Monday 25 June 2012

Atmkathya

               
क्या कहूं आज, जो नहीं कही                                        प्रभुदयाल मिश्र
      यह एक अतिरंजना ही होगी यदि मैं शीर्षक के पूर्वार्ध की काव्य पंक्ति-‘दुख ही जीवन की कथा रही ’ से यह आत्मकथ्य आरम्भ करता हूं । वैसे अपने आप को खास, अलग और महत्वपूर्ण सिद्ध करने का यह जरिया सर्व स्वीकृत है-विशेषकर रचना क्षेत्र में क्योंकि उसकी क्षमता इस निज को पर में ढाल चुकने का माद्दा रखती है -( कम से कम उसका दावा तो ऐसा होता ही है !) पर मुझे लगता है कि यह भी एक प्रकार का अतिक्रमण ही है-दूसरे की आजादी का । चूंकि दूसरों को अपने दुख से दबाने की कोशिश मात्र ही एक अन्याय, अत्याचार और नाफरमानी है, अस्तु! परन्तु....
    कहने और सुनाते रहने के लिए हम क्या-क्या रास्ते नहीं खोजते रहते हैं। क्या यह हमारा आत्मालाप ही नहीं है, प्रायः? पर अपने आपसे बतियाते रहने से कौन किसको रोक सकता है? इसमें दूसरे की आपत्ति का प्रश्न ही कहां उठता है?
   किन्तु शायद अपने आपको समझने और समझते रहने का हमारे पास इससे अच्छा कोई उपाय ही नहीं होता । आखिर धारणा, ध्यान अथवा समाधि क्या है? ये साधन हमें अपने आप ही के तो निकट पहुचाते हैं । यहां तक कि क्रिया, प्रेम और भक्ति भी आपने समर्पण की पूर्णता में अपनी फैली पहचान तक ही पहुंचाती है ।
   और ऐसे में यदि कोई अन्य आप बीती अथवा आगे पड़ती स्वयं की छाया को देखकर कुछ आनन्द ले सकता है तब तो यह रचनाकार की सिद्धि ही हो गई । सब दूर जो इतना छूटता जा रहा ह,ै समेटने स,े और जो एकदम आदमी के निकट है, उसे सहेजकर उसके हाथ में रख देने का संतोष भी कोई कम तो नहीं ही है । 
   मैं क्या कहूं अपने आपको-कवि, साहित्यकार, लेखक, विचारक अथवा कुछ और ? यह द्विविधा मेरे नाम जैसी ही है । एक सनातनी भक्त मेरी मां ने मेरा नाम रखा ‘प्रभ’ु । स्कूल में दर्ज होने पर यह हो गया ‘प्रभुदयाल मिश्र’। कालेज में आकर यह हो गया ‘मिश्रा प्रभुदयाल’ । सरकारी नौकरी में इसे गति देते हुए बना दिया गया-पी डी मिश्रा । यह निगुणीर्, निराकार नाम उच्चारण और प्रवाह की दृष्टि से करीब चालीस वर्ष तक बखूबी चला । बीच बीच में इसे कला और रचनाधर्मिता से जोड़ने के बाहर और भीतर के आग्रहों को दर किनार करते हुए मैंने जैसे ये दो छोर उनकी अपनी ही जोर आजमायश के लिए छोड़ रखे है । इतना जरूर हुआ कि आयातित नाम-पी डी मिश्रा मेरी अंग्रेजी रचनाओं से जुड़ गया । हिन्दी लेखन में अपने आपको और अधिक गुमशुदी में न डाल देने की चेष्टा में अब प्रभुदयाल मिश्र ही शेष हूं ।
   यही परेशानी जन्म तिथि के बारे में भी चल रही है । प्राईमरी कक्षा में मास्टर साहब ने अपने पूर्वानुमान से दो वर्ष आगे की तिथि दर्ज करली । मिडिल स्कूल में एक शुभ चिंतक ने इसे डेढ़ वर्ष पीछे एक मार्च 1948 कर दिया । ज्योतिष में भविष्य दर्शन के लिए जब 16 अक्तुबर 1946 की जन्मकुण्डली देखने की स्थिति आई तो देर हो चुकी थी । मित्रवर श्री कमलकान्त जी ने इसका एक हल निकाला है । उनका कहना है कि हम पैदा कभी भी हुए हों, हमारा वास्तविक जन्म तो हमारी लोक स्वीकृत पहचान ही सिद्ध करती है । ज्योतिष शास्त्र में भी प्रश्न कुण्डली और वर्ष कुण्डली बनती है । अतः उन्होंने सरकार की तरह 1 मार्च को ही मान्यता दी है । अब मैं अपने जन्म की तरह इस बेबशी को नकार भी कैसे सकता हूं !
   फेसबुक में यही तिथि दर्ज चल रही थी । बहुत से मित्रों ने इस पर जब बधाई देना भी शुरू कर दिया तो मैंने अपना धन्यबाद देते हुए एक समाधान गीता के इस श्लोक का उल्लेखा करते हुए प्राप्त किया-
   अजोपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्
   प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया । गीता 4 । 6
 अर्थात् एक अर्थ में हम सभी अजन्मा ही हैं इसलिए पैदा होने की तिथि एक तात्कालिक सुविधा से अधिक और कुछ नहीं है। और यदि हमने कोई तिथि या तारीख निकाल या मान भी रखी है तब भी हमारी सनातन पहचान तो अप्रभावित ही रहेगी । अस्तु !
