Tuesday 2 October 2012

महारासलीला

                    कृष्ण की महारास लीला
            
                                  प्रभुदयाल मिश्र
    
   भागवत् भाष्यकारों के अनुसार रास पंचाध्यायी भगवान् के शब्द- वाङ्मय श्रीमद्भागवत का हृदयस्थल है । इसके अंत में भागवतकार ने इसके पारायण की फलश्रुति ‘हृदय रोग’ की निवारक बताई है  (हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण-10-33-40) । स्पष्ट है कि आदित्य हृदय स्तोत्र से भिन्न इसे हृदय पीड़ा निवारक अनुष्ठान के स्थान पर कामविकार से मुक्ति का विधान मानना ही अधिक उचित प्रतीत होता है ।
 निस्संदेह भागवत वेदव्यास की बहुत संश्लिष्ट, वरिष्ठ और विशिष्ट कृति है । जिस रचना की पृष्ठभूमि में चारों वेदांे  का संपादन और 17 पुराणेंा का रचना कार्य रहा हो, उसके रचयिता के विचार और मेधा का स्तर अकल्पनीय ही कहा जा सकता है । भागवत के ध्येय और प्रतिज्ञा कथन में वेदव्यास का संकल्प-सत्यं परं धीमहि ( 1-1-1)-परम सत्य का अनुसंधान ज्ञान का परमोत्कृष्ट आदर्श है । इस श्लोक के आरम्भ में ईश्वर को वेदान्त की धारणा में संसार का निमित्त और कारण मानकर उसे परम सत्य का पर्याय ही माना गया है । इसी पूर्ण पुरुषोत्तम का ब्रह्मा आदिक देवता अवतरण हेतु ‘पुरुष सूक्त’ से आवाहन करते हैं-
  पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः (10-1-20)
   देवताओं द्वारा भगवान की गर्भ स्तुति भागवतकार के संकल्प को संपूर्ण दृढ़ता से एक बार पुनः इस प्रकार प्रतिष्ठित करती है-
  सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये
  सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः । 10--2-26
   इसी प्रकार कृष्ण जन्म पर चाहे वसुदेव की स्तुति हा,े या व्रज में मोह ग्रसित ब्रह्मा, इन्द्र आदि की वंदना हो, उसका केन्द्रीय स्वर कृष्ण के परमात्म तत्त्व की प्रतिष्ठा ही है । यहां तक कि गोपी गीत में गोपियां स्पष्ट स्वीकार करती हैं कि तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो । तुम तो सभी शरीरधारियों के हृदय में उनके साक्षी परमात्मा हो-
   न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्
                                         10-31-4
   एक निर्गुण और निराकार ईश्वर का इतना सगुण और प्रत्यक्ष सरोकार समस्त दर्शन, विचार और तार्किकता का तिरस्कार करने में अपूर्व तौर पर सक्षम है । यह कोई बहुत बिस्मित करने वाली बात भी नहीं है । परम सत्य एकांगी कैसे हो सकता हेै! क्या केवल बुद्धि और तर्क से जाना गया परमात्मा संपूर्ण हो सकता है? यदि वह संसार का बनाने वाला ही है तो क्या उसके ऊपर संसार में होने और स्वयं संसार न हो सकने की सीमा लगाई जा सकती है? भागवत के अनुसार तो वह सृष्टि का आदि हेतु होने के साथ ही साथ सत् चित् और आनन्द भी है-
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।
               श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्  1-1
 ऐसे भगवान को एकदम अपने बीच पाकर किसी को भी बिस्मित होने का कोई कारण नहीं है । वस्तुतः उसके कार्य और व्यवहार को परिभाषित करते हुए हम सदा उसकी सीमायें ही तय करते हैं जो स्पष्टतः अधिकार विहीन तो है ही, अतार्किक भी हैं ।
  भागवत के महारास प्रसंग के अंत में परीक्षित ने शुकदेव से एक ऐसा ही प्रश्न किया । उन्होंने कहा-  भगवान के अवतार का उद्देश्य धर्म की संस्थापना और अधर्म का नाश था । फिर उन्होंने मर्यादा के विपरीत परस्त्रियों का संस्पर्श क्योंकर किया-
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः ।
स कथं धर्मसेतूनां वक्त्ता कर्ताभिरक्षिता
