Sunday 26 June 2022

कथा-कठौती की समीक्षा

 कृति - कथा कठौती

लेखिका - बिनय षडंगी रामाराम 

प्रकाशक- शिवम् प्रकाशन, प्रयागराज 

मूल्य - रुपये ४००

 

                   लोक की वेद-व्याप्ति अर्थात् कथा कठौती 

                  प्रभुदयाल मिश्र 

 

'स्वर्ग का द्वार', 'किसी को तो शिव बनना होगा' और 'तथैव ' आदि कालजयी कृतियों के बाद जब डा बिनय राजराम जी बाल मनोविज्ञान परक 'कथा कठौती' बाल-कथा संग्रह की रचना करती हैं तो चिरंजीवी मार्कण्डेय से सम्बन्धित भगवान् विष्णु की प्रलय-पार की बाल छबि- दर्शन के इस श्लोक का स्मरण हो आना स्वाभाविक है

करारविन्देन पदारविंदं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् 

वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालमुकुन्दं मनसा स्मरामि  

इस परम साक्षात्कार की पृष्ठभूमि भी अद्भुत है भगवान् शंकर की कृपा से अपनी किशोर वय में ही सदा स्थित रह जब मार्कण्डेय जी ने छ: मन्वंतरों की चिरजीविता में भगवान् विष्णु से उनकी माया का साक्षात्कार करने की प्रार्थना की तो उन्होने विष्णु की दुस्तर माया से उत्पन्न महाजल प्लावन में अपने आपको स्थित पाया आकाश, पाताल और पृथ्वी के थपेड़ों के बीच अनेक कल्पांतों के बीत जाने पर अतिशय संतप्त उन्हें अंतत: बालमुकुन्द के दर्शन हुये और इसके बाद उन्होने अपने आपको पूर्ववत् यज्ञाग्नि में आहुति दान के लिये उठाये गये हाथ सहित यथावत उद्यत पाया

जब बिनय कहती हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा ।  इस छोटी-सी 'कथा-कठौती' में बाल-कथाओं की गंगा का पुनीत प्रभाव समा जाने की चाह है- तो राम के पाँव धोने के लिये केवट के 'पानि कठौता भरि ले आवा' का स्मरण आना स्वभाविक है वह कठोता कुछ बड़ा रहा होगा बिनय की इस कठौती से क्योंकि उसके पास दृश्यमान भूत और भविष्य का सत्य भी था पर बिनय जी ने जीवन के थपेड़ों और तीखे आघात से उबरने के लिये कालक्षेप का अब बड़ा सशक्त माध्यम अपना लिया है इस प्रकार बालमुकुन्द के अवराधन और केवट-पात्र की निश्छल, निर्मलता में अपने को निखारने का यह उपक्रम उनकी परायात्रा का मंगलायतन है  

बिनय ने अपनी पूर्विका में उपनिषद्, जैन, बौद्ध आख्यान, बाइबिल, पंचतंत्र, जातक कथाओं, सिंहासन वत्तीसी और कथा सरित्सागर आदि का सम्यक् उल्लेख किया है जिनमें मानवीय शैशव, प्रकृति, नीति, रस और जीवन के आदर्श जीवन की समरसता के सार स्वर  विद्यमान रहे हैं यहाँ मुझे अंग्रेज़ी के रोमान्टिक ऐरा के कवि वर्ड्सवर्थ की प्रसिद्ध कविता टिंटर्न ऐबी की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का मन है जिसमें प्रकृति के साथ बाल मन की उदात्त निश्छलता की अलौकिक झलक दिखाई पड़ती है इसमें कवि अपनी छोटी बहिन डोरोथी को भी प्रकृति के एकाकार देखता है -

But oft, in lonely rooms, and 'mid the din

Of towns and cities, I have owed to them, 

In hours of weariness, sensations sweet, 

Felt in the blood, and felt along the heart;

And passing even into my purer mind

With tranquil restoration

.....

How often has my sprit turned to thee! 

...

And this green pastoral landscape, were to me 

More dear, both for themselves and for thy sake! 

