Thursday 2 January 2014

अमेजोन पुस्तक वितरक द्वारा प्रकाशित मेरी 'देवस्य काव्यं' की भूमिका



 i’; देवस्य काव्यं....
      
क्या मेरे विषय का केन्द्र काव्यहै जिसमें वेदों के लिए स्थान खोजना मुझे अभीष्ट हो गया है? अर्थात् कहीं वेद की उपादेयता सिद्ध करने के लिए मुझे उनकी साहित्यिकता का परीक्षण तो आवश्यक नहीं हो गया है? दूसरे शब्दों में जैसे काव्य एक कसौटी हो तथा वेद का इस कसौटी पर परीक्षण कर जैसे वेद का नया महिमा पक्ष प्रतिपादित करने का संकल्प मैंने ले रखा हो !
  अतः आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि काव्य यहां मात्र वह दृष्टि है जिसके द्वारा वेद के एक पक्ष को समझने की मेरी चेष्टा है । यह भी कहना मेरी क्षमता के एकदम बाहर की बात है कि यह दृष्टि इतनी परिपूर्ण हो सकती है जो वेदों के उन विभिन्न भाष्यकारों के पास थी जिन्होंने वेदों का कर्मकाण्ड परक, प्रकृति प्रधान, वैज्ञानिक, रहस्य परक अथवा राष्ट्रीयता पूर्ण भाष्य किये हैं । दूसरी ओर यह स्पष्ट ही है कि यदि मैं इसे देव काव्यशीर्षक नाम देता हूं तो इस विषय का इतना विस्तार हो जाता है जो मेरी क्षमता के साथ-साथ इस भूमिका की सीमा का भी अतिक्रमण कर देगा । अस्तु स्वयं और अपनी इस विषय वस्तु का इस प्रकार अभिज्ञान करते हुए कुछ आरम्भिक विषय बिन्दुओं की ओर ध्यान केन्द्रित कर रहा हूं ।
  शुरू-शुरू में ही मुझे इस स्वभाविक से प्रश्न का भी हल खोज लेना है कि क्या मैं सहित्य को वह दर्पण मानकर चल रहा हूं जिसमें प्रतिच्छायित वेदों को तत्कालीन समाज, संस्कृति और जीवन का प्रतिनिधि लेखा मानकर न केवल भारतीय वल्कि संपूर्ण मानवीय जीवन विकास का पुनरावलोकन कर सकता हूं? अर्थात् सहित्य पहले और वेद बाद में आए । अर्थात् वेद अपौरुषेय यानी कि स्वयं परमात्मा प्रणीत नहीं हैं? संयोग से कुछ हल्कों में यह बहस बहुत जोरदार तरीके से चल रही है । कुछ आर्य समाज की विचारधारा में ही विकसित और विचारगत लोग वेदों के अन्तः साक्ष्य और नाना तर्कों से यह सिद्ध करने में लगे हैं कि वेद अपौरुषेय नहीं हैं । उनके अनुसार जब प्रथम वेद ऋग्वेद का पहला ही मन्त्र-अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं । होतारं रत्नधातमम्-अथात् उस अग्नि-परमेश्वर- की मैं आराधना करता हूं जो पहले से विद्यमान है । इस प्रकार यह एक स्तोता मात्र है जो अग्नि या परमात्मा की स्तुति कर रहा है । भला इसे परमात्मा का कथन किस प्रकार कहा जा सकता है! इसमें परमात्मा को स्वयं ही