गोरक्षा अभियान
प्रसंग
सन्दर्भ : प्रणाम
कपिला
प्रभुदयाल मिश्र
प्रख्यात विचारक और साहित्यकार डा. देवेन्द्र
दीपक द्वारा संकलित तथा संपादित पुस्तक ‘प्रणाम कपिला’ आर्य प्रकाशन मंडल नयी
दिल्ली से हाल में ही प्रकाशित होकर सामने आयी है. इसमें १३५ कवियों की १४५
कवितायें संग्रहीत हैं. इनमें वेद की ऋचाओं से लेकर सूरदास, रसखान, मैथिलीशरण
गुप्त तथा सभी मत और वादों के वर्तमान कवि पूर्ण प्रचुरता में विद्यमान हैं. भोपाल
में कुछ दिन पूर्व ही संपन्न इसके लोकार्पण समारोह की विशेषता यह थी कि इसमें ऐसे
करीब बीस कवि स्वयं कविता पाठ के लिए मौजूद थे जिनकी रचनाएँ इसमें संकलित हैं. इस
अवसर पर महामन्डलेश्वर श्री अखिलेश्वारानंद गिरि की उपस्थिति
बहुत महत्वपूर्ण थी. वे गो संवर्धन बोर्ड के वर्तमान में अध्यक्ष भी हैं.
अपने संवोधन में स्वामी श्री अखिलेश्वरानंद जी गिरि महाराज ने अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ इस पुस्तक
में श्री दीपक जी की भूमिका की बहुत प्रशंसा करते हुए कहा कि २ दिन में उन्होंने
इसे लगभग १८ बार पढ़ डाला है. इस भूमिका पढने वाले को इस कथन में कहीं अतिशयोक्ति
नहीं लगेगी क्योकि सचमुच ही श्री दीपक जी ने इसमें न केवल पूरी निष्ठा और ईमानदारी
प्रदर्शित की है, इसमें अनेक ऐसे रोचक तथ्य भी दिए गए हैं जो प्रत्येक भारतीय मानस
के ह्रदय में प्रतिष्ठित होने चाहिए. ज्ञातव्य है कि श्री दीपक ने इस कृति को लगभग
१० वर्ष के गहन श्रम, संकल्प और साधना से संवारकर रचा है. इसमें उनके धैर्य, सर्व
समाहार और अद्भुत संयोजन क्षमता के प्रति कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता.
यहाँ मैं अपने एक
आलेख “ गो-भक्त श्री रामस्वरूपदास की साहित्य साधना” का एक संक्षिप्त अंश
संदार्भोपयुक्त मानते हुए नीचे उद्धृत कर रहा हूँ.
“मध्ययुगीन संतों की
भक्ति परम्परा में विशाल ‘गो भक्तमाल’ के सहृदय कवि श्री रामस्वरूप दास ने विश्व
के विराटतम गो धाम पथमेड़ा, राजस्थान में १६ माह की पंचगव्य आहार आश्रित एकांत
साधना अवधि में ‘गोपाल कहे गोपाल’ (कविता), ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ’ (कहानी) और
‘चलो घर लौट चलें’ (उपन्यास) भी लिखा है.
मुझे प्रसन्नता हुई
जब प्रख्यात रचनाकार डा. देवेन्द्र दीपक की हाल में ही प्रकाशित कृति ‘प्रणाम
कपिला’ में मैंने श्री पांडेजी की ‘गो-भक्तमाल’ का ससम्मान उल्लेख पाया. इस कृति
में देश के १४५ कवियों की कपिला-केन्द्रित कवितायें हैं.”
