Monday 28 March 2016

सरस्वती सभ्यता का पुनरावर्तन

समीक्षा 

सरस्वती संस्कृति के विस्तार के अन्तःसाक्ष्य 
प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम

श्री विनोदकुमार श्रीवास्तव ने अपने विषयोक्त शोधयात्रा-वृत्त ‘चित्रांश’ को कोष्ठक में (वैदिक कालीन प्रयोगधर्मी उपन्यास) कहा है. कहने को इसे मात्र ‘वैदिक युगीन उपन्यास’ भी कहा जा सकता था, किन्तु संभवतः लेखक अपने ‘प्रयोग’ को नितांत ‘मौलिक’ (प्रथम!) मानकर इसे इस प्रकार अभिहित कर रहा है. लेखक का अपना यह विश्वास स्वाभाविक है. अपनी विषय वस्तु के प्रति उसकी शोध वृत्ति और प्रतिबद्धता अव्वल दर्जे की है. 
सरस्वती सभ्यता पर पुरातात्त्विक शोध और वेद पर आधारित उसका अन्वीक्षण भारतीय दृष्टि का अभिनव प्रकल्प है. इस क्षेत्र में देश और विदेश के विद्वान् इन दिनों बहुत गहनता से सन्नद्ध रहे हैं. अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिम और योरुप के इतिहासकारों ने आर्यों के उद्गम और उनके आक्रमण का जो सिद्धांत गढा था, वह केवल भारतीय जीवन से अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के लिए था. वे इसके द्वारा केवल यह जताना चाहते थे कि वे पहले भी आये और यहाँ के मूल निवासी द्रविणों को हराकर वेदादि लिखते हुए यहाँ से चले गए थे. किन्तु तब भारतीय सभ्य होने से पिछड़ गए थे अतः एक बार फिर यहाँ राज करते हुए भारतीयों को शिक्षित करने का पुरषार्थ वे पुनः पूरा कर रहे हैं ! इस व्युत्पत्ति का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव जो योरोपीय विचारक छोड़ कर गये वह भारत की समग्रता में दक्षिण और उत्तर की खाई- आर्य और द्रविड़ अथवा सुर और असुर के रूप में काम करती आई है. इस सिद्धांत का यद्यपि भारोपीय भाषा-मूल संस्कृत को लिया गया, किन्तु इसके समाधान की जैसे किसी को आवश्यकता नहीं थी कि एक पर्यटक वर्ग इतनी बड़ी संस्कृति की विरासत छोड़कर किस लोक में अकस्मात् कैसे विलीन हो गया तथा उसकी भाषा, बुद्धि और ज्ञान से आलोकित मेधा अंततः कैसे प्रलुप्त हो गयी ! अब सिन्धुघाटी की सभ्यता के तार सरस्वती की विलुप्त धार से जोड़ने पर जिस वैदिक संस्कृति की झलक अनेक इतिहासकार और पुरातत्त्वविद देख पा रहे हैं, उसे भूगर्भ विज्ञानी अद्ध्यात्म चेता विद्वान् श्री विनोदकुमार श्रीवास्तव ने उस युग की तहों में सयत्न झांककर पुनर्जीवित करने का जो प्रयास इस पुस्तक में किया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए. 
लेखक ने इस अर्थ में भरपूर ईमानदारी का परिचय दिया है कि उसने अपने उपन्यास में यथास्थान सभी सन्दर्भ और फुटनोट दे दिए हैं. वेद के अनेक द्रष्टा ऋषियों को उनके दिव्य साक्षात्कार से प्राप्त मंत्र का प्रसंग उपस्थित कर उन्हीं के शब्दों में उनका प्रवर्तन भी कराया है. इसके लिए उसने वेद और पुराण दोनों का आश्रय लिया है. वेद के व्याख्याकारों का मत है कि चूंकि वेद के मंत्र परोक्ष शिल्प में कहे गए हैं, अतः उनका सही अर्थ पुराोंद्वारा उपब्रह्मण के आधार पर ही संभव है. इस अर्थ में पुराण की कथाएँ वेदों के कथ्य का ही विस्तार हैं जिन्हें ठीक से समझा जाना चाहिए. इस लेखक की यह चेष्टा भी इस अर्थ में महत्व रखती है. 
