Thursday 14 January 2021

निर्वचन -दिसंबर मानस भारती

 निर्वचन  


                       भव भेज रघुनाथ जस 


भूमण्डलीय महाआपदा कोरोना ने दुनियाँ को अब तक के विदित इतिहास में जैसे नए काया कल्प के लिये बिबश कर छोड़ दिया है । अभी जो नित नवीन और परस्पर प्रतिस्पर्धी व्याधि निरोधक वैक्सीन आ रही हैं उनका असर तो देखना शेष है, किन्तु अब तक के अनुभव ने इतना तो सिखाया ही है कि रोग प्रतिरोधक भारतीय पद्धति और आस्था-विश्वास ने भी जन जीवन को ऊर्जा प्रदान की है । भारतीय चिन्तन में व्याधि के मूल में शरीर (दैहिक) ही कारण न होकर आधिभौतिक और आधिदैविक कारण भी रहते हैं । इस तरह यह समझना किसी के लिये भी कठिन नहीं होगा कि मात्र दवा से और वह भी इतने व्यापक फलक पर, बिना अधिभूत और अधिदैव  के सँवार के संभव नहीं है ।  विश्व और मानव सभ्यता का इतिहास इस प्रकार के अनुभव और प्रमाणों से भरा पड़ा है । 

भारतीय अध्यात्म चेतना की सांस्कृतिक संवाहिका 'तुलसी मानस भारती' ने तुलसी के मानस के दोहे के के पूर्व के चतुरार्ध 'भव भेषज रघुनाथ जस' को इसीलिए इस वार्षिकांक का शीर्ष रखा है । हमें प्रसन्नता है कि राष्ट्रीय ख्याति के शीर्ष चिन्तक, साहित्यकार और आस्थावान् मनीषियों ने इस अनुष्ठान में अपनी मूल्यवान आहुतियाँ पदान कीं । 

इस विशेषांक  के उत्तर ‘महाभाग’ में हम हमारे सम्मान्य हिन्दी साहित्य के सुमेरु डा. देवेंद्र दीपक के सद्य: इंद्रापब्लिशिंग हाउस, भोपाल से प्रकाश्य काव्य नाटक ‘सुषेण-पर्व’ को अविकल प्रकाशित कर रहे हैं । दीपक जी के इस महनीय अनुष्ठान की सार्थक सिद्धि में यहाँ इस नाटक की भूमिका का निम्न महत्वपूर्ण भाग मैं साभार उद्धृत रहा हूँ -  

“सुषेण-पर्व’ स्थापना में नट-नटी के संवाद से प्रारम्भ होता है।

‘स्थापना’ में द्वन्द्व के अनेक आयाम सूत्र रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।

साथ ही द्वन्द्व से मुक्त होने की स्थिति में पुरुषार्थ और एतद् द्वारा परमार्थ

संभव है।

प्रथम दृश्य में नागरिकों की युद्ध चर्चा है। यह चर्चा कुछ लम्बी हो गयी है,

लेकिन यह चर्चा युद्ध और उसके कारणों तथा परिणामों को संप्रत्यक्ष करती है।

युद्ध कहीं भी हो, कभी भी हो, अन्ततः उसका दुष्परिणाम नारी को ही भोगना

पड़ता है। नागरिकों में यह चर्चा लक्ष्मण मूच्र्छा की संभावना की ओर भी परोक्ष

संकेत करती है।

दूसरा दृश्य छोटा है- इसमें लक्ष्मण मूच्र्छा में हैं। शक्ति लग चुकी है।

मेघनाद लक्ष्मण को मृत समझ उसे उठाने को कहते हैं। उसके सैनिक लक्ष्मण

को उठा नहीं पाते। मेघनाद भी लक्ष्मण को उठाने का प्रयत्न करता है, लेकिन

उठा नहीं पाता। हनुमान मेघनाद पर व्यंग्य करते हैं और मुच्र्छित लक्ष्मण को

उठाकर ले जाते हैं।

दूसरे दृश्य में तीसरे दृश्य के लिए एक संकेत भी है। हर सेना का अपना

एक चिकित्सा विभाग होता है, जो घायल सैनिकों के स्वास्थ्य और चिकित्सा

सेवा का कार्य करता है। उसका एक प्रमुख होता है जो स्वयं चिकित्सक भी

होता है। राम की सेना में भी एक चिकित्सा प्रमुख है। एक स्वाभाविक प्रक्रिया

के अंतर्गत मूर्छित लक्ष्मण का पहला परीक्षण चिकित्सा प्रमुख करता है और

अपनी असमर्थता प्रकट करने पर ही सुषेण को लाने का प्रस्ताव सामने आता

है। इसी दृश्य में राम का संक्षिप्त विषाद भी है। जामवंत द्वारा सुषेण को लाने

का प्रस्ताव और इसके लिए हनुमान जी का प्रस्थान!

