Thursday 14 January 2021

निर्वचन -दिसंबर मानस भारती

 निर्वचन  


                       भव भेज रघुनाथ जस 


भूमण्डलीय महाआपदा कोरोना ने दुनियाँ को अब तक के विदित इतिहास में जैसे नए काया कल्प के लिये बिबश कर छोड़ दिया है । अभी जो नित नवीन और परस्पर प्रतिस्पर्धी व्याधि निरोधक वैक्सीन आ रही हैं उनका असर तो देखना शेष है, किन्तु अब तक के अनुभव ने इतना तो सिखाया ही है कि रोग प्रतिरोधक भारतीय पद्धति और आस्था-विश्वास ने भी जन जीवन को ऊर्जा प्रदान की है । भारतीय चिन्तन में व्याधि के मूल में शरीर (दैहिक) ही कारण न होकर आधिभौतिक और आधिदैविक कारण भी रहते हैं । इस तरह यह समझना किसी के लिये भी कठिन नहीं होगा कि मात्र दवा से और वह भी इतने व्यापक फलक पर, बिना अधिभूत और अधिदैव  के सँवार के संभव नहीं है ।  विश्व और मानव सभ्यता का इतिहास इस प्रकार के अनुभव और प्रमाणों से भरा पड़ा है । 

भारतीय अध्यात्म चेतना की सांस्कृतिक संवाहिका 'तुलसी मानस भारती' ने तुलसी के मानस के दोहे के के पूर्व के चतुरार्ध 'भव भेषज रघुनाथ जस' को इसीलिए इस वार्षिकांक का शीर्ष रखा है । हमें प्रसन्नता है कि राष्ट्रीय ख्याति के शीर्ष चिन्तक, साहित्यकार और आस्थावान् मनीषियों ने इस अनुष्ठान में अपनी मूल्यवान आहुतियाँ पदान कीं । 

इस विशेषांक  के उत्तर ‘महाभाग’ में हम हमारे सम्मान्य हिन्दी साहित्य के सुमेरु डा. देवेंद्र दीपक के सद्य: इंद्रापब्लिशिंग हाउस, भोपाल से प्रकाश्य काव्य नाटक ‘सुषेण-पर्व’ को अविकल प्रकाशित कर रहे हैं । दीपक जी के इस महनीय अनुष्ठान की सार्थक सिद्धि में यहाँ इस नाटक की भूमिका का निम्न महत्वपूर्ण भाग मैं साभार उद्धृत रहा हूँ -  

“सुषेण-पर्व’ स्थापना में नट-नटी के संवाद से प्रारम्भ होता है।

‘स्थापना’ में द्वन्द्व के अनेक आयाम सूत्र रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।

