Monday 10 December 2012

Cooperative Development in Independent India


Book Review
                                                   P D Mishra
                                    (  Former member MP State Cooperative Tribunal and Additional Registrar Cooperative Societies, Mp  )

1150 pages long book ‘Cooperative Development in  Independent India (December 1947-May 2012)’ written by co-authors Dr. Balram Jakhad and Dr RC Dwivedi is a witness record of the growth and evolution of the  great system of Indian social and administrative life. As the patriarchs in their plus eighties still strive to stand for the ‘regeneration of ethical values’ in the movement, there are definite challenges before it now for its survival as well. Where do political parties ever cooperate even when there is the pride and property of the Nation at stake these days! As a matter of fact, the movement is now seen more as a tool of meeting the ends of the ruling political party only. This brief history can thus be summarized as the history of a tussle between the ‘autonomy’ of the movement as against the ‘control’ and ‘supervision’ of the State!
But the virtual record in it is much more than just the history. It goes deep well into the spirit and tells how it helped the economy of a developing country rise fast with wings unfettered.
From the point of its early shape by the state governments as their sole subject till the 111 Constitutional Amendment of making it people’s fundamental right and the directive principle of the State, Cooperation does deserve a greater attention of all those who wish India emerge as the world Economic Power. This book is a definite pointer of this direction.
I wish that all cooperative institutions not only go possess it but also offer their officers and office bearers reach it for their benefit and the betterment of the people and society.

Book-Cooperative Development in Independent India
Authors-Dr Balram Jakhad and DR RC Dwivedi
Publishers- Centre for Promotion of Cooperative Movement
D-64, Saket, New Delhi 110017
Price- Rs.1500
                                                                              