सबसे पहले पुस्तक की
भूमिका का उल्लेख ही बहुत सटीक है. इसमें डा. दीपक ने रचनाकारों का ‘कपिला’
केन्द्रित कविताओं के लिए इस प्रकार आह्वान किया-
‘ आप राष्ट्रीय से
जुड़े एक समर्थ और आस्थावान रचनाकार हैं. हम चाहते हैं कि गाय आपकी कविता का विषय
बने. उससे जुड़े विविध आयाम आपकी संवेदना में सजीव हों. गाय की गुहार आपके कानों
में पड़े और आप गीत, नवगीत, दोहा, मुक्तक, गजल, नई कविता, लोकगीत आदि जो भी लिखते
हैं, उसमें गाय की गुहार को कलात्मक रूप दें.’
गोस्वामी तुलसी दास ने मानस में देवताओं द्वारा
भगवान् के अवतार लेने के लिए की गयी स्तुति के प्रसंग में लिखा ‘संग भूमि विचारी
गोतनु धारी’ लिखा ! वास्तव में यह ‘गुहार’ गाय से अधिक धरती की है. गाय धरती का ही
प्रतिरूप है. अथर्ववेद कहता है –
‘सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव
धेनुरनपस्फुरंती’.(अथर्ववेद १२/१/४५) अर्थात् ‘हे पृथिवी, तुम सहस्र स्तन-धाराओं वाली कपिला के रूप में हमारी पोषणकारी
हो !’
डा. दीपक ने इस्लाम और मुसलमान शासक तथा
विचारकों के सन्दर्भ से गाय के सार्वभौमिक स्वरूप का बहुत शोध परक विवेचन किया है.
उन्होंने मुजफ्फर हुसैन के हवाले प्राप्त ‘इस्लाम और शाकाहार’ पुस्तक के लेख ‘गाय
और कुरआन’ में से सविस्तार उद्धरणोॱ द्वारा इतिहास,
परम्परा और इस्लामिक विद्वानों के सन्दर्भ से यह प्रतिपादित किया है कि ‘अब तक ११७
बार ‘मुसलामानों द्वारा गाय को न काटे जाने के फतवे जारी किये गए हैं,’ ‘अल शफ़ीअ
फ़ार्म में इस समय कुल ३६००० गायें हैं. इनमें पांच हजार भारतीय नस्ल की हैं.’ तथा
‘बीकानेर में दूध की मंडी लगती है जिसके २५००० सदस्य मुस्लिम हैं’. कवि नरहरि द्वारा बादशाह अकबर को ‘दन्त में तृण’ लिए हुए गाय की गयी यह फरयाद तो लोक प्रसिद्ध है ही –
‘सुन शाह अकब्बर ! अरज यह करत गऊ जोरे करन
कौन चूक मोहि मारियत मुयेहु चाम सेवत चरन’
जिसे सुनकर अकबर ने अपने साम्राज्य में गोवध
निषेधित कर दिया था. स्वयं श्री दीपक का इस संग्रह की कविताओं के सम्बन्ध में यह
सारयुक्त कथन कम महत्वपूर्ण नहीं है –
‘सभी कवितायें गाय
पर केन्द्रित हैं, अतः आवृत्ति और आवृत्तिजन्य एकरसता से बचना संभव नहीं है. कुछ
कविताओं में भावोद्रेक है. ऐसी कवितायें जन-जागृति और जन-आन्दोलन के लिए उपयोगी
हैं. कुछ कवितायें समस्या के भीतरी रेशों तक प्रवेश करती हैं. ये कवितायें बार-बार
गाय से हमारे रिश्तों की याद दिलाती हैं. इन कविताओं में पूजा है, धिक्कार है,
खिन्नता है, आक्रोश है, आह्वान है, प्रश्न है, चेतावनी है, अतीत है, वर्तमान है,
भविष्य भी है.’ (पुस्तक की पूर्विका)
संग्रह की रचना प्रक्रिया के सन्दर्भ में
प्रथमतः मूलभूत प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि क्या किसी विशेष विषय केन्द्रित
लेखन में शुद्ध साहित्य और सृजनातक प्रतिभा से साक्षात्कार संभव है ? गो-भक्त श्री
राम स्वरूपदास के साहित्यिक मूल्यांकन के सन्दर्भ में भी मैंने यही प्रश्न उठाया-
‘साहित्य में यह सदा
से विचार के केंद्र में रहा है कि साहित्य कितना यथार्थ और कितना आदर्श है? यदि यह
समाज और जीवन का ‘दर्पण’ है तो उसमें यथार्थ की ही बहुलता होगी. यह उसे
प्रामाणिकता भी देता है. यह एक रचनाकार की ईमानदारी का भी तकाजा है कि वह वही कहे
जो उसने देखा, सुना, जाना और अनुभव किया है. वह वास्तव में समय की साक्ष्य में
निसर्ग के न्यायालय में खडा एक गवाह मात्र है. अतः झूठी गवाही उसकी रचना को ही
उखाड़कर फेंक सकती है !
