, इसके द्वारा स्वयं की अंतर्मुखी साधना भी संपन्न होती है. जिस प्रकार एक भक्त भजन द्वारा तल्लनता, योगी समाधि और ज्ञानी आत्मबोध प्राप्त करता है, उसी प्रकार रचनाकार आत्मानुभव की सघनता में स्रष्टा की समकक्षता प्राप्त करता है.
 मुझे प्रसन्नता हुई जब प्रख्यात रचनाकार डा. देवेन्द्र दीपक की हाल में ही प्रकाशित कृति ‘प्रणाम कपिला’ में मैंने श्री पांडेजी की ‘गो-भक्तमाल’ का ससम्मान उल्लेख पाया. इस कृति में देश के १४२ कवियों की कपिला-केन्द्रित कवितायें हैं. मानवीय ज्ञान की आदि-मंजूषा वेद तो गाय की महिमा गाते हुए कभी थकते ही नहीं हैं. अतः पांडेजी अपनी गो-भक्ति को अपनी साहित्य साधना का विकल्प और माध्यम बना कर निश्चित ही एक धन्यता में स्थित हैं, ऐसा माना जाना सर्वथा योग्य है.
  इन कृतियों का मैंने यथा साध्य अनुशीलन किया. ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ’ कहानी संग्रह को हमारी श्री मती जी ने लगभग एक ही बैठक में पूरा कर डाला. यह संग्रह भारतीय लोक जीवन का प्रामाणिक लेखा तो है ही, इसके माध्यम से भविष्य की पीढ़ी को दिव्य सन्देश भी दिया गया है. कहानियों में कथाकार के जीवन की अनेक यथातथ्य झलकियाँ हैं. इनमें समय, व्यक्ति और स्थान को पकड़ते हुए भी उनके प्रति आग्रही हो जाने की आवश्यकता प्रकट नहीं होती क्योंकि उस स्थिति में यह स्पष्ट है कि कहानी को वह विस्तार नहीं मिल पाता जो उसकी स्वतंत्र स्थिति का परिचायक होता है. इन्हें पढ़ते हुए कोई भी पाठक ‘कल्याण’ जैसी पत्रिका के अनेक इसी तरह के आख्यान और आलेखो का अवश्य स्मरण करेगा जिन्होंने सनातन भारतीय जीवन को वर्तमान में दिशा प्रदान की है.
  रचना प्रक्रिया की दृष्टि से इन कहानियों में आरोह अवरोह है. लगभग प्रत्येक कहानी में अन्ततः एक ऐसा मोड़ आता है जो नैतिकता, आदर्श, श्रद्धा, समर्पण और गो-भक्ति का फलित कहा जा सकता है. यह प्रश्न उठ सकता है कि अच्छाई बुराई का फलितार्थ इतना त्वरित और पारदर्शी होता है क्या? संसार में लोगों की प्रायः यही शिकायत होती है कि बुरे लोग अक्सर सफल और सुखी तथा अच्छे लोग असफल और दुखी ही दिखाई पड़ते हैं ? यदि जीवन का गणित इतना सरल और हल किये जाने योग्य है, तो बुराई तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती ! किन्तु जाहिर है, यह कहानी और उपन्यास की बात है. इसमें रचनाकार समय को तो समेटता है ही, वह स्थान और निसर्ग की सत्ता का भी साक्षी हो जाता है.
  तथापि साहित्य में यह भी विचार के केंद्र में सदा से रहा है कि साहित्य कितना यथार्थ और कितना आदर्श है? यदि यह समाज और जीवन का ‘दर्पण’ है तो उसमें यथार्थ की ही बहुलता होगी. यह उसे प्रामाणिकता भी देता है. यह एक रचनाकार की इमानदारी का भी तकाजा है कि वह वही कहे जो उसने देखा, सुना, जाना और अनुभव किया है. वह वास्तव में समय की साक्ष्य में निसर्ग के न्यायालय में खडा एक गवाह मात्र है. अतः झूठी गवाही उसकी रचना को ही उखाड़कर फेंक सकती है !