चौथा दृश्य महत्वपूर्ण है। इसमें सूर्या और सुषेण के संवाद महत्वपूर्ण है और 

प्रारम्भ में दी गयी स्थापना को चरितार्थ करते हैं। द्वन्द्व और उसका निरसन इस

दृश्य का मुख्य बिंदु है। सूर्या एक विदुषी और सुधर्मा पत्नी है। सूर्या के चरित्र

के अभाव में यह नाटक खड़ा ही नहीं रह पाता।

पाँचवा दृश्य राम के विषाद से प्रारम्भ होता है। जामवंत का प्रबोधन- ‘डोर

अभी टूटी नहीं है सांकेतिक है।’ विभीषण इस तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि

लक्ष्मण मूर्छा का कारण वह स्वयं हैं। शक्ति मुझे लक्षित थी, लक्ष्मण मेरे रक्षार्थ

बीच में आ गए। सुषेण का आगमन। लक्ष्मण का परीक्षण और मृत संजीवनी

बूटी का प्रस्ताव। सुषेण, हनुमान को अलग ले जाकर बूटी आदि की जानकारी

देते हैं। यह एक चिकित्सीय व्यवहार का एक पक्ष है कि वह अपना ‘फार्मूला’

गुप्त रखता है। कुछ नयी बातें भी जोड़ी हैं- वनदेवी की वंदना, औषधि लाने में

सावधानी और समय का प्रतिबंध- खेती को पानी/ और रोगी को औषधि/

समय पर मिले तो लाभ।

छठा दृश्य कथा-कथन है। इस दृश्य में नट-नटी के माध्यम से रावण

कालनेमि सम्पर्क, कालनेमि का मायावी छल, हनुमान का मगरी का हनन,

कपटमुनि का वध, भरत द्वारा हनुमान का आहत होना, हनुमान का लक्ष्मण

मूर्छा की बात बताना। इसमें कौशल्या और सुमित्रा के दो संवाद प्रमुख हैं।

ये संदर्भ मुझे सूरदास जी से मिले। इस दृश्य का विधान मुझे ‘टाईम गैप’

के लिए करना पड़ा। एक दृश्य में मूर्छा और उसके तुरंत बाद हनुमान जी

का संजीवनी के साथ उपस्थित होना, दर्शकों के लिए कुछ अटपटा होता। इस

कथा-कथन में पूरी कथा भी आ गई और दर्शकों को कुछ समय भी मिल

गया। इस कथा-कथन में वनदेवी की स्तुति में श्लोक और वनदेवी द्वारा बूटी

लेने की अनुमति में कुछ प्रतिबंधों की चर्चा है। इसमें एक विशेष बात यह है

कि इस औषधि का व्यावसायिक लाभ के लिए उपयोग नहीं होगा। वापस इन्हें

यहीं पुनःस्थापित करना होगा। रात्रि में वनस्पति न तोड़ने की बात भी वनदेवी

उठातीं हैं, लेकिन हनुमान आपातकाल में मर्यादा को शिथिल करने का औचित्य

भी सामने रखते है।

सातवाँ दृश्य थोड़ा लम्बा है- इसमें चार चरण समाहित हैं- हनुमान के आने

से पूर्व राम का प्रलाप और प्रबोधन; सुषेण द्वारा चिकित्सा; लक्ष्मण की चेतना 

के बाद सुषेण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन; सारी औपचारिकताएँ पूरी करते-करते

सूर्योदय हो गया। सूर्योदय होते ही उल्लासमय वातावरण में जय जयकार! यह

एक प्रकार का रंगोत्सव ही है। अबीर-गुलाल लगाते पात्र! राम, लक्ष्मण, सुषेण,

हनुमान, संजीवनी, गिरिखण्ड, धरतीमाता का मुखर जय-जयकार!

