समीक्ष्य कृति – शिशिर के शतदल
कृतकार – अनिमा
दास
प्रकाशक -सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
मूल्य- 300 रुपए
कनक-शस्य ‘शतदल’
‘उदंत
मार्तण्ड’ के भरत खंड की
आभा-सिक्त
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने जो ध्वन्यात्मक आराधना-बिम्ब भारतीय मेधा में ‘भारति जय
विजय’ के प्रगीत से कभी उकेरा था, उडिया की ‘अणिमादि’ शब्द साधिका अनिमा दास का सौ सोनेट का
संग्रह संकलन ‘शिशिर के शतदल’ इसी
अलौकिक भाव धारा में उन्मीलित एक कृति है ।
अमूर्त का मूर्तीकरण सृष्टि विस्तार का अनादि प्रक्रम
है । परमेश्वर ने अपनी अव्यक्त अवस्था में जब ‘एकोहम् बहुस्याम्’ की आदि अभिकामना को अभिव्यक्ति किया तो वह शिव और शक्ति का युगल स्वरूप
धारण कर सृष्टि संरचना का महत् आधार बनी । इस भौतिक संसार में एक रचनाकार स्रष्टा
के इस मानसी संकल्प की संपूर्ति में अन्य भौतिक उपादानों के संयोजन की तुलना में
कहीं अधिक उपादेय ही है क्योंकि वह अपेक्षाकृत इस दैवी संकल्पना के बहुत निकट है ।
कव्य और कला की यह बुनियाद अपने दैवी प्रकृति के इस समानान्तर स्वरूप में अधिक स्तुत्य
और अभिनंदनीय ही है, अनिमा दास की यह शतक-धारा इसी की घोषणा
करती प्रतीत होती है । वैदिक मंत्र-सूक्तों की तरह द्रष्टा कवि का इनमें इष्ट
साक्षात्कार भी है जो इस कवयित्री के भाव- अभाव का असंग स्थायी भाव है !
माना मैंने तुम्हें पूर्ण सत्य में, स्नेह में, त्याग में है तुम्हारी व्याप्ति
तुम अनेक में हो एक, शून्य में
हो ध्वनि तथा अतृप्ति में प्राप्ति । (पृष्ठ 34)
उडिया की लब्ध प्रतिष्ठ सोनेट समालोचिका और कवयित्री
अनिता की सघन शब्द शिल्पता में हिन्दी की यह यात्रा किसी साहसिक अभियान से कम नहीं
है । उत्ताल गीर्वाण गिरा से उच्छलित भारतीय भाषा परिवार में हिन्दी की तुलना में
उडिया संस्कृत के कहीं अधिक निकट है । इसीलिए अपने भाषा सौष्ठव में वह एक ही
छ्लांग में गंगासागर से गोमती पहुँच जाती है। उसे शिखरों, शिलाओं, कन्दराओं के साथ-साथ तट, लता, द्रुम और प्रवाह से सहेजकर अमूर्त के आकार में
बांधने की क्षमता उसे ही प्राप्त हो सकती है जिससे उसका अबाध सामनस्य हो गया हो-
‘विदीर्ण काया का अश्रुत उपन्यास लिखता यह जीवन
यह मन मायावी, नित्य करता शीर्ण
अनुभवों की सीवन
मंदिर जलता, अहं गलता, भस्म होती संबंध की चिता
अपराधिनी देह पर बहती क्षुण्ण कामनाओं की सरिता ।‘ (पृष्ठ 113)
अनिमा को पीछे झाँकने के लिए अनेक चरित्र उपलब्ध हैं
-चंद्रलेखा, मोहन प्रिया, चित्रांगदा, उर्वशी आदि । इनसे कवयित्री का तादात्मीकरण उसे अनंत आकाश में उड़ने की
स्फूर्ति देता है –
‘तुम्हारे विक्षिप्त हृदय का,
मैं, हूँ एक मात्र भग्नांश’ (चित्रांगदा, 70)
और
‘वियोग ही प्राप्य मेरा,
तपस्विनी है, मौन-श्रांत मेरी आख्यायिका’ (उर्वशी 71)
ऋग्वेद के उर्वशी-पुरूरवा सूक्त (10/95/15) में उर्वशी
पुरूरवा से विदा लेते हुये कुछ यही तो कह कह रही है जब पुरूरवा कहता है के उसके
चले जाने पर अच्छा को यदि उसे वन्य पशु ही अपना आहार बना लें –
‘पुरूरवो मा मृथा मा प्रपप्तो मा त्वा वृकासो
अशिवास उ क्षन्’
-
मत गिरो तुम, मत मरो, वन पशु अमंगल
तुम्हें न खाएं, तुम्हारा नाश न हो ।
मुद्रण
संबंधी एक संक्षिप्त टिप्पणी यह भी कि सॉफ्टवेयार के स्वचालित संशोधन कितना अपकार
करते चलते हैं, इससे अतिरिक्त सावधानी जरूरी हो जाती है । पृष्ठ
43 में ही ‘धरूण’, ‘मरूद्वीप’ और ‘स्वरुप’ इसके कुछ् उदाहरण हैं जिनकी ओर कवयित्री का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक
लगता है ।
कृति के