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्षनम् । 10-33-27/28
 श्री शुकदेवजी ने इसका समाधान करते हुए अग्नि का उदाहरण दिया । उनका कहना था कि अग्नि अच्छी बुरी हर बस्तु को जलाता है किन्तु इससे क्या अग्नि को दोष लगता है! ईश्वर तो अपनी परिपूर्णता में उससे भी ऊपर है । संक्षेप में उनके अनुसार सामान्य मानवीय व्यवहार और आदर्श परमात्मा पर अधिरोपित नहीं किए जा सकते । ऐसा करते हुए हम हमेशा परमात्मा को न केवल ससीम बना देते हैं अपितु उसका मूल्यांकन करते हुए उसकी क्षमता के निर्धारक भी हो जाते हैं ।
  गीताकार कृष्ण के दर्शन बहुल पक्ष को ध्यान में रखते हुए प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि कर्म, योग और संन्यास का अप्रतिम संदेश देने वाला विराट पुरुषोत्तम अशिक्षित ग्राम गोपियों के साथ रास लीला में कैसे खो सकता है । कुछ भागवतकार इसका समाधान कृष्ण के गोलोक और बैकुण्ठ धाम के दो पृथक अवतारों का आधार लेकर करते हैं । उनके अनुसार गोलोक के कृष्ण ब्रज के कृष्ण थे और वे वहीं नित्य विहार करते हैं । जबकि बैंकुण्ठ वासी कृष्ण वसुधा का भार उतारकर पुनः बैकंठ चले जाते हैं । मार्च 2011 के ‘नया ज्ञानोदय’ में श्री विनोद शाही का एक विस्तृत लेख छपा है । इसमें विद्वान् लेखक ने डा. राम मनोहर लोहिया के हवाले से इस प्रश्न को पुनः जीवन्त किया है कि क्या कृष्ण के इन दो व्यक्तित्वों में समन्वय बिठाया जा सकता है? उनके अनुसार इस प्रश्न के समाधान में श्री धर्मवीर भारती ने जैसे कनुप्रिया लिखी, किन्तु इस पर निष्कर्ष प्रायः लगातार शेष ही बना हुआ है । 
  अब हम सीधे श्रीमद्भागवत के महारास के वर्णन पर आते हैं । वस्तुतः इसकी एक पृष्ठभूमि भी भागवत में ही विवर्णित है । चीर हरण लीला से संबंधित दशम स्कन्ध के  अध्याय 22 के अंतिम 27 वें श्लोक में श्रीकृष्ण गोपियों से कहते हैं कि उनका उन्हें प्राप्त करने के लिए किया गया कात्यायनी व्रत पूर्ण हो गया है तथा वे शीघ्र ही उन्हें प्राप्त करेंगी । ठीक इसके पूर्व के श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार भुने हुए बीज अंकुरित नहीं होते उसी प्रकार उनके प्रति समर्पित मनुष्यों को कामनायें सांसारिक भोगों में प्रवृत नहीं करतीं -
न मय्यावेषितध्यिां कामः कामाय कल्पते
भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते
यातयबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथ क्षपाः
यदुदिष्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः । 26-27
  आगे जाकर 29वें अध्याय के आरंभ में शरद ऋतु की एक सुरभित उच्छवास की रात में अपनी योगमाया का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण भुवन मोहिनी बांसुरी बजाते हैं । इसकी तुलना हम वेदवाक्य-स अकामयत् (उसने इच्छा की)- से कर सकते हैं । इस कामना वर्धक वांसुरी से निकलने वाले ‘गीत’ को सुनकर गोपियां जिस स्थिति में थीं, उसी में कृष्ण की ओर दौड़ पड़ीं । किसी भी कवि के लिए प्रेम विह्वल गोपियों का यह आवेग अपनी श्रेष्ठतम काव्य प्रतिभा का प्रस्थान बिन्दु हो सकता है । अब चाहे गोपी गाय दुह रहीं हो, बच्चे को दूध पिला रही हो या आंख में काजल लगा रही हो, उसे कोई कैसे रोकता ! वस्तुतः रुकी तो वे भी नहीं जिन्हें उनके पति, पिता और भाई भी रोकने की कोशिश कर रहे थे । स्पष्ट है कि इन असंख्य गोपियों में प्रत्येक की दशा अप्रतिम है, अतः इसका कोई भी वर्णन पूर्ण नहीं हो सकता । एक प्रिया की प्रियतम के पीछे की यह दौड़ किसी एक काल या एक देश की ही नहीं है । इसकी विविधता के विस्तार की भी कोई सीमा नहीं हो सकती-विषेषकर एक समर्थ काव्य की विषय वस्तु बन जाने पर तो यह अक्षुण्ण रहेगी ही ।
