Saturday 2 May 2015

कठोपनिषद्

                                 पुराकथाओं में कठोपनिषद्
                                            प्रभुदयाल मिश्र
 
   पुराकथाएँ पूरे विश्व-साहित्य की अन्यतम धरोहर हैं. सभी भाषाओं के साहित्य में वे रचनाकारों के केन्द्रीय आकर्षण का विषय रहीं हैं. आदिकवि वाल्मीकि से लेकर होमर, कालिदास, शेकसपियर, दांते, तुलसीदास, मैथिलीशरणगुप्त, हरिऔध, प्रसाद, दिनकर, नरेश मेहता आदि सभी की ख्याति के पीछे उनके द्वारा अपनी आदि सांस्कृतिक धारा में प्रवेश कर उसकी युगानुरूप प्रतिष्ठा कर देना है. सनातन भारतीय वांग्मय की प्रष्ठभूमि के वैविध्य और विस्तार की तो कोई सीमा ही नहीं है. अतः एक सहृदय भारतीय चेतना सदा अतीत की ओर झांककर यह समझने की चेष्टा करती रही है कि पुराकथा का संसार हमारे वर्तमान के कितने निकट है तथा  इससे हमें अपने वर्तमान को संवारने में क्या सहायता मिल सकती है – अपनी अभिव्यक्ति के कथ्य का समुचित आधार तलाश लेना तो अलग बात है ही.
   कठोपनिषद में प्रवेश करते हुए नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्री कुंवर नारायण की ‘आत्मजयी’ (१९६५) और ‘वाजश्रवा के बहाने’ (२००९) कृतियों की ओर मेरा ध्यान सहसा ही चला जाता है. ‘आत्मजयी’ की भूमिका में श्री कुंवर नारायण ने लिखा- ‘ जीवन के पूर्णानुभव के लिए किसी ऐसे मूल्य के लिए जीना आवश्यक है जो जीवन की अनश्वरता का वोध कराये. यही मनुष्य को यह सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है.’ आगे उन्होंने ‘वाजश्रवा के बहाने’ के पूर्वकथन में लिखा है –‘ आत्मजयी में यदि मृत्यु को जीवन की ओर से देखा गया है तो ‘वाजश्रवा के बहाने’ में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है’.
  स्पष्ट है कि मृत्यु आदमी की एक सनातन अपराजेय चुनौती है. इस पर विजय पाने के लिए देव, दानव और मनुष्य ने अनेकशः तप किया, वरदान पाए और इससे युद्ध करते हुए अन्ततः पराजित होकर चले गए- सहबाहु दसवदन आदि नृप जिते न काल वली ते, हम हम कह धन धाम सँवारे अंत चले उठ रीते !’ (तुलसी) । किन्तु कठोपनिषद् का नचिकेता और महाभारत की सावित्री ऐसे दो पात्र निश्चित ही भारतीय मनीषा के वे प्राण तत्त्व हैं जिन्होंने मृत्यु ही नहीं मृत्यु के देवता यमराज को भी पराभूत किया है.
  वर्तमान युग के महान् द्रष्टा ऋषि श्री औरोबिन्दो ने सावित्री महाकाव्य में तो जैसे प्रत्येक मानव में मौजूद उस दिव्य चेतना का ही साक्षात्कार कराया है जिसमें मृत्यु को पराभूत करने की सहज क्षमता विद्यमान है-
‘A blaze of sovereign glory is sun
His glory is the gold and glimmering moon
A march of his greatness are the wheeling stars
His laughters of beauty breaks out in green trees,
His moments of beauty triumph in a flower
The blue sea’s chant, the rivulet’s wandering voice
Are murmurs falling from the eternal’s harp.
This world is God fulfilled in outwardness.
