Tuesday 2 October 2012

अगस्त्य गीता

अगस्त्य गीता
          प्रभुदयाल मिश्र, अध्यक्ष महर्षि अगश्र्त्य वैदिक संस्थानम, भोपाल www.vishwatm.com
  वाराह पुराण के अध्याय 51 और 52 में राजा भद्राष्व को ऋषि अगस्त्य ने जो ज्ञान प्रदान किया वह सृष्टि उत्पत्ति और विकास का अद्भुद कथात्मक आख्यान है । इसमें ऋग्वेद के मंडल 10 129वें नासदीय और 90वें पुरुष सूक्त के दर्षन की पौराणिक और प्रतीकात्मक व्याख्या की गई है । ऋषि अगस्त्य के इस संवाद को भगवान वाराह स्वयं देवी पृथ्विी को उसके हिरणाक्ष द्वारा हरण से उद्धार के पष्चात् पूछे जाने पर सुनाते हैं ।
 इस संवाद की पृष्ठभूमि में अध्याय 49 और 50 में ऋषि अगस्त्य की पुष्कर तीर्थ जाते हुए राजा भद्राष्व की नगरी की पूर्व यात्रा का विवरण है जब वे वहां सात दिन रुककर राजा के पूर्वकृत पुण्य के परिणाम स्वरूप उनके वर्तमान वैभव का आधार बताते हैं । तीर्थाटन से लौटकर ऋषि प्रथमतः भद्राष्व को भगवान विष्णु के कार्तिक मास की द्वादसी के व्रत की विधि और महात्म्य बताते हैं । इसके पष्चात् भद्राष्व ने ऋषि से निवेदन किया-
  भगवन्! व्ह कौनसा ऐसा कर्म है, जिसे करने से संसार से मुक्ति मिल सकती है । अथवा देहधारी एवं बिना देहवाले- सभी प्राणियों के लिए कौनसा कर्म वैध है, जिनका संपादन कर लेने पर उनके सामने शोक नहीं आ सकता ।
  महर्षि इस प्रष्न के उत्तर में राजा को सृष्टि उत्पत्ति की आख्यायिका सुनाते हैं । उनके अनुसार-यह कथा दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों लोकों से संबंधित है । यह उस समय से संबंधित है जब दिन, रात, नक्षत्र, दिषायें, आकाष, देवता और सूर्य-सभी का नितान्त अभाव था । उस समय पषुपाल नाम के शासक थे । जैसाकि आगे स्पष्ट होता है, यह नाम परब्रह्म परमात्मा का ही व्यंजक है । इस राजा के मनमें पूर्वी समुद्र देखने की उत्कंठा जगी और वे तुरंत चल पड़े ।  उस महासागर के तट पर एक वन था और वहां बहुत से सर्प निवास करते थे । वहां आठ वृक्ष थे और एक स्वच्छंदगामिनी नदी थी । तिरछे और ऊपर की ओर गमन करने वाले अन्य प्रधान पांच पुरुष भी थे । एक विषिष्ट पुरुष था जिसके तेज के कारण एक स्त्री शोभा पा रही थी । हजार सूर्यों जैसी आकृति वाले उस महान् पुरुष को उस स्त्री ने अपने हृदय स्थल में स्थान दे रखा था । उस पुरुष के अधर पर तीन रंग वाले तीन विकार उपस्थित थे । वही पुरुष उसका संचालक था । उसकी गति कहीं रुकती न थी । उसे देखकर वह रूत्री मौन हो गई । वह पुरुष उस वन में चला गया । उसके वन में प्रविष्ट होते ही क्रूर स्वभाव वाले आठ सर्प राजा के पास पहुचे और उसके चारों ओर लिपट गए । इस अक्रमण से राजा को चिन्ता हुई कि इनका संहार कैसे हो !