    गोपियों के निकट पहंुच जाने पर कृष्ण एक कुशल प्रेमी की भांति उनसे कहते हैं कि व्रज में जब सब तरह की कुशलता है तो उन्हें इतनी गई रात एकाकी वन में नहीं आना चाहिए । विशेषकर उन्हें अपने पतियों को इस प्रकार छोड़कर आना तो कैसे भी उचित नहीं है । स्त्रियों का परम धर्म तो अपने पति की सेवा करना है । कृष्ण के कुशल प्रश्नों का उत्तर गोपियां समर्पण भाव से देती हैं । उनका कहना है कि कृष्ण के अखिल भुवन की आत्मा होने के कारण क्या वे अपने स्वजनों का ही उनके माध्यम से सम्मान नहीं कर रही हैं! और जब उनके परम प्रेम के मधुर राग ने उनका आह्वान किया है तो यह तो उनके भाव समर्पण की परम धन्यता है ।
  गोपियां पहली परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं । ‘आत्माराम’ कृष्ण गोपियों के साथ रास लीला के लिए प्रस्तुत हुए । कृष्ण के आलिंगन से गोपियों को अपनी विशिष्टता का वोध सा हुआ । यहीं उनकी दूसरी और भी कठोर परीक्षा का समय आ गया । कृष्ण अकस्मात् ही अन्तर्निहित हो गए । गोपियां उनके विरह में विक्षिप्त प्राय व्यवहार करने लगीं । उनके खोज में निकलने पर उन्हें कृष्ण के चरन चिह्न दिखाई पड़े। उन्होंने अनुमान किया कि वे किसी ‘अन्य आराधिका’ के साथ छुप कर गए हैं । भागवत कथाकारांे और कृष्ण लीला माधुरी रसिको के लिए तो जैसे यही सर्वस्व है । उन्हें यहीं अपनी परम अभिप्रेत राधा रानी का परिचय मिलता हेै । आखिर भाव सत्ता गोपी के परे महाभाव की शक्ति राधा के अतिरिक्त कृष्ण को और कौन अनुरक्त कर सकता है!
  किन्तु कृष्ण इस परम प्रेयसी को भी परीक्षा में छूट नहीं देते । उसे भी वे एक पेड़ की शाखा पर लटकता हुबा छोड़कर अदृश्य हो जाते है और वह पुकारती रह जाती है-
  हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज
                                       10-30-40
  गेपियों का यही महाविलाप गोपी गीत बनता है । 19 श्लोकों का गोपी गीत दशम स्कन्ध का संपूर्ण 31वां अध्याय है । भाव, भक्ति और अभिव्यंजना का यह महाराग काव्य का निकष और प्रेमियों के समर्पण की संपूर्णता है । ऐकान्तिक भक्ति और समूह में पूर्ण रसोद्रेक के साथ गाए जाने वाले कनकधारा छन्द का यहां लालित्य निराला है । गांव की ग्वालिनों द्वारा वक्रोक्ति, छन्द, अलंकार और महारस से भरे इस अमृत कलश को किसी शिक्षा, प्रशिक्षण अथवा अभ्यास के द्वारा तो नहीं छलकाया जा सकता । यह ठीक है कि सभी देहधारियों की अन्तरात्मा में साक्षी भाव से रहने वाले श्री कृष्ण ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा के लिए अवतीर्ण हुए हैं अतः उन्हें यशोदानन्दन के रूप में ही सीमित नहीं रखा जा सकता। किन्तु गोपियों का मुख्य स्वर कृष्ण की व्रज भूमि में सम्पन्न क्रीड़ा और लीला माधुरी है जो उन्हें उनके परम निकट पहुंचाती है । यदि चराचर की आत्मा के साक्षी कृष्ण ही उनके ध्यातव्य होते तो, वे उनसे दूर ही कब हुए थे? यहां तो गोपियों का ही साक्ष्य महत्वपूर्ण है जो कृष्ण की अनेक व्रज लीलाओं की प्रत्यक्षदर्शिनी हैं । चाहे वर्षा हो, चाहे अग्नि हो अथवा कालिय नाग का विष हो, व्रज की सभी आपदाओं का कृष्ण ने ही तो निवारण किया है । विष उनके हृदय में भी है । कृष्ण के चरण कालिय नाग पर नाचते हुए उसके विष निवारण की क्षमता प्रदर्षित कर चुके हैं । उन चरणों का वे उनके हृदय से संश्पर्श्य क्यों नहीं करते? किन्तु यह भी उनकी कोमलता पर एक आघात ही होता । और इधर जब वे कंकड, पत्थर और कांटों से सघन वन में भटक रहे हैं तो उनके कष्ट का अनुमान गोपियों को दुखी क्यों नहीं करेगा?