Savitri Book Ten Canto Three  
    वैदिक वांग्मय में कठोपनिषद अपने वृत्त और विस्तार में लगभग भगवद्गीता की समानता करता है. वैसे ही दोनों ग्रन्थ वेदान्त के सारभूत आधार हैं तथा इनकी अनेक श्लोकों, पदों और सूत्रों में इतनी समानता है कि लगता है कि एक की बात दूसरे ग्रन्थ में प्रसंगानुसार पिरो दी गयी है. यहाँ  कुछ उदाहरण देना बहुत समीचीन है क्योंकि वे कथानक के आधार भी हैं –
1. यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति (कठ. द्वितीय वल्ली १५, गीता ८/११)
2. न जायते म्रियते वा  ( कठ २/ १८ , गीता २/२० )
3. उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ( कठ २/१९, गीता २/१९ )
4. अणोरणीयान महतो महीयान (कठ २/२०, गीता ८/१९)
         गीता के एकादश अध्याय में जहां श्रीकृष्ण यह स्पष्ट घोषणा करते है कि वे ‘काल हैं और लोक को विनष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं’ ( ११/३२ ) तो जैसे अर्जुन का संवाद महाविनाश के देवता से ही हो रहा है. ऐसे दुराराध्य देवताओं का गुरु रूप में उपलब्ध हो जाना और इनके संवाद का अमृत सार संग्रहीत होकर मानव जाति को उपलब्ध करा देना भारत के महान दार्शनिक द्रष्टाओं का ही कमाल हो सकता है.  स्वाभाविक है कि अन्यथा हमें ऐसी घटनाओं और परिस्थितियों का आभास या जानकारी न होने से हम इन पात्रों और स्थितियों को प्रतीकों में ढालकर अपनी बौधिकता को साध लेते हैं. अतः आश्चर्य नहीं यदि श्री कुंवरनारायण नचिकेता को आत्महत्या करते हुए दर्शाकर उसका यम से साक्षात्कार एक तंद्रा का अनुभव सिद्ध कर देते हैं और ‘उपनिषद की कहानियों’ में श्री भगवानसिंह के यम को सरकारी कामकाज में व्यस्तताबस अपना ‘दौरा कार्यक्रम’ भी टेबुल पर छोड़ जाना भूलते दिखाया जाता है !  साहित्यकार के कथानक का एक पक्ष मूल के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा और यथातथ्यता का भी हो सकता है. चूंकि वैदिक साहित्य के कथाशिल्प में कथा सूत्र अत्यंत विरल हैं, अतः इन्हें पिरोते हुए कथा का समुचित विस्तार और सुसंवेद्य पाठक में रूचि का प्रसार रचनाकार की अपनी सामर्थ्य और सर्जनात्मक क्षमता की प्रत्यापेक्षा करता  है.
           ‘नचिकेता’ एक छंदोबद्ध रचना है . वास्तव में छंद कथ्य के मूल की एकतानता का ही परिचय देता है. जब कोई कवि छंदबद्धता का आग्रह लेकर चलता है तो उसकी निश्चित धारणा होती है कि इस प्रकार वह अपने कथ्य के उत्स में पहुंचेगा. भर्तृहरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘वाक्यपदीय’ में तो लिखा है -
       ‘छन्दोभ्य एवं प्रथमेतद्विश्वं व्यवर्तत ।’ अर्थात् यह जगत सर्वप्रथम छन्दों में व्यवर्तित हुआ । एक अर्थ में वह इस तरह जीवन और जगत के उस मूल स्वर की ही तलाश कर रहा होता है जो कि हमारे अस्तित्व की पहचान है. सृष्टि में एक लय है, एक ताल है. हम दुखी इसीलिए हैं क्योंकि इस लय और ताल की खोज नहीँ कर पा रहे हैं. स्रष्टा ने संसार बनाकर जो आनंद पाया और जिस आनंद की वह अनुभूति मनुष्य को कराना चाहता है, वह इस लय और तान में ही जाकर प्राप्त हो सकती है. यह करते हुए एक कवि यह विश्वास भी लेकर चल सकता है कि इस चेष्टा में उसे वैसे भी स्वयं बहुत कुछ नहीं करना है. छंद तो ऐसा प्रशस्त पथ है जिसमें चलते ही वह स्वतः सत्य के साक्षात्कार में निरत हो जाता है.