www.vishwatm.com

Friday 5 October 2012

वेद व्याख्या की वर्तमान धाराएँ



             वेद व्याख्या की नई धाराएँ
                            प्रभुदयाल मिश्र
वर्ष 2007 से जबसे ऋग्वेद की पहली परंपरा विषयक शोध श्रंखला का नया ज्ञानोदय में प्रकाशन आरंभ हुआ तब से मैं लगभग नियमित रूप से इसे पढ़ रहा हूँ । इस पत्रिका मे सबसे पहले मैं इसी आलेख को पढ़ता हूँ  और दूसरों को भी प्रायः पढ़ने देता  हूँ। कभी कभी तो मेने पत्रिक़ा  मे केवल इसी आलेख को ही पढ़ा, और इसी आलेख के लिए जैसे मुझे इसकी प्रतीक्षा भी थी। श्री भगवानसिंह जी ने इसका आरंभ करते हुए  हुए अपनी विशेष मान्यताओं के ऊपर प्रतिक्रियाओं का भी आह्वान किया था। मुझे याद है पहले लेख पर राधावल्लभ त्रिपाठी ने यह आक्षेप लिया था कि विना संदर्भ दिये अब तक की ज्ञात परंपरा को आक्षेपित करना उचित नहीं है। श्री भगवान सिंह जी ने जहाँ त्रिपाठीजी के तर्कों का उत्तर दिया वहीं उन्होने आगे वेद के सभी संदर्भों को देना स्वीकार किया। इस संबंध मे मेरी श्री त्रिपाठीजी से भी बात हुई। मुझे यह समझना आसान नहीं था कि आरंभ में  संदर्भ न देकर लेखक ने बाद मे क्यों इसे क्यों आरंभ कर दिया ! मैं  सोचता हूँ कि संभवतः आरंभ मे श्री सिंह साहब उपनिषद् की  कहानियाँ अथवा अपने अपने राम की तरह अपने अपने वेद जैसी कोई साहित्यिक शृंखला लिखना चाहते होंगे किन्तु कालांतर मे उन्होने इसे एक सम्पूर्ण शोध का ही स्वरूप देना उचित माना। जो भी हो एक प्रकार से उनकी अपनी मेधा और वर्तमान की आवश्यकता की दृष्टि से यह उचित ही है।
इस संबन्ध मे आगे कुछ कहने के पहले मुझे एक संस्मरण बहुत तीव्रता से याद आ रहा  है। मैंने आसमान मे इंद्रसभा शीर्षक वाले आपके आलेख को डाक्टर प्रभु दयालु अग़्निहोत्रीजी  को पढ़ने को दिया था। उन्होने उस पर एक लंबी प्रतिक़्रिया लिखकर उसे मुझे अपने पत्र के साथ साथ भेजने को दी । इसका एक अंश मैं  आप सबको उसकी और उनकी याद ताजा करने के आशय से उद्धृत कर रहा हूँ-
            पहली परम्परा वह है जहॉं से पणियों और स्थानीय जनों के बीच संघर्ष प्रारंभ होता है। पणियों का नेता था - शम्यु जो प्रायः स्थानीय आदर्श शासक सुदास पर आक्रमण करता रहता था। दोनों के बीच प्रसिद्ध सरस्वती नदी बहती थी। सुदास् के राज्य की उत्तरी सीमा परूषणी नदी थी। शम्यु की अपनी सेना थी जो प्राचीन भारतविरोधी पणि सैनिकों से बनी थी। एक बार लगभग आधी रात के समय शम्यु ने कुछ सैनिकों को लेकर परूषणी का तटबन्ध काट दिया और इस प्रकार क्रतुक्रिया के समर्थक सुदास् के नगर को जलाप्लावित कर सारी बस्ती में हाहाकार मचा दिया। सब लोग अन्धकार में परिवारजनों और सम्बन्धियों को ढूंढने के लिये क्रन्दन कर रहे थे। तब सुदास् ने नागरिकों का चीत्कार सुन कर अपने विश्वस्त वास्तुविदों को बुलाया और उन्हें साथ लेकर अपने गुरू वशिष्ठ ( जिन्हें मैत्रावरूणी भी कहते थे ) के साथ परूषणी के तट पर पहुंचकर दो प्रहर तक घोर परिश्रम करके नदी के तोड़े हुये तटबन्ध को ज्यों का त्यों बॉंध दिया। अपने परिश्रम को विफल देखकर शम्यु लज्जा के साथ जाकर पर्वतीय गुफा में छिप गया। जनता की रक्षा प्राचीन भारत की पहली परम्परा थी। श्री भगवान सिंह चाहते तो भारत की दूसरी परम्परा पर दृष्टि डाल सकते थे । यह परम्परा थी शत्रु के राज्य को नष्ट करके भी उस पर आधिपत्य न जमाने की। यदि उन्होंने सेनापति पुष्यमित्र के आचरण की ओर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो उन्हें कामुकता के स्थान पर नयी परम्परा दिखाई दे सकती थी। पुष्यमित्र ने वेद विरोधी शासक राजा वृहदरथ की सैन्य निरीक्षण के समय हजारों सैनिकों के सामने हत्या कर दी। तब मगध का राज्य पुष्यमित्र के हाथ में आ गया किन्तु पुष्यमित्र ने महाराज पदवी को स्वीकार न कर स्वयं को सेनापति कहलाना ही उचित समझा। इस वंश ने पुरानी परम्परा को स्थिर रखते हुये साकेत में अश्वमेध यज्ञ के प्रथम ऋत्विक महाभाष्य के कर्ता महर्षि पत´जलि  थे। तो ये थीं भारतीय परम्पराएं। परम्परा किसी एक घटना से नहीं बनती। बार-बार किये जाने से कोई कृत्य परम्परा बनता है। प्रजा रक्षण भारत की परम्परा है।
            श्री भगवान सिंह ने अपनी लम्बी-चौड़ी खोज के बाद वैदिक मान्यताओं को केवल कामी और लोभी की परम्परा के रूप में देखा है जो न केवल भ्रान्ति या अन्याय है अपितु अपराध भी है। उन्होंने अपने लेख में एक शीर्षक भी दिया है- आसमान में इन्द्रसभा। जिस अर्थ में उन्होंने आसमान शब्द का प्रयोग किया है उस अर्थ में किसी भारतीय ग्रन्थ में आसमान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । और इन्द्रसभा? वह तो सर्वथा असत्य है क्योंकि आसमान में ऐसे इन्द्रों की सभा किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। मेघ कभी सर्वोच्च देवता नहीं रहे और न वह वर्षा के देवता ही थे। वैदिक साहित्य में इन्द्र का स्थान स्वाभाविक वर्षा के मार्ग में आने वाली बाधाओं यथा घने घिरे हुये प्रावट् मेघों को छितरा कर इधर-उधर ले जाने वाली बाधक शक्ति को मार्ग से हटा कर वर्षा के लिये उचित और अनुकूल मार्ग बनाना है। इस प्रसंग में कई मन्त्रों मे  शम्बर जैसे इन्द्र विरोधी शत्रुओं का उल्लेख किया है। इन्द्र इनका हन्ता है। फिर श्री वर्षा के देवता पर्जन्य हैं। ऋग्वेद में पर्जन्य सूक्त में यह बात कही गई है।
 यह प्रतिकृया और श्री सिंहजी का उत्तर जून 2008 के अंक मे छपा। श्री भगवानसिंह जी को अपना उत्तर पूरा करते हुए अग्निहोत्री जी की  मृत्यु कि सूचना मिल गई थी अतः उन्होने उत्तर मे उसका भी उल्लेख किया । स्वाभाविक रूप से श्री भगवानसिंहजी अपने मत पर तो दृढ़ थे ही उन्होने आक्षेपों पर अपने आपको संयत भी रखा।