स्वयं की स्तुति करते हुए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां कतिपय विषेषणों सहित द्वैत की स्पष्ट परिकल्पना की गई है । यदि परमात्मा से भिन्न कोई व्यक्ति या ऋषि इस मन्त्र की रचना कर रहा है या वेद के व्याख्याताओं के अनुसार वह उनका द्रष्टा है तो वह स्वयं परमात्मा तो नहीं हो सकता ! किन्तु यह विषय विस्तार भी मेरा अभिप्रेत नहीं है ।
  अलवत्ता इस विचार भूमि में मैं एक सुविधा अवश्य देखता हूं । जिसे ऋग्वेद का ऋषि पूर्व द्रष्टा के रूप में याद कर रहा है वह एक रचना और रचनाकार की सनातनता की परिकल्पना कर रहा है । एक रचना यदि कलम और कागज पर नहीं भी उतारी जा सकी किन्तु यदि वह श्रुतिऔर स्मृतिमें विद्यमान है तो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह कैसे लगाया जा सकता है? कोई नहीं जानता ऐसा कब से हो रहा है सिबाय इसके कि ऐसा पहला व्यक्ति परमात्मा स्वयं ही हो सकता है क्योंकि उसकी स्वयं की कल्पना मात्र ही उसके अस्तित्व या अवतरण का संसार निर्मित करती है । अतः इसका निदान कि पहले परमात्मा था याकि उसकी परिकल्पना, निहायत बेमानी प्रतीत होता है । दूसरे शब्दों में काव्य वेद की तरह और वेद काव्य की ही तरह सनातन और सार्वकालिक हैं । इनमें से एक को समझने के लिए दूसरे का आधार आवश्यक है । मैंने सुविधा की दृष्टि से वेद को समझने के लिए काव्य का सहारा लिया है ।
  अपने विषय की सीमा को लेकर एक स्पष्टीकरण और जरूरी है । संपूर्ण वैदिक वाङ्मय बहुत व्यापक और लगभग असीम विस्तार वाला है । संहिता भाग मात्र अर्थात् चारों वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुल 20379 मन्त्र हैं । प्रथम वेद ऋग्वेद में ही 1028 सूक्त 10552 मन्त्रों में निबद्ध हैं । यद्यपि ऋग्वेद के 801 मन्त्र ऋग्वेद सहित अन्य वेदों में पुनरुक्त हुए हैं किन्तु चूंकि वेद प्रार्थना, संबोधन, विचार, अभिव्यक्ति, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, भूगोल, ज्योतिष, राष्ट्रीयता, समाज, मानव शास्त्र, चिकित्सा, वास्तु और प्रत्येक कल्पित-प्रकल्पित विधायुक्त अभिलेख हैं, अतः मुझे ऐसे सूक्त/मन्त्रों पर केन्द्रित रहना होगा जिनमें हमारी आज की कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध विधा प्रकट होती है तथा अभिव्यक्ति के आयाम-विभिन्न छन्द, भाषा प्रयोग और उक्ति कौशल के दर्शन होते हैं । आशा है मेरी इस यात्रा में वे सब साथ होंगे जो भारत की इस अप्रतिम धरोहर में प्रीति और श्रद्धा रखते हैं ।