          ज्ञातव्य है कि वेदों की रचना में ऋषि, देवता और छंद की त्रयी सामान रूप से महत्व रखती है. वेद छंदबद्ध रचना हैं. ऋग्वेद के मंडल १० के सूक्त ८५ में सूर्या जिस छांदस स्यंदन में बैठकर अपने पति गृह प्रयाण करती है वह मनोमय गति से चल पड़ता है. गीता में श्रीकृष्ण ने अपने आपको ‘गायत्री छन्द्सामहम्’ कहा . वेद का यह छंद गायत्री इस सीमा तक मूर्तीकृत हो जाता है कि इसे न केवल मंत्र, अपितु देवता की भी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है.
          इस प्रसंग में श्री शंकरलाल बत्ता की पुस्तक ‘नचिकेता’ से छंद की प्रवाहात्मक्ता और परिपूर्णता के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. दर्शन जैसे गूढ़ विषय को हिन्दी के दोहे जैसे छोटे छंद में संप्रेषणीय बना देना विस्मित कर देता है – 
‘हुआ नहीं था सृष्टि का, जब नचिकेता जन्म
विद्यमान था उस समय भी परमात्मा, ब्रह्म .
पंचभूत के पूर्व भी था जिसका अस्तित्व
अविनाशी है, नित्य है, शाश्वत है वह सत्व.’  
 
              ‘सर्गबद्धो महाकाव्यं तत्रैको नायको सुरः’. यहाँ धीरोद्धत्त प्रतीत और धीरप्रशान्तता के पथ पर प्रशस्त नचिकेता चरित नायक है. कौन है यह नचिकेता ? ऋग्वेद मंडल १० के सूक्त ५१ के मंत्र ४ में प्रयुक्त ‘एतामर्थं नचिकेताहमग्नि’ न जानने वाले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. नचिकेता अर्थात अल्पज्ञानी अर्थात आबद्ध्जीव ! इसका एक और अर्थ है जिसकी चिकित्सा असाद्ध्प्राय हो. क्या नचिकेता ऐसा है ? अवश्य, और नचिकेता ही नहीं वस्तुतः हम सभी भी. नचिकेता तो इस उपाख्यान में हमारा प्रतिनिधित्व मात्र कर रहा है. यह बात अवश्य है कि हमारी, जीव की जो गहन और असाध्य बीमारी है, उसका निदान केवल यम जैसा परम गुरु ही कर सकता है . शर्त है तो केवल एक ही क्या हमारा चैतन्न्य नचिकेता की तरह संकल्पारूढ है ? आगे विचारणीय है कि क्या उसमें समर्पण है, श्रद्धा है, विवेक है, निश्छलता है, दृढता है ! पिता वाजश्रवा द्वारा नचिकेता को मृत्यु को देने के कथन से नचिकेता विचलित नहीं होता. वह सोचने लगता है-
‘दिया पिताश्री ने मुझे, क्यों ऐसा आदेश
होगा निश्चित रूप से , कारण कहीं विशेष
मिथ्या हो सकती नहीं, उनकी कोई बात
वे ऋषि हैं, होनी उन्हें, हो जाती है ज्ञात .’
