निर्वचन जुलाई 23
काव्य का प्रयोजन
भारतीय साहित्य परंपरा में काव्य के प्रयोजन पर
भरत मुनि, भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, आनंद वर्धन, कुंतक, महिम भट्ट, अभिनव गुप्त,
भोज, मम्मट और विश्वनाथ आदि आचार्यों ने व्यक्ति और वैश्विक दोनों ही परिप्रेक्ष्य
में बहुत परिपूर्णता से विचार किया है । सामान्यतया उनके अनुसार जहां काव्य
व्यक्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) का साधन है वहीं यह
महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) की तरह अशिव के निवारण का भी कार्य
करता है । इस प्रकार प्रातिभ रचनाकार्य परमात्मा की सृष्टि की ही एक पूरक इकाई हो
जाता है । पश्चिम के विचारकों में प्लेटो, अरस्तू, रस्किन, टालस्टाय, कॉलरिज,
आर्नोल्ड और आई ए रिचार्ड्स भी प्राय: इन्हीं धारणाओं के हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने जैसे इसका सम्पूर्ण
समाहार करते हुए मानवीय अस्तित्व के सभी आयामों की सार्थकता और सिद्धि को अपूर्व
रीति से इस प्रकार परिभाषित कर दिया –
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर हित होई
।
अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा भोज के
समकालीन आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में कविता के बहुआयामी समन्वित छ: उद्देश्य
इस प्रकार बताए हैं –
काव्यं
यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये
सद्य: परनिवृत्तये
कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।
इनमें चतुर्थ अशिव के क्षय विषयक कार्य है । शिव
मंगल के प्रतीक हैं । यजुर्वेद में ‘नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय
च नम: शिवाय च शिवतराय च’ (16/41) इस मंत्र के छहों विशेषण शिव के कल्याणकारी होने
के ही विधायक और परिचायक हैं । अत: एक कवि की कारयित्री क्षमता का अशिव के शमन में
योग महत्वपूर्ण हो जाता है । कवि यह कार्य नवरस की वर्षा के अतिरिक्त यथा स्थिति
व्यंग्य, वक्रोक्ति और लक्षणा शब्द शक्ति के माध्यम से भी पूरा किया करता है
।
हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग में भी महावीर
प्रसाद द्विवेदी, मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद
द्विवेदी, नगेन्द्र, नन्द दुलारे वाजपेयी प्रभृति रचनाकार कवित्व की इसी प्रकृत
धारा के पैरोकार रहे हैं । विगत सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम के भौतिक यथार्थ बोध
की प्रतिस्पर्धा में प्रतिनिधि हिन्दी कविता भी जैसे अपनी प्रकृत पहचान से दूर हो
चली थी जबकि थोरो, इमर्सन, वहाल्ट व्हिटमैन, एट्स और इलियट आदि सनातन भारतीय
दृष्टि के अनुसंधान में लगे थे ।
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भारतीय ज्ञान
भंडार के सम्यक् अन्वीक्षण और द्रष्टा
ऋषियों की परादृष्टि की प्रकृत पहचान की नित नूतन पहल हो रही है । उसे यह समझ आने
लगा है कि साहित्य और कला जीवन के भौतिक उपादान तक सीमित किए जाकर उपभोग के पर्याय
बनाकर नहीं छोड़े जा सकते । जिस प्रकार मनुष्य के अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार) की अवस्थाओं के प्रकटीकरण के लिए स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति और समाधि की
अवस्थाएँ आवश्यक हैं, वैसे ही समग्र जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान, विज्ञान, कला-साहित्य
और परा-दृष्टिवत्ता भी आवश्यक है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस सत्य का साक्षात्कार किया था
तथा उन्होंने विवेकी जनों को इस हेतु आवश्यक दर्पण भी दिखाया –
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक
सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक । बाल. 9
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक (9425079072)
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