 दूसरी ओर उपदेश कथन को ग्रहण करने के लिए पाठक से श्रद्धावान होने की दरकार हो जाती है. सामान्य पाठक किसी भी रचना में लेखक से मौलिकता, नवीनता, मूलभूत मानवीय भावों का स्वीकार और सार्वभौमिकता की अपेक्षा रखता है. यदि लेखक पाठक को तर्क के सहारे अपने रास्ते पर चलने की प्रेरणा ही देना चाहता है तो लिखने और कहने के स्थान पर उसके पास अन्य अनेक माध्यम हो सकते हैं. वह उपदेशक, प्रवाचक, प्रवचन करता, गुरु, वकील, समाज सुधारक आदि कुछ भी हो सकता है. ऐसे लेखन को यदि एक वर्ग विशेष की स्वीकार्यता भी मिल रही हो तब भी उसकी सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता संदिग्ध ही रहेगी.
  स्पष्ट है कि श्री पांडेजी ने इस मूलभूत प्रश्न को ध्यान में रखकर आदर्श और यथार्थ का समन्वय लाने की चेष्टा की है, किन्तु यह भी स्पष्टतर है कि उनमें ध्येय की प्रधानता है और यह उनमें उनकी अपनी जीवनचर्या तथा साधना के प्रति प्रबल प्रतिबद्धता की परिचायक है.
  अब सन्क्षेप में हम इन कृतियों के शिल्प विधान पर भी विचार कर चलते हैं. साहित्य के इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए एक तथ्य बहुत स्पष्टता से उभरता है. साहित्य में प्रकट मूलभूत मानवीय भाव, संवेदना, वैयक्तिक-सामाजिक सम्बन्ध और प्रकृति से तादात्मीकरण आदि क्षेत्र सार्वकालिक तौर पर सार्वभौमिक भी हैं. इनमें यदि परिवर्तन या विकास का स्वरुप देखना है तो वह भाषा और अभिव्यक्ति का है. शिल्प का यह आवरण प्रायः अपनी स्थूलता त्यागकर सूक्ष्म और महीन होता जाता/ होता गया है. विकास की इस यात्रा में साहित्यकार अभिधा के स्थान पर लक्षणा और व्यंजना में इतनी दूर चल चुका है कि उसे समझने के लिए पाठक भी जैसे कुछ कक्षाएं उत्तीर्ण करने को जैसे तत्पर रहता है. संभवतः अभिव्यक्ति का यह कौशल उसकी कला को काल के प्रवाह में अक्षुण रख पाने का रसायन ही है जिसकी वह उपेक्षा नहीं कर सकता.
  यह भूमिका मैं श्री पांडेजी की कहानियों और उपन्यास विधा के उपयोग को लेकर इसलिए लिख रहा हूँ कि यह अनुमान किया जा सके कि वर्तमान साहित्य धारा में इनका स्थान कहाँ और क्या होगा. किन्तु वास्तविकता यही है कि श्री पांडेजी का यह लेखन जिस ध्येय विशेष की पूर्ति में है उसकी उपादेयता स्पष्ट है. कोई भी रचनाकार अपने विशेष पाठक वर्ग को अपने सामने रखते हुए ही लेखन में प्रवृत्त होता है. इस दृष्टि से यह प्रश्न संभवतः उतना प्रासंगिक नहीं है.
  यह महज संयोग ही नहीं है कि श्री रामस्वरूपदास जी पांडे मलूक पीठाधीश्वर राजेंद्रदासजी देवाचार्य के पूर्व आश्रम के पिताश्री हैं. श्री राजेन्द्रदासजी वर्तमान समय के देश के शीर्षतम शास्त्रवेत्ता साधु हैं. विद्वता की उनकी पराकाष्ठा अतुलनीय है. जिस प्रकार कपिल महाराज से देवहूति और ऋषि कर्दम धन्यता को प्राप्त हुए वही भाग्य श्री पांडेजी का भी है. राजेंद्रदासजी अपने विश्वव्यापी स्वर संधान से गोरक्षा के जिस अप्रतिम संकल्प साधन में निरत हैं, वह भारतीय भूमिका को पुनराख्यापित करता है.
  मैं सर्वतः सहज संवेद्य श्री रामरूपदासजी की एक सामयिक साहित्यिकार की भूमिका के स्वीकार के साथ-साथ इसके लोकोपकारी लक्ष्य की अभिप्राप्ति के प्रति आश्वस्त रहते हुए उन्हें अपनी विनम्र प्रणति अर्पित करता हूँ.
प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानं, भोपाल

४ जून २०१६