साथ ही द्वन्द्व से मुक्त होने की स्थिति में पुरुषार्थ और एतद् द्वारा परमार्थ

संभव है।

प्रथम दृश्य में नागरिकों की युद्ध चर्चा है। यह चर्चा कुछ लम्बी हो गयी है,

लेकिन यह चर्चा युद्ध और उसके कारणों तथा परिणामों को संप्रत्यक्ष करती है।

युद्ध कहीं भी हो, कभी भी हो, अन्ततः उसका दुष्परिणाम नारी को ही भोगना

पड़ता है। नागरिकों में यह चर्चा लक्ष्मण मूच्र्छा की संभावना की ओर भी परोक्ष

संकेत करती है।

दूसरा दृश्य छोटा है- इसमें लक्ष्मण मूच्र्छा में हैं। शक्ति लग चुकी है।

मेघनाद लक्ष्मण को मृत समझ उसे उठाने को कहते हैं। उसके सैनिक लक्ष्मण

को उठा नहीं पाते। मेघनाद भी लक्ष्मण को उठाने का प्रयत्न करता है, लेकिन

उठा नहीं पाता। हनुमान मेघनाद पर व्यंग्य करते हैं और मुच्र्छित लक्ष्मण को

उठाकर ले जाते हैं।

दूसरे दृश्य में तीसरे दृश्य के लिए एक संकेत भी है। हर सेना का अपना

एक चिकित्सा विभाग होता है, जो घायल सैनिकों के स्वास्थ्य और चिकित्सा

सेवा का कार्य करता है। उसका एक प्रमुख होता है जो स्वयं चिकित्सक भी

होता है। राम की सेना में भी एक चिकित्सा प्रमुख है। एक स्वाभाविक प्रक्रिया

के अंतर्गत मूर्छित लक्ष्मण का पहला परीक्षण चिकित्सा प्रमुख करता है और

अपनी असमर्थता प्रकट करने पर ही सुषेण को लाने का प्रस्ताव सामने आता

है। इसी दृश्य में राम का संक्षिप्त विषाद भी है। जामवंत द्वारा सुषेण को लाने

का प्रस्ताव और इसके लिए हनुमान जी का प्रस्थान!

चौथा दृश्य महत्वपूर्ण है। इसमें सूर्या और सुषेण के संवाद महत्वपूर्ण है और 

प्रारम्भ में दी गयी स्थापना को चरितार्थ करते हैं। द्वन्द्व और उसका निरसन इस

दृश्य का मुख्य बिंदु है। सूर्या एक विदुषी और सुधर्मा पत्नी है। सूर्या के चरित्र

के अभाव में यह नाटक खड़ा ही नहीं रह पाता।

पाँचवा दृश्य राम के विषाद से प्रारम्भ होता है। जामवंत का प्रबोधन- ‘डोर

अभी टूटी नहीं है सांकेतिक है।’ विभीषण इस तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि

लक्ष्मण मूर्छा का कारण वह स्वयं हैं। शक्ति मुझे लक्षित थी, लक्ष्मण मेरे रक्षार्थ

बीच में आ गए। सुषेण का आगमन। लक्ष्मण का परीक्षण और मृत संजीवनी

बूटी का प्रस्ताव। सुषेण, हनुमान को अलग ले जाकर बूटी आदि की जानकारी

देते हैं। यह एक चिकित्सीय व्यवहार का एक पक्ष है कि वह अपना ‘फार्मूला’

गुप्त रखता है। कुछ नयी बातें भी जोड़ी हैं- वनदेवी की वंदना, औषधि लाने में

सावधानी और समय का प्रतिबंध- खेती को पानी/ और रोगी को औषधि/

समय पर मिले तो लाभ।

छठा दृश्य कथा-कथन है। इस दृश्य में नट-नटी के माध्यम से रावण

कालनेमि सम्पर्क, कालनेमि का मायावी छल, हनुमान का मगरी का हनन,

कपटमुनि का वध, भरत द्वारा हनुमान का आहत होना, हनुमान का लक्ष्मण

मूर्छा की बात बताना। इसमें कौशल्या और सुमित्रा के दो संवाद प्रमुख हैं।

ये संदर्भ मुझे सूरदास जी से मिले। इस दृश्य का विधान मुझे ‘टाईम गैप’

के लिए करना पड़ा। एक दृश्य में मूर्छा और उसके तुरंत बाद हनुमान जी

का संजीवनी के साथ उपस्थित होना, दर्शकों के लिए कुछ अटपटा होता। इस

कथा-कथन में पूरी कथा भी आ गई और दर्शकों को कुछ समय भी मिल

गया। इस कथा-कथन में वनदेवी की स्तुति में श्लोक और वनदेवी द्वारा बूटी

लेने की अनुमति में कुछ प्रतिबंधों की चर्चा है। इसमें एक विशेष बात यह है

कि इस औषधि का व्यावसायिक लाभ के लिए उपयोग नहीं होगा। वापस इन्हें

यहीं पुनःस्थापित करना होगा। रात्रि में वनस्पति न तोड़ने की बात भी वनदेवी

उठातीं हैं, लेकिन हनुमान आपातकाल में मर्यादा को शिथिल करने का औचित्य

भी सामने रखते है।

सातवाँ दृश्य थोड़ा लम्बा है- इसमें चार चरण समाहित हैं- हनुमान के आने

से पूर्व राम का प्रलाप और प्रबोधन; सुषेण द्वारा चिकित्सा; लक्ष्मण की चेतना 

के बाद सुषेण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन; सारी औपचारिकताएँ पूरी करते-करते

सूर्योदय हो गया। सूर्योदय होते ही उल्लासमय वातावरण में जय जयकार! यह

एक प्रकार का रंगोत्सव ही है। अबीर-गुलाल लगाते पात्र! राम, लक्ष्मण, सुषेण,

हनुमान, संजीवनी, गिरिखण्ड, धरतीमाता का मुखर जय-जयकार!

