Sunday 24 June 2012

श्री महेन्द्र शर्मा की ‘वह बूंद अभिलाष’ स्ंक्षिप्त टिप्प्णी


आदरणीय श्री शर्मा जी,
आपकी पुस्तक वह बूंद अभिलाषअभी पूरी नहीं कर सका हूं । चंूकि कहीं बाहर जा रहा था सो लगा कि कुछ तो अपनी बात कहूं इसलिए यह संक्षिप्त कथनः
भारतीय दर्शन के सनातन पक्ष पर पश्चिम के विचारकों की समस्वरता /समरूपता का आकलन उन्हें सार्वभैमिकता प्रदान करता है, यह निर्विवादित है । किन्तु यहां कठिनाई यह है कि इसका रूपान्तरण यदि हिन्दीतर हिन्दी के प्रभाव में अमूर्तता लिए हो तो यह दुरूह विषय और भी दुरूह हो जाता है । विषय की क्रमबद्धता, तारतमितता और संप्रेषणीयता की चिन्ता किए बिना लेखक अपनी बात किस सीमा तक पाठक के पास पहुंचा सकता है, यह तो विचारणीय ही है ।
यह हो सकता है कि लेखक बहुत से विषयों पर केवल टिप्पणी करते हुए समझदारपाठकों को निष्कर्ष लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ रहा हो, लेकिन इस प्रत्याशामें वह (पाठक) पीछे ही न छूट जाय, मेरे विचार से यह ध्यान तो लेखक के लिए आवश्यक ही है ।
कुछ स्थान (पृ. 45) ऋत् शब्द तीन प्रकार से लिखा/छपा है । पृष्ठ
51 में ब्राह्मणक्या ब्रह्मन्है? यह ब्रह्मभी हो सकता है !
कृपया क्षमा करें, पहली ही प्रतिक्रिया ऐसी, शायद यह मेरी सीमा हो, पर पाठक असीमक्षमतावान् होगा यह अभिलाषा’...भी कैसी!
आपकी अपनी क्षमता निश्चित ही अप्रतिम है । इतना अध्ययन और मनन आपके संस्कार, शिक्षा और संकल्प की अतुलनीयता का ही प्रमाण है ।
भवदीय
प्रभुदयाल मिश्र
pdmishrabpl67@hotmail.com

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