 परंपरा की  दृष्टि पर विचार करते हुए यह समझा जा सकता है कि इस दिशा और धारा से पीछे की ओर जाने मे एक प्रमाणिकता का अनुमान होता है। इतिहास जैसे हमसे कटा रहता है। पुराण या मिथकों मे जाना तो एक प्रकार से साहित्यिक कथा कहानियों क़ी तुलना मे किसी और गहरी स्थूलता मे उतरना जैसा है। अतः श्री भगवान सिंहजी ने जब वेद, विशेषकर प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद की परंपरा मे जाने का अनुष्ठान किया है तो वे उस मूल की तह मे जाने के लिए सचेस्ट हैं जिसने हमें गढा है। इससे हम अपने पुरखो के साथ अपने आप को भी ठीक से समझकर अपने विकास के अच्छे पैमाने खोज सकते हैं।
वेद के अध्ययन की  दृष्टिया इनके रचनाकाल से ही अनेक रही हैं। वेद भाष्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है । इसकी दिशायें भी अनेक हैं । यह अपने आपमें आश्चर्य ही है कि वेदों के इतने व्यापक कलेवर को भारतीय मनीषा ने कण्ठस्थ रखते हुए भी उसके अर्थ के उद्घाटन में उतनी तत्परता और निश्चयात्मकता की आवश्यकता नहीं समझी । यह और भी विस्मयकारी है कि अनेकानेक व्याख्या पद्धतियों के प्रणयन और प्रचलन के बाद भी आज जैसे वेद के मूल अर्थ के खोज की आवश्यकता बनी हुई है । अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत परक वेद व्याख्या की प्राचीनतम पद्धति इस व्याख्या की दिशाओं के वैविध्य का ही संकेत देती है । पूर्व मध्यवर्ती काल में अधियज्ञ के अंग के रूप में याज्ञिक कर्मकांड ने यद्यपि वैदिक संनिष्ठा में वृद्धि की किन्तु वेदों की अर्थ निष्पत्ति विविध आयामों में ही भटकती रही । वेदांग काल में यास्क की निर्वचनमूलक व्याख्या यद्यपि एक दृष्टि से बहुत वैज्ञानिक थी किन्तु उसकी बहिरंगता भी अप्रकट नहीं कही जा सकती । उपबृंहणात्मक वेद की व्याख्या में इतने पुराणों के लिखे जाने के बाद भी यह कहना कठिन है कि इस पद्धति से वेदों का कितना ज्ञान सुलभ हुआ है । आधुनिक युग में पश्चिम के विद्वानों ने सायण भाष्य और तुलनात्मक भाषावैज्ञानिक पद्धति का आश्रय लिया । स्वभावतः इन दृष्टियों की भी स्वतः की सीमायें थीं। वर्तमानयुग में ऋषि दयानन्द जहां वेद संहिता के पुनर्जागरणकर्ता के रूप में प्रख्यात हैं वहीं श्री अरविन्दो वेदों की मनोवैज्ञानिक रहस्यात्मकता और श्री मधुसूदन ओझा इनकी पराभौतिकी वैज्ञानिकता के पक्षधर रहे हैं । निश्चित ही वर्तमान युग के ये मनीषी, जिनमें वेदों के भाष्यकर्ता श्रीपाद दामोदर सातवलेकर विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं, ने वेदाध्ययन में अनेकशः हमें प्रवृत्त और प्रतिबद्ध किया है तथा वे हमारे भविष्य के भी प्रेरणा पुंज हैं । श्री अरविन्दो की परंपरा में श्री कपाली शास्त्री और श्री अनिर्वाण के क्रमशः सिद्धान्जन भाष्य और वेद मीमान्सातथा श्री मधुसूदन ओझा की परंपरा में श्री गिरधर शर्मा चतुर्वेदी आदि ने इन विशिष्ट धाराओं का सर्वथा संवर्धन किया है ।
श्री टी वी कपाली शास्त्री ने ऋग्वेद के सिद्धान्जन भाष्य भाग 4 में अपने भाष्य की 83 पृष्ठ की संस्कृत मूल के लगभग समान अंगेजी भाष्य सहित विस्तृत भूमिका में वेद भाष्य विषयक श्री अरविन्दो के दृष्टिकोण को भी स्पष्ट किया है । इसमें उन्होंने भाष्य की प्रेरणा विषयक पृष्ठभूमि में सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन की उस दृष्टि का मुखर विरोध किया है जिसमें श्री राधाकृष्णन ने श्री अरविन्दो की उस धारणा को अस्वीकार्य माना था जिसके अनुसार वेद संहिताओं के ऋषियों के मन्त्र वाक्यों को कालान्तर में समझा नहीं गया क्योंकि वैदिक द्रष्टा ऋषियों की प्रतिभा का उनमें समावेश निःशेष हो चुका था । राधाकृष्णन जी का इस संबंध में प्रश्न था कि यह कैसे हो सकता है कि प्रातिभ ज्ञान की यह परंपरा भारत में वैदिक ऋषियों के साथ ही एकदम विलुप्त हो गई तथा आज वह वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति में दक्ष तुलनात्मक सान्स्कृतिक अध्ययन से ही यह प्रतिफलित होने लगी हो! श्री कपाल शास्त्री ने अपने प्रभूत ज्ञान, अध्ययन और प्रकट श्रद्धा भाव से तर्क, दृष्टान्त तथा अपने विश्लेषणों से यही सिद्ध करना चाहा है कि श्री अरविन्दो की दृष्टि न केवल मन्त्र द्रष्टा ऋषियों की क्रान्तदर्शी मेधा का साक्षात्कार करती है, अपितु वह आज की मानवता के सुनिश्चित संतरण हेतु भी संकल्पित है । हमारी विडम्बना यह है कि श्री कपाली शास्त्री जी का ऋग्वेद का भाष्य अपने 12 खडों में ऋग्वेद मंडल 1 के 121 सूक्त के आगे नहीं पहुंच सका है।
पहली परंपरा की खोज लेख शृंखला मे श्री  सिंह ने  दिसंबर 2007 के आलेख मे आर्यों के भारत मे बाहर से आने के प्रश्न पर कार्लिन रेनफू के अनातोलियाई उद्भव सिद्धान्त' की विस्तृत समीक्षा करते  हुए ही स्थापित किया है कि   कृषि विद्या का आविष्कार भारत मे हुआ था । ये कृषिकर्मी पूर्व से चलकर कुरुक्षेत्र मे पहुंचे थे और उसे व्यवस्थित खेती के  उपयुक्त बनाकर ही संतुष्ट नहीं हुए थे अपितु नए क्षेत्रो की तलाश मे इनके कुछ जत्थे समय समय पर आगे बढ़ते हुए तुर्की तक पहुंचे थे। यदि यह सच है तो बीज रूप मे प्राचीनतम भारतीय भाषा के तत्वों का प्रसार उस कल से हजारों साल पहले हो चुका था जिससे हम बोग़ाजकुई के अभिलेखो और केन्स के असीरियाई अभिलेखो के माध्यम से परिचित हैं।  उल्लेखनीय है की इस आलेख मे बौद्ध।यन श्रौत्र सूत्र के हवाले उर्वसी के दो बेटों -आयु और अमावसु के क्रमशः पूर्व और पश्चिम की ओर प्रस्थित होने के प्रश्न पर बडी सूक्ष्मता से विचार किया गया है।
इसकी चर्चा मैने कुछ विस्तार से इसलिए भी की क्योंकि श्री अग्निहोत्री ने मूलतः यह प्रश्न उठाया था की परंपरा की खोज के नाम पर की गई खोज के परिणाम भी तो सामने आने चाहिए। 
आगे श्री भगवानसिंहजी भाशाशास्त्रीय अध्ययन परंपरा को सर्वथा एक नया आयाम देते हैं। सितम्बर 2012 के नया ज्ञानोदय के अंक मे अपने इस दिशा संबन्धित तीन सूत्र इस प्रकार दिये गए हैं-
1। हमारी लोकभाषाएं संस्कृत से नहीं निकली हैं । वे तो वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं।