  गोपियां इस दूसरी भी कठिन परीक्षा में अच्छी तरह उत्तीर्ण होती हैं । कृष्ण उनके सामने प्रकट होकर कहते हैं कि प्रेम कोई आदान प्रदान करने वाला उद्योग नहीं हैं । वे स्वयं गोपियों का स्मरण करते हुए ही अन्तर्धान हुए थे । जिस प्रकार निर्धन का धन खो जाने पर उसकी प्राप्ति की तीव्रता अधिक हो जाती है, वैसे ही प्रेम में वियेाग उसको तीव्रता प्रदान करता है । किन्तु अब तो ऋणभार कृष्ण का ही बढ़ा है । अतः वे यमुना के पुलिन पर गोपियों के साथ महारास के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं । यहां अध्याय 32 का समापन है । अध्याय 33 महारास का अभिचित्रण है ।
  दो गोपियों के बीच में कृष्ण प्रकट होकर नृत्य करते हैं । गोपियां पूर्ण उन्मुक्त भाव से नाच रही हैं । वे कृष्ण के साथ अपनी धुन में गान भी करती हैं । वे थक जाने पर कृष्ण का सहारा ले लेतीं हैं । घन श्याम कृष्ण के आसपास उनकी शोभा विजली की तरह प्रतीत होती हैं । नृत्यरत गोपियां पूरी तरह अस्त व्यस्त हैं । कृष्ण ने गोपियों की संख्या के ही बराबर रूप धारण कर लिए हैं । कृष्ण थकी हुई गोपियों के मंुह अपने हाथ से पांेछ रहे हैं । इसके बाद गोपियों के साथ यमुना के जल में उतर कर वे जल क्रीड़ा करते हैं ।
  परीक्षित द्वारा अंत में कृष्ण के इस आचरण पर औचित्य का प्रष्न पूछने के पूर्व व्यास जी महारास में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करते हुए भी तीन स्थानों पर भागवत के भावकों को सावधान करते हैं । पहले तो श्लोक 17 में कहते हैं कि जिस प्रकार एक नन्हा शिशु अपनी परछाहीं के साथ नाचता है ( यथार्भकः स्वप्रतिबिम्ब विभ्रमः) वे गोपियों के साथ नाच रहे हैं । ‘आत्माराम’ (श्लोक 20) कृष्ण ने गोपियों की संख्या जितने रूप धारण किए । अंतिम श्लोक 26 के अनुसार यद्यपि वह रात्रि समस्त प्रकार की ‘कामकारी’ साधन और शक्तियों से युक्त थी, कृष्ण ने काम को सर्वथा अपने नियंत्रण में रखा हुआ था-
  एवं शषंाकंशुविराजिता निशाः स सत्यकामोऽनुरताबलागणः
  सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः  ।
  भागवत के विवेचनाकार इस प्रसंग में ठीक ही कहते हैं कि कृष्ण ने महारास प्रसंग में काम को ठीक चुनौती देकर पछाड़ा । इसके पहले वे ब्रह्मा और इन्द्र के मान का भी मर्दन कर चुके हैं । पर कामदेव अब तक अजेय मान लिया गया था । कालकूट पायी भगवान शिव भी उससे अरक्षित रह चुके थे तथा काम दहन के लिए उन्हें प्रथम वार अपने दाहक तृतीय नेत्र को खोलना पड़ा था । बावजूद इसके कि उन्होंने उसे आमने सामने की लड़ाई का कोई मौका ही नहीं दिया । यहां कृष्ण न केवल काम को पूरा पूरा अवसर देते है, बल्कि वे उसके लिए आवश्यक उपादान भी जुटा देते हैं । उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र छुआ तक नहीं । यहां तक कि उन्होने अपनी योगमाया को भी उसी की ही सहायता में सन्नद्ध कर दिया । और कमाल यह कि काम को उन्होंने उसी के अस्त्रों से पराजित कर किया ।
  यहां यह प्रश्न कि कृष्ण की महारास के समय आयु क्या थी, यद्यपि महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, किन्तु उस पर सामान्य बुद्धि के समाधान की दृष्टि से विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है । भागवत दशम स्कन्ध के अध्याय 26 के पहिले श्लोक में श्री कृष्ण के पौगण्ड वय अर्थात् छः वर्ष के हो जाने का उल्लेख है- ततश्च पौगण्डवयः श्रतौः । इसी अवस्था में उन्होंने धेनुकासुर का उद्धार और कालिय नाग का मान मर्दन किया । यह ग्रीष्म काल था । उसके बाद ब्रज वासियों के यमुना किनारे ही रात्रि विश्राम करने पर उन्होंने दावानल से उनकी रक्षा की । इसके आगे स्पष्ट तौर पर अध्याय बीस में वर्षा और श्रद ऋतु का मनोरम वर्णन है । 