Sunday 30 June 2013

पौत्र

पौत्र 

जैसे नवागंतुक 
आगन्तुक ही नहीं हो किसी तरह
बावजूद अपने आगमन के पहली वार 
एक अपरिचित घर
 किसी पूर्व सूचना और परिचय के बिना
सभी अनुमान के परे 
 प्रश्नातीत, सुकमार !

जैसे मेघ ने की हो घन वर्षा रेगिस्तान में
मौसम की बेदखली में
अथवा अकस्मात खिल आया हो
नीलोत्पल गंध मादन पर
हाथ भर ही दूर!

परमात्मा का पूरा प्रसाद एक थाली में 
परोस दिया गया हो जैसे 
हठ पूर्वक
अथवा प्रकृति का अति प्राकृत उपहार
उडेल दिया गया हो खुले हुयें हाथों अकस्मात्
समेट सकने के 
निर्बलतर वोध के चौकन्ना होने के पहले ही !

अपना, जो नितान्त अपना 
ऐसा कैसा अपरिचय में सना 
कि पहचान ही नहीं आता
सच है अथवा कि सपना !
सपना भी कैसे हो सकता जो
आस्वाद्य, आकंठ स्फूर्ति में नहाया
ताजा तेज तप्त 
और उज्जवल

-नव कंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणं
जिसका एक ही हो सकता हो उपमान
प्रतिमान तुलसी का
सभी काल, सब समय 
सार्वभौम सत्ता का एक निष्ठ आल्हाद !

ईश्वर का अहैतुकी वरदान
प्रकृति की आल्हादक मुस्कान
करुणा, अनुग्रह का अंतहीन आख्यान
है सर्वथा जो प्रकट अभिनव  पहचान
मेरे प्रिय पौत्र तुम हो ।


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