दूसरी ओर उपदेश कथन को ग्रहण करने के लिए पाठक
से श्रद्धावान होने की दरकार हो जाती है. सामान्य पाठक किसी भी रचना में लेखक से
मौलिकता, नवीनता, मूलभूत मानवीय भावों का स्वीकार और सार्वभौमिकता की अपेक्षा रखता
है. यदि लेखक पाठक को तर्क के सहारे अपने रास्ते पर चलने की प्रेरणा ही देना चाहता
है तो लिखने और कहने के स्थान पर उसके पास अन्य अनेक माध्यम हो सकते हैं. वह
उपदेशक, प्रवाचक, प्रवचन कर्ता, गुरु, वकील,
समाज सुधारक आदि कुछ भी हो सकता है. ऐसे लेखन को यदि एक वर्ग विशेष की स्वीकार्यता
भी मिल रही हो तब भी उसकी सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता संदिग्ध ही रहेगी.’
इस प्रश्न के समाधान हेतु मैं इस संग्रह में
से सूरदास के एक पद की यह पंक्ति-
‘ऊधौ, इतनी कहियो जाय
अति कृशगात भी ये तुम बिनु परम दुखारी गाय’
तथा प्रेमशंकर
रघुवंशी की ये कविता पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ –
‘गंडासे से काटकर/
ठीहे पर बिक रहा
पंचगव्य और गोमांस
एक साथ
गोबर से निर्मित
मंगल आकृतियाँ
गणेश-पूजा के पूर्व
हलाल हो रहीं.’
और क्या इसे मैथिली
शरण गुप्त की इन पंक्तियों का आधुनिक संस्करण नहीं माना जा सकता –
‘दांतों तले तृण दाबकर, ये दीन गायें कह रहीं
हम पशु तथा तुम हो
मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही
हमने तुम्हें माँ की
तरह है दूध पीने को दिया
देकर कसाई को हमें
तुमने हमारा वध किया !’
एक सहृदय व्यक्ति,
सनातनी संवेद्य समाज और मूलभूत मानवीय संवेदना क्या इस हृदय विदारक भावभूमि से
प्राप्त प्रेरणा में सहज संग्राह्य नहीं है? ठीक वैसे ही जैसे कोई मातृभूमि,
राष्ट्र, माता, प्रेयसी या प्रेमी के लिए कविता लिखने के लिए प्रेरित होता है उसी
स्वाभाविकता से कामधेनु या कपिला भी उसकी प्रेरणा के मूल में क्यों प्रतिष्ठित नहीं
हो सकती !
इस संग्रह की
कविताओं के सम्बन्ध में डा. दीपक ने स्वतः अवगत कराया है कि इसके दो प्रखंड हैं-
प्रथम खंड की कवितायें छान्दस और ‘दूसरे खंड में छंदमुक्त कवितायें हैं.’