   इतने में ही तीन वर्ण वाला एक दूसरा पुरुष प्रकट हो गया । उसने श्वेत, रक्त और पीत आदि तीन रूपों को धारण किया हुआ था । उसने अपना नाम जानना चाहा और कहा-‘मेरे लिए दूसरा स्थान चहिए।’ तब प्रधान पुरुष ने पूछा- ‘ कहां जाना चाहते हो?’ साथ ही उस पुरुष का नाम ‘महत्’ रख दिया । उस पुरुष ने जगन्नियंता के साथ ही रहने की अनुमति चाही । तब राजा ने कहा-तुम्हें जगत की जानकारी रखना आवष्यक है । इस पर उस स्त्री ने कहा कि -इस जगत में तो मैं ओतप्रोत हूं । तब जो दूसरा पुरुष प्रकट हुआ था उसने कहा- तुम डरो मत । इसके वाद वह वीर पुरुष राजा के पास जाकर स्वयं स्थित हो गया ।
  विचार करने पर इस वृत्त के प्रतीकार्थ इस प्रकार स्पष्ट होते हैं । प्रकृति की त्रिगुणात्मक क्षमता से प्रथतः महत् की सृष्टि हुर्इ्र । इस संसार की उत्पत्ति में इस एक विराट तत्व से जीव रूपी इकार्इ्र भी अस्तित्व में आई । इस प्रकार संसार के विस्तार का यह आदि आधार है ।
  इस कथानक की स्त्री माया है । शांकर वेदान्त की दृष्टि से यह प्रकृति का ही पर्याय है जोकि नाम रूपतामक संसार के सृजन, संपोषण और संहार का कारण है। ‘म’ धातु से निष्पन्न माया मापने का अर्थ ध्वनित करती है । संसार केा जब हम अपनी बुद्धि, इन्द्रिय बोध अथवा अनुमान के आधार पर परिमित कर देखते हैं तो अनन्त, असीम और अनादि सत्ता का मायात्मक स्वरूप ही हमारे अनुभव में आता है । श्वेतराष्वर उपनिषद् में माया को ऐसे जाल के रूप में समझाया गया है जिसे चैतन्य सत्ता ने ओड़ रखा है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि संसार इस जाल के नियमों में आबद्ध है । माया को असत् कहा गया है क्योंकि ब्रह्म मात्र ही एक सत्ता हेै । इसे असत् भी नहीं कहा गया है क्योंकि यह सृष्टि रचना का का आधार है । और इसे सदासत् भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह कथन स्वयं में विरोधाभाषी है।
  ऋषि के कथासूत्र के अनुसार दूसरे पांच पुरुष आए और राजा के चारों ओर खड़े हो गए । उन डाकुओं ने शस्त्र उठाकर प्रधान राजा को मारने की तैयारी करली । फिर डर जाने के कारण वे एक दूसरे में लीन हो गए । उनके लीन होने पर भी राजा का भवन विषेष रूप से शोभित होने लगा । फिर पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाष आदि पांच महाभूतों ने अपना एक समूह बनाया । उस समय वायु का रूप शीतल और सुखदायी था । अन्य तत्व भी उत्तम गुण और प्रकाष से संपन्न थे । ये सभी राजभवन में आए । वहां पर प्रधान पुरुष पषुपाल के सूक्ष्म रूप को देखकर तीन वर्ण वाले पुरुष ने उनसे कहा- महाराज! म्ेरे कोई पुत्र नहीं है । उस समय पषुपाल ने पूछा-बतलाइए, आपके लिए मैं क्या करूं? तब तीन वर्ण वाले पुरुष ने उत्तर दिया- हम लोग आपको बंधन में डालना चाहते थे । यद्यपि हमने प्रयत्न भी किया किन्तु असफल रहे । राजन्! ऐसी स्थिति में अब आपके शरीर में आश्रय पाना चाहते हैं । मुझपर आपकी पुत्र भावना होनी चहिए ।
  तीन वर्ण वाले पुरुष के ऐसा कहने पर राजा पषुपाल ने उससे कहा-मैं पुत्र  ऐसा चाहता हूं जो दूसरों का भी प्रबंधक हो । इस प्रकार उसने उस तीन वर्ण वाले पुरुष को अपना पुत्र मान लिया, पर उसमें उसकी आसक्ति न हुई ।
  महषि अगस्त्य कहते हैं  िकइस प्रकार पषुपालक संज्ञक परम प्रभु ने एक पुरुष का सृजन किया और उसे शासन करने की आज्ञा दे दी । स्वतंत्र होने के कारण वह पुरुष राजा बन गया । उस पुत्र में तीन रंग थे । उसने अहंकार नामक पुत्र उत्पन्न किया । उस पुत्र से अवबोधरूपिणी (चेतना) एक कन्या उत्पन्न हुई । उस कन्या ने ज्ञान प्रदान करने की योग्यता वाले एक सुन्दर पुत्र (ज्ञान) को जन्म दिया । उस पुत्र के पांच पुत्र (ज्ञानेन्द्रियां) उत्पन्न हुए । उनमें सभी रूपों का समावेष था और वे विषयों को भोगने की रुचि रखते थे जो इन्द्रिय कहलाए ।
