निर्वचन जुलाई 22
विशिष्ठाद्वैत
वैष्णव- परंपरा
भोपाल के 66 वर्ष पुराने रामानंद संस्कृत महाविद्यालय के गुफा मंदिर प्रांगण में
5 जून से 9 जून ’22 तक
आद्याचार्य रामानंद जी के सिद्धान्त ग्रंथ ‘श्रीवैष्णव मताब्ज भास्कर” पर श्रीमज्जगद्गुरु
द्वाराचार्य मलूकपीठाधीश्वर स्वामी श्री राजेंद्रदास देवाचार्य जी महाराज का व्यासपीठस्थ निर्वचन हुआ । यद्यपि प्रतिदिन तीन
घंटे की समयावधि में बोलते हुये उन्होने केवल इस ग्रंथ के तीन- प्रकृति, जीव और ब्रह्म विषयक श्लोकों की भूमिका का ही प्रवर्तन किया, किन्तु स्वामी जी का कहना था कि इसका विषय विस्तार वे आगामी कथा क्रमों
के आरंभ में करते रहेंगे ताकि इस महत्तर विषय का सम्यक् निर्वहन हो सके ।
श्री देवाचार्य जी इस अवसर पर तुलसी मानस भारती के ‘स्वर्ण जयंती विशेषांक’ के विमोचन के लिए मानस भवन
भी पधारे और अनंतर उन्होने अपने मुख्य सम्बोधन में तुलसी मानस भारती अप्रैल अंक 22
की इस स्थापना कि विशिष्ठाद्वैत की रामाश्रयी शाखा के प्रवर्तक रामानुजाचार्य जी
थे, के संदर्भ में श्रीअगस्त्य संहिता,
श्रीवाल्मीकिसंहिता, श्रीवसिष्ठसंहिता, श्रीमैथिलीमहोपनिषद् और आचार्य संहिता के आधार पर कहा कि इस ‘श्री संप्रदाय की परंपरा सर्वेश्वर श्रीराम से आरंभ होकर श्री सीता, हनुमान, ब्रह्मा, वशिष्ठ, पाराशर, व्यास, शुकदेव, बोधायन और श्री रामानंद के द्वारा ही ‘तारक मंत्र’ द्वारा लोक विस्तारित हुई है –
गृहीत्वा विधिवद् रामान्मंत्रराजं षडक्षरम्
भारत के अतीत में जाते हुये स्वामी जी ने बताया कि देश
के दुर्निवार इतिहास में वैदिकी हिंसा के निवारण के लिए बुद्धावतार हुआ किन्तु
इससे वेद का ज्ञान-खंड विलुप्त होने लगा जिसके लिए आदिशंकर ने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का प्रवर्तन किया । यद्यपि
शंकर भगवद्पाद महान् उपासक थे जैसाकि उनके सभी देवों से संबन्धित स्तोत्रों से
स्पष्ट होता है, किन्तु इसके लिए जन-जन को संवल प्रदान करने
वाले परमेश्वर की उपलब्धता और नैकट्य के आश्वासन की महती आवश्यकता थी जिसका महनीय कार्य
श्री रामानन्द के रूप में साक्षात् भगवान राम ने ही प्रादुर्भूत होकर सम्पन्न किया
–
श्रीरघुवर अवतार ले प्रगटे रामानन्द
कलिमहॅं जे मतिमंद अति मुक्त किए नरवृन्द ।
श्री रामानन्द जी वैष्णव मत के श्रीसंप्रदाय के
आचार्य थे। उन्होने श्रीभाष्य, वेदार्थसंग्रह, गद्यत्रय, वेदांतसार आदि ग्रन्थों की रचना की । श्रीरामानन्द
जी द्वारा श्रीराम का मंत्रराज षडाक्षरी तारक राम मंत्र वेदार्थ संपृक्त और तथैव प्रतिपादित
है ।
रामचरित मानस के पठनकर्ता को इस मंत्र की महत्ता के
सूत्र मानस में प्राप्त करते हुये बहुत हर्ष का अनुभव होगा । सबसे पहले भगवान शिव
पार्वती को काशी के मुक्तिदायनी होने का रहस्य बताते हुये यही कहते हैं कि ऐसा
करने की उनकी क्षमता इसी मंत्र से प्राप्त हुई है –
‘कासी मरत जन्तु अवलोकी । जासु नाम बल करऊँ बिसोकी ।
जब महर्षि वाल्मीकि भगवान श्री राम को उनके रहने के
लिए निवास बताते हैं तो एक महत्वपूर्ण निवास कक्ष उनके हृदय में आरक्षित करने का
उनके द्वारा अनुरोध यह किया जाता है –
“मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा”
और सबसे बढ़कर तो स्वयं भगवान ही शबरी को नवधा भक्ति
का उपदेश देते हुये यही कह देते हैं –
‘’ मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा । पंचम भजन सो बेद
प्रकासा । “
यहाँ यही ध्यातव्य है कि वेद में विवर्णित यह ‘मंत्र’ भगवान का अग्नि बीजात्मक तारक मंत्र ही है ।
इस विषय में आगे भी यथावसर विचार किया जाएगा जिसके
लिए हमें पाठकीय प्रतिक्रिया की भी प्रतीक्षा रहेगी ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक
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