Thursday 29 December 2016

पानी बिच मीन पियासी

कहानी खुद बोलती है

कहानी, उपन्यास और कविता की सामान्यतया कोई भूमिका नहीं होती. एक सर्जक की यह रचना अपने आप में स्वगत-कथन ही तो है ! वैसे तो एक रचनाकार जीवन को उसकी सम्पूर्णता में समझ लेने का कभी दावा ही नहीं करता दूसरे वह यह बखूबी जानता है कि वह अपनी सीमा में अंततः एकांगी ही रहेगा. अतः उसके कहे को सम्पूर्ण जीवन की प्रतिकृति मान लेने की भूल करना किसी के भी लिए उचित नहीं है. सामान्य तौर से प्रत्येक मनुष्य को यह भी लगभग बहुत साफ़ ही है कि यदि जीवन को कला से पृथक कर उसका यथातथ्य रूपांकन या चित्रण भी किया जाता है तो उसमें किसी को भी ऐसा तरतीब रेखांकन नहीं मिल सकता जो पूरी तरह से लकीरों और सीमाओं में बांधा जा सकता हो. तब भी एक रचनाकार अपनी कला साधना से एक परम चितेरे की कला का अनुगमन जरूर करते रहना चाहता है. इस प्रकार वह अवश्य ही जगत के सर्जक के निकट पहुँच कर उसके ऋण अथवा वरदान से कुछ अपनी भी छाप छोड़ रखना चाहता है ! अस्तु !
रामस्वरूप पाण्डेय की ‘जल बिच मीन पियासी’ कथा-रचना की पष्ठभूमि में प्रकट उक्त विचार आरम्भ में ही जैसे यह पूछ रहे हैं कि क्या यह भूमिका मैं एक समीक्षक की हैसियत  में लिख रहा हूँ ? यह स्पष्ट है कि पाण्डेय जी मेरे परम आत्मीय हैं अतः स्नेहाविष्ट होकर ही वे उनकी इस मनोज्ञ कृति पर मेरी सम्मति चाह रहे हैं. इस तरह मैंने इसे आदि से अंत तक सप्रेम पढ़ा है. रचनाकार, आस्थावान और शुद्ध सनातनी विचारक श्री पाण्डेय जी के चिंतन के सभी आयाम मेरी दृष्टिपटल में सजीव विद्यमान हैं. शुद्ध कला और साहित्य का जीवन से गहरा सरोकार उनकी कलम से अनुप्राणित रहता है. इस कृति में भी सनातन भारतीय समाज, परिवार, शिक्षा और संस्कारों के पुनर्स्थापन की महत्ता जीवन के कोमल पक्षों से सुसवेदित होकर मूर्तिवती हुई है.
किन्तु यह बात कला का यदि सम्पूर्ण उद्देश्य जीवन मानकर चला जाय तभी लागू होगी. मेरी समझ में जिस तरह कला कला के लिए अधूरी रहती है वैसे ही कला जीवन के लिए एक ध्येय लेकर चलती हुई भी अधूरी ही रहेगी. वास्तव में कला अर्थात साहित्य द्वारा कला का स्वतंत्र और जीवनोनमुखी –दोनों ही ध्येय सिद्ध होने चाहिए. इस अर्थ में विचार करते हुए इस रचना के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न स्वभावतः उद्भूत होते हैं. पहली बात तो यह कि साहित्य में सपाट चरित्र स्वाभाविक नहीं माने जाते. एक रचना का पात्र कोई मिट्टी का घडा नहीं होता कि उसे कुम्हार ने एक बार जैसा ढाल दिया अपने टूटने तक वह वैसा ही बना रहेगा. चरित्र विकास में मनोविज्ञान के अनुशीलन की महती आवश्यकता स्पष्ट रहती है. किस परिस्थिति में एक व्यक्ति अपने मूल चरित्र से एकदम भिन्न कब कैसा मोड़ ले लेगा, इसका पूर्वानुमान करना उसके स्वाभाविक विकास को रोक देना है. मन की यह चंचलता न केवल आज के विज्ञान का आधार है अपितु यह कृष्ण, महर्षि पतंजलि आदि भारतीय मनीषियों के चिंतन के भी केंद्र में है. इस मन या इसकी चित्तवृत्तियों के नियंत्रण के लिए सिद्ध, मुनि, साधू संत कितने पापड जीवन भर बेलकर भी ईमानदारी में यह दावा नहीं कर पाते कि उन्होंने अपने आप पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है. मन पर नियंत्रण की यह दरकार हमने इसलिए भी मान राखी है क्योंकि हमने प्रायः जीवन और संसार को स्वर्ग-नरक और अच्छे तथा  बुरे विभागों में बाँट डाला है. वास्तव में यह सरलीकरण भी मन की ही लीला है. विचित्र बात यह है कि सब कुछ करने धरने वाला यह मन साफ़ बच जाता है और वह किसी नाम और रूप को बदनामी के लिए अपने पीछे छोड़ जाता है.