राम के प्रलाप के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण समस्या यह भी है कि राम को

सांत्वना कौन दे? केवल जामवंत में ही पात्रता है। वह यथा सम्भव समय पर

सांत्वना देते भी हैं, लेकिन राम का प्रलाप बड़ा सघन है। मैंने इस अवसर के

लिए दो उद्भावनाएँ की- दशरथ की आत्मा का आकाशवाणी के रूप में राम का

प्रबोधन और सूर्योदय में विलम्ब हो, इसके लिए सूर्यदेवता से अनुरोध! इस प्रसंग

में सूर्य अपनी विवशता प्रकट करते हैं।

सुषेण ने मूर्छित लक्ष्मण के परीक्षण के उपरांत कहा था- साधन और

आराधन दोनों साथ। आराधन के रूप में मैंने महामृत्युंजय मंत्र का निरंतर

जप प्रस्तावित किया। घोर अनिष्ट और मृत्यु-भय के क्षणों में महामृत्युंजय मंत्र

भारतीय मानस के लिए एक तारक मंत्र है। इससे वातावरण में एक सघन

गम्भीरता आएगी। कुछ लोग इस पर आपत्ति उठा सकते हैं- आराधन क्यों?

आप किसी भी अस्पताल में जाएँ। आपको एक उपासना एक स्थल मिलेगा।

आपरेशन थियेटर पर आपको लिखा मिलेगा- वी ट्रीट, ही क्योर्स। डाक्टर

कहता है- हम तो केवल चिकित्सा करते हैं, ठीक तो ईश्वर करता है।

औषधियों के प्रति पूजा-भाव हमारी चिंतन शैली में अंगभूत है। वैदिक

साहित्य में औषधि का मातृरूपेण कहा है। सुषेण पूरे विधि-विधान से चिकित्सा

करते हैं। चिकित्सा प्रारंभ करने से पहले एक मंत्र का सस्वर पाठ करते हैं।

यह मंत्र अष्टांग संग्रह (वाग्भट्ट) का 15वां श्लोक है।

लक्ष्मण के सचेत होने पर सब प्रसन्न होते हैं। राम लक्ष्मण से सुषेण का

परिचय कराते हैं। लक्ष्मण सुषेण के प्रति अभार प्रकट करते हैं। राम सुषेण को

वैद्य राज की उपाधि देते हैं और एक वैद्य की मर्यादाओं की ओर संकेत करते

हैं। भले ही ये वैद्य को सम्बोधित हो, अपितु चिकित्सा-सेवा में लगे पूरे समुदाय

के लिए ये मर्यादाएँ साध्य हैं। ये वैश्विक मर्यादाएँ हैं। राम जी कहते हैं-

सुषेण,

पहले तुम राजवैद्य थे

अब तुम वैद्यराज हो!

सुषेण!

चिकित्सा-सेवा से

रोगी के चेहरे पर लौटी मुस्कान

वैद्य का सौन्दर्यशास्त्र है!

निर्लोभ

निर्भय

निस्संग होना

वैद्य का धर्मशास्त्र है!

भेद मुक्त हो

पूरे विश्व का आरोग्य

वैद्य का समाजशास्त्र है!

सुषेण रामजी से हाथ में ‘जश’ का वरदान माँगते हैं। राम जी उसे अभीष्ट

वरदान देते हैं।

अंतिम चरण जय जयकार का है। सुषेण की जय जयकार में सुधर्मा सूर्या

की जय का भी उल्लेख है। द्रोण पर्वत की जय में औषधियों के भौन (भवन)

की चर्चा है। और संजीवनी की जय में कथित जय है- संजीवनी ने किया

कमाल/ आयुर्वेद का उन्नत भाल। इसी प्रकार धरती माता की जय में एक

कथित जय है- जय भारतीय उपचार की/ जड़ी-बूटी व्यवहार की।

सुषेण-पर्व का एक पक्ष आयुर्वेद की महत्ता भी है।

राम जी के चरित्र में देव-भाव और मानव-भाव दोनों अनुस्यूत !”

आशा है, जिस तरह ‘महाभारत’ के अंत में ‘शांति पर्व’ महाभारत को सर्व ज्ञान की मंजूषा बनाता है, इस विशेषांक का ‘सुषेण पर्व’ वर्तमान वैश्विक महाव्याधि के निदान में हमारा आधिदैविक समाधान सिद्ध होगा । 

                                                 प्रभुदयाल मिश्र 

                                                 प्रधान सपादक      


No comments:

Post a Comment