Wednesday 1 January 2020

धर्मनिरपेक्षता का रचना संसार


समीक्ष्य कृति – जिन्हें जुर्म-ए -इस्क पे नाज़ था
उपन्यासकार- पंकज सुबीर
प्रकाशन- शिवना प्रकाशन, सीहोर
मूल्य – 200 रुपए

धर्मनिरपेक्षता का रचना-संसार
-प्रभुदयाल मिश्र

सामाजिक सौहार्द्य के बहुआयामी भारतीय समाज में सूत्रबद्धता को सहेजने की चेष्टा में लिखे पंकज सुबीर के उपन्यास जिन्हें जुर्म-ए -इस्क पे नाज़ था को ऐसे सभी साहित्य प्रेमियों को पढ़ना चाहिए जो प्रचलित धर्मों की ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के साहसिक अन्वीक्षण में प्रवृत्त होना चाहते हैं । इतिहास, समाज, और वर्तमान की अनेक धाराओं की दकियानूसी का ऐसा सटीक विवरण बिना अतिरिक्त लेखकीय जागरूकता के असंभवप्राय ही है । निश्चित ही सुबीर को समय की नब्ज की इतनी सही पहचान और पड्ताल के लिए व्यापक जन समर्थन मिलेगा, ऐसा मेरा अनुमान है।  
महात्मा गांधी की 150 वीं जन्म जयंती वर्ष में उनके सहज मानवीय और विश्ववन्धुत्व के आदर्श को साकार करती यह कृति विशेष रूप से सराही जानी चाहिए क्योंकि इसमें लेखक ने अपनी कुशल कल्पनाशीलता (फांतासी) से स्वयं गांधीजी द्वारा उन सारे प्रश्नों के बहुत सटीक समाधान प्रस्तुत करा दिये हैं जिनको लेकर या तो गांधीजी की हत्या ही करदी गई अथवा आज भी उनकी तुलना में जिन्ना को कहीं अधिक धर्मनिरपेक्ष ठहरा दिया जाता है। एक कस्बाई दंगे की प्रायः अनुमान की जा सकने वाली सामान्य प्रष्ठभूमि में लेखक ने संचार की विधा में जिस कलात्मकता से नाथूराम गोडसे, महात्मा गांधी अथवा मुहम्मद अली जिन्ना को प्रत्यक्ष ला खड़ा किया है वह उसके विश्वास, अनुमान और सत्य के प्रत्यक्षीकरण का अतिप्राकृत विधान कहा जा सकता है । यह बात दूसरी है कि www.vishwatm.com गांधीगिरि के बाद इस विधा का प्रयोग शायद आगे अब उनके ही नसीब में ही आए जो सुनी अथवा अनसुनी आवाज को कैद कर पाने का माद्दा रखते हों !
288 पन्नों के इस उपन्यास की कथावस्तु एक अनाम कस्बे की पूरी रात की दंगे की वारदात पर केन्द्रित है। इसका मुख्य किरदार रामेश्वर है जिसने शायद पिछ्ली सदी के 60-70 की दशक की महाविद्यालयीन संस्कृति से प्रेरित होकर अपने उपनाम को तिलांजलि दे रखी है । बहुत अच्छी नौकरी तो उसके नसीब में हो भी नहीं सकती थी, अतः उसने गणित में स्नातकोत्तर करने के कारण एक कोचिंग संस्थान खोला । शाहनवाज़ रामेश्वर के बचपन के शिक्षा साथी शमीम का बेटा है जिसे उसके पिता ने सही रास्ते पर ले जाने के लिए उसे इस संस्थान में छोड़ा तथा वह आशा के मुताबिक रामेश्वर का सबसे विश्वस्त, तटस्थ और ज़िम्मेवार सहायक का दायित्व निभाने लगता है । शाहनवाज़ के नए मुस्लिम वहुल खैरपुर के पड़ोस में हनुमानजी के मंदिर निर्माण को लेकर दंगे की स्थिति बनती है। शाहनवाज़ की गर्भवती पत्नी को इसी रात प्रसव पीड़ा होनी है, इत्यादि ।