2। वे संस्कृत से अधिक समृद्धध हैं।
3। सभी बोलियाँ अनगिनत बोलियों के बिपाक से बनी हैं.
श्री भगवानसिंहजी की स्थापना है कि वेदों के काल मे पहुँचने के लिए वेदों की भाषा को उसके मूल मे समझना आवश्यक है। इसके लिए एक तो संस्कृत भाषा का मार्ग है और एक मार्ग है जन भाषा का। विद्वान विचारक के मत मे जन भाषा के अध्ययन द्वारा हम वेद की भाषा ही नहीं वेद के मूल तक भी पहुँच सकते हैं। 
 यह स्थापना अभिनव और विचारोत्तेजक है । वहीं इसकी जोखिम को भी समझना उचित होगा। प्रश्न यह है कि क्या जनभाषा, बोलियाँ  एक व्याकरण सम्मत विशालकाय साहित्य संरचना के सागर को प्रभावित करती है? क्या बोलचाल और साहित्य की  भाषाओं के भेद को लेकर चलना साहित्य, भाषाशास्त्र और सांस्कृतिक आरोह के सिद्धान्त के अनुरूप है? आखिर भाषा का धातु रूप बोलियों पर आश्रित है अथवा बोलियाँ कालांतर में भाषा के समानान्तर ही इसका  संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि के रूप  में विस्तार करने में स्वतः समर्थ होती हैं?    
प्राचीन साहित्य मे इस प्रकार की दो प्रकार की भाषा प्रयोग के अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। वाल्मीकि रामायण मे ही हनुमान अपना संवाद जिस भाषा मे राम से पहली वार करते हैं उस पर राम उन्हें संस्कृतनिष्ठ होने का प्रमाण पत्र देते हैं। मध्य युग कि रचनाओं विशेषकर कालिदास, भवभूति आदि के नाटको मे सुशिक्षित और कम शिक्षित पात्र क्रमशः संस्कृत और प्राकृत का प्रयोग करते हैं। यदि यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि लोकभाषा संस्कारित भाषा को प्रभावित करती है तो साहित्य की  भाषा की  उस पर ऐसी निर्भरता और उसके उत्स कि कुंजी या  माध्यम मान लेना कठिन प्रतीत होता है। विशेषकर संस्कृत की  अपनी प्रकट समृद्धि, संभावनाऔं  और व्याकरण की  अनुशासनबद्धता ही इसे इतने अपार साहित्य सृजन के क्षमता प्रदान करती प्रतीत होती है।
भारोपीय भाषा के सिद्धान्त ने हमारा सबसे बड़ा अहित तो आर्यों के नाम पर हमारे ही देश को हमसे पराया बनाने के साथ साथ हमारे देश को भी अप्राकृतिक भागों मे विभक्त किया । जबकि वास्तविकता एक यह है कि  आर्य एक सम्बोधन था, कोई जाति नहीं । हमारे इतिहास और पुराणो मे महानायक राम, उदाहरणार्थ, सीता को आर्ये और सीता राम को आर्य संबोधित करती हैं। अतः  आर्यों के आने जाने के नाम पर इतना फितूर खड़ा करना किसी सिद्धान्त की खातिर सत्य को जैसे झुठलाना ही तो रहा है । सबसे पहले तो मुझे यहाँ अरविन्दों ही याद आते हैं । उन्होने भाषा शास्त्रीय सिद्धान्त पर  जो विचार रखे उन्हें मै उन्हें प्रथमतः उद्धृत करता हूँ –
When Max Muller trumpeted forth to the world in his attractive studies the great  rapprochement, pita, pater, pater, vater, father, he was preparing the bankruptcy of the new science; he was leading it away from the truer clues, the wider vistas that lay behind…. 
The philologists have, for instance, split up, on the strength of linguistic differences the Indian Nationality into the Northern Aryan race and the Southern Dravidian, but sound observation shows a single physical type with minor variations pervading the whole India from Cape Comorin to Afghanistan. (ऑन दी वेदा 565/566)
श्री ओरोबिंदो ने स्वयं भाषा के आधार पर विभाजित संस्कृत और तमिल की एकता पर विस्तार से विचार कर यह भी सिद्ध किया कि अन्यथा भी आर्य और द्रविड़ का भेद स्थिर नहीं रखा जा सकता । जहां तक इस परंपरा और इतिहास के प्रामाणिक अद्ध्य्यन का प्रश्न है श्री औरोबिंदो ने दृढ़ता पूर्वक यही कहा है-
“In this ancient tongue alone, we see not entirely in all the original forms, but in the original essential parts and rules formation, the skeleton, the members, the entrails of this organism. It is through this study, then, of Sanskrit, especially aided by whatever light we can get from the more regular and richly structured among the other Aryan languages that we must seek for our origins.” Page 384   
वस्तुतः हमारी इतिहास दृष्टि और इतिहास के प्रति हमारा आग्रह पशिचमी  प्रभाव का एक दूसरा प्रकोप है जो हमे लगातार अपने आप से दूर ले जा रहा है। आगे विडम्बना यह भी है की जहां इससे पश्चिम अपनी श्रेष्ठता का बोध हमे कराता है वहीं वह हमे अपनी न्यूनता का एहसास कराने से भी नहीं चूकना चाहता है। हम अपने रामायण महाभारत के इतिहास बोध को पश्चिम से प्रमाणित न भी कराएं तब भी पश्चिम की जो इतिहास दृष्टि है उसकी सीमा और इतिहास दृष्टि के अपने विभ्रमों से भी बच पाना क्या आसान काम  है? 
यहाँ मुझे डाक्टर धनंजय वर्मा के साथ हुई अपनी उस चर्चा की भी याद आती है जो रामविलास जी की 2006 की 10 अक्टोबर को पड़ने वाली जन्मतिथि के उपलक्ष्य में कुछ वर्ष पहले साक्षात्कार भोपाल ने छपी थी।  इसमे श्री वर्माँ जी ने कुछ सवाल इस प्रकार उठाए थे – एक बिल्कुल सीधा सवाल -क्या रामविलास जी पुरातत्ववेत्ता हैं ? क्या वे पुराइतिहासज्ञ हैं ? क्या वे पुरानृतत्वशास्त्री हैं ? क्या वे पुराभाषाविद् है ? क्या वे पुरा-भूगोलशास्त्री हैं ? इन सबके अपने-अपने अनुशासन हैं । वे किस आधार पर इनमें से किसी के भी निष्कर्षो को रिफ्यूट कर सकते हैं ? क्या वे ऋग्वेद के विशेषज्ञ हैं ? क्योंकि उन्होंने जो उद्धरण दिए है वे भी सातवलेकर के अनुवाद हैं ।..... मै इनमें से कुछ भी होने का दावा नहीं कर सकता । हॉं , वेद मैंने पढ़े हैं, मगर अनुवाद से और प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का भी मैं एक विनम्र विद्यर्थी रहा हॅूं.... एक जिज्ञासु लेकिन जागरूक पाठक.....उसी हैसियत से मेरे ये सवाल हैं !

