Sunday 26 December 2021

 समीक्ष्य कृति – शिशिर के शतदल

कृतकार – अनिमा दास

प्रकाशक -सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली

मूल्य- 300 रुपए

                              कनक-शस्य शतदल

 

उदंत मारतण्ड के भरत खंड की आभा-सिक्त सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने जो ध्वन्यात्मक आराधना-बिम्ब भारतीय मेधा में भारति जय विजय के प्रगीत से कभी उकेरा था, उडिया की अणिमादि शब्द साधिका अनिमा दास का सौ सोनेट का संग्रह संकलन शिशिर के शतदल इसी अलौकिक भाव धारा में उन्मीलित एक कृति है ।

अमूर्त का मूर्तीकरण सृष्टि विस्तार का अनादि प्रक्रम है । परमेश्वर ने अपनी अव्यक्त अवस्था में जब एकोहम् बहुस्याम् की आदि अभिकामना को अभिव्यक्ति किया तो वह शिव और शक्ति का युगल स्वरूप धारण कर सृष्टि संरचना का महत् आधार बनी । इस भौतिक संसार में एक रचनाकार स्रष्टा के इस मानसी संकल्प की संपूर्ति में अन्य भौतिक उपादानों के संयोजन की तुलना में कहीं अधिक उपादेय ही है क्योंकि वह अपेक्षाकृत इस दैवी संकल्पना के बहुत निकट है । कव्य और कला की यह बुनियाद अपने दैवी प्रकृति के इस समानान्तर स्वरूप में अधिक स्तुत्य और अभिनंदनीय ही है, अनिमा दास की यह शतक-धारा इसी की घोषणा करती प्रतीत होती है । वैदिक मंत्र-सूक्तों की तरह द्रष्टा कवि का इनमें इष्ट साक्षात्कार भी है जो इस कवयित्री के भाव- अभाव का असंग स्थायी भाव है !

माना मैंने तुम्हें पूर्ण सत्य में, स्नेह में, त्याग में है तुम्हारी व्याप्ति

तुम अनेक में हो एक, शून्य में हो ध्वनि तथा अतृप्ति में प्राप्ति । (पृष्ठ 34)

उडिया की लब्ध प्रतिष्ठ सोनेट समालोचिका और कवयित्री अनिता की सघन शब्द शिल्पता में हिन्दी की यह यात्रा किसी साहसिक अभियान से कम नहीं है । उत्ताल गीर्वाण गिरा से उच्छलित भारतीय भाषा परिवार में हिन्दी की तुलना में उडिया संस्कृत के कहीं अधिक निकट है । इसीलिए अपने भाषा सौष्ठव में वह एक ही छ्लांग में गंगासागर से गोमती पहुँच जाती है। उसे शिखरों, शिलाओं, कन्दराओं के साथ-साथ तट, लता, द्रुम और प्रवाह से सहेजकर अमूर्त के आकार में बांधने की क्षमता उसे ही प्राप्त हो सकती है जिससे उसका अबाध सामनस्य हो गया हो-

विदीर्ण काया का अश्रुत उपन्यास लिखता यह जीवन

यह मन मायावी, नित्य करता शीर्ण अनुभवों की सीवन

मंदिर जलता, अहं गलता, भस्म होती संबंध की चिता

अपराधिनी देह पर बहती क्षुण्ण कामनाओं की सरिता । (पृष्ठ 113)

अनिमा को पीछे झाँकने के लिए अनेक चरित्र उपलब्ध हैं -चंद्रलेखा, मोहन प्रिया, चित्रांगदा, उर्वशी आदि । इनसे कवयित्री का तादात्मीकरण उसे अनंत आकाश में उड़ने की स्फूर्ति देता है –

तुम्हारे विक्षिप्त हृदय का, मैं, हूँ एक मात्र भग्नांश (चित्रांगदा, 70)

और

वियोग ही प्राप्य मेरा, तपस्विनी है, मौन-श्रांत मेरी आख्यायिका (उर्वशी 71)

ऋग्वेद के उर्वशी-पुरूरवा सूक्त (10/95/15) में उर्वशी पुरूरवा से विदा लेते हुये कुछ यही तो कह कह रही है जब पुरूरवा कहता है के उसके चले जाने पर अच्छा को यदि उसे वन्य पशु ही अपना आहार बना लें  –

पुरूरवो मा मृथा मा प्रपप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्                    

-    मत गिरो तुम, मत मरो, वन पशु अमंगल

तुम्हें न खाएं, तुम्हारा नाश न हो ।   

       मुद्रण संबंधी एक संक्षिप्त टिप्पणी यह भी कि सॉफ्टवेयार के स्वचालित संशोधन कितना अपकार करते चलते हैं, इससे अतिरिक्त सावधानी जरूरी हो जाती है । पृष्ठ 43 में ही धरूण’, मरूद्वीप और स्वरुप इसके कुछ् उदाहरण हैं जिनकी ओर कवयित्री का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक लगता है ।

 कृति के हिन्दी संसार में समादर की अभिकामना सहित-

प्रभुदयाल मिश्र, 35 ईडन गार्डेन, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल 462016 (prabhu.d.mishra@gmail.com)    