 मैं यहां हिन्दी भवन, भोपाल में वैदिक काव्य पाठकार्यक्रम में इस संग्रह की कविताओं के प्रस्तुति कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री रमेशाचन्द्र शाह के ऋषि परम्परा ओैर भावी भारतशीर्ष का निम्न अंश साभार उद्धृत कर रहा हूं-
  अनायास ही मुझे इंगलैंड की वरिष्ठ कवियत्री कैथनीन रैन की एक बात याद आ रही है जो उन्होंने लंदन की टैमनास एकेडेमी में वैदिक और वेदोत्तर काव्य पर दी गई मेरी व्याख्यान श्रंखला के समापन पर अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए कही थी। उनका कहना था-भारत ही एक ऐसा देश है जहां धर्म की उत्पत्ति के मूल में ही काव्य है और जहां की संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत मूल्यों की रचना ही कवि प्रतिभा के माध्यम से हुई । यह बात मैंने इस तरह से और किसी के मुख से नहीं सुनी थी इसलिए सुखद विस्मय की अनुभूति होना स्वभाविक था किन्तु देखा जाय तो यह एक सहज स्वभाविक प्रतीति होनी चाहिए । हम भारत वासियों की, जिनके सारे मूल्य, आदर्श, सारे रोल माडल्स कवियों द्वारा ही गढ़े गए हैं । चाहे वह सत्यवादी हरिश्चन्द्र या युधिष्ठिर हों, चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम राम हों, चाहे कृष्णार्जुन सख्य हों, चाहे मृत्यु से साक्षात्कार का साहस प्रदर्शित करने वाली सावित्री या नचिकेता हों-सभी कवि/ ऋषि याकि ऋषितुल्य मनीषियों की ही तो कृतियां है।
    वेद का कविता के प्रति यदि सारभूत दृष्टिकोण समझने की चेष्टा की जाय तो यह कहना होगा कि कविता वेद के कवि का दृष्य संसार है । स्वभावतः यह संसार दृष्टि की सामान्य कोटि से भिन्न है । यह कवि यथातथ्य औेर भोक्ता भाव के परे जा सकता है । एक तरह से उसकी दृष्टि ऐसा आकाश है जिसमें सत्य अपना साक्षात्कार कराने स्वयं प्रकट होता है । उसके इस असीमित और विराट फलक का कोई पैमाना खड़ा नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि उसके अनुभव में एक विराटता है ।
    वस्तुतः संसार का बनाने वाला स्वयं भी एक कवि ही है । यह संसार उसकी काव्य कृति है । यह अनूठी दुनियां नित-नवीन होती जाती है-
   पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यते । अथर्ववेद
   ऐसे अद्भुद्, अपरिसीम और नई नई जिज्ञासाओं को जन्म देने वाले विश्व को बनाने वाला ईश्वर अपने कवित्व की पराकाष्ठा में अनेक विषेषताओं को धारण करता है । यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय, जो कि ईशोपनिषद् के रूप में सर्वत्र समादृत है, के आठवें मन्त्र में ईश्वर को कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूकहा गया है । संसार में जो कुछ भी जहां जैसा है सदा-सदा से सदा-सदा के लिए उसके द्वारा अपनी इसी क्षमता के कारण एक आंतरिक परिपूर्णता में व्यवस्थित किया गया है । गीता के अनुसार वह कविं पुराणमनुषासितारम्अर्थात् सर्वज्ञ, अनादि और सबका नियंता है । (गीता अध्याय 8-9) वस्तुतः इस संसार को समझने के लिए भी एक कवि दृष्टि की ही आवश्यकता है । इसे समझने की चेष्टा अपने आपमें ही तलवार की धार पर चलने जैसा है । और यह कथन करने वाला अैार कोई न होकर कठोपनिषद् के अनुसार ज्ञाता कवि ही है-
   क्षुरस्य धारा निषिता दुरत्या दुर्गं पथं तत् कवयोः वदन्ति ।
     जिस कविता से हम परिचित हैं वह प्रायः लक्षणा और व्यंजना में कवि के भावोद्रेक की अभिव्यक्ति होती है । इसमें कवि का प्रगाढ़ अनुभव निस्सरित होता है किन्तु इसे वह अपनी क्षमता के सहारे एक सार्वलौकिक आयाम प्रदान करता है । जीवन, जगत और अज्ञात ईश्वर की जो अनेक रहस्य तहें हैं,  इनकेा भेदने की उसकी क्षमता असामान्य होती है । स्वयं के बाहर और भीतर जिन आंतरिक स्पन्दनों के सहारे वह बहुत दूर और गहरे उतर पाता है वे उसे एक ऐसी पहचान देते हैं जो स्थान, समय और व्यक्ति की सीमा का अतिक्रमण करती है । यही कारण है कि चाहे एक कवि हो अथवा कि उसकी कविता का संसार, उसे उसकी रचना में पकड़ पाना प्रायः असंभव है क्योंकि वह कालजयी और लोकातीत हो जाता है ।
     इस संग्रह के पंच पटल हैं । प्रथमतः इसमें वे कवितायें सम्मिलित हैं जिनकी प्रेरणा भूमि वेद अथवा वैदिक ऋचायें हैं । इसके अतिरिक्त इसमें कुछ वैदिक सूक्तों का काव्यान्तर मेरी पूर्व में प्रकाशित वेद की कविताशं`खला में विस्तार है ।
   कवि, मनीषी, परिभूः स्वयंभूःकी यथास्थित इस विराट कृति का कोई एक अंश उसका प्रतिनिधित्व न भी करे तब भी अन्ततः वह है तो उसी का ही कृतृत्व है- सदा से सदा के लिये आगे-   
  
मनीषी, कवि
श्रेष्ठतम सबसे
स्वयं ही उत्पन्न
सब कुछ जो जहां जैसा
बनाया है उसी ने
सदा से
सदा के लिए आगे । यजुर्वेद 40- 8

भोपाल                              प्रभुदयाल मिश्र
23 नवंबर २०१३ (सत्यसाई जन्मोत्सव)

prabhudmishra@yahoo.co.in

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