राम के प्रलाप के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण समस्या यह भी है कि राम को

सांत्वना कौन दे? केवल जामवंत में ही पात्रता है। वह यथा सम्भव समय पर

सांत्वना देते भी हैं, लेकिन राम का प्रलाप बड़ा सघन है। मैंने इस अवसर के

लिए दो उद्भावनाएँ की- दशरथ की आत्मा का आकाशवाणी के रूप में राम का

प्रबोधन और सूर्योदय में विलम्ब हो, इसके लिए सूर्यदेवता से अनुरोध! इस प्रसंग

में सूर्य अपनी विवशता प्रकट करते हैं।

सुषेण ने मूर्छित लक्ष्मण के परीक्षण के उपरांत कहा था- साधन और

आराधन दोनों साथ। आराधन के रूप में मैंने महामृत्युंजय मंत्र का निरंतर

जप प्रस्तावित किया। घोर अनिष्ट और मृत्यु-भय के क्षणों में महामृत्युंजय मंत्र

भारतीय मानस के लिए एक तारक मंत्र है। इससे वातावरण में एक सघन

गम्भीरता आएगी। कुछ लोग इस पर आपत्ति उठा सकते हैं- आराधन क्यों?

आप किसी भी अस्पताल में जाएँ। आपको एक उपासना एक स्थल मिलेगा।

आपरेशन थियेटर पर आपको लिखा मिलेगा- वी ट्रीट, ही क्योर्स। डाक्टर

कहता है- हम तो केवल चिकित्सा करते हैं, ठीक तो ईश्वर करता है।

औषधियों के प्रति पूजा-भाव हमारी चिंतन शैली में अंगभूत है। वैदिक

साहित्य में औषधि का मातृरूपेण कहा है। सुषेण पूरे विधि-विधान से चिकित्सा

करते हैं। चिकित्सा प्रारंभ करने से पहले एक मंत्र का सस्वर पाठ करते हैं।

यह मंत्र अष्टांग संग्रह (वाग्भट्ट) का 15वां श्लोक है।

लक्ष्मण के सचेत होने पर सब प्रसन्न होते हैं। राम लक्ष्मण से सुषेण का

परिचय कराते हैं। लक्ष्मण सुषेण के प्रति अभार प्रकट करते हैं। राम सुषेण को

वैद्य राज की उपाधि देते हैं और एक वैद्य की मर्यादाओं की ओर संकेत करते

हैं। भले ही ये वैद्य को सम्बोधित हो, अपितु चिकित्सा-सेवा में लगे पूरे समुदाय

के लिए ये मर्यादाएँ साध्य हैं। ये वैश्विक मर्यादाएँ हैं। राम जी कहते हैं-

सुषेण,

पहले तुम राजवैद्य थे

अब तुम वैद्यराज हो!

सुषेण!

चिकित्सा-सेवा से

रोगी के चेहरे पर लौटी मुस्कान

वैद्य का सौन्दर्यशास्त्र है!

निर्लोभ

निर्भय

निस्संग होना

वैद्य का धर्मशास्त्र है!

भेद मुक्त हो

पूरे विश्व का आरोग्य

वैद्य का समाजशास्त्र है!

