Tuesday 21 May 2019

ऋतम्भरा




भूमिका





                             ऋतंभरा

कविता मनुष्य की तीसरी आँख है –  कल्याण की विधात्री (शिवेतरक्षतये- मम्मट) और परादर्शी (ऋतंभरा प्रज्ञा -योगदर्शन)। आचार्य मम्मट ने काव्य के प्रयोजनों पर चर्चा करते हुये इसे लोक कल्याण का विधायक इसीलिए कहा है क्योंकि शिव का तीसरा नेत्र अनिष्ट का शमन करने की सर्वाधिक सामर्थ्य तो रखता ही है, इसकी महत्ता इसकी वह परादृष्टि ही है जिसे योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ऋतंभरा प्रज्ञा से उपहित करते हैं । ऋत, अर्थात सर्वथा सम्पूर्ण सत्य, प्रकृति के सार्वभौम सिद्धान्त की तरह अपरिहार्य । योग के अनुसार आज्ञा चक्र में स्थित यह आँख सदाशिव की प्रत्यक्षानुभूति ही है । इस प्रकार संसार और समाज में विचरण करने वाले मनुष्यों में अतिविशेष की यह पहचान उस व्यक्ति के आत्मसाक्षात्कार के वृत्त से किसी प्रकार कम नहीं है ।

अनीता श्रीवास्तव की जीवन वीणा काव्यकृति कुछ ऐसी ही साधना और सिद्धि का परिणाम होगी, ऐसा मेरा अनुमान कहता है । जीवन को वीणा मानकर चलने वाले साधना के पथिक की सबसे बड़ी चुनौती इस असाध्य को साधने जैसी ही है । इसके सदा कंपित रहने वाले तारों को तो उसे संभाले रखना है ही, इनकी मौन झंकार की भी उसे अनदेखी नहीं करनी है । अस्तु यह कोई स्वप्न का जागरण न होकर जागरण का ही स्वप्न है- सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं के परे, जैसा कि यजुर्वेद के द्रष्टा कवि का उद्घोष है –

जागरण में दूर जाता जो बहुत

और उतना ही चला करता जब हम सुप्त होते

ज्योंतियों की ज्योति जो है एक

मेरा मन !

सदा शिव संकल्पकारी हो ।

(तन्मे मन: शिव संकलमस्तु )

अपने प्यारे पापा की स्मृति को समर्पित इस संग्रह की कविताओं का केंद्रीय स्वर कवयित्री की गहन आंतरिक संवेदनाओं को सिलसिलेवार आकार देता जैसे उस रिक्ति की पूर्ति में ही सचेष्ट है जिसकी चुनौती उसने स्वीकार कर उसे पाट देने की प्रतिज्ञा ले रखी है । इसलिए जब वह अपने पापा को अपने में जिंदा देखती है तो उसका यह तर्क अकाट्य हो जाता है –

“मेरे चेहरे में चेहरा उनका

मेरे बोली में लहजा उनका

मेरे आँखों में उनकी चितवन”

और जब इस निरंतरता को झंकार भी मिल रही हो –

“जीवन-वीणा के तारों को सुर की साध लिए कसती हो

लाड़ डांट व ठाट लिए तुम घर के हर कोने बसती हो

माँ तुम अपने आप बसाई भरी-भरी पूरी बस्ती हो !”

यह बहुत विचारणीय है कि स्मृति का यह विस्तार जब स्थूल शरीर में इतना प्रखर और परिपूर्ण है- पीड़ी दर पीड़ी और इस तरह वास्तव में सनातन तौर पर ही – तो मन के सूक्ष्म तंतुओं में उसकी मौजूदगी कितनी मौजूं नहीं होगी !

अपने पति और परिवार के सरोकारों के अतिरिक्त अनीता समाज, राष्ट्र, भाषा, बच्चों और सभी सम सामयिकताओं की पूरी खबर रखती हैं । इनके प्रति उनकी कवि दृष्टि की आवश्यक संवेदना तो है ही, उसमें समुचित तटस्थता, पैनापन और विषमताओं का योग्य समाधान भी है, जिसके लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूँ।  

मैं साहित्य और सुधी समाज द्वारा इस रचना के सम्यक समादर की अभीप्सा करता हूँ ।



प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्,

उपाध्यक्ष, मध्य प्रदेश लेखक संघ, भोपाल      

(भोपाल, 22 मई 2019)