गो-भक्त रामस्वरूप
दास की साहित्य-साधना
मध्ययुगीन संतों की भक्ति परम्परा में विशाल ‘गो भक्तमाल’ के सहृदय कवि
श्री रामस्वरूप दास ने विश्व के विराटतम गो धाम पथमेड़ा, राजस्थान में १६ माह की
पंचगव्य आहार आश्रित एकांत साधना अवधि में ‘गोपाल कहे गोपाल’ (कविता), ‘है अपना
हिन्दुस्तान कहाँ’ (कहानी) और ‘चलो घर लौट चलें’ (उपन्यास) भी लिखा है. इन तीनों
कृतियों को श्री कामधेनु प्रकाशन समिति, पथमेड़ा ने मनोयोग से प्रकाशित किया है. इन
कृतियों के अनुशीलन से श्री रामस्वरूप दास पांडे की ‘अंतर्मुखी’ साधना का
बहिर्मुखी पक्ष अपनी परिपूर्णता में समुद्घटित हुआ है. एक अर्थ में यह कहना अधिक सही होगा कि
कि श्री पांडेजी के व्यक्तित्व के ये दो पक्ष इतने संगुम्फित हो गए हैं कि इनमें
एक दूसरे का पूरक हो जाता है.
यहाँ
क्या यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि इनमें प्रधान स्वर कौनसा है ? श्री पांडे जी
मूलतः साहित्यकार हैं अथवा साधक? साहित्य उनकी साधना है अथवा सिद्धि ? अथवा ये
दोनों एक दूसरे के पर्याय बन कर श्री पांडे के जीवन दर्शन के परिचायक हैं?
यह
अनुमान किया जा सकता है कि पांडे जी के अनुसार साहित्य महत्तर जीवन ध्येयों की पूर्ति का एक
योग्य माध्यम है. साहित्य भावना, विचार और आदर्श को अभिव्यक्ति तो देता ही है,
इसके द्वारा स्वयं की अंतर्मुखी साधना भी संपन्न होती है. जिस प्रकार एक भक्त भजन
द्वारा तल्लीनता, योगी समाधि और
ज्ञानी आत्मबोध प्राप्त करता है, उसी प्रकार रचनाकार आत्मानुभव की सघनता में
स्रष्टा की समकक्षता प्राप्त करता है.
मुझे
प्रसन्नता हुई जब प्रख्यात रचनाकार डा. देवेन्द्र दीपक की हाल में ही प्रकाशित
कृति ‘प्रणाम कपिला’ में मैंने श्री पांडेजी की ‘गो-भक्तमाल’ का ससम्मान उल्लेख
पाया. इस कृति में देश के १४२ कवियों की कपिला-केन्द्रित कवितायें हैं. मानवीय
ज्ञान की आदि-मंजूषा वेद तो गाय की महिमा गाते हुए कभी थकते ही नहीं हैं. अतः
पांडेजी अपनी गो-भक्ति को अपनी साहित्य साधना का विकल्प और माध्यम बना कर निश्चित
ही एक धन्यता में स्थित हैं, ऐसा माना जाना सर्वथा योग्य है.
इन
कृतियों का मैंने यथा साध्य अनुशीलन किया. ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ’ कहानी
संग्रह को हमारी श्री मती जी ने लगभग एक ही बैठक में पूरा कर डाला. यह संग्रह
भारतीय लोक जीवन का प्रामाणिक लेखा तो है ही, इसके माध्यम से भविष्य की पीढ़ी को
दिव्य सन्देश भी दिया गया है. कहानियों में कथाकार के जीवन की अनेक यथातथ्य
झलकियाँ हैं. इनमें समय, व्यक्ति और स्थान को पकड़ते हुए भी उनके प्रति आग्रही हो
जाने की आवश्यकता प्रकट नहीं होती क्योंकि उस स्थिति में यह स्पष्ट है कि कहानी को
वह विस्तार नहीं मिल पाता जो उसकी स्वतंत्र स्थिति का परिचायक होता है. इन्हें
पढ़ते हुए कोई भी पाठक ‘कल्याण’ जैसी पत्रिका के अनेक इसी तरह के आख्यान और आलेखों का अवश्य स्मरण
करेगा जिन्होंने सनातन भारतीय जीवन को वर्तमान में दिशा प्रदान की है.
रचना
प्रक्रिया की दृष्टि से इन कहानियों में आरोह अवरोह है. लगभग प्रत्येक कहानी में
अन्ततः एक ऐसा मोड़ आता है जो नैतिकता, आदर्श, श्रद्धा, समर्पण और गो-भक्ति का फलित
कहा जा सकता है. यह प्रश्न उठ सकता है कि अच्छाई बुराई का फलितार्थ इतना त्वरित और
पारदर्शी होता है क्या? संसार में लोगों की प्रायः यही शिकायत होती है कि बुरे लोग
अक्सर सफल और सुखी तथा अच्छे लोग असफल और दुखी ही दिखाई पड़ते हैं ? यदि जीवन का
गणित इतना सरल और हल किये जाने योग्य है, तो बुराई तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती !
किन्तु जाहिर है, यह कहानी और उपन्यास की बात है. इसमें रचनाकार समय को तो समेटता
है ही, वह स्थान और निसर्ग की सत्ता का भी साक्षी हो जाता है.