21 वें अध्याय में वेणुवादन करते हुए कृष्ण का ‘वेणुगीत’ विवर्णित है । 22वें अध्याय में शिशिर ऋतु में गोपियों के कात्यायनी व्रत और चीरहरण का प्रसंग है । इसमें श्री कृष्ण गोपियों को आगामी शरद ऋतु में उन्हें प्राप्त करने का वचन देते हैं । इस नए वर्ष की वर्षा ऋतु में गोवर्धन गिरि लीला का प्रसंग आता है । अध्याय 26 में गोप गण कृष्ण की विभिन्न आयु अवस्थाओं के चमत्कारों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कि सात वर्ष के बालक ने सात दिन तक किस प्रकार गोवर्धन को एक हाथ पर धारण कर रखा था-
यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया
                            10/26/3
इस वर्षा के बाद आने वाली वह शरद ऋतु की रात्रि उनके आठवें वर्ष की ही हो सकती है जिसमें उन्होंने रासलीला की-
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः   10/29/1
 भागवत में इसके बाद भगवान की आयु के संबंध में स्पष्ट उल्लेख न किया जाकर उन्हें किशोर वय का बताया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि कंस को मारने के पश्चात् ही कृष्ण के पिता वसुदेव उनका यज्ञोपबीत संस्कार कराते हैं और उसके बाद संदीपन मुनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने हेतु भेजा जाता है जिससे उनकी किशोरावस्था का ही परिचय प्राप्त होता हैं । इस प्रकार कृष्ण की रासलीला अधिक से अधिक आठ या नौ वर्ष की अवस्था में ही की जाना प्रतिपदित होता है जिसका कि समस्त शारीरिक विकार और दोषों से मुक्त होना स्वभाविक है । 
     निस्संदेह भागवत एक बहुत प्रौढ़ कृति है । सामान्य लौकिक संदर्भ में इस पर विचार और विमर्श जहां बहुत सीमित अर्थबोध कराता है, वहीं इसका अध्यात्म और अधिदेवत्व भी दार्शनिक दृष्टि से निगूढ़ता लिए हुए है । थोडी देर के लिए यदि हम चीर हरण और रासलीला प्रसंग को कृष्ण की बाल लीला मान भी लें तब भी कृष्ण की कालान्तर में कुब्जा के निवास पर कुब्जा से स्नेह भेंट-आहूय कान्तां नवसंगमन्हिया विशंकितां कंकणभूषिते करे ( श्री कृष्ण ने संकोच से झिझकती कुब्जा की कंकणयुक्त कलाई पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लिया -10-48-6 ) और उनके सोलह हजार एक सौ आठ राजकुमारियों से सम्पन्न विवाह और बिहार के कौन से लौकिक समाधान खेाजे जा सकते हैं! इसके पाठ और पारायण के लिए भागवत दृष्टि विकसित कर लेने की आवश्यकता अपरिहार्य है । जिन महापुरुषों ने इस दिशा में कार्य किया है और भागवत रस का पान कराने का कार्य आगे कर रहे हैं, वे सर्वथा प्रणम्य हैं । स्वयं भागवतकार की दृष्टि में वास्तविक रूप से महादानी तो केवल ऐसे ही लोग कहे जा सकते हैं-
  तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्
  श्रवणमंगलं श्रीमदादतं भुवि गृणन्ति ते भूरिदाः जनाः ( 10-31-9)
     यह स्वभाविक है कि कृष्ण की इस लीला में प्रवेश के लिए हम भले ही हम सामान्य लोक दृष्टि और अनुभव का आधार ले लें, किन्तु इसमें प्रवेश के पश्चात् तो लोकातीत आनन्द ही इसका परिणाम हो सकता है । भागवत का परम सत्य भी यही  है ।
                               अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्,
                               35, ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, भोपाल- 16
 
कृष्ण की महारासलीला

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