Sunday 25 August 2019

रामकथाकार श्री राजेंद्रदास जी देवाचार्य

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श्रंखला-रामकथाकार 
साधुत्व और शास्त्र के सुमेरु : श्री राजेंद्रदास जी देवाचार्य

महाराजश्री मलूकपीठाधीश : एक परिचय
भारतवर्ष के प्रदेशों में मध्यप्रदेश व उसका एक क्षेत्र बुंदेलखंड। वहाँ के एक जनपद टीकमगढ़ का एक ग्रामविशेष अचर्रा। पूर्वकाल से ही आचार्यों – सदाचारी वैदिक विप्रों के आवास स्थान का नाम आचार्य शब्द से अचर्रा हो गया। भद्र भाद्रमास जिसमें अवतारी लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का प्राकट्य होता है, उसी मास की शुक्ल पक्ष पंचमी को ऋषि पंचमी कहते हैं । उस पवित्र तिथि में हमारे पूज्यपाद श्रीमहाराजजी का आविर्भाव सत्परायणा पुण्यसंस्कारशीला माता श्रीमती बृजलता देवीजी की दक्षिण कुक्षि से हुआ । आपके पिता पण्डित श्रीरामस्वरूप पाण्डेय जी वंश परम्परानुसार अति संस्कारी, पुण्यात्मा, सदाचारी, नैष्ठिक धर्मप्राण विद्वान महानुभाव हैं । वैदिक सनातन पद्धति से जातकर्मादि संस्कार सम्पन्न होने के पश्चात विहित दिवस में विधि-विधान पूर्वक श्रीमहाराजजी का जन्म-लक्षणादि के अनुसार नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। तदनुसार आपका जन्म नाम श्रीराजेंद्र नारायण पाण्डेय हुआ। सुजनश्रेष्ठ सद्गुरु श्रीगणेशदास जी भक्तमाली जी के समर्थ दिव्याशीष से सरलात्मा दंपति श्रीमती बृजलता देवीजी तथा पण्डित श्रीरामस्वरूप पाण्डेय जी नामक माता पिता से भारद्वाज गोत्र पाण्डेय विप्रवंश में भाद्रपद शुक्ल पक्ष पंचमी, ऋषि तिथि को एक तेजस्वी बालक का प्राकट्य हुआ जो नामकरण संस्कार से आयुष्मान राजेंद्र नारायण संज्ञाव।न हुए।
यथा आपके सदगुरुदेव श्रीभक्तमालीजी अपने बचपन में केवल संस्कृत पढ़ने हेतु दो बार चुपके से घर से भाग गए। पहली बार तो वे असफल हुए किंतु दूसरी बार दो तीन साथियों के साथ वे अपने गाँव कुर्सी (नैमिष क्षेत्र) से पैदल वाराणसी आ गए। उसी तरह पाँचवी-छठी कक्षा पढ़ते पढ़ते ग्रामीण विद्यालय में घटना विशेष के कारण विरक्त हो गए। तथा आपने पिताजी से कह दिया कि ‘अब मैं वहाँ पढ़ने नहीं जाऊँगा’। इस स्थिति से आपके पण्डित पिताश्री तथा सम्पूर्ण परिवार अति चिंतित हो गए । किंतु श्रीहरि कृपा से उसी समय वृंदावन से सदगुरुदेव महाराज का पदार्पण हुआ और सारी स्थिति जानकर उन्होंने झट से समाधान किया। 
इससे पूर्व ग्राम निवास की अवधि में भी लगभग एक वर्ष के लिए प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्रीशरणानंद सरस्वती जी महाराज का पावन सानिध्य प्राप्त हुआ। पूज्य स्वामीजी जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिषपीठाधीश्वर श्रीब्रह्मानंद सरस्वतीजी महाराज के शिष्य तथा धर्म-सम्राट स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज के छोटे गुरु-भ्राता थे। पूज्यपाद श्रीशरणानंदजी सन्यास धर्म में पूर्ण परिनिष्ठित एवं कंचन कामिनी के स्पर्श से सर्वथा विमुक्त एक सर्वसंतप्रशस्त महापुरुष थे। 