लेखक ने जैसा कि पुस्तक के उपसंहार में दर्शाया है ‘ इस उपन्यास में वर्णित मित्र और चित्रादित्य की कथा का संकेत स्कन्द पुराण के प्रभास खंड में दिया गया है. स्कन्द पुराण के अनुसार स्वर्ग में धर्मराज ने चित्रादित्य के सम्बन्ध में सुना तो सोचा कि यदि यह मेरा लेखक हो जाता है तो अच्छा होगा. ...उन्हें सशरीर यमलोक उठा ले गए. वहां चित्रादित्य चित्रगुप्त के रूप में प्रसिद्ध हुए.’ (पृष्ठ १८४) इस प्रकार प्रकारांतर से यह इस उपन्यास के प्रधान पात्र मित्र की इसी भूमिका का इस पुराकथानक के माध्यम से पुनर्स्थापन है. 
पुस्तक में सुर और असुर संस्कृति तथा आकाश और पृथिवी के देवताओं की युति और संघर्ष कथानक के विकास का मुख्य आधार है. इनका वस्तुतः मूल एक ही है. कश्यप के पुत्र विवस्वत के दो पुत्र थे- मनु और यम. किन्तु इस तीसरी पीढी में दो भाईयों के बीच की दरार महासमुद्र बन जाती है. मनु के वंशज सुर और यम  के वंशज असुर कहलाते हैं. सुर अग्नि पूजक, यज्ञवेत्ता हैं और असुर शिव के लिंग पूजक हैं. सुर गौर वर्ण आकर्षक, कला प्रिय हैं तथा असुर श्याम वर्ण युद्ध प्रिय. सुरों के द्रष्टा ऋषि वशिष्ठ (आश्चर्यजनक तौर पर यहाँ ब्रह्स्पति छूट गए हैं!) और असुर गुरु शुक्राचार्य इन दो वर्गों में एकजुटता के लिए सचेस्ट हैं, किन्तु ययाति-देवयानी और शम्बरासुर की प्रेम-त्रयी इनके संघर्ष का प्रमुख कारण बनती है. लेखक ने इनके संघर्ष का किसी पुराण के समाधान के स्थान पर वैदिक समाधान खोजते हुए इंद्र की भूमिका भी अभिनिर्धारित करदी है. लेखक के अनुसार वेद में वर्णित शम्बरासुर के ९९ नगरों का इंद्र द्वारा ध्वस्त किया जाना वह महा भूस्खलन है जिसने आज से छः सात हजार साल पुराने इतिहास और भूगोल की दिशा का परिवर्तन कर दिया था. 