इन दिनो राजीव मल्होत्रा की किताब बीइंग डिफ़्रेंटकाफी चर्चा मे है। इसमे लेखक ने पश्चिम के इतिहास  वोध की इस सीमा का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है। लेखक ने इसमे बताया है की जिस इतिहास को अपनी संस्कृति और सोच का वह आधार मानता है उसमे ही अनेक विसंगतियों को दर किनार रखा गया है। विशेषकर इसको लेकर इतना दुराग्रह पालना कि इतिहास की अन्य परिभाषा वाले अविकसित गड़रिये ही थे, अलगाओ की खाई को लगातार फैलाते रहना ही है।
हम लोग इन दिनो अपने अगस्त्य संस्थानम की ओर से कुछ भाष्य संबंधी कार्य कर रहे हैं। हमारे आचार्य दुर्गाचरण जी शुक्ल ने अभी अगस्त्य के 27 सूक्तों के 239 मंत्रों का भाष्य किया है। इस सब पर विचार करते हुए स्वभावतः उन सभी समस्याओं पर ध्यान जाता है जो इस दिशा मे काम करने वालों की  रही हैं। उदाहरण के लिए अगस्त्य एक ध्रुव पद- विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्  का 21 बार प्रयोग करते है   इस संबंध में श्री शुक्लजी ने अपनी व्याख्या में कहा है कि यद्यपि स्कन्द स्वामी और मुद्गल का भाष्य अगस्त्य के इन 27 सूक्तों पर उपलब्ध नहीं है किन्तु वेंकट, सायण, दयानन्द, सातवलेकर तथा श्री अरविन्दो का भाष्य सुलभ है । यह आश्चर्य ही है  कि इसके तीन विशेष पदों इषम्’, ‘वृजनंऔर जीरदानुम्की इन व्याख्याकारों ने अनेकशः व्याख्या की है । उदाहरण के लिए महर्षि दयानन्द ने इषम्  के आठ, वृजनम् के सात और जीरदानुम् के दश अर्थ दिए हैं । श्री सातवलेकर जी ने जीरदानुम् का 9 प्रकार से अर्थ किया हैं । स्वभाविक तौर पर जैसे यह आवश्यकता आज भी शेष है कि हम ऋषि द्वारा प्रयुक्त मूल अर्थ तक पहुचें ताकि उनके द्वारा संद्रष्ट रहस्य सत्य धर्मानुसन्धानुकर्ताओंको सुलभ हो सके ।
इसी तरह एक दिन शुक्लजी ने ऋषिकाओं के मंत्रो पर काम करते हुए ऋग्वेद मण्डल 1 के सूक्त 126 के रोमशा के इस सातवें मंत्र का उल्लेख करते हुए उस पर ग्र्फ़िथ के मत को जानना चाहा । बहुत खोजने पर परिशिष्ट भाग  मे ग्रिफ़िथ का यह मत मिला कि किसी लौकिक प्रेमकथा का संदर्भ यहाँ जुड़ गया है ।  
सरवाहमस्मि रोमशा गांधारीणामिवाविका । ऋग्वेद 1/126/7
एक सहज संवेद्य भाव के रूप में मुझे यहाँ जयशंकर प्रसाद कि कामायनी कि ये पंक्तियाँ याद आ गईं
-मशृण गांधार देश के नील / रोमो वाले मेषो के वर्म / ढँक रहे थे उसका वपु कान्त/ बना था जो अति सुंदर वर्म । 
वेद व्याख्या की  दो दृष्टियों  के संबंध में मुझे ऋग्वेद में ही प्रथमतः जो कहा गया है उसका स्मरण होता है । मन्डल 10 के 71 वें सूक्त  के पहले ही मंत्र में ऋषि ब्रहस्पति ज्ञान देवता से कहते हैं –
बृहस्पते प्रथमम् वाचो अग्रम् यत्प्रैरत नामधेयम दधानः यह जैसे ऋषि दृष्टि है । दूसरे मंत्र में जिस मुनि दृष्टि का संकेत है उसमें कहा गया है- सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत    
एक प्यारी बात वेद मीमांसा में  अनिर्वाण  जी ने कही है। उनके अनुसार एक दृष्टि है ऋषि और एक है मुनि दृष्टि- इस प्रसंग में महर्षि सान्दीपनि वेदविद्या प्रतिष्ठान द्वारा प्रायोजित ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित श्री अनिर्वाण की वेद-मीमांसा के प्रथम खण्ड में परिदर्शित वेदाध्ययन की दृष्टि विषयक यह महत्वपूर्ण कथन मिलता है- देवदर्शन और आत्मदर्शन दोंनों का ही मार्ग समान रूप से अतिप्राकृत अथवा अलौकिक है । ....देववादी भी उस बृहत् को ही बोधिग्राह्य वस्तु के रूप में हृदय के आवेग द्वारा प्राप्त करते हैं, एवं आत्मवादी उसे अपने ही आत्मरूपायन के रूप में आत्मशक्ति के द्वारा प्राप्त करते हैं । वेद की भाषा में एक को आवेगकम्पित विप्र और एक को पौरुषदृप्त नर कहा गया है । एक की प्राप्ति का माध्यम श्रद्धाएवं बोधिया परम ज्ञानहै एवं दूसरे का माध्यम तर्क एवं बुद्धि है ।
मैं समझता हूँ की इतने प्रशस्त पथ को छोडकर इधर उधर भटक कर हम भारतीय संस्कृति की कितनी सेवा कर रहे हैं, इस पर हमारा ध्यान तो जाना ही चाहिए।
 अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम, भोपाल 462016 web. www,vishwatm.com   
pdmishrabpl67@hotmail.com