 

कृति- ओ प्रिया !!! ( अनूदित एक सौ प्रेम सोनेट)

अनुवादक- विनीत मोहन औदिच्य

प्रकाशक - ब्लैक ईगल बुक्स

 

 प्रेम की अजस्रता का परिचय

-प्रभुदयाल मिश्र

 

किसी दूर देश की भाषा को उसकी शब्दहीनता में ही कला की पक्की तहों से आकाश में छितरा देना इस कृतिकार की क्षमता की अनूठी पहचान कराता है । इसके पूर्व मुझे श्री औदिच्य के 'प्रतीची से प्राची पर्यन्त' गीत संग्रह के अनुशीलन का अवसर आया था जिसे मैंने अंग्रेज़ी साहित्य के मूल कवियों के यत्किंचित वोध की मनोज्ञता से सप्रेम पढ़ा था । नोबेल पुरस्कार प्राप्त पाब्लो नेरुदा के मात्र नाम से परिचय के बाद उनके प्रेम गीतों को हिन्दी की इतनी सुमधुर चासनी में ढला हुआ- 'सो हौं परसु धरो' आस्वादन के लिये पाऊँगा, यह अनुमान कहीं से नहीं था । विशेषकर जीवन के चतुर्थ चरण में प्रेम गीत पढ़कर कौन परलोक बनेगा, इस प्रश्न से किसी सनातनी वैष्णव का आक्रान्त रहना भी स्वभाविक है । किन्तु सूर, मीरा, जयदेव और अनेक रीतिकाल के कवियों तथा संस्कृत के कुछ वरिष्ठ कवियों के उच्छलित श्रंगार को जिस तरह हम अध्यात्म के प्याले में पीते हैं, वैसी निर्दोषता किसी भी भाषा की उदात्त रचना में हो सकती है, यह अनुमान तो किया ही जा सकता है । अस्तु ...

पाब्लो नेरुदा ने अनेक देश और उनकी भिन्न जीवन शैली में भारी संघर्षशील परिस्थितियों में जीवन यापन किया, एक राजनैक की मर्यादाओं में अपने आपको ढाला किन्तु जीवन के उत्तर पक्ष में तीसरी प्रेमिका और पत्नी के प्रति जिस अगाध और मूर्त-अमूर्त प्रेम का अनमोल स्वर संधान किया उससे उनके जीवन की मूल धारा और व्यक्तित्व के केन्द्रीय पक्ष को समझा जा सकता है । मनुष्य जीवन की यह शाश्वत संवेद्यता उन्हें सार्वभौम बनाने का लिये पर्याप्त और पूर्ण है । अत: यदि भारत के हिन्दी भाषी विनीत मोहन इसके प्रति समाकृष्ट होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं ।

इस गीत-काव्य के चार भाग हैं - सोनेट भाग:१ प्रात:काल, भाग:२ दोपहर, भाग:३ सायंकाल और भाग:४ निशा ।काल के इस किसी आयाम में कवि का अपनी प्रेमिका के प्रति क्षीण नहीं होता । मानों ये प्रेम के प्रकर्ष के उत्तरोत्तर विकास के ही स्तर हैं। इनमें संयोग और विप्रलंभ का तो अद्भद् घालमेल है ही, यहाँ तक कि मृत्यु के पार भी इसकी निरन्तरता है -

'यदि मैं मरूँ, तुम इतनी शुद्ध शक्ति के साथ उत्तर जीवी रहो

कि तुम करो विवर्णता और शीतलता को क्रोधित ;

चमकाओ अपनी अमिट आँखों को दक्षिण से दक्षिण तक,

सूर्य से सूर्य तक, जब तक कि गाने न लगे मुख तुम्हारा गिटार सा ।'

(पृष्ठ १११)

और संयोग का बिम्ब इन मूल तथा छाया (दोनों) कवियों ने इस प्रकार उभारा -

'निर्वस्त्र, तुम हो सहज अपने हाथों में एक सी,

स्निग्ध, धरा सी, नन्ही, पारदर्शी, वृत्ताकार:

तुम्हारे पास हैं चंद्रमा की लकीरें, सेब- गलियारे

निर्वस्त्र, तुम हो छरहरा एक नग्न गेहूँ के दाने सी ।'

(पृष्ठ ४१)

शुष्क मरुस्थली जीवन में अमराई की खोज के कविमना इस रचना धारा में ज़रूर निमग्न रह अघा सकते हैं, यह अनुमान एकदम स्वभाविक है ।

अनूदक औदिच्य की काव्य क्षमता मूल रचनाकार के सर्वदा समतुल्य है । इसका शब्द चयन, बिम्ब विधान और भाषा-भित्ति के रेखांकन इतने अप्रतिम हैं कि कहीं-कहीं रचना के मूल स्वरूप में इतनी परिपूर्णता का अनुमान करना भी कठिन प्रतीत होता है । बधाई ।

 

३५ ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल ४६२०१६

        