लेखक ने जिस कालखंड को अपने इतिवृत्त में समेटा है उसमें वेद और पुराणों का समय गड्ड-मड्ड हो जाने से इसके सामान्य परिचय से विज्ञ पाठकों को कुछ असुविधा हो सकती है. सबसे पहले ययाति और देवयानी की कथा को ही लें. यह महाभारत का बहुत प्रसिद्ध आख्यान है- महाभारत जिसे भारतीय वांग्मय में इतिहास की संज्ञा दी गयी है. महाभारत के आदिपर्व में यह आख्यान अध्याय २० से २४ तक बहुत विस्तार से आया है. देवयानी का ययाति से विवाह श्राप और दुर्घटना का परिणाम था, प्रेम का नहीं. प्रेम तो वह ब्रहस्पति पुत्र कच से करती थी, किन्तु कच को वह अपने अनुष्ठान बस स्वीकार्य नहीं थी. जहां तक सुर और असुर के सम्मिलन की इस कड़ी के उपयोग की बात है, तो यह परिणाम तो इस कथा में स्पष्ट परिलक्षित है क्योंकि कालान्तर में असुर राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिस्ठा ययाति की दूसरी पत्नी बनती है. लेखक ने अपने कथानक में एकसाथ जितनी पीढ़ियों के राजा एकत्रित छोड़ दिए हैं, वह भी पुराण के अध्येता को बिसमय बिस्फारित करेगा. सूर्यवंश के राजाओं की कतार में यहाँ जहां अज और दशरथ एक साथ उपस्थित हैं वहीं चंद्रवंशियों में नहुष और ययाति भी खड़े हुए हैं. किन्तु इसमें भगीरथ के प्रपौत्र और नाभाग के पुत्र अम्बरीष की उपस्थित कैसे हो सकती है, यह विचारणीय है. इसी प्रकार लेखक ने ऋग्वेद और अथर्ववेद के ऋषियों को भी एक साथ उपस्थित कर(पृष्ठ 40) काल सीमा का बड़ा अतिक्रमण किया है. ज्ञातव्य है कि अथर्ववेद बहुत उत्तरवर्ती है. एक लम्बे अरसे तक वेदत्रयी (ऋक्सामयजुरेव च / गीता ९-१७)) की ही चर्चा रही. यह भी प्रमाण है कि जहां ऋग्वेद में बार-बार सरस्वती का उल्लेख आता है वहीं अथर्ववेद में ऐसा नहीं है. इसीलिये विद्वानों ने यह अवधारित किया है कि अथर्ववेद की रचनाकाल तक सरस्वती लुप्त हो चुकी थी. महाभारत ३.१३०.३-५ के अनुसार निषादों और म्लेच्छों से द्वेष होने के कारण सरसवती नदी ने इनके प्रदेशों में जाना बंद कर दिया था जो इसके सूखने की अवस्था दर्शाती है.    
उपन्यास के कथा विन्यास में प्रवेश करते हुए इसमें अनेक विशेषताएं द्रष्टिगोचर होती हैं. लेखक बाल, वृद्ध, स्त्री, ऋषि, राजा और सामान्य व्यक्ति के मनोभावों को कुशलता से प्रकट करने में सक्षम है. उसने सिंधुघाटी क्षेत्र के मोहनजोदड़ो आदि क्षेत्रों की हजारों वर्ष पूर्व की भोगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के आकल्पन में योग्य क्षमता का परिचय दिया है. सरस्वती और उसकी सहायक नदियों के आसपास नौकायन, संचार और आध्यात्मिक सम्मेलनों की परिकल्पना से बहुवर्णी पात्रों का जमघट खड़ा करना कथानक के विस्तार में सहायक है. विशपति मित्र-मुग्धा और ययाति-देवयानी के प्रेमालाप के चित्र आकर्षक हैं. मित्र द्वारा मुग्धा के सामने प्रस्तुत सरस्वती का यह काव्य-वैभव मनोरम है- 
‘ सरस्वती नदी को देखो. श्वेत बालू की सेज पर कैसे स्थिर भाव से सो रही है. उसके निर्मल ह्रदय पर तरंगों की छाया रूपी केश लहरा रहे हैं. उसके जल में तारों भरे आकाश का प्रतिबिम्ब जैसे उसका झिलमिल आँचल हो. नदी में यत्र-तत्र छोटे-छोटे जलागार प्रवाह से दूर ऐसे बिखरे पड़े हैं जैसे सरसवती की हथेलियाँ हों. उनमें वे तारों के चमकीले रत्न सहेजे हों. एक तपस्वी बाला की तरह सरस्वती जैसे अपनी क्षीण काया लिए लेटी हो.’ (पृष्ठ ६)
इसी प्रकार देवयानी का यह सौन्दर्य बिम्ब बहुत प्रभावशाली बन पड़ा है- 