 कठोपनिषद् का अध्येता जिन आरंभिक प्रश्नों से जूझता है, वे कुछ इस प्रकार के होते हैं – वाजश्रवा अनुपयोगी गायों का दान क्योंकर कर रहे थे ? नचिकेता ने अपने आपको दान में दिए जाने का प्रश्न क्योंकर उत्पन्न किया ? क्या वाजश्रवा को कोई पश्चाताप नहीं था और यदि हाँ तो उसने नचिकेता को रोका? वाजस्रवा के ‘विश्वजित’ यज्ञ के विधान में प्रियातिप्रिय वस्तु का भी दान अभीष्ट होता है. निश्चित ही नचिकेता पिता का प्रियातिप्रिय है. अतः राजर्षि अपने पुत्र के पोषण के मोह में उपयोगी गायों को बचाते हुए बूढ़ी और दूध न दे सकने वाली गायों का दान कर यज्ञ की औपचारिकता पूरी करना चाहता है. अतः नचिकेता का यह पिता के प्रति कल्याणभाव ही है जो उसे अपने आप को भी दान कर देने के लिए प्रेरित करता है ।
       एक अन्य प्रश्न नचिकेता का तत्काल ही यम के पास पहुँच जाने और यम के आतिथ्य के सन्दर्भ में भी उत्पन्न होता है. यदि वास्त की मृत्यु (आत्महत्या नहीं !) हो गयी थी तो क्या मृत्यु के पश्चात् इस तरह किसी का लौट पाना संभव है ?यजुर्वेद, ४० वें अध्याय, जो ईशावास्योपनिषद् के रूप में विज्ञात है, में कहता है –
      ‘अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृत्मश्नुते.’ (मंत्र १४) अर्थात् अविद्या के द्वारा मृत्यु के परे जाकर विद्या के द्वारा अमृतत्व में प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है. कठोपनिषद् में अविद्या और विद्या की क्रमशः प्रेय और श्रेय मार्ग के रूप में पहचान कराई गयी है-
‘श्रेय मार्ग का दूसरा, है विद्या अभिधान
प्रेयमार्ग से अविद्या का होता है भान .’
 दूसरे शब्दों में मृत्यु के परे जाना भारतीय मनीषा का विश्व ज्ञान व्यापार को प्रदत्त अनुपम उपहार है तथा कठोपनिषद् का यह कथानक इस तरह से उस दर्शन की पूर्ण संगति में स्थित है.
            यहाँ योग और तंत्र के धरातल पर भी कठोपनिषद की सारवत्ता पर कुछ विचार अप्रसांगिक प्रतीत नहीं होता. वैसे तो यह उपनिषद् वैशम्पायन ऋषि के शिष्य ‘कठ’ की संरचना होने से ‘कठोपनिषद’ है, किन्तु योग के ‘हठ’ की तरह इसके ‘कठ’ की वर्णात्मक व्युत्पत्ति की गयी है. हठयोग में ‘ह’ सूर्य और ‘ठ’ चंद्र वाच्य है. स्वाभाविक रूप से इस साधन में नाड़ी, प्राण और मन की साधना पर जोर रहता है. किन्तु ‘कठ’ अपने आप में देवनागरी वर्णमाला के ‘क’ से लेकर ‘ठ’ तक के १२ अक्षरों का सूचक है. मनुष्य के ह्रदयस्थल, जिसे योग की भाषा में ‘अनाहत चक्र’ कहा जाता, है इन्हीं १२ पटल के कमल का द्योतक है. ‘निकलता’ के यम नचिकेता को ईश्वर के इसी केन्द्रस्थल में स्थित होने का ज्ञान देते हैं-
‘ करते हृदयाकाश में ही मुमुक्षु दीदार
आत्मतत्व का यही है, नचिकेता आकार’
यही बात गीता के १८वें अध्याय में भी भगवान श्रीकृष्ण ने ‘गुह्यात्  गुह्यतर’ ज्ञान के विशेषण सहित इस प्रकार कही है-
‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (१८/६१)
  रचनाकार की सिद्धि एक दर्शन प्रधान आख्यान को सुसम्प्रेषणीय शिल्प में आबद्ध कर देना है. ‘नचिकेता’के कवि  ने प्रचलित मुहावरों की भाषा में अपना सन्देश पाठकों तक पहुंचाने के लिए उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है. यद्यपि भाषाई माध्यम किसी कथ्य की कोई शर्त या सीमा निर्धारित नहीं करता किन्तु कुछ स्थानों पर यह विचार अवश्य किये जाने योग्य है कि एक विचार की किसी भाषा विशेष के माध्यम से की गयी यात्रा में उसकी मूल भाषा की पहचान इतनी गहरीऔर अभेद्य हो चुकी होती है कि उसे पलटने से विचार के शिथिल हो जाने का खतरा तो उत्पन्न होता ही है.  
 
      अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, भोपाल