लेखक रामेश्वर की स्वयं से दूरी रखते हुये उसे साहित्यकार तो नहीं बनाता किन्तु उसे उत्तम अध्येता, विचारवान, विश्लेषक तथा नई पीढ़ी के अफसर और आंदोलनकारियों का आदर्श गुरु एवं मार्गदर्शक बना देता है । इसी वजह से कलक्टर, एस पी और पुलिस मुख्यालय से आई फोर्स के नायक भारत यादव सहित रामेश्वर आंदोलन कर्ताओं के सूत्रधारों का भी सूत्रधार बन जाता है । कहानी में मुख्य कथ्य लेखक का विश्व के ज्ञात इतिहास से लेकर भारत के वर्तमान राजनीतिक फ़लक पर वेबाक टिप्पणी और कटाक्ष हो जाता है । इस प्रकार सारे जमाने की बदनामी ओड़ लेने वाले आज के धर्म पर स्वयं महात्मा गांधी का यह परमादेश न मानने की बेफरमानी क्या किसी के बूते की बात हो सकती है –
“धर्म जब तक समाज के लिए होता है, तब तक तो वो अहिंसक होता है । लेकिन जब राजनीति की तरफ झुकता है, सत्ता की तरफ झुकता है, तो वही धर्म हिंसक हो जाता है । धर्म को राजनीति के लिए नहीं बनाया है, वह तो इंसान के लिए बनाया है । उसे तो लोगों के बीच में रहकर काम करना है । जब वह गलत रास्ते पर मुड़ता है तो वह धर्म नहीं रहता, वह तो कुछ और ही हो जाता है। जो राजनीति तरफ चला जाता, वह तो धर्म नहीं होता है। उसको तो धर्म नहीं ही कहना चाहिए।“ (पृष्ठ 244)
इस पुस्तक का आरंभ और अंत तथा इसे यदि इसकी केंद्रीय धारा कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जिस प्रकार वैशाली की नगर बधू का शिष्य बीजगुप्त और महाराज पाप क्या है?’ से पाप और पुण्य की तह में जाना चाहता है, इस उपन्यास का शाहनवाज़ भी धर्म का कुछ ऐसा ही पाठ रामेश्वर से पहले ही पन्ने में इस प्रकार गृहण करता है-
“ मैं एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता हूँ, जहां धर्म का कोई अस्तित्व नहीं होगा। जहां इंसान केवल इंसान के रूप में ही होगा । कोई धर्म नहीं, कोई जात नहीं ।“ (पृष्ठ 8)
यहाँ उस बौद्धिकता का कोई प्रसंग नहीं है जिस स्थिति में सामरसेट मौम के उपन्यास रेजर्स एज का मैं वह उदाहरण जुटाता जिसमें इसका कथानायक लेरी यह भविष्य कथन करता है कि आगे आने वाली बुद्धिजीवी पीढ़ी किसी ऐसे ईश्वर में भरोसा कतई नहीं करेगी जिसे जिंदा रखने के लिए घी के दिए, अगरबत्ती अथवा इसी तरह के अन्य प्रसाधनों या वफादारी की कसमों आवश्यकता पड़ती हो !
सुबीर जिस साहस और निश्शंकता से आज की दुनिया के धर्मेतिहास की जो पड़ताल करते हैं, वह निश्चित ही काबिलेतारीफ है। इसका यहाँ कुछ उल्लेख जरूरी भी है ।
“अगर दुनिया के तीन प्रमुख धर्मों यहूदी, ईसाई और इस्लाम की बात करें, तो तीनों ही इब्राहीम को अपना पितामह मानते हैं । ... तीनों धर्म जो आज एक दूसरे के खून के पियासे हैं । (पृष्ठ 10) जाहिर है, लेखक हिंदुओं को वैदिक काल में अनुपस्थित मानकर बाहर से आए आर्यों को वेदों का रचनाकार मानते हुये पुराण आदि को ही हिंदुओं के धर्म का आधार पाकर धर्म की इस प्रतिस्पर्धा में हिंदुओं को खड़ा करता है । इस संबंध उसने यह एक अत्यंत विवादास्पद निष्कर्ष भी निकाल लिया है – “ऋग्वेद तो असल में हिंदुओं की किताब है ही नहीं, वह तो आर्यों की किताब है । “ (पृष्ठ 13) इस तरह लेखक जहां पग-पग पर यूरोप और अंग्रेजों को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभेद की खाई खोदने के लिए कोसता है, वहीं उसे उनके द्वारा भारत में आर्य और अनार्यों का कूटनीतिक विभाजन स्वीकार है ! ऐतिहासिक बोध की यह परादृष्टि एक शदी पूर्व के उस पश्चिमी तत्त्वबोध पर केन्द्रित है जिसके अनुसार आर्य पश्चिम के किसी अदृश्य लोक से वेद-ज्ञान की गठरी लेकर भारत आए और उसे यहाँ खोलकर कहीं सहसा अदृश्य हो गए । इसके पहले वे जहां थे न तो उन्होने वहाँ अथवा भारत के इस नवजागरण के बाद अपने मूल भूभाग में लौटकर ज्ञान का यह दिव्य प्रकाश दोबारा विखेरने की कभी कोई आवश्यकता महसूस की ! लेखक पंकज सुबीर आर्य, जो सनातन अवधारणा में श्रेष्ठता बोधक सम्बोधन का प्रायः एक विशेषण मात्र है, को न केवल उत्तर-दक्षिण और श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ वल्कि आर्य और हिन्दू वर्ग विभाजन में भी बांटते नज़र आते हैं –
“हिन्दू तो अभी तय ही नहीं कर पा रहा है कि वह क्या है ? वह आर्य है कि अनार्य ? क्योंकि अगर आर्य है तो वेदों को मानना होगा और अगर वेदों को मानना है तो मूर्ति पूजा छोडनी होगी ।“ (पृष्ठ 18)
वैदिक ज्ञान का यह तत्त्वबोध ज़ाकिर नाईक जैसे द्रष्टाओं का परमधन है जो यजुर्वेद के एक मंत्र न तस्य प्रतिमा अस्ति (32/3) को आधार बनाकर वेद में मूर्ति पूजा का निषेध प्रतिपादित करते हैं । वस्तुत; सुबीर ने इस पुस्तक में ही ऋग्वेद के जिन देवताओं अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण, मरुत आदि का उल्लेख किया है, वैदिक ऋषि उनका रूपाकार स्तुति गान ही करते हैं । अब इन देवताओं की स्तुतियों को चाहे वे प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण के रूप में की गई हों अथवा यह बहुदेवोपासना हो, वैदिक व्याख्याकारों के अनुसार यह उस एकेश्वर का ही अनुचिंतन है जो पुरुष सूक्त (ऋग्वेद 10/90), नासदीय सूक्त (10/129), हिरण्यगर्भ सूक्त (10/121) आदि का प्रधान कथ्य है ।
लेखक ने इसी कोटि की एक भ्रांति गीता के संदेश को लेकर भी प्रकट की है जिसका प्रतिवाद आवश्यक है । लेखक पुस्तक पृष्ठ 223 में गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 31 के उत्तरार्ध – धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोsन्यात्क्षत्रियस्य न विद्यते की व्याख्या इस प्रकार करता है –
“उसे (अर्जुन को) एक बार फिर से (युद्ध में) झोंक देने के लिए ईश्वर को सामने आकार ज्ञान देना पड़ता है । ईश्वर स्वयं आकार कहता है कि हिंसा करो।“
पहली तो सीधी बात इतनी कि कृष्ण ने गीता में कहीं नहीं कहा कि हिंसा करो । दूसरे अध्याय में अर्जुन की युद्ध से परांगमुख होने की चेष्टा में उसके इस अनुरोध पर कि कृष्ण अपना शिष्य मानकर उसे श्रेयस्कर पाठ प्रशस्त करें, कृष्ण सबसे पहले वेदान्त के अद्वैत दर्शन को ही प्रतिपादित करते हैं जिसमें किसी के भी मरने या दूसरे को मार पाने की निरर्थकता ही सिद्ध है । इससे कुछ नीचे के व्यावहारिक धरातल पर वे जन्म और पुनर्जन्म को मानने की स्थिति में उसे अपरिहार्य मृत्यु का सामना करने को कहते हैं । लेखक ने यहाँ जो संदर्भ लिया है वह सामाजिक चेतना का तीसरा धरातल है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए निर्धारित कर्तव्य की भूमिका- स्वधर्मपि चावेक्ष्य (2/30) का निर्वाह आवश्यक है। इस प्रकार कृष्ण अर्जुन को एक सिपाही की भांति यहाँ केवल अपने कर्तव्य निर्वाह की सलाह मात्र दे रहे हैं । यह परामर्श किसी आदेश के रूप में कदापि नहीं है ।
