समीक्षा
देवस्य काव्यम्ः शाश्वत् जीवन दर्शन का दिशा बोध
डा. प्रेम भारती
विद्वता की आंच में तपकर बहुधा व्यक्तियों की रचनात्मक ऊर्जा उनकी
बुद्धि और तर्क को पुष्टकर अपने व्यक्तित्व को ढालने में ही स्थानांतरित रहती है.
विरले ही ऐसे विचारक होते हैं जो विद्वता के साथ-साथ रचनात्मकता को साध पाते हैं
और वह भी कौशल के साथ. श्री प्रभुदयाल मिश्र एक ऐसे ही व्यक्तित्व की संज्ञा हैं
जो वेद-ज्ञान के क्षेत्र में तो एक जाना पहचाना नाम हैं, पर काव्य के अंतर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में यह नाम सर्वथा नया और अजनवी है. देवस्य-काव्यम् (वैदिक-काव्यधारा)
के कवि प्रभुदयाल जी एक बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी हैं. महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानं
भोपाल के अध्यक्ष के रूप में प्रकाशित ‘देवस्य काव्यम्’ उनका ऐसा काव्य
संग्रह है जो उनके अंतरर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व को उजागर करता है.
यह कृति ‘ देवताओं द्वारा, देवताओं के लिए देवता की कृति’ कही जा सकती
है. इसमें कवि ने देवऋण के लिए ‘देव कविता’, ऋषि ऋण के लिए ‘वेद कविता’ तथा पितृ
ऋण के लिए ‘तर्पण कविता’ शीर्षक से अपनी भावान्जलियाँ अर्पित की हैं. कृति के विषय
में कुछ भी कहने के पूर्व रचनाकार का यह मंतव्य उल्लेखनीय है-
‘’ काव्य यहाँ मात्र वह दृष्टि है जिसके द्वारा वेद के एक पक्ष को
समझने की चेष्टा की गयी है. काव्य वेद की तरह तथा वेद काव्य की तरह सनातन और
सार्वकालिक है.’’ (भूमिका, ‘पश्य देवस्य काव्यम्’)
जो लोग वाल्मीकि से लेकर आज तक की काव्य यात्रा को शास्त्रीय कसौटी पर
कसते हैं, संभव है वे इस कथन से सहमत न हों. उनकी दृष्टि में यह एक आंशिक सत्य हो
सकता है, किन्तु काव्य की जिस सनातनता की श्री मिश्र चर्चा करना चाहते हैं, वह भावना
और विवेक, नैतिकता और निसर्ग, कर्त्तव्य और प्रेम, संस्कृति और प्रकृति, संयम और
समागम का सनातन द्वंद्व है और यह द्वंद्व ही इस काव्य का सौंदर्य है. इस दृष्टि से
कविता धारा उतनी पुरानी है जितनी जीवन धारा. मानव जब कभी भावनाओं अथा बौद्धिक
प्रवृत्ति की तीव्रता से उद्वेलित हुआ, उसके आंतरिक मानसरोवर में उसने काव्य के
माध्यम से अभिव्यंजना का स्वरूप खड़ा किया है.
‘देवस्य काव्यम्’ की विषय वस्तु में कवि द्वारा ऐसी ही
भाव संजीवनी पाठक वर्ग को परोसे जाने का प्रयत्न किया गया है जो आज के आपाधापी के
युग की अचेत जड़ता एवं मूर्छा को दूरकर उसे नूतन ऊर्जा और नव जीवन प्रदान करे . इस
काव्य-धारा के माध्यम से कवि ने अतीत के सन्दर्भ खोजकर उस परम्परा को पुनर्जीवित
करने का प्रयास किया है जो हमारे भीतर संचेतना के रूप में शताब्दियों से प्रवाहमान
है. इस द्रष्टि से यह रचना अद्भुत है. आज मनुष्य का जीवन सौंदर्य रहित, गंधहीन कागज
के फूल के समान हो गया है. कवि की अपेक्षा
है कि इस गंध का आस्वादन करने में वे सभी सहायक होंगे जो भारत की अप्रतिम धरोहर
में प्रीति और श्रद्धा रखते हैं.
भारत ही एक ऐसा देश है जहां कविता और धर्म एक साथ चलते हैं. इस
द्रष्टि से ‘देवस्य काव्यम्’ की रचना का उत्स वह भाव-भूमि है जहां संस्कृति और सभ्यता
के आधारभूत मूल्यों का कवि की प्रतिभा के माध्यम से प्रकटीकरण हुआ है. वस्तुतः
संसार की रचना करने वाला भी तो स्वयं एक ‘कवि’ ही है और यह संसार उसकी ऐसी काव्य
कृति है जो नित नवीन होती जाती है !