Tuesday 2 October 2012

महारासलीला

                    कृष्ण की महारास लीला
            
                                  प्रभुदयाल मिश्र
    
   भागवत् भाष्यकारों के अनुसार रास पंचाध्यायी भगवान् के शब्द- वाङ्मय श्रीमद्भागवत का हृदयस्थल है । इसके अंत में भागवतकार ने इसके पारायण की फलश्रुति ‘हृदय रोग’ की निवारक बताई है  (हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण-10-33-40) । स्पष्ट है कि आदित्य हृदय स्तोत्र से भिन्न इसे हृदय पीड़ा निवारक अनुष्ठान के स्थान पर कामविकार से मुक्ति का विधान मानना ही अधिक उचित प्रतीत होता है ।
 निस्संदेह भागवत वेदव्यास की बहुत संश्लिष्ट, वरिष्ठ और विशिष्ट कृति है । जिस रचना की पृष्ठभूमि में चारों वेदांे  का संपादन और 17 पुराणेंा का रचना कार्य रहा हो, उसके रचयिता के विचार और मेधा का स्तर अकल्पनीय ही कहा जा सकता है । भागवत के ध्येय और प्रतिज्ञा कथन में वेदव्यास का संकल्प-सत्यं परं धीमहि ( 1-1-1)-परम सत्य का अनुसंधान ज्ञान का परमोत्कृष्ट आदर्श है । इस श्लोक के आरम्भ में ईश्वर को वेदान्त की धारणा में संसार का निमित्त और कारण मानकर उसे परम सत्य का पर्याय ही माना गया है । इसी पूर्ण पुरुषोत्तम का ब्रह्मा आदिक देवता अवतरण हेतु ‘पुरुष सूक्त’ से आवाहन करते हैं-
  पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः (10-1-20)
   देवताओं द्वारा भगवान की गर्भ स्तुति भागवतकार के संकल्प को संपूर्ण दृढ़ता से एक बार पुनः इस प्रकार प्रतिष्ठित करती है-
  सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये
  सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः । 10--2-26
   इसी प्रकार कृष्ण जन्म पर चाहे वसुदेव की स्तुति हा,े या व्रज में मोह ग्रसित ब्रह्मा, इन्द्र आदि की वंदना हो, उसका केन्द्रीय स्वर कृष्ण के परमात्म तत्त्व की प्रतिष्ठा ही है । यहां तक कि गोपी गीत में गोपियां स्पष्ट स्वीकार करती हैं कि तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो । तुम तो सभी शरीरधारियों के हृदय में उनके साक्षी परमात्मा हो-
   न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्
                                         10-31-4
   एक निर्गुण और निराकार ईश्वर का इतना सगुण और प्रत्यक्ष सरोकार समस्त दर्शन, विचार और तार्किकता का तिरस्कार करने में अपूर्व तौर पर सक्षम है । यह कोई बहुत बिस्मित करने वाली बात भी नहीं है । परम सत्य एकांगी कैसे हो सकता हेै! क्या केवल बुद्धि और तर्क से जाना गया परमात्मा संपूर्ण हो सकता है? यदि वह संसार का बनाने वाला ही है तो क्या उसके ऊपर संसार में होने और स्वयं संसार न हो सकने की सीमा लगाई जा सकती है? भागवत के अनुसार तो वह सृष्टि का आदि हेतु होने के साथ ही साथ सत् चित् और आनन्द भी है-
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।
               श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्  1-1
 ऐसे भगवान को एकदम अपने बीच पाकर किसी को भी बिस्मित होने का कोई कारण नहीं है । वस्तुतः उसके कार्य और व्यवहार को परिभाषित करते हुए हम सदा उसकी सीमायें ही तय करते हैं जो स्पष्टतः अधिकार विहीन तो है ही, अतार्किक भी हैं ।
  भागवत के महारास प्रसंग के अंत में परीक्षित ने शुकदेव से एक ऐसा ही प्रश्न किया । उन्होंने कहा-  भगवान के अवतार का उद्देश्य धर्म की संस्थापना और अधर्म का नाश था । फिर उन्होंने मर्यादा के विपरीत परस्त्रियों का संस्पर्श क्योंकर किया-
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः ।
स कथं धर्मसेतूनां वक्त्ता कर्ताभिरक्षिता
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्षनम् । 10-33-27/28
 श्री शुकदेवजी ने इसका समाधान करते हुए अग्नि का उदाहरण दिया । उनका कहना था कि अग्नि अच्छी बुरी हर बस्तु को जलाता है किन्तु इससे क्या अग्नि को दोष लगता है! ईश्वर तो अपनी परिपूर्णता में उससे भी ऊपर है । संक्षेप में उनके अनुसार सामान्य मानवीय व्यवहार और आदर्श परमात्मा पर अधिरोपित नहीं किए जा सकते । ऐसा करते हुए हम हमेशा परमात्मा को न केवल ससीम बना देते हैं अपितु उसका मूल्यांकन करते हुए उसकी क्षमता के निर्धारक भी हो जाते हैं ।
  गीताकार कृष्ण के दर्शन बहुल पक्ष को ध्यान में रखते हुए प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि कर्म, योग और संन्यास का अप्रतिम संदेश देने वाला विराट पुरुषोत्तम अशिक्षित ग्राम गोपियों के साथ रास लीला में कैसे खो सकता है । कुछ भागवतकार इसका समाधान कृष्ण के गोलोक और बैकुण्ठ धाम के दो पृथक अवतारों का आधार लेकर करते हैं । उनके अनुसार गोलोक के कृष्ण ब्रज के कृष्ण थे और वे वहीं नित्य विहार करते हैं । जबकि बैंकुण्ठ वासी कृष्ण वसुधा का भार उतारकर पुनः बैकंठ चले जाते हैं । मार्च 2011 के ‘नया ज्ञानोदय’ में श्री विनोद शाही का एक विस्तृत लेख छपा है । इसमें विद्वान् लेखक ने डा. राम मनोहर लोहिया के हवाले से इस प्रश्न को पुनः जीवन्त किया है कि क्या कृष्ण के इन दो व्यक्तित्वों में समन्वय बिठाया जा सकता है? उनके अनुसार इस प्रश्न के समाधान में श्री धर्मवीर भारती ने जैसे कनुप्रिया लिखी, किन्तु इस पर निष्कर्ष प्रायः लगातार शेष ही बना हुआ है । 
  अब हम सीधे श्रीमद्भागवत के महारास के वर्णन पर आते हैं । वस्तुतः इसकी एक पृष्ठभूमि भी भागवत में ही विवर्णित है । चीर हरण लीला से संबंधित दशम स्कन्ध के  अध्याय 22 के अंतिम 27 वें श्लोक में श्रीकृष्ण गोपियों से कहते हैं कि उनका उन्हें प्राप्त करने के लिए किया गया कात्यायनी व्रत पूर्ण हो गया है तथा वे शीघ्र ही उन्हें प्राप्त करेंगी । ठीक इसके पूर्व के श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार भुने हुए बीज अंकुरित नहीं होते उसी प्रकार उनके प्रति समर्पित मनुष्यों को कामनायें सांसारिक भोगों में प्रवृत नहीं करतीं -
न मय्यावेषितध्यिां कामः कामाय कल्पते
भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते
यातयबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथ क्षपाः
यदुदिष्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः । 26-27
  आगे जाकर 29वें अध्याय के आरंभ में शरद ऋतु की एक सुरभित उच्छवास की रात में अपनी योगमाया का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण भुवन मोहिनी बांसुरी बजाते हैं । इसकी तुलना हम वेदवाक्य-स अकामयत् (उसने इच्छा की)- से कर सकते हैं । इस कामना वर्धक वांसुरी से निकलने वाले ‘गीत’ को सुनकर गोपियां जिस स्थिति में थीं, उसी में कृष्ण की ओर दौड़ पड़ीं । किसी भी कवि के लिए प्रेम विह्वल गोपियों का यह आवेग अपनी श्रेष्ठतम काव्य प्रतिभा का प्रस्थान बिन्दु हो सकता है । अब चाहे गोपी गाय दुह रहीं हो, बच्चे को दूध पिला रही हो या आंख में काजल लगा रही हो, उसे कोई कैसे रोकता ! वस्तुतः रुकी तो वे भी नहीं जिन्हें उनके पति, पिता और भाई भी रोकने की कोशिश कर रहे थे । स्पष्ट है कि इन असंख्य गोपियों में प्रत्येक की दशा अप्रतिम है, अतः इसका कोई भी वर्णन पूर्ण नहीं हो सकता । एक प्रिया की प्रियतम के पीछे की यह दौड़ किसी एक काल या एक देश की ही नहीं है । इसकी विविधता के विस्तार की भी कोई सीमा नहीं हो सकती-विषेषकर एक समर्थ काव्य की विषय वस्तु बन जाने पर तो यह अक्षुण्ण रहेगी ही ।
    गोपियों के निकट पहंुच जाने पर कृष्ण एक कुशल प्रेमी की भांति उनसे कहते हैं कि व्रज में जब सब तरह की कुशलता है तो उन्हें इतनी गई रात एकाकी वन में नहीं आना चाहिए । विशेषकर उन्हें अपने पतियों को इस प्रकार छोड़कर आना तो कैसे भी उचित नहीं है । स्त्रियों का परम धर्म तो अपने पति की सेवा करना है । कृष्ण के कुशल प्रश्नों का उत्तर गोपियां समर्पण भाव से देती हैं । उनका कहना है कि कृष्ण के अखिल भुवन की आत्मा होने के कारण क्या वे अपने स्वजनों का ही उनके माध्यम से सम्मान नहीं कर रही हैं! और जब उनके परम प्रेम के मधुर राग ने उनका आह्वान किया है तो यह तो उनके भाव समर्पण की परम धन्यता है ।
  गोपियां पहली परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं । ‘आत्माराम’ कृष्ण गोपियों के साथ रास लीला के लिए प्रस्तुत हुए । कृष्ण के आलिंगन से गोपियों को अपनी विशिष्टता का वोध सा हुआ । यहीं उनकी दूसरी और भी कठोर परीक्षा का समय आ गया । कृष्ण अकस्मात् ही अन्तर्निहित हो गए । गोपियां उनके विरह में विक्षिप्त प्राय व्यवहार करने लगीं । उनके खोज में निकलने पर उन्हें कृष्ण के चरन चिह्न दिखाई पड़े। उन्होंने अनुमान किया कि वे किसी ‘अन्य आराधिका’ के साथ छुप कर गए हैं । भागवत कथाकारांे और कृष्ण लीला माधुरी रसिको के लिए तो जैसे यही सर्वस्व है । उन्हें यहीं अपनी परम अभिप्रेत राधा रानी का परिचय मिलता हेै । आखिर भाव सत्ता गोपी के परे महाभाव की शक्ति राधा के अतिरिक्त कृष्ण को और कौन अनुरक्त कर सकता है!
  किन्तु कृष्ण इस परम प्रेयसी को भी परीक्षा में छूट नहीं देते । उसे भी वे एक पेड़ की शाखा पर लटकता हुबा छोड़कर अदृश्य हो जाते है और वह पुकारती रह जाती है-
  हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज
                                       10-30-40
  गेपियों का यही महाविलाप गोपी गीत बनता है । 19 श्लोकों का गोपी गीत दशम स्कन्ध का संपूर्ण 31वां अध्याय है । भाव, भक्ति और अभिव्यंजना का यह महाराग काव्य का निकष और प्रेमियों के समर्पण की संपूर्णता है । ऐकान्तिक भक्ति और समूह में पूर्ण रसोद्रेक के साथ गाए जाने वाले कनकधारा छन्द का यहां लालित्य निराला है । गांव की ग्वालिनों द्वारा वक्रोक्ति, छन्द, अलंकार और महारस से भरे इस अमृत कलश को किसी शिक्षा, प्रशिक्षण अथवा अभ्यास के द्वारा तो नहीं छलकाया जा सकता । यह ठीक है कि सभी देहधारियों की अन्तरात्मा में साक्षी भाव से रहने वाले श्री कृष्ण ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा के लिए अवतीर्ण हुए हैं अतः उन्हें यशोदानन्दन के रूप में ही सीमित नहीं रखा जा सकता। किन्तु गोपियों का मुख्य स्वर कृष्ण की व्रज भूमि में सम्पन्न क्रीड़ा और लीला माधुरी है जो उन्हें उनके परम निकट पहुंचाती है । यदि चराचर की आत्मा के साक्षी कृष्ण ही उनके ध्यातव्य होते तो, वे उनसे दूर ही कब हुए थे? यहां तो गोपियों का ही साक्ष्य महत्वपूर्ण है जो कृष्ण की अनेक व्रज लीलाओं की प्रत्यक्षदर्शिनी हैं । चाहे वर्षा हो, चाहे अग्नि हो अथवा कालिय नाग का विष हो, व्रज की सभी आपदाओं का कृष्ण ने ही तो निवारण किया है । विष उनके हृदय में भी है । कृष्ण के चरण कालिय नाग पर नाचते हुए उसके विष निवारण की क्षमता प्रदर्षित कर चुके हैं । उन चरणों का वे उनके हृदय से संश्पर्श्य क्यों नहीं करते? किन्तु यह भी उनकी कोमलता पर एक आघात ही होता । और इधर जब वे कंकड, पत्थर और कांटों से सघन वन में भटक रहे हैं तो उनके कष्ट का अनुमान गोपियों को दुखी क्यों नहीं करेगा?
  गोपियां इस दूसरी भी कठिन परीक्षा में अच्छी तरह उत्तीर्ण होती हैं । कृष्ण उनके सामने प्रकट होकर कहते हैं कि प्रेम कोई आदान प्रदान करने वाला उद्योग नहीं हैं । वे स्वयं गोपियों का स्मरण करते हुए ही अन्तर्धान हुए थे । जिस प्रकार निर्धन का धन खो जाने पर उसकी प्राप्ति की तीव्रता अधिक हो जाती है, वैसे ही प्रेम में वियेाग उसको तीव्रता प्रदान करता है । किन्तु अब तो ऋणभार कृष्ण का ही बढ़ा है । अतः वे यमुना के पुलिन पर गोपियों के साथ महारास के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं । यहां अध्याय 32 का समापन है । अध्याय 33 महारास का अभिचित्रण है ।
  दो गोपियों के बीच में कृष्ण प्रकट होकर नृत्य करते हैं । गोपियां पूर्ण उन्मुक्त भाव से नाच रही हैं । वे कृष्ण के साथ अपनी धुन में गान भी करती हैं । वे थक जाने पर कृष्ण का सहारा ले लेतीं हैं । घन श्याम कृष्ण के आसपास उनकी शोभा विजली की तरह प्रतीत होती हैं । नृत्यरत गोपियां पूरी तरह अस्त व्यस्त हैं । कृष्ण ने गोपियों की संख्या के ही बराबर रूप धारण कर लिए हैं । कृष्ण थकी हुई गोपियों के मंुह अपने हाथ से पांेछ रहे हैं । इसके बाद गोपियों के साथ यमुना के जल में उतर कर वे जल क्रीड़ा करते हैं ।