वहीं अपने शरणागत नव बाल शिष्य को उन्होंने वैष्णवी दीक्षा प्रदान कर विधिवत संस्कार किया। संस्कृत शास्त्र अध्ययन वृंदावन में इनका आरम्भ करवाया। कालांतर में आपके गुरुदेव श्रीगणेशदास भक्तमालीजी ने आपको निकटस्थ खाक चौक के योगिराज सिद्ध सन्त श्रीदेवदास जी महाराज से विरक्त दीक्षा दिलवाई। संस्कारी वैष्णव अध्ययनशील श्रीराजेंद्रदास जी ने क्रमशः नव्य व्याकरण, विशिष्टाद्वैत वेदांत दर्शन तथा साहित्य-शास्त्र में आचार्यत्व उपाधि अर्जित की तथा अनुसंधान कार्य सम्पन्न कर विद्या वाचस्पति (D.Litt) की उपाधि भी प्राप्त की।
(मलूक पीठ की वेबसाइट से साभार)
  
जब मैंने पूज्यवर देवाचार्य से तुलसी मानस भवन, भोपाल में रामकथा पर व्याख्यान हेतु पधारने का अनुरोध किया तो उन्होने अपने सर्वज्ञात विनम्र भाव में प्रथमत: यही कहा जैसा कि भी आपने कहा है, जहां पूज्य रामकिंकर जी उपाध्याय, राजेश्वरानंद जी महाराज और देवी मंदाकिनी आदि पधारते रहे हैं वहाँ मेरे जैसे रामकथा न कह पाने वाले व्यक्ति का क्या स्थान हो सकता है?’
तब मेरा कहना था कि वाल्मीकि रामायण के इस श्लोक को आपके संदर्भ से मैंने नोट कर रखा है तथा आपकी अपेक्षा के अनुरूप इसके अभिज्ञान के लिए मैं इसे जहां तहां साझा कर रहा हूँ -
यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामं न पश्यति
निंदित: सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हति । (वाल्मीकि रामायण 2/17/14)
अर्थात जिसने राम को नहीं देखा-जाना और राम ने जिसे नहीं देखा (कृपा दृष्टि से ) वे दोनों तो सर्वत्र निंदा के ही योग्य हैं । उनकी अंतरात्मा उन्हें सदा धिक्कारती ही है !  
देश के शीर्ष शास्त्रज्ञ और वाल्मीकि रामायण के अप्रतिम प्रस्तोता के रूप में आपसे सुने इस कथन कि वाल्मीकि रामायण के इस श्लोक को भारत के घर-घर द्वार पर लिखा जाना चाहिए, क्या सुनकर कोई भुला सकता है ?’  
यह सही है कि देवाचार्य जी के प्रधान प्रियतर विषय भक्तमाल, श्रीमद्भागवत और गोसंरक्षण आदि हैं, किन्तु भारतीय मनीषा का कोई भी विषय उनसे छूटा नहीं है तथा उनकी अनवरत नित्य अध्ययवसायिता उन्हें शास्त्र ज्ञान की सर्वोच्च अधिकारिता प्रदान करती है । यहाँ चूंकि मूल संदर्भ रामकथाकार का है, अत: इस सम्बन्ध में उनका इसी रूप में परिचय मेरा प्रकट अभिप्रेत है ।  
कुछ समय पूर्व देवाचार्य ने रामकथा की वेद के प्रत्यक्ष उपब्रहमण के रूप में अद्भुद व्याख्या की । उनका कहना था कि दशरथ जी के पिता अज थे । अज को हम जानते हैं, यह ब्रह्मा जी का नाम है। जिस प्रकार वेद ब्रह्मा के निश्वास हैं, उसी प्रकार दशरथ अज महाराज के आत्मज हैं । गोस्वामी तुलसीदास मानस में उनका यही परिचय देते हैं –
अवधपुरी रघुकुलमनि राऊ । बेद विदित बिदित तेहि दसरथ नाऊ ॥