   अपने बहनोई श्री रामदेव जी मिश्र की कवितायें सुन-सुन कर लिखना मैंने 14 वर्ष की ही उम्र में शुरू कर दिया । उस समय अपने गांव पर लिखी एक लम्बी कविता की ये पंक्तियां मुझे अभी भी याद हैं-
      किन्तु बड़ी थी पुण्यमयी तू पुहुमि धन्य, गौरवशाली
      पाकर तुझ श्रेष्ठ अवनि तल को यह हुआ ग्राम समृद्धिशाली !
   ओरछा राज्य के कवि केशव और चालीस के दशक के कुण्डेश्वर से प्रकाशित ‘मधुकर’ की विरासत का जरूर कृछ असर होगा कि बी ए प्रथम की परीक्षा देकर मैंने ‘शिवप्रिया’ और बी ए अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर गर्मियों की छुट्टी में ‘समर्पण’ खण्डकाव्य लिखा । सागर विश्वविद्यालय पहुंचकर ऐसा लगा कि हिन्दी तो जैसे आ ही गई और शेष री आ भी जायेगी, किन्तु अंग्रेजी पढ़ लेना ज्यादा उपयोगी रहेगा । इसे जैसे मैं आज भी नकार न सकूंगा । और छूटा हुआ अतीत तो रह रह कर आता ही रहता है, अतः अब पछतावा भी किस बात का ?
   किन्तु क्या मैं कवि शेष रह सका? कविता के क्षेत्र में प्रकाशित कृतियां तो मुख्यतः काव्याानुवाद ही हैं-‘सौन्दर्य लहरी’ और ‘वेद की कविता’। आगे स्वतंत्र ‘वैदिक कविताओं’ के प्रकाशन का कब समय आयेगा, कौन जानता है!
   60-70 के दशक में प्रकाशित/अप्रकाशित कहानियों का संग्रह आ सकता था किन्तु तब प्रकाशक कहां होते थे! आखिर 96 में आत्मकथात्मक ‘उत्तर-पथ’ और 2001 में औपनिषिदिक उपन्यास ‘मैत्रेयी’ आया तो गद्य लेखन में जैसे प्रवृत्ति ही हो गई । योग और अध्यात्म का एक साहित्य पक्ष भी हो सकता है, यह मेरे मन में कहीं गहरे पैठा था । गीता और वेद के सम्बंध में अंग्रेजी और हिन्दी की दो-दो किताबें संभवतः इस धारणा की ही परिणति हैं ।
   ‘तंत्र दृष्टि और सौन्दर्य सृष्टि’ (विश्व विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 2007) की भूमिका में मैंने लिखा है-‘ कभी-कभी कविता कर्म को साधना का पर्याय भी माना जा सकता है । ऐसे में उसकी अनुष्ठानात्मक शक्ति बेजोड़ हो जाती है । जब कोई कविता शुद्ध साधनात्मक ही तो वह न केवल साहित्यकार, अपितु उसके पाठक और रस स्रोताओ की जीवन दृष्टि बदल सकती है ।’  
    कविता यदि मनोमय कोष का उद्घाटन है तो बुद्धि निश्चित ही उसके परे है। क्या ज्ञानमय और विज्ञानमय कोष में पहुंचकर कविता छूट नहीं जायेगी, यह प्रश्न मेरे मन में बना रहा है । फिर आनन्दमय कोष की तो बात ही कहां उठती है! किन्तु इसमें दो मत नहीं हो सकते कि संसार का श्रेष्ठतम लेखन और संदेश कविता के माध्यम से ही युग युगों से लोक-लोकान्तर में प्रसरित हुआ है । वेदांे के मन्त्र द्रष्टा ऋषि, वेद व्यास और तुलसी आदि को कोई मनोमय कोष का यात्री कैसे कह सकता है!
   अर्थात् कवि अपनी सामर्थ्य के बूते सात लोक और सातों समन्दर पार कर सकता है, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। और कहीं यदि संदेह है तो वह निश्चित ही कवि की क्षमता का होगा, कविता का नहीं ।
    कविता के उपासकों के लिए भी संभवतः योग साधकों की भंाति श्री कृष्ण का यह आश्वासन लागू हो सकता है-
     पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते
     न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति
                               गीता 6-40
    शर्त केवल ठीक पैमानेे की ही है । कविता के (यज्ञ ) लोक-कल्याण के पक्ष को अनदेखा न करने की है । ऐसे कवि और कविता के संबंध में ही वेद स्पष्ट घोषणा करता है-
     प्राप्त करते प्राप्य वे वक्ता प्रखर
     यज्ञ से गौरव गिरा
     जे निहित सप्तर्षि स्वर में
     मन्त्र, लय विस्तार वाली
     देश-देशान्तर गई
     वह ऋचा, कविता
     छन्दमय रचना ।
                      ( वेद की कविता/वि.वि.प्र./58)
                       35, ईडन गार्डन, राजाभोज (कोलार मार्ग) भोपाल 462016