इस प्रकार इनके संकलन का क्रम ऐतिहासिक अथवा किसी वरिष्ठता-कनिष्ठता पर आधारित न
होकर एक सार्वभौम यज्ञ की सार्वलौकिक आहुतिपरक है. जिस प्रकार ऋग्वेद के पुरुष
सूक्त में ‘सर्वहुत’ यज्ञ में ऋषि, देवता, मनुष्य यहाँ तक कि अरण्य का पशु वर्ग भी
सृष्टि संसर्जन की प्रक्रिया में अपनी भागीदारी देता है, इस ग्रन्थ के रचनाकार भी
नाना वर्ग, समुदाय, विरादरी और काल खंड से उपस्थित होकर इस महानुष्ठान में अपना
आहुतिदान करते हैं.
यहाँ यह प्रश्न मौजूं हो जाता है कि विश्व की
अनेक सभ्यताओं के घालमेल और विज्ञान की नास्तिक बौद्धिकता के इस युग में पुराण-परक
भारतीयता के इस दर्शन की क्या स्वीकार्यता है? मुझे स्मरण आता है कि यह कहा जा रहा
है कि बहुत शीघ्र ही, संभवतः २०२० के बाद ही, एन्टीबायोटिक औषधियों की
प्रभावात्मिकता समाप्तप्राय रहेगी. ऐसे समय गोमूत्र, पंचगव्य और आयुर्वेद आदि की
प्रचंड आवश्यकता संसार को महसूस होगी. अकेले गोमूत्र में ही साठ से अधिक रोगों, और
वे भी प्रायःअसाध्य, के निदान की क्षमता का वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा सत्यापन किया
जा चुका है. यह अपने आप में कितना बिस्मयकारी नहीं है कि संसार में गाय को छोड़कर
ऐसा अन्य कोई जीवधारी नहीं है जिसका मलमूत्र उसके अन्य उत्पाद्य के समान ही उपयोगी
हो. अतः यदि भाव और संवेदना को एक क्षण के लिए बिसार भी दें, तब भी गाय की प्रकट
और प्रत्यक्ष उपयोगिता का कोई अस्वीकार नहीं हो सकता.
गौ सर्वदेवमयी है.
अथर्ववेद में इसे रुद्रों की माता, वसुओं की दुहिता, आदित्यों की स्वसा और अमृत की
नाभि-संज्ञा से विभूषित किया गया है. अकेली गाय में ही तेतीस कोटि देवताओं का वास
माना गया है. उसकी पीठ में ब्रह्मा, गले में विष्णु और मुख में रूद्र आदि देवताओं
का निवास है. इस अर्थ में यदि गाय को वेद में विश्व-माता ( गावो विश्वस्य मातरः)
कहा गया है, तो कोई अत्युक्ति नहीं है. गौ सेवा से जीवन के चारों पुरषार्थ – धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि प्रकट है. गौ से ही मनुष्यों की जाति में ‘गोत्र’ का
परिचालन आरम्भ हुआ है. वैदिक काल की ऋषि परम्परा में गाय संवर्धन के जिस स्थान को
‘गो-उत्र’ कहा जाता था, उसी परम्परा से ऋषियों पर आधारित कुल-गोत्र भारतीय परम्परा
में आज भी विद्यमान हैं.
श्रीमद्भागवत में
कहा गया है-वेदादिर्वेदमाता च पौरुषं सूक्त्मेव च/ त्रयी भागवतं चैव द्वादशाक्षर
एव च. अर्थात गाय में, वेद में, द्वादशाक्षर मंत्र में, सूर्य में, गायत्री में,
वेदत्रयी में अंतर नहीं है. अर्थात ये सभी प्रत्यक्ष परमात्मा के प्रकट प्रतिबिम्ब
हैं !
यह प्रसन्नता की बात
है कि वर्तमान में भी ‘रघुवंश’ के महाराज दिलीप की तरह ‘कपिला’ कीर्ति- वत्सला
‘नंदिनी’ की सेवा में अनेक विचारक और भावग्राही महानुभाव तत्पर हैं. प्रबुद्ध समाज
द्वारा इसका समुचित समादर किया जाना सर्वथा अभीष्ट है.
३५, ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल,
९४२५०७८९०७२
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