जब हम वेद के कथ्य भाग पर आते हैं तो स्पष्ट होता है कि वेद में ज्ञान, उपासना और कर्म – तीन मुख्य प्रभाग हैं । दशरथ जी की तीन महारानियाँ- कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी इन्हीं तीन भूमिकाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं । और जहां तक राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का संबंध है, उनके विषय में गोस्वामी तुलसीदास का यही कहना है – बेद तत्व नृप सुत तव चारी (मानस 1/98) । वे मनुष्य के पुरुषार्थ चतुष्टय- मोक्ष, धर्म, धन और काम के प्रतीक हैं । अपनी इस व्यवस्था में महाराज जी विस्तृत व्याख्या पूर्वक यह भी समझाते हैं कि पुरुषार्थ का क्रम प्रचलित रीति -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्थान पर पूर्वोक्त क्रम में ही रखे जाने योग्य है । वास्तव में काम से मोक्ष का क्रम तो असंगत है ही, अर्थ से भी मोक्ष की प्राप्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है । महाराज श्री की स्थापना है कि काम’, अर्थात कामना, इच्छा, अभीप्सा और जीवनाकांक्षा प्रथम पुरुषार्थ है जो संसार में मानव की यात्रा का सर्वथा प्रथम पग  है । इस पुरुषार्थ साधन से मनुष्य अर्थ अर्थात उपकरण, साधन और उपादान तथा धन (अर्थ) संचित करता है । धन की सर्वोत्तम गति दान है जो एक सच्चे पुरुषार्थी को धर्म पथ पर पहुँचाती है । और यही मनुष्य के लिए मोक्ष का द्वार खोलता है ।
आदिकवि वाल्मीकि के शोक से श्लोक उत्पन्न होने के लोक विश्रुत सिद्धान्त पर मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा:/ यत्क्रोंचमिथुनाद्मेकमवधी काममोहितम् की देवाचार्य जी व्याख्या अद्भुद हैं । उनके अनुसार इस एक श्लोक मात्र में रामायण के सातों कांडों की कथा का समाहार उपलब्ध हो जाता है । वाल्मीकि जैसे द्रष्टा महाकवि की काव्य प्रक्रिया को एक लोक सरलीकृत धारणा में देखना कदापि उचित नहीं है । यहाँ ऋषि की अंतर्दृष्टि किसी काल या घटना सापेक्ष न होकर वेदानुकूल सृष्टि की रचना और विस्तार क्रम की ही प्रतिपादक है ।     
भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर्नाम हैं एक /इनके पद बंदन किए नासहिं विघ्न अनेक की भक्तिमाली धारा में ज्ञान, उपासना और सनातन भारतीय जीवन दर्शन का सर्वांगीण समाहार हो सकता है, यह राजेंद्रदास जी की कथा सुनकर ही समझ आता है । हिन्दी साहित्य की संत परंपरा के मध्ययुगीन भक्त कवियों को नाभादास जी की दृष्टि में पिरोकर राष्ट्र के सांस्कृतिक परिष्कार का एक महत्तर प्रयोजन साधा जा सकता है, यह संकल्पना राजेंद्रदास जैसे उक्त परंपरा के वर्तमान और सनातन संस्करण की ही हो सकती है । उन्हें सुनते हुये  मलूकदासजी के संबंध में लोक प्रचलित निश्चेष्टा ( अजगर करें न चाकरी पंछी करें न काम। दास मलूका कहि गए सबके दाता राम) के सिद्धान्त का तो निवारण होता ही है, भक्त रैदास द्वारा काशिराज की उपस्थिति में काशी के पंडितों की पराजय का तुमुलनाद भी सुना जा सकता है ! प्रियादास जी के किसी एक पद को लेकर जब राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात या मध्यदेश के किसी संत के संबंध में किन्हीं चार पंक्तियों पर उनकी कथा का एक सम्पूर्ण सप्ताह (पाँच घंटे प्रतिदिन की अबाध कथा धारा में) अपर्याप्त हो जाता हो तो वाल्मीकि या तुलसी की रामायण की कथा के आरंभ और विश्रांति की सीमा रेखा ही खोजना निरर्थक है ।