Atmkathya

Sunday 24 June 2012

श्री महेन्द्र शर्मा की ‘वह बूंद अभिलाष’ स्ंक्षिप्त टिप्प्णी


आदरणीय श्री शर्मा जी,
आपकी पुस्तक वह बूंद अभिलाषअभी पूरी नहीं कर सका हूं । चंूकि कहीं बाहर जा रहा था सो लगा कि कुछ तो अपनी बात कहूं इसलिए यह संक्षिप्त कथनः
भारतीय दर्शन के सनातन पक्ष पर पश्चिम के विचारकों की समस्वरता /समरूपता का आकलन उन्हें सार्वभैमिकता प्रदान करता है, यह निर्विवादित है । किन्तु यहां कठिनाई यह है कि इसका रूपान्तरण यदि हिन्दीतर हिन्दी के प्रभाव में अमूर्तता लिए हो तो यह दुरूह विषय और भी दुरूह हो जाता है । विषय की क्रमबद्धता, तारतमितता और संप्रेषणीयता की चिन्ता किए बिना लेखक अपनी बात किस सीमा तक पाठक के पास पहुंचा सकता है, यह तो विचारणीय ही है ।
यह हो सकता है कि लेखक बहुत से विषयों पर केवल टिप्पणी करते हुए समझदारपाठकों को निष्कर्ष लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ रहा हो, लेकिन इस प्रत्याशामें वह (पाठक) पीछे ही न छूट जाय, मेरे विचार से यह ध्यान तो लेखक के लिए आवश्यक ही है ।
कुछ स्थान (पृ. 45) ऋत् शब्द तीन प्रकार से लिखा/छपा है । पृष्ठ
51 में ब्राह्मणक्या ब्रह्मन्है? यह ब्रह्मभी हो सकता है !
कृपया क्षमा करें, पहली ही प्रतिक्रिया ऐसी, शायद यह मेरी सीमा हो, पर पाठक असीमक्षमतावान् होगा यह अभिलाषा’...भी कैसी!
आपकी अपनी क्षमता निश्चित ही अप्रतिम है । इतना अध्ययन और मनन आपके संस्कार, शिक्षा और संकल्प की अतुलनीयता का ही प्रमाण है ।
भवदीय
प्रभुदयाल मिश्र
pdmishrabpl67@hotmail.com

Friday 8 June 2012

Review of the book "Shyam Sakhi"

समीक्षा

            रास पंचाध्यायी का नाट्य रूपांकन- ‘श्याम-सखी’
                                      प्रभुदयाल मिश्र

