आदरणीय श्री शर्मा जी,
आपकी पुस्तक ‘वह बूंद अभिलाष’ अभी पूरी नहीं कर सका हूं । चंूकि कहीं बाहर जा
रहा था सो लगा कि कुछ तो अपनी बात कहूं इसलिए यह संक्षिप्त कथनः
भारतीय दर्शन के सनातन
पक्ष पर पश्चिम के विचारकों की समस्वरता /समरूपता का आकलन उन्हें सार्वभैमिकता
प्रदान करता है,
यह निर्विवादित है । किन्तु यहां कठिनाई यह है
कि इसका रूपान्तरण यदि हिन्दीतर हिन्दी के प्रभाव में अमूर्तता लिए हो तो यह दुरूह
विषय और भी दुरूह हो जाता है । विषय की क्रमबद्धता, तारतमितता और
संप्रेषणीयता की चिन्ता किए बिना लेखक अपनी बात किस सीमा तक पाठक के पास पहुंचा
सकता है, यह तो विचारणीय ही है ।
यह हो सकता है कि लेखक
बहुत से विषयों पर केवल टिप्पणी करते हुए ‘समझदार’ पाठकों को निष्कर्ष लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ रहा हो, लेकिन इस ‘प्रत्याशा’ में वह (पाठक) पीछे ही न
छूट जाय, मेरे विचार से यह ध्यान तो लेखक के लिए आवश्यक ही है ।
कुछ स्थान (पृ. 45) ऋत् शब्द तीन प्रकार से लिखा/छपा है । पृष्ठ
51 में ‘ब्राह्मण’ क्या ‘ब्रह्मन्’ है? यह ‘ब्रह्म’ भी हो सकता है !
कृपया क्षमा करें, पहली ही प्रतिक्रिया ऐसी, शायद यह मेरी सीमा हो, पर पाठक ‘असीम’ क्षमतावान् होगा यह ‘अभिलाषा’...भी कैसी!
आपकी अपनी क्षमता निश्चित
ही अप्रतिम है । इतना अध्ययन और मनन आपके संस्कार, शिक्षा और संकल्प
की अतुलनीयता का ही प्रमाण है ।
भवदीय
प्रभुदयाल मिश्र
pdmishrabpl67@hotmail.com
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