तथापि
साहित्य में यह भी विचार के केंद्र में सदा से रहा है कि साहित्य कितना यथार्थ और
कितना आदर्श है? यदि यह समाज और जीवन का ‘दर्पण’ है तो उसमें यथार्थ की ही बहुलता
होगी. यह उसे प्रामाणिकता भी देता है. यह एक रचनाकार की इमानदारी का भी तकाजा है
कि वह वही कहे जो उसने देखा, सुना, जाना और अनुभव किया है. वह वास्तव में समय की
साक्ष्य में निसर्ग के न्यायालय में खडा एक गवाह मात्र है. अतः झूठी गवाही उसकी
रचना को ही उखाड़कर फेंक सकती है !
दूसरी ओर
उपदेश कथन को ग्रहण करने के लिए पाठक से श्रद्धावान होने की दरकार हो जाती है.
सामान्य पाठक किसी भी रचना में लेखक से मौलिकता, नवीनता, मूलभूत मानवीय भावों का
स्वीकार और सार्वभौमिकता की अपेक्षा रखता है. यदि लेखक पाठक को तर्क के सहारे अपने
रास्ते पर चलने की प्रेरणा ही देना चाहता है तो लिखने और कहने के स्थान पर उसके
पास अन्य अनेक माध्यम हो सकते हैं. वह उपदेशक, प्रवाचक, प्रवचन कर्ता, गुरु, वकील,
समाज सुधारक आदि कुछ भी हो सकता है. ऐसे लेखन को यदि एक वर्ग विशेष की स्वीकार्यता
भी मिल रही हो तब भी उसकी सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता संदिग्ध ही रहेगी.
स्पष्ट
है कि श्री पांडेजी ने इस मूलभूत प्रश्न को ध्यान में रखकर आदर्श और यथार्थ का
समन्वय लाने की चेष्टा की है, किन्तु यह भी स्पष्टतर है कि उनमें ध्येय की
प्रधानता है और यह उनमें उनकी अपनी जीवनचर्या तथा साधना के प्रति प्रबल
प्रतिबद्धता की परिचायक है.
अब
सन्क्षेप में हम इन कृतियों के शिल्प विधान पर भी विचार कर चलते हैं. साहित्य के
इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए एक तथ्य बहुत स्पष्टता से उभरता है. साहित्य में
प्रकट मूलभूत मानवीय भाव, संवेदना, वैयक्तिक-सामाजिक सम्बन्ध और प्रकृति से तादात्मीकरण
आदि क्षेत्र सार्वकालिक तौर पर सार्वभौमिक भी हैं. इनमें यदि परिवर्तन या विकास का
स्वरुप देखना है तो वह भाषा और अभिव्यक्ति का है. शिल्प का यह आवरण प्रायः अपनी
स्थूलता त्यागकर सूक्ष्म और महीन होता जाता/ होता गया है. विकास की इस यात्रा में
साहित्यकार अभिधा के स्थान पर लक्षणा और व्यंजना में इतनी दूर चल चुका है कि उसे
समझने के लिए पाठक भी जैसे कुछ कक्षाएं उत्तीर्ण करने को जैसे तत्पर रहता है.
संभवतः अभिव्यक्ति का यह कौशल उसकी कला को काल के प्रवाह में अक्षुण रख पाने का
रसायन ही है जिसकी वह उपेक्षा नहीं कर सकता.
यह
भूमिका मैं श्री पांडेजी की कहानियों और उपन्यास विधा के उपयोग को लेकर इसलिए लिख
रहा हूँ कि यह अनुमान किया जा सके कि वर्तमान साहित्य धारा में इनका स्थान कहाँ और
क्या होगा. किन्तु वास्तविकता यही है कि श्री पांडेजी का यह लेखन जिस ध्येय विशेष
की पूर्ति में है उसकी
उपादेयता स्पष्ट है. कोई भी रचनाकार अपने विशेष पाठक वर्ग को अपने सामने रखते हुए
ही लेखन में प्रवृत्त होता है. इस दृष्टि से यह प्रश्न संभवतः उतना प्रासंगिक नहीं
है.
यह महज
संयोग ही नहीं है कि श्री रामस्वरूपदास जी पांडे मलूक पीठाधीश्वर राजेंद्रदासजी
देवाचार्य के पूर्व आश्रम के पिताश्री हैं. श्री राजेन्द्रदासजी वर्तमान समय के
देश के शीर्षतम शास्त्रवेत्ता साधु हैं. विद्वता की उनकी पराकाष्ठा अतुलनीय है.
जिस प्रकार कपिल महाराज से देवहूति और ऋषि कर्दम धन्यता को प्राप्त हुए वही भाग्य
श्री पांडेजी का भी है. राजेंद्रदासजी अपने विश्वव्यापी स्वर संधान से गोरक्षा के
जिस अप्रतिम संकल्प साधन में निरत हैं, वह भारतीय भूमिका को पुनराख्यापित करता है.
मैं सर्वतः सहज संवेद्य श्री रामरूपदासजी की एक सामयिक
साहित्यिकार की भूमिका के स्वीकार के साथ-साथ इसके लोकोपकारी लक्ष्य की
अभिप्राप्ति के प्रति आश्वस्त रहते हुए उन्हें अपनी विनम्र प्रणति अर्पित करता
हूँ.
प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक
संस्थानं, भोपाल
४ जून २०१६
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