Friday 25 April 2014

सुख-दुःख की आँख मिचौनी



अभिप्रेत
सुखस्यान्तरम दुखं दुखस्यान्तरम सुखम्
न नित्य लभते दुखं न नित्य लभते सुखम् . महाभारत (शांतिपर्व २६/२३)
भगवान वेदव्यास का यहाँ यही कहना है कि सुख अथवा दुःख में से कोई नित्य -- चिरंतन नहीं है. इसलिए एक कवि-मन द्वारा चिर-सुख और चिर-दुख की चाह न रखना जीवन को उसकी सहजता में स्वीकार करना ही है. श्री आई डी खत्री द्वारा अपनी इस सन्देश-सूचिका में जो सूक्ति-संग्रह प्रस्तुत किया गया है उसका भी सार-संकेत यही प्रतिध्वनित होता है.
इस तरह लेखक द्वारा अपनी ‘और से’ की गयी प्रस्तावना में इसे सनातन धर्म के ‘कर्म’ सिद्धांत अथवा ईश्वर-आस्था से जोड़ना उसकी सहज आस्तिकता का ही परिचायक है.
वेदांत के अनुसार जिस तरह शरीर में ज़रा-मृत्यु, प्राण में भूख-प्यास है उसी तरह सुख-दुःख मन की वृत्तियाँ हैं. किन्तु शरीर, प्राण और मन के भी परे विज्ञानमय और आनंदमय कोश और पञ्च कोशों के परे शुद्ध चैतन्न्य  हैं. अतः भारतीय अध्यात्म के धरातल पर इन वृत्तियों मात्र के अनुगमन से परं सत्य का अनुसंधान सुलभ नहीं कहा जा सकता.
जब बौद्ध दर्शन कहता है कि दुःख की सत्ता और उसकी आत्यंतिक निवृत्ति संभव है तो यह एक निषेध परक सत्य ही कहा जा सकता है. ‘सत्यं परं धीमहि’ (हम परं सत्य का अनुसंधान कर रहे हैं) जिस प्रतिज्ञा वाक्य से भागवत का प्रारंभ होता है उसमें ईश्वर को सभी द्वैत के परे प्रतिष्ठित माना गया है. भारतीय अध्यात्म में ईश्वर घनीभूत आनंद है. आनन्द के किसी दुखवाची विलोम की न तो यहाँ कोई स्थिति है और न ही कल्पना.
यह प्रसन्नता की बात है श्री खत्री जी ने अपने सात्विक संकल्प के इस अनुष्ठान की पूर्ति में आनंद के सागर में अनेक गोते लगाए हैं. उनकी इस साध संकल्पना के लिए मैं उन्हें सम्मानास्पद मानता हूँ. आशा है कि वे मुक्तामणियों की इस खोज में आगे सतत सन्नद्ध रहेंगे. इति शम. इदम् न मम्.  
भोपाल, २५ अप्रैल २०१४                                              प्रभुदयाल मिश्र
                                                         अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्