‘ सूर्योदय से पूर्व पूर्व-दिशा की लालिमा के पावन प्रकाश से मुग्ध समीर देवयानी की कंचुकी पर ढके रेशमी उत्तरीय को आंदोलित कर रहा था. किन्तु रेशम और उन से बने मोटे अधोवासस स्वर्ण, रजत, सूर्यकांत, वैदूर्य और शंखों के बने आभषणों के बोझ से सुरक्षित थे. ययाति बहते समीर की तरह पापी नहीं था. इस कारण देवयानी की कान की बालियों से सुसज्जित मुख पर ही दृष्टि साधे था.’ (पृष्ठ ५६)
उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र मित्र चित्रादित्य के चरित्र विकास पर अवश्य अनेक प्रश्न उभर कर सामने आते हैं. सा इसलिए भी है क्योंकि लेखक ने स्कन्द पुराण में उल्लेखित परन्तु परम्परा से पोषित चित्रगुप्त की आदि भूमिका निर्धारण का संकल्प साधा हुआ है. यद्यपि मित्र के चरित्र में त्याग की पराकाष्ठा है (यह आश्चर्यजनक ही है कि वह समाज, राज और परिवार के मत से भिन्न अपनी सैद्धांतिक नीतिमत्ता के आधार पर कुछ दास बालकों की मुक्ति के लिए स्वयं असुर राज का दासत्व स्वीकार कर लेता है), किन्तु यह कहानी को अपेक्षित निष्कर्ष के धरातल पर नहीं पहुंचा पाती. असुरों के सुरापान के बीच पद्मा का शिव तांडव नृत्य ‘ॐ नमः शिवाय’ की थापों के बीच संगत नहीं है.
पृष्ठ ९६ पर लेखक ने ‘भूसुर’ की व्याख्या एक नए अंदाज में इस प्रकार की है- 
‘इस राज्य का अधिपति वैसे ऋषि ही होता था किन्तु अपने इंद्र जैसे गुणों के कारण उसे नगरों के देवता भूसुर के रूप में नरेन्द्र कहा जाता था. बाद में नरेद्र सभी राजाओं का पर्यायवाची हो गया.’
लेखक की यह व्याख्या भारतीय शास्त्र सम्मत नहीं है. जिस तरह ‘सुर’ स्वर्ग का राजा नहीं हो सकता वैसे ही ‘भूसुर’ धरती का राजा नहीं होता. नरेन्द्र निश्चित ही धरती का इन्द्र अर्थात राजा का पर्याय है, किन्तु ‘भूसुर’ धरती के देवता अर्थात ब्राह्मणों का ही वाचक रहा है. इसे ऋषि अथवा राजा का वाचक माना जाना प्रमाणिक नहीं है.  
पुस्तक में वर्ण व्यवस्था को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हुए लेखक ने चतुर्थ वर्ण को सेवक, दास अथवा ‘अवर्ण’ के रूप में पहचान कराते हुए एक विचारणीय टिप्पणी की है-  
‘कायथा आश्रम वाले वर्ण व्यवस्था का विरोध करते रहे. कुछ सदियों तक वर्ण व्यवस्था से पूर्ण सम्बन्ध तोड़कर अपना समाज बना लिया. अवर्ण कहलाये. माता अदिति के दोनों पुत्रों वैवस्वत मनु एवं वैवस्वत यम वंशियों के इस द्वंद्व को ब्राह्मण ग्रंथों में गोनीय रखा गया. इस द्वद्व के चलते व्यंग्य करते हुए यम के वंशियों ने चित्रादित्य को चित्र महावशिष्ठ की उपाधि भी दी.’ (पृष्ठ १८२)
यह कोई बड़ी दूर की कोडी बिठाई गयी है. इस प्रसंग में संदर्भित ऋग्वेद मंडल १० के सूक्त १२२ के ऋषि का वास्तविक नाम ‘चित्र महावशिष्ठ’ न होकर ‘चित्रमहा वशिष्ठ’ है जो वशिष्ठ कुल के एक ऋषि का नाम है. लगता है लेखक ने ऋषि का यह नाम वेद के ऐसे भाष्य से उठा लिया है जहां यह अशुद्ध छपा है. और इसको साधन बनाकर वर्ण व्यवस्था का विरोध करते हुए ‘वर्ण’ पर आकर ही ठहर जाना कौन सा विवेक कहा जा सकता है ! यह एक विडंबना ही बनी रहती है कि विदेशी शक्तियों और शासकों ने भारत की अन्तर्निहित नैसर्गिक एकता को छिन्नभिन्न करने के जो नाना उपक्रम किये, उनसे यह लेखक नहीं उबर सका. देश को आर्य और द्रविड़, सुर और असुर तथा स्वामी और दास की श्रेणियों में बांटने के आक्रान्ता शक्तियों के दुष्चक्र से इस विचारवान युग से अच्छा समय भारतीय चेतना को सुदूर पूर्व कभी सुलभ ही नहीं था. इस दिशा में इतिहासकार सीडनबर्ग, नवरतनम, एस बी लाल, एस राजा राम और डेविड फ्राली आदि के निष्कर्ष बड़ी दूर तक सहायक हो सकते हैं.  