संग्रह के पांच पटल हैं. इनमें २७ कविताओं का संकलन है. प्रथम पटल में
तीन कवितायें ‘ वैदिक कविता’ के नाम से हैं. द्वितीय पटल में जीवन-दर्शन से सम्बन्धित
बारह कवितायें हैं जिनके शीर्षक हैं- जीवन कविता, यात्रा कविता, प्रार्थना कविता,
आनंद कविता, विषाद कविता, वर्तमान कविता, निरपेक्ष कविता, न्याय कविता, प्रतिकृति
कविता, क्रिया कविता, प्रतिकार कविता और समय कविता. कवि का विश्वास है- ‘जीवन का
विकल्प बन नहीं सकती कविता/ क्योंकि कविता स्वयं है जीवन/ सतत प्रवाहमान/ जीवन
धारा जैसी.
(प्रस्ठ १७)
सचमुच में बारह कविताओं की विषयवस्तु दार्शनिक द्रष्टिकोण से से ‘ईश्वर
अथवा कविता के समानांतर’ इस प्रकार गडी गयी है जिसमें गहन दार्शनिक भावों को लेकर
जीवन के विविध आयामों को परिभाषित किया गया है. न्याय कविता की इन पंक्तियों में –
आदमी के भीतर/ जब लड़ने लगते हैं दो आदमी/ उनमें से प्रत्येक का दावा
होता है / कि सही वही है/ एक मात्र और सम्पूर्ण सही/ तब कविता ही करती है कोई निदान.
(प्रष्ट -३९)
सत्य की सहज अभिव्यक्ति प्रकट हुई है.
तृतीय पटल ‘देव कविता’ के नाम से है जिसमें पांच कवितायें वरुण,
इन्द्र, रुद्र, मरुत और मरुद्गण से सम्बंधित हैं. ‘वरुण’ कविता ऋग्वेद
मंडल ७ के सूक्त ८६ का रूपांतरण है जिसकी मूल रचना का छंद त्रिष्टुप है तथा इसके
द्रष्टा ऋषि हैं वशिष्ट. इसी प्रकार ऋग्वेद के अन्य मंडलों से अन्य ऋषियों द्वारा
संद्रष्ट मन्त्रों पर आधारित कवितायें हैं इन्द्र, रुद्र और मरुत आदि. इनमें ऋषि
देवताओं से प्रायः प्रार्थना करते हैं –
हमें शत वर्ष जीवन दें/ पाप पीड़ा रोग भागें दूर/ सब
चतुर्थ पटल में ‘वेद कवितायें’ हैं. इनमें अस्यवामीय (ऋग्वेद मंडल १
सूक्त १६४) के काव्यानुवाद के ५२ छंद हैं. इनमें व्यंजना और बिम्ब विधान से सृष्टि
की रचना और इसके रचयिता का परिचय दिया गया है. यजुर्वेद के अंतिम ४०वें अध्याय ‘ईशावास्य’
के १८ वे छंद हैं जो शाश्वत सनातन जीवन दर्शन का सरसता पूर्ण निदर्शन कराते हैं.
पंचम पटल ‘ तर्पण कविता’ में पांच कवितायें क्रम से पिता, दादा, ताऊ,
नाना और माँ संकलित हैं. अर्थात् मातृ और पितृ दोनों ही पक्ष का परम्परा के अनुरूप
संस्मरण ! पितर, पूर्वजों के प्रति क्रतज्ञता का यह बोध वह सनातनी निष्ठा है जिसका
प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर पड़ता ही है. और अंतिम कविता की यह पंक्ति जैसे उस धारा
का ही पर्याय है जिसे सदा बहते रहना अभीष्ट है-
अपूर्ण ही रहनी है यह कविता इस तरह
लौटा कब पाया कोई तर्पण का जल
किसी बिछुडे पूर्वज को (प्रस्ठ १११ )
इस प्रकार आज की नयी कविता के शिल्प विधान को अपनाकर श्री मिश्रजी ने
कविता को शाश्वत जीवन धारा से तो जोड़ा ही है, इन कविताओं में हमारा वर्तमान भी
अपनी पूरी जीवन्तता से धधकता है. इन कविताओं में वास्तव में वह क्षमता है जो हमें
हमारी पहचान कराती है.
समीक्ष्य संग्रह के सम्पूर्ण परिशीलन से यह निचोड़ निकलता है कि यह कृति
पठनीय तथा माननीय है. यह वर्तमान समाज का दर्पण बने और नौशिखिये कवियों के लिए
प्रेरणाश्रोत- यही कामना है. इस प्रकार के चिंतन से मानवता प्राणवती होती है तथा
राष्ट्रियता परिपुष्ट. मैं इसके लिए रचनाकार को बहुत बहुत साधुवाद देता हूँ.
एफ ९१/४९, तुलसीनगर भोपाल
९४२४४१३१९०
पुस्तक – देवस्य काव्यम्
रचनाकार- प्रभुदयाल मिश्र
प्रकाशक- अमेजोन, चार्ल्सटन, यू एस ए
प्रष्ट संख्या – ११२
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