सुषेण रामजी से हाथ में ‘जश’ का वरदान माँगते हैं। राम जी उसे अभीष्ट

वरदान देते हैं।

अंतिम चरण जय जयकार का है। सुषेण की जय जयकार में सुधर्मा सूर्या

की जय का भी उल्लेख है। द्रोण पर्वत की जय में औषधियों के भौन (भवन)

की चर्चा है। और संजीवनी की जय में कथित जय है- संजीवनी ने किया

कमाल/ आयुर्वेद का उन्नत भाल। इसी प्रकार धरती माता की जय में एक

कथित जय है- जय भारतीय उपचार की/ जड़ी-बूटी व्यवहार की।

सुषेण-पर्व का एक पक्ष आयुर्वेद की महत्ता भी है।

राम जी के चरित्र में देव-भाव और मानव-भाव दोनों अनुस्यूत !”

आशा है, जिस तरह ‘महाभारत’ के अंत में ‘शांति पर्व’ महाभारत को सर्व ज्ञान की मंजूषा बनाता है, इस विशेषांक का ‘सुषेण पर्व’ वर्तमान वैश्विक महाव्याधि के निदान में हमारा आधिदैविक समाधान सिद्ध होगा । 

                                                 प्रभुदयाल मिश्र 

                                                 प्रधान सपादक      


राम राज्य का वैश्विक परिप्रेक्ष्य

  वैश्विक रामराज्य  

-प्रभुदयाल मिश्र

  ‘राम राज्य के वैश्विक परिवेश’ पर यद्यपि वाल्मीकि की रामायण और तुलसी का रामचरित मानस तो पूर्ण प्रासांगिक हैं ही, हमें वेद, स्मृति ग्रंथ, इतिहास और इस दिशा में अनेक महापुरुषों के योग का भी स्मरण किए जाने की आवश्यकता है । 

सर्वप्रथम तो यजुर्वेद अध्याय 22 के सूक्त 22 का यह मंत्र ही स्मरणीय है जिसमें आदर्श (राम) राज्य की कामना करते हुये प्रजापति ने इसके समाज के सभी वर्गों, उद्योग, आजीविका और सुरक्षा के साधनों तथा प्रकृति के परिपूर्ण सहयोग की कामना की गई है -  

ॐ आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् ।

अस्मिन राष्ट्रे राजन्य: इषव्य: शूरो महारथो जायताम् ।

दोग्ध्री धेनु: वोढा ऽनडवान् आशु: सप्ति:

पुरन्ध्रि: योषा जिष्णू रथेष्ठा:

सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम् ।

निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु

फलवत्यो न ओषधय: पच्यन्तां

योगक्षेमो न: कल्पताम् ।।

(यजुर्वेद, अध्याय २२, मंत्र २२, ऋषि- प्रजापति:)

यहाँ सबसे पहले इस प्रश्न का समाधान जैसे बहुत आवश्यक है कि क्या भारत में पूर्व में कभी राम-राज्य स्थापित और प्रवर्तित हुआ ? निश्चित ही इसका समाधान जहां आवश्यक है वहीं उसकी उपलब्धि भी उतनी ही सुलभ है । हम जानते हैं कि ब्रह्मा ने अपने पुत्र स्वयाम्भव मनु को सृष्टि विस्तार का कार्य सौंपा था । हमारे शास्त्र यह भी बताते हैं कि मनु ने राज्य का वैदिक विधि पूर्वक संचालन करते हुये भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श राज्य के संचालन के लिए एक संविधान को ‘स्मृति’ के तौर पर तैयार किया था । यहाँ इतना स्मरण रख लेने की और आवश्यकता है कि शाश्वत- सनातन धर्म के मूल वेद संसार, समाज और जीवन व्यवस्था की आधार हैं तथा भारतीय दर्शन की अवधारणा में ईश्वर का अवतार इसी धर्म की निरंतरता को कायम रखने के लिए होता है । भगवान के पूर्ण अवतार श्री राम और कृष्ण त्रेता और कलियुग में प्रत्यक्षता यही कार्य करते हैं जो कि पूर्व में अंशत: नाना अवतारों में वे इसे तात्कालिकता के अनुरूप सम्पन्न कर चुके थे । वे न तो स्वयं कोई धर्म स्थापित करते हैं न ही विधि की परिपाटी शुरू करते हैं क्योंकि जिस प्रकार एक जीवधारी की श्वास के रूप में वह अस्तित्व में आता है ठीक उसी तरह वेद ब्रह्म की श्वास के रूप में ही सृष्टि विकास की क्रिया का प्रथम उन्मीलन हैं – 

