Saturday 1 January 2022

प्रथमं वाचो अग्रम

                    प्रथमं वाचो अग्रम्

 

डा. राजरानी शर्मा की श्रेयस और प्रेयस की शब्द यात्रा में प्रथम पग रखने पर मेरी दृष्टि मार्ग-पट्टिकाओं के इन संकेतों पर टिक जाती है –

‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है

इच्छा क्यों पूरी हो मन की

एक दूसरे से न मिल सके

यह विडंबना है जीवन की।

प्रत्यभिज्ञा  दर्शन को काव्य की चाशनी में पाग कर प्रस्तुत करने वाले महामनीषी जयशंकर प्रसाद की उक्त पंक्तियाँ इस मूलभूत चिन्ता की प्रतिच्छाया है कि हमारे ज्ञान परम्परा;  इच्छा शक्ति और क्रिया व्यापार में भेद है, यही भेद; यही भिन्नता विषमता का मूल कारण है। विषमता श्रेयस और प्रेयस की; विषमता कथनी और करनी की; विषमता ज्ञान के सैद्धान्तिक स्वरूप और व्यावहारिक स्वरूप के सामंजस्य कीसभी एक प्रहेलिका को जन्म देती है और प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय दर्शन और भारतीय दार्शनिकों की त्रिकालज्ञ मनीषा हमारे जीवन के दैनंदिन व्यापारों को ज्योतित और आलोकित कर सकती है या नहीं? क्या ‘दर्शन केवल मनीषियों का एकाधिकार है? क्या केवल वाक् वितंडावाद ही दर्शन है; क्या भिन्न-भिन्न मत मतान्तरों का मायाजाल ही दर्शन है? क्या दर्शन कोई अत्यन्त दुरूह; क्लिष्ट; अव्यावहारिक वैचारिक सरणि ही है जिसमें सामान्य जन स्नान नहीं कर सकता!” (श्रेयस और प्रेयस दर्शन)  

रस हमें चाहिये ही .... उत्साह हमें चाहिये ही .... जीवन मंत्रों के हम रचयिता हैं ही ....! संत और वसंत दोनों को एक साथ साध कर चलने वाले हम सृजन के भी पुजारी हैं ...  और उदात्त चेतना के भी ! धरा को धन्यवाद कहना हमारी परम्परा है सो वसंतोत्सव मनाकर अनंत सृजन को नैवेद्य बनाकर ....” इदन्न मम “ की आहुतियों सा यज्ञ सरीखा जीवन जीना हमारी भारतीयता का मर्म है ! प्रफुल्लित रहना हमारा धर्म है ! सो हम वसंत को मनाते हैं वसंतोत्सव को जीते हैं ! (ऋतुराज वसंत)

अपने ज्ञान-गूगल से इस मार्ग के प्रकाश हेतु वाक का प्रथम आयाम यह है  -    

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः।

यह ऋग्वेद मण्डल 10 के 71वें ज्ञान सूक्त की पहली ऋचा है। इसके द्रष्टा ऋषि ब्रहस्पति हैं । इसका मेरी चेष्टा का काव्यानुवाद इस प्रकार है –

बोलते आरम्भ में शिशु नाम देकर वस्तुओं को नए जिससे

हे बृहस्पति !

वह गिरा निष्कलुष निश्छल

आदिवाणी की प्रथम अभिव्यक्ति

होती प्रकट ऋत-स्नेह

छुपी जो उर की गुहा रहती 

यह इसलिए भी कि राजरानी जी इस कृति को अपनी पहली किताब कहती हैं । संभव है इसका उन्मीलन इसी सूक्त के इस दूसरे मंत्र की प्रक्रिया में हुआ हो –

सक्तुमिव तितउना पुनंतो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत

अत्रा सखायः सख्यानि जानते भाद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ।  २ ।

-

छानकर ज्यों एक चलनी से कभी सत्तू

किया जाता अधिक निर्मल

बुद्धि से वैसे तराशी

बोलते विद्वान हैं जब

प्रेम, मैत्री में पगी वाणी

कीर्ति, श्री, श्रेयस्

सभी उसमें बसे होते ।   

 

वैदिक वाङ्मय में स्त्री’, आदि शंकर की परदुख कातरता और रामकथा के श्रेयस तथा व्रज और व्रजांगनाओं, उपालंभ काव्य, दिनकर की उर्वशी, सुगंध सार, वसंत और शिरीश के प्रेयस के समानातर तटों में वहती यह धारा, भारतीय मनीषा के प्रखर प्रज्ञा पुरुष विद्यानिवास मिश्र की परंपरा में स्नान और निमज्जन, दोनों का सुख देने के लिए है । यहाँ बस एक बार और मुझे ज्ञान सूक्त के एक दूसरे संदर्भ की ओर लौटना है जिसके इस काव्यानुवाद पर आचार्यपाद ने स्वयं दृष्टिपात भी किया था –

अक्षन्वंतः कर्णवन्त: सखायो मनोज्वेश्वसमा बभूवुः

आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे हृदा इव स्रात्वा उ त्वे ददृशे । ७ ।

-

आँख वाले, कान वाले मित्र सब जैसे

नहीं हैं एक जैसे कल्पना, मन से

सरोवर जिस तरह जल का

कभी कटि, कभी मुख

स्नान डुबकी का कभी आनंद देता है।

 

यहाँ लोक और वेद की सरयू (सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ) के इन किनारों से सत्यं परं की अवधारणा से सुसंकल्पित राजरानी जी इस आभासीय संसार में विश्वमय होकर भी विश्वोतीर्ण होने की संभावना का भान कराने में समर्थ प्रतीत होती हैं । यह सब मैं इस पुस्तक के उदाहरणों से प्रकट कर सकता हूँ, पर यह समीक्षा का प्रसंग नहीं है । अस्तु ।