राजेन्द्र दास जी स्वर, संगीत, गान, सम्बोधन, उद्बोधन, प्रबोधन और संयोजन की अपार क्षमता रखते हैं । जहां कुछ कथा वाचकों के साथ काफी बड़ी संख्या में – लगभग एक गाँव जैसा – अनुयायी वर्ग चलता है, वैसे ही देवाचार्य जी के साथ विरक्त साधु, महात्माओं और संस्कारवान ग्रहस्थों की जमात चला करती है । यहाँ यह अनुमान किया जा सकता है कि इतनी संख्या के श्रोता मात्र श्रद्धाबश केवल पाठ पुनरावृत्ति के लिए प्रेरित होकर उपस्थित नहीं हो सकते हैं । इन श्रोताओं के लिए निश्चित ही यह आश्चर्य का विषय होगा कि उनसे आयु में इतने कनिष्ठ  (महाराजश्री का जन्म वर्ष 1971 है) इस वक्ता के पास इतने शास्त्र, साधना, अध्यवसाय और सत्संग से इतने अल्पकाल में उपार्जित यह अतुलनीय संपदा दैवी प्रसाद ही हो सकती है ।  
इस अवसर पर मुझे श्री राजेंद्रदास जी के पूर्व आश्रम के पूज्य पिता श्री रामस्वरूप दास जी पाण्डेय की एक पुस्तक की समीक्षा करते हुये लिखी अपनी निम्न पंक्तियों का स्मरण आ रहा है –
यह महज संयोग ही नहीं है कि श्री रामस्वरूप दास जी पांडे मलूक पीठाधीश्वर राजेंद्रदासजी देवाचार्य के पूर्व आश्रम के पिताश्री हैं।  श्री राजेन्द्र दासजी वर्तमान समय के देश के शीर्षतम शास्त्रवेत्ता साधु हैं।  विद्वता की उनकी पराकाष्ठा अतुलनीय है।  जिस प्रकार कपिल महाराज से देवहूति और ऋषि कर्दम धन्यता को प्राप्त हुए वही भाग्य श्री पांडेजी का भी है।  राजेंद्रदासजी अपने विश्वव्यापी स्वर संधान से गोरक्षा के जिस अप्रतिम संकल्प साधन में निरत हैं, वह उनकी सनातन भारतीय भूमिका को पुनराख्यापित करता है ।
देवाचार्य जी की रामकथा का वह प्रसंग जब राम निश्चर वध की दृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं, प्रकारांतर से अनेक बार उभरता है । रामचरित मानस में तो इसकी पृष्ठभूमि में तुलसीदास जी ने राम का राक्षसों के द्वारा मारे गए मुनियों के अस्थि समूह देखना बताया है । वाल्मीकि की सीता राम की इस दृढ़ प्रतिज्ञा पर औचित्य का प्रश्न उत्पन्न करती हैं । उनका कहना है कि निश्चरों ने राम का कुछ अहित नहीं किया है, उनसे उनकी कोई शत्रुता भी नहीं है, अत; राम जैसे धर्मज्ञ और नीतिवान को अकारण उनके विनाश की प्रतिज्ञा करना कहाँ तक सही है ? वाल्मीकि जी के राम इस सम्बन्ध में इतने दृढ़ प्रतिज्ञ हैं कि इसके कारण को लेकर तो वे सीता और लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकते हैं –
अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणाम्
न तु प्रतिज्ञां सन्श्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषत: ।
आशय यह कि ब्राह्मणों के प्रति की गई प्रतिज्ञा राम के लिए अपरिहार्य है । सारत: ब्राह्मण, गाय और सनातन धर्म के सिद्धान्त और दर्शन का विधि और निषेध रीति से पूरी तरह से परिपालन देवाचार्य का स्थिर संदेश है । यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि शास्त्रों की भी अनेकश: व्याख्या हुई है तथा आधुनिक संदर्भों में समाज को पश्चिम की वैज्ञानिक शिक्षा और संदेश को भी ध्यान में रखना विधेय हो सकता है । किन्तु साधु परंपरा, सनातन शास्त्र दर्शन और भारतीय जीवन दृष्टि में आकंठ निमग्न मलूक पीठाधीश्वर से भिन्न धारणा की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती । इसमें यह आश्चर्य भी कोई स्थान नहीं रखता कि जिस तिलक, चोटी, नित्य पूजा अनुष्ठान और सम्पूर्ण धर्म निष्ठा ने स्वयं उनकी अपनी कठिन साधनापूर्ण जीवन यात्रा में पग-पग पर परीक्षा ली, उनके सार्वभौम संदेश का वही आग्रह भी है । ज्ञान, साधना, अनुभव और दृष्टि की यह एकनिष्ठता उनके विरल व्यक्तित्व की विशेष पहचान बनती है ।