यस्य निश्वस्तं वेदो              

    यही मनु जब अपनी चतुर्थावस्था में घोर तप कर भगवान से वरदान मांगते हैं तो उनका अनुरोध यह था – 

‘चाहंहु तुमहि समान सुत, प्रभु सन कबन दुराव’ (रामचरित मानस)

यह आश्चर्य ही है कि इतने कठिन तप के बाद मनु ने इतना सामान्य और लौकिक वरदान ही क्यों मांगा ? इस सम्बन्ध में कुछ विचारकों का मत है कि मनु यह चाहते थे कि उनके बनाए विधान के अनुसार धरती पर आदर्श राज्य केवल भगवान ही कायम कर सकते हैं । इसका प्रमाण हमारे सामने है । भगवान राम ने ग्यारह हजार वर्ष तक धरती में राम राज्य कायम रखा । इसकी उपलब्धियों का बहुत सुंदर वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड के दोहा क्रमांक 19/4 से आरंभ –‘रामराज्य बैठे त्रैलोका’ से आरंभ कर दोहा क्रमांक 31 तक आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का दिग्दर्शन कराते हुये यह स्पष्ट किया है कि यह ‘धरती पर स्वर्ग उतारने’ के कथन की सिद्धि थी । रामराज्य का वर्णन करते हुये तुलसीदास जी ने लिखा है – ‘बयरु न कर काहू सन कोई’ । अर्थात राम के राज्य में जीव मात्र में सद्भाव काम करता है । यहाँ तक कि 

खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बधाई ।

और 

कूजहि खग मृग नाना वृंदा । अभय चरहि बन करहि अनंदा ।         

यह व्यवस्था पूर्ण जनतान्त्रिक थी । श्री राम द्वारा बुलाई गई उस सामान्य सभा की घोषणा से स्पष्ट हो जाता है जिसका वर्णन उत्तरकाण्ड में दोहा क्रमांक 42 से 47 तक वर्णित है । यहाँ राम ने अपने आपको जैसे अपनी प्रजा के नियंत्रण में छोडते हुये यहाँ तक कह दिया है –

जो अनीति कछु भाखों भाई । तौ मोहि बरजऊ भय बिसराई । उत्तरकाण्ड 42/3 

निश्चित ही रामराज्य की इस परिकल्पना का मूल भारतीय शास्त्र और संहिताओं में विद्यमान है। तुलसी ने जैसे इस सब का समाहार करते हुये ही दोहावली में लिखा –

तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होय 

बरसत हरषत लोग सब करखत लखै न कोय । 

अर्थात एक राजा प्रजा से उसी प्रकार ‘कर’ ग्रहण करता है जैसे सूर्य जल का बिना देखे आकर्षण करता है किन्तु लोगों को प्रसन्न करते हुये उसकी परिपूर्ण वर्षा कर देता है । अयोध्याकाण्ड में भरत के लिए राम स्वयं राजा और प्रजा के अन्तःसम्बन्धों की जैविक अविभाज्यता का यही आदर्श प्रस्तुत करते हैं – 

मुखिया मुख सो चाहिए खान पान कंहु एक 

पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक । अयोध्या- 315 

यहाँ तक कि स्वामी और सेवकों के संबंध का पैमाना भी लगभग इसी समता मूलक समाज का परिचायक है – 

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिब होइ 

तुलसी प्रीति की रीति सुन सुकवि सराहहिं सोइ । अयोध्या 306 

वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम धर्मज्ञ, सत्यनिष्ठ और ‘प्रजानां हिते रत:’ राजा हैं । भरत के चित्रकूट पहुँचते ही विक्षिप्तप्राय भरत को राम राजा के कर्तव्य बोध का बहुत विस्तृत पाठ अपनी प्रश्नाकुलता में अयोध्याकाण्ड के स्कन्ध 100 के 76 श्लोकों में सहसा समझा जाते हैं । इस शिक्षा में राजनीति, कूटनीति, व्यवहार और प्रशासन के अनेक सूत्र विद्यमान हैं । श्लोक 61 में राम के आदर्श में एक राजा को गुरु, वृद्ध, तपस्वी, देवता और अतिथियों की श्रेणी में मार्ग के वृक्ष को भी नमस्कार करना अभीष्ट है !    