  यहां एक क्षण ठहरकर ऋग्वेद मंडल 1 के 164 में अस्यवामीय सूक्त के निम्न 20वें मन्त्र का स्मरण किया जा सकता है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्व जाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादत्त्यनष्नन्नयो अभिचाकषीति ।
  प्रधान पुरुष और गौण पुरुष में मुख्य भेद यही हेै । इस द्वितीय पुरुष में अहंकार के साथ-साथ इन्द्रिय भोग भी उत्पन्न हो गया । इसके परिणामस्वरूप इसने जो नाना प्रकार के बन्धनों युक्त अपने संसार की रचना की वह आगे इस गीता में प्रकार वर्णित होता हेै -
  इन सभी ने रहने के लिए एक सुन्दर भवन बना लिया । उनका यह मंदिर ऐसा था जिसमें नौ दरवाजे हुए और चारों ओर जाने वाला एक स्तंभ हुआ । जल से संपन्न हजारों नदियां उसे सुषोभित कर रही थीं । राजा पषुपाल अब साकार रूप धारण कर पुरुष के रूप में विराजने लगे । वेद और छंद उन्हें स्मरण हो आए । फिर उन वेदों में प्रतिपादित नियमों और यज्ञादि की उन्होने व्याख्या की ।
  किसी समय की बात है जब राजा पषुपाल के मनमें आनन्द का अनुभव हुआ । तब उन्होंने संसार की सृष्टि करने की इच्छा की और योगमाया का आश्रय लेकर एक ऐसा पुत्र प्रकट किया जिसके चार मुख, चार भुजायें, चार वेद और चार पग हुए । समुद्र, वन और तृण से लेकर हाथीप्रभृति पषु तक में उनका प्रवेष है ।
  इसके प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए ऋषि अगस्त्य राजा भद्राष्व को समझाते हैं कि पषुपाल से जिसकी उत्पत्ति हुई, उसके चार चरण और चार मुख थे । उन्हीं को इस कथा का उपदेष्टा और प्रवर्तक कहा गया है । सत्यस्वरूप स्वर ही उसका पुत्र है । उसने जो कुछ कहा है वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों का साधन है । इनमें जो प्रथम -धर्म है, उसका दूसरा रूप वृषभ का है । उसके चार सींग हैं- चत्वारिश्रृंगः(ऋग्वेद मंडल 4-58-3) । काम और अर्थ इसी का अनुसरण करते हैं । चौथी मुक्ति है जो परमात्मा की पुनर्प्राप्ति है । इस ब्रह्म का ही सनातन अंष मनुष्य में व्यक्त रूप से विराजमान है । इसकी प्राप्ति के साधन के रूप में वर्णाश्रम धर्म उत्तम व्यवस्था है ।
  इसके पष्चात् उस परब्रह्म ने-‘अहमस्मि’- केवल मैं ही हूं- इस प्रकार कहा । फिर वह दूसरे ही चार, एक एवं दो प्रकार के रूप से विराजने लगा । भिन्न प्रकार से उत्पन्न होने के कारण उसकी प्रजायें भी उसी का अनुसरण करने लगीं ।  सर्वप्रथम चार मुखवाले ब्रह्मा ने देखा कि कुछ प्रजायें नित्य और कुछ अनित्य हैं । तब ब्रह्मा के मनमें यह प्रष्न उठा कि जो परमब्रह्म की विषेषतायें हैं  वे उनकी संतानों में क्यों दृष्टिगोचर नहीं हैं? सामान्य सिद्धान्त से पिता के पुत्र को अपने पितामह के नाम का संरक्षक होना चाहिए । अब मुझे क्या करना चाहिए । अब ब्रह्मा ने स्वर मथना प्रारम्भ किया जिससे स्वर का सिर प्रकट हो गया । उसकी आकृति नारियल के फल के समान थी । ब्रह्मा जी के प्रयास से वह सिर फिर विभक्त हो गया । अब वे प्राण, अपान, उदान, समान एवं व्यान रूप से सामने आ गए । तब ब्रह्मा ने उन्हें ठहरने का स्थान बता दिया ।
 इस प्रकार अथक परिश्रम कर जब ब्रह्मा ने पुनः प्राणि शरीर पर दृष्टि डाली तो उन्हें शरीर के भीतर परब्रह्म परमात्मा की झांकी दृष्टिगोचर हुई । संपूर्ण प्राणियों में त्रसरेणु के समान सूक्ष्म रूप धारण कर वे सर्वत्र विराजमान थे । वे सर्वोपरि और सर्वत्र विद्यमान थे ।
  अन्ततः ऋषि का कहना था कि संपूर्ण जगत की सृष्टि से संबंध रखने वाला यह आख्यान प्रथम स्थान रखता है । जो इसे तत्व से जानता है, उसे उत्तम कर्म करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । 
 35, ईडन गार्डेन भोपाल 462016

No comments:

Post a Comment