  परीक्षित द्वारा अंत में कृष्ण के इस आचरण पर औचित्य का प्रष्न पूछने के पूर्व व्यास जी महारास में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करते हुए भी तीन स्थानों पर भागवत के भावकों को सावधान करते हैं । पहले तो श्लोक 17 में कहते हैं कि जिस प्रकार एक नन्हा शिशु अपनी परछाहीं के साथ नाचता है ( यथार्भकः स्वप्रतिबिम्ब विभ्रमः) वे गोपियों के साथ नाच रहे हैं । ‘आत्माराम’ (श्लोक 20) कृष्ण ने गोपियों की संख्या जितने रूप धारण किए । अंतिम श्लोक 26 के अनुसार यद्यपि वह रात्रि समस्त प्रकार की ‘कामकारी’ साधन और शक्तियों से युक्त थी, कृष्ण ने काम को सर्वथा अपने नियंत्रण में रखा हुआ था-
  एवं शषंाकंशुविराजिता निशाः स सत्यकामोऽनुरताबलागणः
  सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः  ।
  भागवत के विवेचनाकार इस प्रसंग में ठीक ही कहते हैं कि कृष्ण ने महारास प्रसंग में काम को ठीक चुनौती देकर पछाड़ा । इसके पहले वे ब्रह्मा और इन्द्र के मान का भी मर्दन कर चुके हैं । पर कामदेव अब तक अजेय मान लिया गया था । कालकूट पायी भगवान शिव भी उससे अरक्षित रह चुके थे तथा काम दहन के लिए उन्हें प्रथम वार अपने दाहक तृतीय नेत्र को खोलना पड़ा था । बावजूद इसके कि उन्होंने उसे आमने सामने की लड़ाई का कोई मौका ही नहीं दिया । यहां कृष्ण न केवल काम को पूरा पूरा अवसर देते है, बल्कि वे उसके लिए आवश्यक उपादान भी जुटा देते हैं । उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र छुआ तक नहीं । यहां तक कि उन्होने अपनी योगमाया को भी उसी की ही सहायता में सन्नद्ध कर दिया । और कमाल यह कि काम को उन्होंने उसी के अस्त्रों से पराजित कर किया ।
  यहां यह प्रश्न कि कृष्ण की महारास के समय आयु क्या थी, यद्यपि महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, किन्तु उस पर सामान्य बुद्धि के समाधान की दृष्टि से विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है । भागवत दशम स्कन्ध के अध्याय 26 के पहिले श्लोक में श्री कृष्ण के पौगण्ड वय अर्थात् छः वर्ष के हो जाने का उल्लेख है- ततश्च पौगण्डवयः श्रतौः । इसी अवस्था में उन्होंने धेनुकासुर का उद्धार और कालिय नाग का मान मर्दन किया । यह ग्रीष्म काल था । उसके बाद ब्रज वासियों के यमुना किनारे ही रात्रि विश्राम करने पर उन्होंने दावानल से उनकी रक्षा की । इसके आगे स्पष्ट तौर पर अध्याय बीस में वर्षा और श्रद ऋतु का मनोरम वर्णन है । 21 वें अध्याय में वेणुवादन करते हुए कृष्ण का ‘वेणुगीत’ विवर्णित है । 22वें अध्याय में शिशिर ऋतु में गोपियों के कात्यायनी व्रत और चीरहरण का प्रसंग है । इसमें श्री कृष्ण गोपियों को आगामी शरद ऋतु में उन्हें प्राप्त करने का वचन देते हैं । इस नए वर्ष की वर्षा ऋतु में गोवर्धन गिरि लीला का प्रसंग आता है । अध्याय 26 में गोप गण कृष्ण की विभिन्न आयु अवस्थाओं के चमत्कारों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कि सात वर्ष के बालक ने सात दिन तक किस प्रकार गोवर्धन को एक हाथ पर धारण कर रखा था-
यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया
                            10/26/3
इस वर्षा के बाद आने वाली वह शरद ऋतु की रात्रि उनके आठवें वर्ष की ही हो सकती है जिसमें उन्होंने रासलीला की-
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः   10/29/1
 भागवत में इसके बाद भगवान की आयु के संबंध में स्पष्ट उल्लेख न किया जाकर उन्हें किशोर वय का बताया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि कंस को मारने के पश्चात् ही कृष्ण के पिता वसुदेव उनका यज्ञोपबीत संस्कार कराते हैं और उसके बाद संदीपन मुनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने हेतु भेजा जाता है जिससे उनकी किशोरावस्था का ही परिचय प्राप्त होता हैं । इस प्रकार कृष्ण की रासलीला अधिक से अधिक आठ या नौ वर्ष की अवस्था में ही की जाना प्रतिपदित होता है जिसका कि समस्त शारीरिक विकार और दोषों से मुक्त होना स्वभाविक है । 
     निस्संदेह भागवत एक बहुत प्रौढ़ कृति है । सामान्य लौकिक संदर्भ में इस पर विचार और विमर्श जहां बहुत सीमित अर्थबोध कराता है, वहीं इसका अध्यात्म और अधिदेवत्व भी दार्शनिक दृष्टि से निगूढ़ता लिए हुए है । थोडी देर के लिए यदि हम चीर हरण और रासलीला प्रसंग को कृष्ण की बाल लीला मान भी लें तब भी कृष्ण की कालान्तर में कुब्जा के निवास पर कुब्जा से स्नेह भेंट-आहूय कान्तां नवसंगमन्हिया विशंकितां कंकणभूषिते करे ( श्री कृष्ण ने संकोच से झिझकती कुब्जा की कंकणयुक्त कलाई पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लिया -10-48-6 ) और उनके सोलह हजार एक सौ आठ राजकुमारियों से सम्पन्न विवाह और बिहार के कौन से लौकिक समाधान खेाजे जा सकते हैं! इसके पाठ और पारायण के लिए भागवत दृष्टि विकसित कर लेने की आवश्यकता अपरिहार्य है । जिन महापुरुषों ने इस दिशा में कार्य किया है और भागवत रस का पान कराने का कार्य आगे कर रहे हैं, वे सर्वथा प्रणम्य हैं । स्वयं भागवतकार की दृष्टि में वास्तविक रूप से महादानी तो केवल ऐसे ही लोग कहे जा सकते हैं-
  तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्
  श्रवणमंगलं श्रीमदादतं भुवि गृणन्ति ते भूरिदाः जनाः ( 10-31-9)
     यह स्वभाविक है कि कृष्ण की इस लीला में प्रवेश के लिए हम भले ही हम सामान्य लोक दृष्टि और अनुभव का आधार ले लें, किन्तु इसमें प्रवेश के पश्चात् तो लोकातीत आनन्द ही इसका परिणाम हो सकता है । भागवत का परम सत्य भी यही  है ।
                               अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्,
                               35, ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, भोपाल- 16
 
कृष्ण की महारासलीला