कच्चिद्गुरूंश्च वृद्धान्श्च तापसान्देवतातिथीन्

चैत्यांश्च च सर्वांसिद्धार्थान्ब्राहम्णांश्च नमस्यसि । 

किन्तु राम के पूर्व भी क्या कोई उनके आदर्श राज्य का ‘आदर्श’ है ? इस संबंध में हम भारतीय परंपरा में निम्नलिखित 12 राजाओं का परिगणन सर्वथा उचित मानते हैं –

1.महाराज भरत – श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध के विवरण के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध, अग्नीध के नाभि, नाभि के ऋषभदेव और ऋषभदेव के पुत्र भरत थे । भागवत स्कन्ध 5 अध्याय 7 के विवरण के अनुसार भरत ने गृहत्याग पूर्व 1 करोड़ वर्ष तक धर्म पूर्वक राज्य किया । इनके पूर्व भारत का नाम अजनाभ था जिसे कालांतर में ‘भारत वर्ष’ के रूप में अभिहित किया गया । (भागवत 5/7/3, विष्णुपुराण 2/1/28, वायु पुराण 33/52, ब्रह्मांड पुराण 2/14/62, अग्निपुराण 107/11-12, मार्कन्डेय पुराण 53/59-42, नरसिंह पुराण 30/7, कूर्म पुराण ब्राह्मी संहिता पूर्व. 40/41) जहां तक कि दुष्यंत पुत्र भरत का प्रसंग है तो यह उल्लेखनीय है कि भरत ‘भरत वंश’ के प्रवर्तक थे, भारत वर्ष के नहीं ।    

2.वैवस्वत मनु 

मानव जाति के प्रणेता व प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु के बाद ये सातवें मनु थे। प्रत्येक मन्वंतर में एक प्रथम पुरुष होता है, जिसे मनु कहते हैं। वर्तमान काल में ववस्वत मन्वन्तर चल रहा है, जिसके प्रथम पुरुष वैवस्वत मनु थे, जिनके नाम पर ही मन्वन्तर का वर्तमान नाम है। भगवान सूर्य का विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से हुआ। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नामक एक पुत्री को जन्म दिया। यही विवस्वान यानि सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु कहलाये।

वैवस्वत मनु के नेतृत्व में त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत या देवलोक से प्रथम पीढ़ी के मानवों (देवों) का मेरु प्रदेश में अवतरण हुआ। वे देव स्वर्ग से अथवा अम्बर (आकाश) से पवित्र वेद भी साथ लाए थे। इसी से श्रुति और स्मृति की परम्परा चलती रही। वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ जिनकी सहायता से मनु ने महा प्रलयकाल में सभी संग्रहणीय सामग्री सहित मानवता की रक्षा की ।  

3.हरिश्चंद्र – सूर्य वंश में सत्यव्रत के पुत्र हरिश्चंद्र की कथा सर्वविदित है उन्होने सत्य की रक्षा में अपनी पत्नी, एकमात्र पुत्र और स्वयं को भी बेच दिया था । 

4.सुदास –  इनका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। वे संवरण के विरुद्ध हुये दशराज्ञ युद्ध के विजेता थे जिसका वर्णन ऋग्वेद ७:१८, ७:३३ और ७:८३:४-८ में है। उनका जीवनकाल अलग-अलग स्रोतों में १७०० ईसापूर्व से लेकर ११०० ईसापूर्व के बीच अनुमानित किया जाता है।

5.भगवान राम -पुराणों में यह घोषणा स्पष्ट रूप से इस प्रकार मिलती है _

वेद वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे 

वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद्रामायाणात्मना | (लावकुशप्रोक्त मंगलाचरण १३)