कठोपनिषद् के यमराज स्पष्ट घोषणा करते हैं कि श्रेयस और प्रेयस में चयन का निर्णय व्यक्ति का अपना है । ये मार्ग तो उसके पास स्वयं ही चलकर पहुँच जाते हैं –

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्शेमाद्‌वृणीते ॥

 सुदीर्घ अध्ययन, अध्यापन और अध्यवसाय के बाद एक विचारशील व्यक्तित्व के लिए आत्मोपाख्यान हेतु गद्य विधा उपयुक्त माध्यम है । कविता की अपनी सीमाएं तो विदित रहती ही हैं । कविता, अर्थात् एक अल्प विराम की विश्रांति ! महाकाव्य, अवश्य दीर्घतर है, पर इसके लिए एक पूरे जीवन की तैयारी और समर्पण जो जरूरी है! और इसके आगे यह दायित्व बोध भी –

 कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्

 व्यदधाच्छाश्वतीम्यः समाभ्यः ।

(मनीषी, कवि

श्रेष्ठतम सबसे

स्वयं ही उत्पन्न

सब कुछ जो जहां जैसा

बनाया है उसी ने

सदा से

सबके लिए आगे ।  यजुर्वेद 40/8)

 

राजरानी जी इसलिए बहुत सोच विचार के बाद अपने विचार-लालित्य के प्रकाशन में प्रवृत्त हुई हैं । उन्हें डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी और डा. विद्यानिवास मिश्र के इस क्षेत्र के अवदान और परंपरा का सम्यक् बोध है । यह उनकी अपनी श्रद्धा का भी धरातल है । अत; इस संग्रह के अधिकांश निबंध इसी संश्लिष्ट परंपरा को समृद्धतर बनाते प्रकट होते हैं । धरातल की इस समानता में उनकी संस्कृत और हिन्दी की पृष्ठभूमि के साथ उनमें जन्मना व्रज-रज की वह रस सिक्तता भी है जो जीवन-आह्लाद को नित्यता प्रदान करती है । ब्रजराज, व्रज और व्रजांगनायें’, उपालंभ काव्य और ब्रज गोपिकायें’, रस रहस्य का रसगीत कदंब आदि विनिबंध इसी सत्य के परिचायक हैं –

प्रतीत होता है कि कृष्णावतार का संत है कदम्ब ....!अनुरागी चित्त सा ब्रह्मरसलीन सा !

जगर मगर  करते सत्वोद्रेक स्नात गोल -गोल मुदित मन की कहानी सी कहते मोदक पुष्पों के गुच्छे लिये ऐसा सजा खड़ा है मानो कोई अभिसारिका प्रिय की प्रतीक्षा में हो आकुल -व्याकुल सी नेहनिमग्ना सी अपनी मनोभूमि में लीन मिलनोत्कंठा से ऊभ -चूभ ! (रस रहस्य का रसगीत कदंब)

यह स्पष्ट है कि एक निबंधकार संदर्भगत मनःस्थितियों, भावबोध और अभिव्यंजना के आयामों की बहुलता में विषय विशेष केन्द्रित नहीं रह सकता है, किन्तु अपने शिल्प और अवधारणा की केन्द्रिकता में उसे सर्वथा प्रत्यक्ष और परिपूर्णता में देखा जाना चाहिए । अत: इस संग्रह में जहां व्रजराज की बांसुरी और रणरंग धीर की धनुष टंकार सुनी जा सकती ही है, वहीं नए युग के समस्त सरोकार भी जीवन व्यवहार के नवरस परिपाक में संसिक्त देखे और समझे जा सकते हैं । एक और उदाहरण अथातो आनंदलोक जिज्ञासा, ग्रहस्थ रस के वीतरागी शांत रस का इस प्रकार है –

एक रस और है जो अभी नव रस में बचा है और वह है शांत रस...! ग्रहस्थ रस की झिलमिली में यह रस तब प्रकट होता है जब बेटे को बहू और बेटी को दामाद उड़ा ले जाते हैं फिर चाहे देश में ले जाएँ या विदेश में ....!क्या फर्क पड़ता है ! तोता मैना की कहानी तो फिर उसी अकेली शाख से शुरू होने लगती है, पर सुर बदले-बदले से ..। फिर उसके बाद के नौ रस शांत रस में ढल जाते हैं.... अक्षत पात्र को देहरी पर उढका कर आनेवाली नायिका की रग-रग अक्षतगरिमा में ढल जाती है । लौकी, तुरई का शांत रस रसोई में उतरता है तो दवाओं के चमचमाते पत्तों की बारात शयनकक्ष में ।

                              

मैं नहीं समझता कि जीवन के स्थायी भाव की इस निर्वेद पराकाष्ठा में पहुंचाकर इस पुस्तक की भूमिका में मुझे कुछ और कहना शेष रहता है । अस्तु सभी सुधी पाठकों, समीक्षकों और जिज्ञासु जनों का समादर पूर्वक मैं इस महद् द्वार में प्रवेश पूर्व अभिवादन करता हूँ । शुभमस्तु ते पंथान: । 

प्रभुदयाल मिश्र, भोपाल

 

P.D Mishra President, Maharshi Agastya Vedic Sansthanam, Bhopal; Facebook- Prabhu Mishra, blogspot.com-Vishwatm, web-www.vishwatm.com, Twitter-@PDMishra, YouTube/Academiya.edu- Prabhu Dayal Mishra, LinkedIn-pdmishrabpl67@hotmail.com, Speakingtree-Prabhu Dayal Mishra ‘Vishwatm’.   

1 comment:

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