यहाँ नूतन और समसामयिक विषयों में से एक पर्यावरण पर श्री राजेंद्रदास की अत्यंत प्रभावी दृष्टि का उल्लेख करना आवश्यक लगता है । 5 जून 2019 को टीकमगढ़ में समायोजित  अपनी रामकथा में उन्होने विश्व पर्यावरण दिवस के संदर्भ में राम द्वारा चित्रकूट में भरत को पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता के संदेश को आधार बनाया । देवाचार्य का कहना था कि पर्यावरण में हम प्रकृति के पाँच तत्त्व – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को ही सम्मिलित कर अपनी अपूर्ण चेष्टाओं में खो जाते हैं । उनके अनुसार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने प्रकृति को अष्टधा कहा है । इसमें इन पाँच के अतिरिक्त मन, बुद्धि और अहंकार की भी महत्वपूर्ण स्थिति है । पूर्वोक्त पाँच जहां स्थूल प्रकृति के प्रतीक हैं वहीं उक्त तीन सूक्ष्म प्रकृति के परिचायक हैं । हम पर्यावरण की रक्षा में आज इसलिए सफल नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि हमारी वर्तमान सारी चेष्टाएँ स्थूल तत्वों के स्तर तक ही सीमित हैं । इस सिद्धान्त को हम अपने जीवन में घटित करते हुये भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं । हमारे अपने स्वास्थ्य, रूपान्तरण और परिष्कार का कार्य केवल भौतिक स्तर पर चेष्टा करने से संपादित नहीं होता। इसके लिए यदि हम सूक्ष्म स्तरों -मन, बुद्धि और अहंकार के स्तर पर – चेष्टा करते हैं तो भौतिक स्थिति स्वत: प्रभावी रीति से परिवर्तित होती है । यही स्थित पर्यावरण में सुधार को लेकर भी ध्यान में दी जाना आवश्यक है । यदि आज की मानवीय चेतना के धरातल पर भारतीय विज्ञान के इस सिद्धान्त और दर्शन को स्वीकार कर लिया जाता है तो इतने विश्व व्यापी चिंता के प्रश्न पर हमें आसान और स्थाई समाधान प्राप्त हो सकता है । 
यह कोई आश्चर्य नहीं कि जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी इस विभूति को देश के राष्ट्रपति के द्वारा अपने विश्वविद्यालय से डी लिट उपाधि प्रदान करते हैं, ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वरूपानन्द जन्मदिन की शुभकामना मलूक पीठ पहुँचकर प्रदान करते हैं तथा इनकी जन्मस्थली समारोह में अचर्रा पहुँचकर पुरी पीठाधीश्वर श्री निश्चलानन्द जी महाराज कहते हैं - मैं इन पर लट्टू इसलिए हूँ क्योंकि ये ज्ञान के पुंज होने के साथ ही साथ साधुत्व की पराकाष्ठा हैं । रामकथाकार मुरारी बापू इनके आमंत्रण पर रामधाम ओरछा में कथा करते हैं, नृत्यगोपालदास अयोध्या में रामकथा सुनते हैं तथा रेवतीरमण, पथमेड़ा महाराज, श्री मृदुलकृष्ण गोस्वामी, श्री कृष्णचन्द्र शास्त्री ठाकुर जी, बाबा रामदेव आदि इनके परम प्रशंसक हैं ।
अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल (9425079072)