अर्थात वेद वेद्य परमात्मा जब दशरथनंदन के रूप में प्रकट हुए तब साक्षात वेद भी रामायण के रूप में महर्षि प्राचेतस (वाल्मीकि) के मुख से अवतीर्ण हुए |  

वाल्मीकि रामायण में ही यह स्पष्ट उल्लेख है कि महर्षि वाल्मीकि ने लव और कुश को वेद का अध्ययन कराकर वेदार्थ के उपबृह्मण के लिए ही रामायण ग्रन्थ उन्हें पढ़ाया –

स तु मेधाविनौ द्रष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठतौ 

वेदोपबृह्णार्थाय तावाग्राह्यत प्रभु: | वा. रा. १/४/६

श्री राम और सीता का चरित्र भारतीय शास्त्र परम्परा में मंत्ररामायण, आनंदरामायण, पूर्वोत्तररामतापनीयोपनिषद्, रामरहस्योपनिषद् तथा मुक्तिकोपनिषद् में स्पष्टता से वर्णित है | सीतोपनिषद में सीता का माहात्म्य प्रतिपादित है | अध्यात्मरामायण, अद्भुतरामायण, महाभारत, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण और श्रीमद्भागवत में भी इस कथा का सम्यक समावेश हुआ है |           

6.युधिष्ठिर- महाभारत के केंद्रीय चरित्र युधिष्ठिर धर्म की प्रतिमूर्ति थे । स्वयं भगवान श्री कृष्ण उनकी धर्मरक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे । उन्होने महाभारत युद्ध के बाद 36 वर्ष तक राज्य किया । उन्होने राज्यासीन होने के पूर्व शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह से महाभारत के शांतिपर्व के अनुसार राज्य व्यवस्था का उत्तम पाठ पढ़ा । 

 7  - चन्द्रगुप्त मौर्य (जन्म ३४० ई॰पू) भारत के महानतम सम्राट थे। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल रहे। उन्होंने लगभग २४ वर्ष तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अन्त प्रायः २९७ ई.पू. में हुआ। चन्द्र गुप्त मौर्य के मार्गदर्शक विष्णुगुप्त चाणक्य का अर्थशास्त्र राजनीति का वर्तमान ऐसा महान ग्रंथ है जिसकी नीति और नय का विश्वव्यापी स्थान है । 

8. सम्राट अशोक – चक्रवर्ती सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। ... सम्राट अशोक ने संपूर्ण एशिया में तथा अन्य आज के सभी महाद्वीपों में भी बौद्ध धर्म धर्म का प्रचार किया।

9. विक्रमादित्य - विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे । सम्राट विक्रमादित्य गर्दभिल्ल वंश  के शासक थे।  सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित किया था। उनके पराक्रम को देखकर ही उन्हें महान सम्राट कहा गया और उनके नाम की उपाधि कुल 14 भारतीय राजाओं को दी गई । "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध हैं) ने भी प्राप्त की । भारतीय पंचांग इनके द्वारा आरंभ संवत्सर पर आधारित है ।   

10.  चन्द्रगुप्त द्वितीय - को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है। वे भारत के महानतम एवं सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट थे। उनका राज्य 375-414 ई. तक चला जिसमें गुप्त राजवंश ने अपना शिखर प्राप्त किया। गुप्त साम्राज्य का वह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय महान अपने पूर्व राजा समुद्रगुप्त के पुत्र थे। 

11. हर्षवर्धन-  (590-647 ई.) ने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। उन्होंने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्ट रचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। इनका शासनकाल ६०६ से ६४७ ई. है । 

12.  राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था। कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था। वे सरस्वती के उपासक थे । उनके द्वारा धार में स्थित अप्रतिम ऐतिहासिक धरोहर भोजशाला इसका प्रमाण है । 

राम राज्य के प्रसंग में मुझे वर्तमान युग के दो महा मनीषी धर्म सम्राट करपात्री और राष्ट्र पिता महात्मा गांधी का संदर्भ उल्लेख भी बहुत आवश्यक प्रतीत होता है । महात्मा गांधी जी ने प्रसिद्ध दांडी मार्च के दौरान अनेक भ्रांतियों के निवारण के लिए  20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखा था।  इसमें गांधीजी ने कहा था- ‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य. यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा. रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा. ...सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो. यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जिस गुण की आवश्यकता है, वह तो सभी वर्गों के लोगों- स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों- तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है. दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं. सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?’

