Friday 16 March 2012

Tarpan- Nanaji

नाना
 
तुलना में  तुम दादा की
बड़े ही लगते थे मुझे
कद काठी और जोर में अपनी
सन्ध्या की अर्चना 
और कसरत में भोर की अपनी
पता नहीं किन्तु क्यों 
माँ के पते पर आकर
मैं खोज  ही रहा हूं तुम्हारा ठिकाना लगातार
नया और पुराना
आज भी दुर्निवार
 
तुम्हारे उद्यान में खिले थे
जो इतने उजले फूल
उनके नाम भी कुछ थे
शायद तुम्हें न हो पता
पर उनकी सुवास तुममें भर देती थी उल्लास
पीढिय़ों का
यह मुझे पता है
और मैं इसलिए आज हूं उदास
कि तुम्हारा एक पता भी नहीं है
मेरे पास 
 
प्रभात की नेति -धौति
प्राणायाम
और शाम गाय का आहार
मिश्रित राम नाम
या फिर लम्बी पग यात्रा के बाद
हमारे पड़ोस में विश्राम
भभक कर जलती मोटी लकड़ियों 
वाली चौपाल में बैठ
सत्संग और हरिनाम 
बिम्ब निर्माण के लिये आवश्यक 
शब्द प्रतीक और कल्पना
जब न हो किसी के पास
तब कैसे हो यह आभास
कि इतिहास
बनता ही है अनायास
बिना किसी प्रयास के पात्रों द्वारा
 
इसलिए मैंने तुम्हें चुना है
अपनी धारीवाली क़मीज़ के रेशों
और उस पिचकारी की तेज धार में
जिसे तुमने रोक दिया था
मेरे ऊपर प्रहार पूर्व होली में
और दीवार से उतार कर 
राम पंचायतन 
मुझे सौंप दिया था 
अपने प्रयाण के कुछ ही पूर्व 
रंगीन
 
 
 pdmishrabpl67@hotmail.com
 
 
 
 

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