Friday 24 December 2021

एक और भागीरथ / निर्वचन तुलसी मानस भारती माह जनवरी 2022

 गंगा को शिव-शीश तक लाने वाले एक और भागीरथ


विक्रम संवत् 2078 मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी सोमवार (दिनांक 13 दिसंबर 2021) को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर के लोकार्पण के अवसर पर जब मुक्त कंठ से उन्होने शुद्ध संस्कृत उच्चार में श्री विश्वनाथ अष्टकम् के इस श्लोक का पाठ किया -


गङ्गा तरङ्ग रमणीय जटा कलापं


गौरी निरन्तर विभूषित वाम भागं


नारायण प्रियमनङ्ग मदापहारं


वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥


तो काशी की परम विभूति गोस्वामी तुलसीदास के मानस प्रेमियों को इस सोरठे का स्मरण भी बहुत स्वाभाविकता से हुआ होगा –


मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर


जहं बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न । (किष्किंधाकाण्ड 1 ख)


त्रैलोक्य की नाभि जिसका प्रलय काल में भी तिरोधान नहीं होता होता ऐसी शिव के त्रिशूल पर बसी काशी जो आदि शंकराचार्य, नानक, राजा टोडरमल, दाराशुकोह, कबीर, रविदास, अहिल्या बाई, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद और मदन मोहन मालवीय जैसे देदीप्त नक्षत्रों का महाकाश है, वह गोस्वामी तुलसीदास जी के अध्ययन और तपश्चर्या का प्रधान केंद्र थी । उन्होने अपने प्रथम गुरु नरहरयानन्द के मार्गदर्शन से सम्पूर्ण वेद ,वेदान्प, पुराण, इतिहास, दर्शन ज्ञान के तत्कालीन शीर्षस्थ शिक्षा केंद्र श्री शेष सनातन धाम, काशी में ही प्राप्त किया । गोस्वामी जी के संबंध में यह कथा भी प्रचलित है कि उनके द्वारा रामचरित मानस की रचना लोक-भाषा में करने पर काशी का जब विद्वत समुदाय उनके विरोध में खड़ा था तब बाबा विश्वनाथ ने राम चरित मानस को भारतीय शास्त्रों के शीर्ष पर स्थिर कर उसे सिरमौर के ग्रंथ की मान्यता दी । इतना ही नहीं जैसे उनके आशीर्वाद को वेदान्त के तत्कालीन महा मनीषी मधुसूदन सरस्वती ने इस श्लोक में अभिव्यक्ति भी प्रदान की –


आनन्दकानने ह्यस्मिंजंगमस्तुलसीतरु:। कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥


राम चरित मानस में गोस्वामी जी पग-पग काशी का स्मरण करते चलते हैं । सबसे पहले वे मानस के मंगलाचरण प्रसंग में राम नाम महिमा गान करते हुये घोषणा करते हैं –


महां मंत्र जोइ जपत महेसू । कासी मुकुति हेतु उपदेसू ।


यहाँ वे बुध कौशिक ऋषि के प्रसिद्ध राम रक्षा स्तोत्र के संदर्भ ‘सहस्रनाम तत् तुल्यं राम नाम बरानने’


(हे पार्वती, भगवान शिव ने पार्वती को कहा, एक राम नाम विष्णुसहस्रनाम के सम्पूर्ण पाठ के समतुल्य है, अत: आप रामोच्चार कर अपना अनुष्ठान पूरा मान हमारे साथ भोजन गृहण कर सकती हैं), की संपन्नता का यह प्रमाण देते हैं –


सहस नाम सम सुनि सिव वानी । जपि जेयीं पिय संग भवानी


पश्चात जब भरद्वाज जी राम के संबंध में जिज्ञासा करते हैं तो उन्हें यह विदित है कि काशी को भगवान शिव ने मुक्ति का धाम बनाया है तथा यह उनकी यह सामर्थ्य राम नाम के कारण ही है, ऐसा स्वयं भगवान शिव बताते है –


आकरि चार जीव जग अहहीं । कासी मरत परम पद लहही


सोपि राम महिमा मुनि राया । सिव उपदेसु करत करि दाया ।


कहते हैं कि पार्वती ने भी कभी जब यह रहस्य पूछा तो भगवान शिव ने उन्हें कहा कि काशी में किसी के देह त्याग पर जब लोग ‘राम-राम सत्य है’ की घोषणा करते चलते हैं तो वे अपनी परम प्रसन्नता में मृतक को मुक्ति प्रदान कर देते हैं !


शिव की जटाओं में किलोल करने के लिए उत्तराभूमुख गंगा को काशी-विश्वनाथ के पार्श्व तक सुगम कर देने वाले भारतीय चेतना के सदियों, शताब्दियों और युग-युगांतर के संकल्प की इस पूर्णता पर सनातन मानव धर्म-संस्कृति की प्रतिनिधि पत्रिका ‘तुलसी मानस भारती’ अपने प्रबुद्ध पाठक समुदाय सहित अपने हर्ष के प्रतीकार्थ में इस अंक को ‘काशी-विशेष’ के रूप में प्रकाशित कर रही है ।


प्रभुदयाल मिश्र

प्रधान संपादक