800 से भी अधिक पृष्ठों की करपात्री जी की पुस्तक ‘साम्यवाद और रामराज्य’ में स्वामी जी ने बहुत विस्तार से विश्व की विचार यात्रा में राज्य और राजधर्म की विकास यात्रा का विश्लेषण किया है । निश्चित ही जब साम्यवाद अपनी भौतिक शक्ति के बूते विश्व-मानव मस्तिष्क पर सम्पूर्ण नियंत्रण की एक सदी की यात्रा पूरी कर चुका है तब सहस्राब्दियों पुरानी भारतीय रामराज्य की अवधारणा की प्रासांगिकता कहीं और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है । यहाँ मैं स्वामीजी के अंतिम निष्कर्ष भाग का ही एक अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ –

“ मार्क्स निश्चित ही निरीश्वरवादी है, फिर उसकी दृष्टि से कर्मों का ईश्वर को समर्पित करना, फल की आकांक्षा बिना ईश्वराधन बुद्धि से शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान (गीता दर्शन संदर्भ) आदि सब बातें व्यर्थ हैं । धन को ही सर्वस्व मानने वाले भौतिकवादी के लिए हानि-लाभ, जय पराजय को समान समझना कहाँ तक संभव है? किसी दांभिक के दंभ के भंडाफोड़ होने से किसी युक्तिशास्त्र सम्मत सिद्धान्त का अपलाप नहीं किया जा सकता ।“  

‘सीय राममय सब जग जानी’ के भाव और बुद्धि बोध में विकसित भारतीय मनीषा वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैश्विक संदर्भ में भी समान शुचिता की समर्थक है । इस संदर्भ में ध्यान देने पर स्पष्ट होगा कि भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का 26 सितंबर (2020) को संयुक्त राष्ट्र संघ की 75वीं सामान्य सभा का सम्बोधन राष्ट्राध्यक्षों की बंधी बंधाई शैली, शब्दावली और राजनैक रटंत से सर्वथा पृथक और विशिष्ट था । मोदी जी ने विश्व संगठन के इतिहास, चुनौतियों और उनके परिहार की जिन विडंबनाओं को अपने सम्बोधन में रेखांकित किया उसे समझने के लिए विश्व विरादरी को अपनी समझ को और पैना करने की जरूरत समझी जा सकती है । मूल मानव संरचना के भारतीय दार्शनिक अंतर्बोध में पगा यह दिशा दर्शन उन्हें कैसे भा सकता है जो भौतिकता, शक्ति, संघर्ष और व्यक्तियों तथा देशों के तात्कालिक सतही रिश्तों में ही परम सत्य देखा करते हैं ! वास्तव में राम की भाषा परशुराम और समुद्र को तथा हनुमान और अंगद की भाषा रावण को समझने में आखिर कितना समय नहीं लग जाता है ! प्रकारांतर से यह साम्यवादी व्यवस्था के स्वयंभू चीन के द्वारा भारत के सुरक्षा परिषद में प्रवेश और पाकिस्तान से पोषित अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रीय आतंकवादियों के संरक्षण में अपने वीटो के प्रयोग पर विश्व विरादरी की असमर्थता का ही उजागर किया जाना है । 

आइये हम आशा करें कि सत् और असत् के इस चिरंतन संघर्ष की कड़ी में सत् की प्रतीक भारतीय आदर्श व्यवस्था ‘राम राज्य’ भारत में ही नहीं समग्र भूमंडल में शीघ्र प्रतफलित होगा । 

-अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल -462016. Email -vishwatm@hotmail.com (लेखक भोपाल से प्रकाशित तुलसी मानस भारती, सांस्कृतिक मासिक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं।)