Friday 8 June 2012

Review of the book "Shyam Sakhi"

समीक्षा

            रास पंचाध्यायी का नाट्य रूपांकन- ‘श्याम-सखी’
                                      प्रभुदयाल मिश्र

 डा.पुरुषोत्तम चक्रवर्ती की गोपियों के दिव्य प्रेम का स्वरूप दिखाने वाली नाटिका ‘श्याम-सखी’ श्रीमद्भागवत् की रास पंचाध्यायी की एक ऐसी रसात्मक टीका है जो कृष्ण और गोपियों की अलौकिक प्रेम-लीला को लोक-रंग की लावण्यता से सजाती है । श्री चक्रवर्ती ने भागवत् के दशम स्कन्ध के 29 से 33 अध्याय के इन पांच अध्याय की पूर्व पीठिका 21 वें अध्याय के वेणु गीत और अध्याय 22 के कात्यायनी व्रत तथा चीर हरण लीला से ली है । जिस प्रकार से संस्कृत नाट्य की शास्त्रीय परंपरा में इन दिनों श्री चन्द्रपकाश द्विवेदी उपनिषद् गंगा नट-नटी से संचालित करा रहे हैं, वेसे ही ही श्री चक्रवर्ती ने श्याम और श्यामा को मंच पर सूत्र संचालन के लिए प्रस्तुत किया है । यह नामकरण और अनुष्ठान अपने आप में श्री कृष्ण और राधा के नाटकीय चरित्र के विकास में सहायक है ।
 लेखक की दृष्टि तत्वतः वैष्णव है तो उसका कला पक्ष शास्त्रीय होने के साथ ही साथ प्रयोगधर्मी भी है । श्री कृष्ण और राधा के प्रेम की शाश्वतता जैसे उनका मिलन न होकर मिलन की कामना की वह निरन्तरता है जो प्रत्येक जीवधारी की सनातन प्रकृति है-
‘तो फिर इन विकारन सूं बचवे के तई कूं मन सूं बाहर निकारेा, और आत्मा, यानी भगवान की ओर देखो ।...कामनायें ही बन्धन हैं । उनको त्याग करवै पे ही मन भगवान की ओर लगेगो ।’(पृष्ठ-6)
भागवत् के अन्तः साक्ष्य उन सभी प्रश्नों के प्रायः समाधान करते हैं जो सामान्यतः लोगों के मन में बालक (किशोर भी नहीं) कृष्ण और गोपियों के पारस्परिक प्रेम प्रदर्शन के प्रसंग में उठते हैं । सूत्रकार का इस संबंध में यह समाधान बहुत ही ठोस है-
‘अरी मैं तो ये समझानों चाह रह्यो कि जैसे कोई बालक अपने प्रतिबिम्ब के संग खेल खेल के प्रसन्न होय, वैसे ही प्रभु ने योगमाया के द्वारा अपनी छाया रूप गोपिन के संग लीला करी’  ( पृष्ठ-14)
इसमें संदेह नहीं कि श्री कृष्ण की रास लीला के प्रसंग में रसोद्रेक और नाट्याभिनय के जितने भी आयाम हो सकते हैं, सभी कूट कूट कर भरे हुए हैं । चरित्र का क्रमिक विकास, कथोपकथन की विदग्ध्ता-वल्गु वाल्क्यया और समुत्सुकता/अनपेक्षापूर्ण घटनाक्रम सभी इसमें विद्यमान हैं । श्रीकृष्ण शारदीय पूर्णमासी के दिन गोपियों का आवाहन करते हुए पहले उन्हें टके सा जबाब देकर चलता करने की कोशिश करते हैं । वे उन्हें यह भी चेतावनी दे देते हैं कि ‘अच्छे कुल की स्त्रीन कूं या तरह पर-पुरुष के पास आनो, निंदा की ही नहीं, अपकीर्ति को भी कारण बनै ।’ (पृष्ठ 27) किन्तु एक बार जब कृष्ण ने गोपियों के समर्पण को स्वीकार कर भी लिया तो कृछ देर बाद वे अदृश्य हो जाते हैं । यहां तककि उनकी परम प्रिया राधा भी कुछ ही दूरी तक उनके साथ चल पाती हैं! कृष्ण के विरह में कातर गोपांगनायें इसके अनन्तर लोक,शास्त्र और और सार्वकालिक संगीत का अजस्र स्रोत गोपीगीत का अनुगान करती हैं । कृष्ण प्रकट होने पर कहते हैं कि जिस प्रकार खोए हुए अपार धन के एक बार फिर से मिलने पर आनन्द की विशेष अनुभूति होती है, उसकी प्रतीति करने को ही वे कुछ समय के लिए उनसे दूर हुए थे ! इसके बाद महारास की लीला आरम्भ होती है । श्री pdmishrabpl67@hotmail.comकृष्ण के इस महारास को लेखक ने श्रीकृष्ण के शब्दों में इस तरह प्रकट किया है-
‘प्रेम भक्ति की राह में भक्त और भगवान के मिलन में द्वैत और दुराव के ताईं कोई जगह नहीं है। यामें परम आसक्ति और सम्पूर्ण समर्पण जरूरी है । और जब जीव और ब्रह्म को मिलन होय तो परमानन्द, सचिदानन्द की स्थिति रच जाये । यही महारस है ।’ (पृष्ठ 46)
यह महत्वपूर्ण है कि श्री चक्रवर्ती ने इस गीत नाट्य की रचना ब्रज भाषा में की है । इसमें प्रयुक्त ब्रज माधुर्य युक्त और सहज ही समझी जा सकने वाली भी है । यह अनुमान किया जा सकता है कि यह सिद्धि लेखक की अर्जित साधना का ही परिणाम है ।
                   अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन्, भांपाल 16
                              9425079072


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