सूर के कृष्ण कभी ऐसे ही भाव बोध की लीला में उद्धव को कह रहे थे

जबहि सुरति आवत वा सुख की जिय उमगत तनु माहीं 

ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं  

भक्ति की पुष्टि मार्गीय परंपरा में अष्टछाप के कवि छीत स्वामी की एक कथा का स्मरण भी मुझे यहाँ हो रहा है जब बाल-कृष्ण आधी रात उनकी कुटिया में प्रकट होकर उन्हें एक भक्त गोपिका के यहाँ मक्खन की चोरी करने ले साथ गए और छीतस्वामी को पकड़वा कर खुद साफ बचकर निकल आए ! इससे तो यही समझ आता है कि भगवत साक्षात्कार का सरल और सिद्ध मार्ग तो जैसे वतसलता से ही गुजरता है ! और यह तो कहा ही जाना चाहिए कि अध्यात्म में गति और जीवन में प्रगति का पर्याय संभवत: बचपन का भाव, प्रपन्नता का लौटना ही है – सकृदेव प्रपनय तवास्मि इति याचते – (वाल्मीकि रामायण)

समीक्ष्य पुस्तक के तीन प्रमुख खण्ड हैं - बाल मनोभावों की साम्यता में पशु-पक्षियों के कथा-रूप इसमें चटोरा कौआ गोकि इतना चटोरा भी नहीं लगता वह कुंदरू खाने के लिये कितने- कितने बेगार नहीं उठाता माली की खुरपी की आवश्यकता, लोहार की मटकी की आवश्यकता और कुम्हार के गधे की सेवा की पूर्ति कर ही उसे कागभुषुण्डि की तरह संतोष का महामन्त्र मिलता है इस तरह उसमें श्रम, कुशलता, बुद्धि और लक्ष्य के प्रति तल्लीनता की अद्भुत मानवीय क्षमतायें दिख जाती हैं  

और तो और एक कोयल के साथ तुलना किये जाने पर भी कौआ इक्कीस ही ठहरता है कोयली के अंडों को अपने घोंसले में सेते हुये कोयली के ताने सुनने और सहने की क्षमता में बिनय द्वारा उसे सभी युगीन अभिशाप से मुक्त करने का यह एक अच्छा उपक्रम है  

तीसरी कहानी के कुयें और तालाब के मेंढक का संवाद मुझे ऋग्वेद के प्रसिद्ध मंडूक सूक्त की ओर ले जाता है  

वैसे मंडूक के वेदपाठी होने का प्रमाण तो गोस्वामी दे ही देते हैं - दादुर धुनि चहुँ दिसा सोहाई वेद पढहिं जनु वटु समुदाई  

बिनय के इन मेंढकों ने कुछ तरीक़ा तो वेद से ही उठाया है ज़रा ध्यान दें मंडल १० के सूक्त ८२ के मंत्र के इस काव्यानुवाद पर  

एक बोली सीख 

वह दूसरा

दुहराता 

कुशलता पूर्वक जल में 

कि जैसे शिष्य गुरु से 

सीखता होता

इस खण्ड का गप्पू हाथी और चितेरा मोर भी अपनी रोचकता और संदेशवत्ता में परिपूर्ण हैं न्याय प्रिय राजा का न्याय तो सचमुच ही निराला और कल्पनातीत ही है एक साथ ही लोक और परलोक को साध लेने की ऐसी क्षमता किसी वेताल विजयी विक्रम की हो सकती है यह ज़रूर है कि कोई बड़ा बच्चा लेखिका से यह पूछ भी सकता है कि क्या विक्रमादित्य ने कभी कॉमन सिविल कोड पर कोई विचार कर रखा था