एक अर्थ में इस पुस्तक को धर्म का नया समाजशास्त्र कहा जा सकता है । अत: स्वाभाविक रूप से लेखक की परिदृष्टि के ही अनुरूप गीता में व्यवहृत धर्म का किंचित उल्लेख प्रसंगेतर नहीं है । गीता में 29 बार धर्म शब्द का उल्लेख हुआ है । धर्म शब्द से ही आरंभ हुई गीता के पहले, दूसरे और 18वें अध्याय में 5-5 बार, तीसरे अध्याय में 4 बार, चौथे अध्याय में 2 बार, सातवें में 1 बार, नवें में 3 बार और 1-12-14वें में 1-1 बार धर्म शब्द की आवृत्ति हुई है।  इस शब्द की विस्तृत अध्यात्मपरक व्याख्या का यह कोई प्रसंग नहीं है। गीता में प्रायः इसका प्रयोग स्वभाव, प्रकृति तथा वर्ण और आश्रम व्यवस्था के सामाजिक दायित्व के संदर्भ अथवा व्यापक विराट व्यवस्था के रूप में हुआ है। अर्जुन चूंकि क्षत्रिय, एक प्रतिरक्षक और सैनिक है, अत: युद्ध की स्थित आने पर उसमें उसका प्रवृत्त होना उसका प्रधान सामाजिक कर्तव्य है । एक सिपाही अपने देश या राष्ट्र की संरक्षा में शत्रु देश या आक्रांता के सिपाही का स्वयं कोई शत्रु नहीं होता । उसका शत्रु सैनिक के प्रति कोई शत्रुता अथवा हिंसा का भी भाव नहीं होता । श्री कृष्ण अर्जुन को एक सैनिक के इसी कर्तव्य का यहाँ बोध करा रहे हैं । अतः गीता के अंत में वे अपनी बात अर्जुन से यही कहते हुये समाप्त करते हैं – यथेच्छसि तथा कुरु ( 18/63 ) इस प्रकार गीता के इस संदेश को भगवान द्वारा प्रदत्त हिंसा का आदेश मानना एक पूर्वाग्रह के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।
धर्म के इस संदर्भ में एक अंतिम बात इसके आध्यात्मिक पक्ष पर भी विचारणीय और आवश्यक हो जाती है । लेखक ने हिन्दू शब्द की भूगोली ऐतिहासिकता पर काफी विचार किया है, (पृष्ठ 14) । उसके अनुसार बहुआयामी सनातन धर्म के वर्तमान प्रचलन का यह हिन्दू संस्करण ही उसकी वास्तविक पहचान है । वेदों के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विचार पक्ष अथवा इसके व्यवहार के कर्म, उपासना और ज्ञान पथ याकि सनातन धर्म के न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, सांख्य तथा वेदान्त के दर्शन पक्ष को विचार परिधि में रखे बिना भारतीय मनीषा और इसकी जीवन धारा को चूंकि समझा ही नहीं जा सकता अतः इस असंग आनुषंगिकता में इसकी तुलना और यह समाकलन सदोष है ।
पुस्तक का मुद्रण, टंकण, प्रकाशन सभी मानक कोटि के हैं । इसकी इस दृष्टि से त्रुटिहीन बनाने की भरपूर प्रकाशकीय चेष्टा स्पष्ट है । तथापि पृष्ठ 165 में अभी की आवृत्ति, पृष्ठ 249 में मेर नाम’, पृष्ठ 88 में भारत पूछा था तथा मोहम्मद को जन्म की ओर मैं आगे परिष्कार के लिए ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ ।

35, ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल 462016 (9425079072)                                                
                          

वायु पुरुष महाकाव्य की समीक्षा


समीक्षा
कृति – वायु पुरुष
कवि- उपेंद्र कुमार
प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
मूल्य- रुपए 250


        पुराकथाओं के वार्मिंग वायु पुरुष
-    प्रभुदयाल मिश्र 

कवि श्री उपेंद्र कुमार का 127 पृष्ठ के 11 सर्गों वाले महाकाव्य वायु पुरुष इस पुस्तक के फ्लेप के अनुसार पुराकथाओं से हमारी यात्रा को उस समकालीन वैश्विक संकट और चुनौती के सामने ला खड़ा करता है जो प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के क्षय से जुड़ा है और जो समस्त सृष्टि के प्राण का संकट बन गया है। किन्तु यथार्थ में इस रचना के द्सवें सर्ग का निम्न यह रेखांकन इसका भरतवाक्य नहीं है –
बना तो न पाएंगे बेहतर कुछ भी
परंतु नासमझी में खाते और खोते रहेंगे
प्राकृतिक संसाधनों को
पयस्विनी प्रकृति का करेंगे
अविवेकी दोहन ऐसा। (पृष्ठ 113) 
यथार्थत: यह धीरोदात्त देवता नायक वाय पुरुष के उस उद्दाम आवेग की वह कथा है जो ऋग्वेद के पुरुष, नासदीय और हिरण्यगर्भ सूक्त से आरंभ होती है –
हिरण्यगर्भ ने किया निवास पूरे एक वर्ष तक उसी
अंड में
फिर किए उसके दो भाग
एक का नाम द्यलोक हुआ और दूसरे का भूलोक (पृष्ठ 28)
किन्तु वीर और शृंगार के बिना किसी महाकाव्य का रस परिपाक कहाँ, अस्तु
पर्वत हिल उठते हैं
चट्टानें हिम शिखरों से
टूटकर गिरने लगती हैं
तूफान पसारता चला जाता है
पहाड़ियों पर, घाटियों में
सब कुछ मिटाता, पैरों तले रौंदता (पृष्ठ 44)
और (शृंगार)
वायु आवेश में
अपनी प्रेमिका को भर लेते हैं-
अभी-अभी स्नान करके निकली थी
वस्त्र विन्यास, शृंगार-पठार अभी होना बाकी था। ( पृष्ठ 86, कुंती प्रसंग)
तथा
मोह से अंधे हो उठे वायुदेव
काम का एक ज्वार-सा जागा तन-मन में
हो गया एकाग्र चित्त उनका अंजना में ही । (पृष्ठ 99)  
अपने चरित नायक से प्रायः तादात्मीकृत कवि उसके उद्भव और विकास में उसके समानान्तर उन वाक् धाराओं और शब्द बिंबों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है जो चेतना की जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में समावर्तित हैं । कवि की परा चेतना की यह अंतर्यात्रा उसे इस आदि पुरुष को  नाना रूप और नामों में अभिव्यक्ति देने की असाधारण क्षमता प्रदान करती है । अतः कोई विस्मय नहीं यदि धीरप्रशांत बना यह धीरोदात्त वायु पुरुष अगले ही क्षण धीरोद्धत्त भी बन जाता है –
शायद समय आने ही वाला है
बाढ़ों को तोड़ गिराने का
सीमाओं से पत्थरों को हटा फेंकने का
बीजों और ताजा दूर्वा के गट्ठरों को फैला देने का
पृथिवी की महाविशाल परिधि पर । (पृष्ठ 70)
यह स्वाभाविक ही है कि कवि श्री उपेंद्र कुमार अपनी इस कृति के उपसंहार में इसे वेद के उन ऋषियों को समर्पित करता है जिन्होने इस अदृश्य वायु पुरुष को अवश्य देखा है (पृष्ठ 120 )। वेद के ऐसे परम द्रष्टा ऋषि अगस्त्य के कया शुभी सूक्त (ऋग्वेद मण्डल 1/165/15) का यहाँ स्मरण मुझे निम्न उद्धरण सहित मौजूं प्रतीत होता है –
एषः वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः
एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीर्दानुम् ।     

तुम्हें अर्पित हमारी यह प्रार्थना मरुतो,
तुम्हें अर्पित हमारी यह वाक्
आनन्दकर, हम करें अब सम्प्राप्त
पोषण अन्न,  बल,  जय सर्वदा इस लोक में । १५ ।

35 ईडन गार्ड, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल 462016 (9425079072)