कृतिकार द्वारा जैसा कि पुस्तक के परिशिष्ट भाग में प्रमाणित भी किया गया है, सप्त सैन्धव’ भूभाग का भौगोलिक आकल्पन और देवनागरी वर्णमाला तथा संख्या के ताम्रश्मयुगीन हड़प्पा काल से वर्तमान कल तक के विकास का रूपांकन विचारणीय तो है ही, शोध की महत्वपूर्ण दिशा का प्रवर्तन करता है. इसके लिए लेखक बधाई का पात्र है. 
लेखक मूलतः विज्ञान का वेत्ता है, किन्तु पुरातन भारतीय मनीषा, इतिहास और हिन्दी साहित्य के गहरे प्रवेश ने उसे शून्य में भी चित्र उकेर देने की क्षमता प्रदान की है. यद्यपि एक सर्जक की क्षमता मूल मानवीय संवेदना और व्यवहार की रेखाओं के सहारे किसी भी युग के कथानक के पुनर्सृजन का माद्दा रखती है, किन्तु उसे तत्कालीन समाज, इतिहास और भूगोल में व्यवस्थित कर पाना बड़ी कारीगरी ही हो सकती है. 
पुस्तक स्थानीय तौर पर मुद्रित और प्रकाशित है. इसमें मुद्रण और प्रूफ की त्रुटियाँ अनेक हैं. ‘श्र’ से बनने वाले ‘शृंखला’ आदि शब्द प्रत्येक स्थान पर ‘श्रृ’ से ही आरम्भ होते हैं. इसी तरह ‘सृष्टा’ के स्थान पर ‘स्रष्टा’ ही शुद्ध है. पृष्ठ 154 पर ‘अम्बरीष’ के अत्याचार की जगह ‘शम्बरासुर’ का अत्याचार होना चाहिए.                 
       सारतः मुझे बहुत प्रसन्नता है कि वैदिक पृष्ठभूमि पर एक महत्वपूर्ण रचनात्मक संसृष्टि ‘चित्रांश’ कृति में हिन्दी जगत को सुलभ हुई है. अंत में मैं सहमति पूर्वक पुस्तक के भूमिकाकार श्यामसुंदर दुबे के इस अंश को उद्धृत कर अपनी बात समाप्त करता हूँ- 
‘ वे प्रसंगों को श्रंखलित करने में जातीय स्मृतियों के ताने बाने का प्रयोग करते हैं. वे अपने भाषा तल्प पर उस युग को जीने लगते हैं जो हजारों वर्षों की प्रतीति अपनी शाब्दिक संरचना के माध्यम से (केवल एक वर्ष में) प्रदान कराता है.
३५ ईडन गार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल १६ (९४२५०७९०७२)   
कृति चित्रांश 
कृतिकार- विनोदकुमार श्रीवास्तव 
प्रकाशन- ग्लोबल ग्रन्थ, दमोह, मध्य प्रदेश / मूल्य २०० रुपये