हिन्दी संसार में समादर की अभिकामना सहित-
प्रभुदयाल मिश्र, 35 ईडन गार्डेन, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल
462016 (prabhu.d.mishra@gmail.com)
कृति- ओ प्रिया !!! ( अनूदित एक सौ प्रेम सोनेट)
अनुवादक- विनीत मोहन औदिच्य
प्रकाशक - ब्लैक ईगल बुक्स
प्रेम की
अजस्रता का परिचय
-प्रभुदयाल मिश्र
किसी दूर देश की भाषा को उसकी शब्दहीनता में ही कला
की पक्की तहों से आकाश में छितरा देना इस कृतिकार की क्षमता की अनूठी पहचान कराता
है । इसके पूर्व मुझे श्री औदिच्य के 'प्रतीची से प्राची
पर्यन्त' गीत संग्रह के अनुशीलन का अवसर आया था जिसे मैंने
अंग्रेज़ी साहित्य के मूल कवियों के यत्किंचित वोध की मनोज्ञता से सप्रेम पढ़ा था
। नोबेल पुरस्कार प्राप्त पाब्लो नेरुदा के मात्र नाम से परिचय के बाद उनके प्रेम
गीतों को हिन्दी की इतनी सुमधुर चासनी में ढला हुआ- 'सो हौं
परसु धरो' आस्वादन के लिये पाऊँगा, यह
अनुमान कहीं से नहीं था । विशेषकर जीवन के चतुर्थ चरण में प्रेम गीत पढ़कर कौन
परलोक बनेगा, इस प्रश्न से किसी सनातनी वैष्णव का आक्रान्त
रहना भी स्वभाविक है । किन्तु सूर, मीरा, जयदेव और अनेक रीतिकाल के कवियों तथा संस्कृत के कुछ वरिष्ठ कवियों के
उच्छलित श्रंगार को जिस तरह हम अध्यात्म के प्याले में पीते हैं, वैसी निर्दोषता किसी भी भाषा की उदात्त रचना में हो सकती है, यह अनुमान तो किया ही जा सकता है । अस्तु ...
पाब्लो नेरुदा ने अनेक देश और उनकी भिन्न जीवन शैली
में भारी संघर्षशील परिस्थितियों में जीवन यापन किया, एक राजनैक की मर्यादाओं में अपने आपको ढाला किन्तु जीवन के उत्तर पक्ष में
तीसरी प्रेमिका और पत्नी के प्रति जिस अगाध और मूर्त-अमूर्त प्रेम का अनमोल स्वर
संधान किया उससे उनके जीवन की मूल धारा और व्यक्तित्व के केन्द्रीय पक्ष को समझा
जा सकता है । मनुष्य जीवन की यह शाश्वत संवेद्यता उन्हें सार्वभौम बनाने का लिये
पर्याप्त और पूर्ण है । अत: यदि भारत के हिन्दी भाषी विनीत मोहन इसके प्रति
समाकृष्ट होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं ।
इस गीत-काव्य के चार भाग हैं - सोनेट भाग:१ प्रात:काल, भाग:२ दोपहर, भाग:३ सायंकाल और भाग:४ निशा ।काल के
इस किसी आयाम में कवि का अपनी प्रेमिका के प्रति क्षीण नहीं होता । मानों ये प्रेम
के प्रकर्ष के उत्तरोत्तर विकास के ही स्तर हैं। इनमें संयोग और विप्रलंभ का तो
अद्भद् घालमेल है ही, यहाँ तक कि मृत्यु के पार भी इसकी
निरन्तरता है -
'यदि मैं मरूँ, तुम इतनी
शुद्ध शक्ति के साथ उत्तर जीवी रहो
कि तुम करो विवर्णता और शीतलता को क्रोधित ;
चमकाओ अपनी अमिट आँखों को दक्षिण से दक्षिण तक,
सूर्य से सूर्य तक, जब तक कि
गाने न लगे मुख तुम्हारा गिटार सा ।'
(पृष्ठ १११)
और संयोग का बिम्ब इन मूल तथा छाया (दोनों) कवियों ने
इस प्रकार उभारा -
'निर्वस्त्र, तुम हो सहज अपने
हाथों में एक सी,
स्निग्ध, धरा सी, नन्ही, पारदर्शी, वृत्ताकार:
तुम्हारे पास हैं चंद्रमा की लकीरें, सेब- गलियारे
निर्वस्त्र, तुम हो छरहरा एक
नग्न गेहूँ के दाने सी ।'
(पृष्ठ ४१)
शुष्क मरुस्थली जीवन में अमराई की खोज के कविमना इस
रचना धारा में ज़रूर निमग्न रह अघा सकते हैं, यह अनुमान एकदम
स्वभाविक है ।
अनूदक औदिच्य की काव्य क्षमता मूल रचनाकार के सर्वदा
समतुल्य है । इसका शब्द चयन, बिम्ब विधान और भाषा-भित्ति के
रेखांकन इतने अप्रतिम हैं कि कहीं-कहीं रचना के मूल स्वरूप में इतनी परिपूर्णता का
अनुमान करना भी कठिन प्रतीत होता है । बधाई ।
३५ ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल ४६२०१६