सही अर्थ में एक साहित्यकार भी एक संत और सद्गुरु की भूमिका वाला होता है. जिस प्रकार सत और सद्गुरु दूसरों के दोषों के परिमार्जन में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं वैसे ही एक साहित्यकार को भी मात्र अपने पात्रों का ही नहीं अपने चरित्रों ही जैसे सभी सामान्य लोगों के परित्राण का कार्य विधेय है. उसकी यह शुद्ध जिम्मेवारी बनती है कि वह अपने चरित्रों में प्रवेश कर उनकी कमजोरी को मानव का स्थाई भाव न बनाते हुए किसी परिस्थिति विशेष में किसी आवेग का परिणाम सिद्ध कर उसे जन्मना दोषी होने के अपराध से मुक्ति प्रदान करे. उसे एक ऐसा धर्मगुरु कतई नहीं बनना है जो आदिकाल में कभी किसी प्रथम एक के किसी एक अपराध (जो अपराध भी स्वतः प्रश्नाधीन हो) के कारण सारी मानव जाति को सदा सदा के लिए अभिशप्त घोषित करता है. यहाँ तक कि वह भारतीय दर्शन के कर्म के सिद्धांत का भी निर्णायक बनने की भूमिका नहीं ले सकता क्योंकि यह सिद्धांत भी बहुत सूक्ष्म और अविज्ञेय है. संक्षेप में एक साहित्यकार की दृष्टि में यह स्वीकार ही अभीष्ट रहता है कि बुराई यदि ईश्वर के लिए भी इतनी बड़ी बुराई होती तो वह अच्छाई के साथ इसे गूंथता ही किसलिए? यह अवश्य है कि उसने मन की गतिशीलता और चंचलता के साथ बुद्धि का संकल्प और विकल्प भी मनुष्य को दिया गया है अतः इस मामले में भगवान् को बीच में न लाकर भी विचार और विश्लेषण का काम अच्छी तरह से चल सकता है.
यह सब मैंने इसलिए लिखा क्योंकि गौरी का अपाहिज ( शराबी, मांसभक्षी और दुर्व्यसनी मात्र नहीं) पति से आबद्ध रहना, नेताजी की अंत में पोल खुल जाना और गौरी की ससुराल की संपत्ति का कानूनन उसके हक़ में फैसला हो जाना इस रचना के लेखक का कर्तव्य नहीं बनता. प्रथम तो कथा का सुखान्त कथा की कोई शर्त नहीं है दूसरे कथाकार सभी परिस्थितियों के निबटारे के लिए किसी न्यायाधीश की भूमिका में नहीं होता. प्रत्येक के जीवन में प्रायः ऐसे अप्रत्याशित मोड़ आते हैं कि वे उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं. यह अप्रत्याशित विशिष्टता ही किसी कहानी को पढने योग्य बनाती है.
वास्तव में कहानी को अपने आप में जोर जोर से यह बोलने में समर्थ होना चाहिए कि हे प्रिय पाठक, मैं जो कह रही हूँ वह कुछ हेर फेर से तुम्हारी ही बात कह रही हूँ. तुमने भी अपने जीवन में ऐसे ही उतार चढ़ाव देखे हैं ? किन्तु तुम बहुत परेशान रहते आये हो इसलिए मैं अपनापन देकर तुम्हारा दुःख बांटने आई हूँ. तुम अब अपने आप को अपराध बोध में गाली देना बिलकुल बंद करदो. और हाँ यदि कुछ बदल सको तो बदलो नहीं तो मौके वेमौके मुझे याद भर कर लेना, हो सकता है इससे भी कुछ बात बने. अच्छा, अब मैं चली ...
पुस्तक के शीर्षक पर भी मुझे कुछ कहना और शेष रह जाता है. उपन्यास की केंद्रीय चरित्र गौरी किस पीड़ा में है ? ठीक है उसकी ससुराल में अटूट संपत्ति है तथा वह उसके उपभोग में आबद्ध नहीं है. मुकुंद उसके इतने निकट होकर भी कितनी दूर नहीं है. किन्तु क्या वह उससे प्रेम का प्रतिदान चाहती है ? और उसका एक पति भी है – अपग, पुसत्व हीन ! किन्तु क्या गौरी की चारित्रिक प्रष्ठभूमि उससे यह कहला सकती है ?
वास्तव में कबीर की उलटबांसी का यह ध्रुव पद जीवन में उत्पन्न आध्यामिक बिसंगति का सन्देश देता है. अतः इससे विज्ञ पाठकों के मन में यह प्रतीक्षा जग सकती है कि गौरी भी देर सबेर मीरा के मार्ग पर चल सकती है. पर इसमें देर किस बात की ? इतने सुन्दर राजमार्ग को प्रशस्त कर लेखक आगे ‘मार्ग अवरुद्ध’ का बोर्ड क्यों टांग देता है ?
सारतः इस उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र गौरी और मुकुंद हैं. ये दोनों ही पात्र सनातन भारतीयता के आदर्श हैं. इनमें प्रेम, संयम, त्याग, साधना, शिक्षा, अध्यवसाय, सेवा, परोपकार और समर्पण का परमोत्कट प्रकाश है. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इन दिनों युवा वर्ग के लिए देश में जिस शिक्षा और संस्कार की आवश्यकता प्रकट की जाती है, उसकी पूर्ति इस तरह की रचना बखूबी कर सकती है.
 प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम, भोपाल                                       


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