 डा.पुरुषोत्तम चक्रवर्ती की गोपियों के दिव्य प्रेम का स्वरूप दिखाने वाली नाटिका ‘श्याम-सखी’ श्रीमद्भागवत् की रास पंचाध्यायी की एक ऐसी रसात्मक टीका है जो कृष्ण और गोपियों की अलौकिक प्रेम-लीला को लोक-रंग की लावण्यता से सजाती है । श्री चक्रवर्ती ने भागवत् के दशम स्कन्ध के 29 से 33 अध्याय के इन पांच अध्याय की पूर्व पीठिका 21 वें अध्याय के वेणु गीत और अध्याय 22 के कात्यायनी व्रत तथा चीर हरण लीला से ली है । जिस प्रकार से संस्कृत नाट्य की शास्त्रीय परंपरा में इन दिनों श्री चन्द्रपकाश द्विवेदी उपनिषद् गंगा नट-नटी से संचालित करा रहे हैं, वेसे ही ही श्री चक्रवर्ती ने श्याम और श्यामा को मंच पर सूत्र संचालन के लिए प्रस्तुत किया है । यह नामकरण और अनुष्ठान अपने आप में श्री कृष्ण और राधा के नाटकीय चरित्र के विकास में सहायक है ।
 लेखक की दृष्टि तत्वतः वैष्णव है तो उसका कला पक्ष शास्त्रीय होने के साथ ही साथ प्रयोगधर्मी भी है । श्री कृष्ण और राधा के प्रेम की शाश्वतता जैसे उनका मिलन न होकर मिलन की कामना की वह निरन्तरता है जो प्रत्येक जीवधारी की सनातन प्रकृति है-
‘तो फिर इन विकारन सूं बचवे के तई कूं मन सूं बाहर निकारेा, और आत्मा, यानी भगवान की ओर देखो ।...कामनायें ही बन्धन हैं । उनको त्याग करवै पे ही मन भगवान की ओर लगेगो ।’(पृष्ठ-6)
भागवत् के अन्तः साक्ष्य उन सभी प्रश्नों के प्रायः समाधान करते हैं जो सामान्यतः लोगों के मन में बालक (किशोर भी नहीं) कृष्ण और गोपियों के पारस्परिक प्रेम प्रदर्शन के प्रसंग में उठते हैं । सूत्रकार का इस संबंध में यह समाधान बहुत ही ठोस है-
‘अरी मैं तो ये समझानों चाह रह्यो कि जैसे कोई बालक अपने प्रतिबिम्ब के संग खेल खेल के प्रसन्न होय, वैसे ही प्रभु ने योगमाया के द्वारा अपनी छाया रूप गोपिन के संग लीला करी’  ( पृष्ठ-14)
इसमें संदेह नहीं कि श्री कृष्ण की रास लीला के प्रसंग में रसोद्रेक और नाट्याभिनय के जितने भी आयाम हो सकते हैं, सभी कूट कूट कर भरे हुए हैं । चरित्र का क्रमिक विकास, कथोपकथन की विदग्ध्ता-वल्गु वाल्क्यया और समुत्सुकता/अनपेक्षापूर्ण घटनाक्रम सभी इसमें विद्यमान हैं । श्रीकृष्ण शारदीय पूर्णमासी के दिन गोपियों का आवाहन करते हुए पहले उन्हें टके सा जबाब देकर चलता करने की कोशिश करते हैं । वे उन्हें यह भी चेतावनी दे देते हैं कि ‘अच्छे कुल की स्त्रीन कूं या तरह पर-पुरुष के पास आनो, निंदा की ही नहीं, अपकीर्ति को भी कारण बनै ।’ (पृष्ठ 27) किन्तु एक बार जब कृष्ण ने गोपियों के समर्पण को स्वीकार कर भी लिया तो कृछ देर बाद वे अदृश्य हो जाते हैं । यहां तककि उनकी परम प्रिया राधा भी कुछ ही दूरी तक उनके साथ चल पाती हैं! कृष्ण के विरह में कातर गोपांगनायें इसके अनन्तर लोक,शास्त्र और और सार्वकालिक संगीत का अजस्र स्रोत गोपीगीत का अनुगान करती हैं । कृष्ण प्रकट होने पर कहते हैं कि जिस प्रकार खोए हुए अपार धन के एक बार फिर से मिलने पर आनन्द की विशेष अनुभूति होती है, उसकी प्रतीति करने को ही वे कुछ समय के लिए उनसे दूर हुए थे ! इसके बाद महारास की लीला आरम्भ होती है । श्री pdmishrabpl67@hotmail.comकृष्ण के इस महारास को लेखक ने श्रीकृष्ण के शब्दों में इस तरह प्रकट किया है-
‘प्रेम भक्ति की राह में भक्त और भगवान के मिलन में द्वैत और दुराव के ताईं कोई जगह नहीं है। यामें परम आसक्ति और सम्पूर्ण समर्पण जरूरी है । और जब जीव और ब्रह्म को मिलन होय तो परमानन्द, सचिदानन्द की स्थिति रच जाये । यही महारस है ।’ (पृष्ठ 46)
यह महत्वपूर्ण है कि श्री चक्रवर्ती ने इस गीत नाट्य की रचना ब्रज भाषा में की है । इसमें प्रयुक्त ब्रज माधुर्य युक्त और सहज ही समझी जा सकने वाली भी है । यह अनुमान किया जा सकता है कि यह सिद्धि लेखक की अर्जित साधना का ही परिणाम है ।
                   अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन्, भांपाल 16
                              9425079072