'बच्चों की भीड़ से 

राज्य को बचाना था 

दो ही बच्चे अच्छे हैं 

यह संदेश भी देना था ( पृष्ठ ४१

दूसरा खण्ड लोक-कथा प्रधान है इसकी मुख्य विशेषता यह है कि चूँकि ये कथायें लेखिका के जन्म स्थल उत्कल प्रदेश -उड़ीसा प्रान्त की हैं अत: पश्चिमी, मध्य और उत्तर भारत के हिन्दी पाठकों को इनमें नवीनता मिलेगी ग्रामीण बालक बलराम के भय को दूर करने के लिये स्वयं गोपाल का आना, ईर्ष्या द्वेष और स्वार्थ के स्थान पर वनदेवी तपई में सदाशयता की जय और चंड अशोक का धर्म-अशोक बन जाना इतिहास की लोक लेखनी से जैसे एक पुनर्लेखन का कार्य ही है इसी तरह चाहे कोणार्क निर्माण के शिल्प कौशल की अलौकिकता और नन्हें शहीद बाज़ी का जंगल की रक्षा में आत्म वलिदान के चरित्र हों, वे पूर्व के इस महाकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जो अचल और अमिट ही रहने वाले हैं  

तीसरे खण्ड में लेखिका जैसे अपने वर्तमान को भी अतीत की चादर में ओडाने के लिये सन्नद्ध है इसमें चार कहानियाँ हैं पहली उज्जैन के अतीत में ले जाती है, दूसरी दीपावली त्योहार के दिनों का सिलसिलेवार विवरण पहुँचाती है, तीसरी जंगल के राजा शेर तथा चौथी शक्तिमान बरगद की आत्मकथायें हैं ज़ाहिर है इन सभी विषयों पर बड़े शोधपूर्ण आलेख, उपन्यास और बड़े ग्रन्थ भी लिखे जा सकते हैं किन्तु कथाकार बिनय ने यहाँ अपनी भूमिका एक बाल-कथाकार की ही अख़्तियार की है अत: इनका बाना आत्मकथा, डायरी और यात्रा वृतान्त जैसा है इसमें उज्जैन के सिंहस्थ का कारण संशोधित करने का परामर्श मुझे देना है सिंहस्थ ' तिथि के अनुसार वह दिन सिंह राशि में पड़ने के कारण' नहीं बृहस्पति गृह के सिंह राशिस्थ होने के कारण है यह स्थिति १२ वर्षों में पुन: लौटती है क्योंकि बृहस्पति को प्रत्येक राशि में एक-एक वर्ष चलते हुये सिंह राशि में वापिस आने के लिये १२ वर्ष लग जाते हैं  

अंतिम कहानी शक्तिमान बरगद में बौन्साई के बरगद का विराट में रूपान्तरण बहुत रोचक है ठीक सप्तवर्णी साहित्य कला केन्द्र की पहचान की तरह ! स्वयं ही सिद्ध है यह कि राजाराम दंपत्ति ने इस उद्यान को सजाने संवारने में कितनी तपस्या और श्रम नहीं किया है !  

 

आवरण, चित्रांकन कृति में प्रख्यात् महा कला मर्मज्ञ रामाराम जी की विरासत और कल-छाया के पग-पग पर दर्शन होते हैं - आवरण पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक निर्वाध। चित्र बाल मनोविज्ञान के समनुरूप कथा-सूत्रों को बुनने, संवारनें और कथा मर्म को पैनापन प्रदान करने वाले हैं  

काव्य कलियाँ - प्रत्येक कहानी के आदि, मध्य और अंत में नट-नटी, नांदी कथन और भरत-वाक्य जैसी कविता पंक्तियाँ यह उद्घोष करती चलती हैं कि यह कृति काव्य कारयित्री शक्ति वाली बिनय षडंगी रामाराम की स्वयं की प्रकृत पहचान है  

प्रूफ़ सुधार

1.     पृष्ठ १६ अंतिम पैरा, अंतिम पंक्ति - उपहरा - उपहार 

2.     पृष्ठ ३३ नीचे चौथा पैरा - पसनद -पसंद 

3.     पृष्ठ ८३ - ऊपर से चौथी पद पंक्ति - देखा - देखी 

4.     पृष्ठ ९१- नीचे से चौथी पंक्ति - भैवर - भैरव 



35 ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल 462016