समीक्षा
कृति – वायु पुरुष
कवि- उपेंद्र कुमार
प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
मूल्य- रुपए 250
पुराकथाओं
के ‘वार्मिंग’ वायु पुरुष
- प्रभुदयाल
मिश्र
कवि
श्री उपेंद्र कुमार का 127 पृष्ठ के 11 सर्गों वाले महाकाव्य ‘वायु पुरुष’ इस पुस्तक के फ्लेप के अनुसार ‘पुराकथाओं से हमारी
यात्रा को उस समकालीन वैश्विक संकट और चुनौती के सामने ला खड़ा करता है जो प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के क्षय
से जुड़ा है और जो समस्त सृष्टि के प्राण का संकट बन गया है।’
किन्तु यथार्थ में इस रचना के द्सवें सर्ग का निम्न यह रेखांकन इसका ‘भरतवाक्य’ नहीं है –
‘बना तो न पाएंगे बेहतर कुछ भी
परंतु
नासमझी में खाते और खोते रहेंगे
प्राकृतिक
संसाधनों को
पयस्विनी
प्रकृति का करेंगे
अविवेकी
दोहन ऐसा।‘ (पृष्ठ 113)
यथार्थत:
यह धीरोदात्त देवता नायक वाय पुरुष के उस उद्दाम आवेग की वह कथा है जो ऋग्वेद के
पुरुष, नासदीय और हिरण्यगर्भ सूक्त से आरंभ होती है –
‘हिरण्यगर्भ ने किया निवास पूरे एक वर्ष तक उसी
अंड
में
फिर
किए उसके दो भाग
एक
का नाम द्यलोक हुआ और दूसरे का भूलोक’ (पृष्ठ 28)
किन्तु
वीर और शृंगार के बिना किसी महाकाव्य का रस परिपाक कहाँ, अस्तु
‘पर्वत हिल उठते हैं
चट्टानें
हिम शिखरों से
टूटकर
गिरने लगती हैं
तूफान
पसारता चला जाता है
पहाड़ियों
पर, घाटियों में
सब
कुछ मिटाता, पैरों तले रौंदता’ (पृष्ठ
44)
और
(शृंगार)
‘वायु आवेश में
अपनी
प्रेमिका को भर लेते हैं-
अभी-अभी
स्नान करके निकली थी
वस्त्र
विन्यास, शृंगार-पठार अभी होना बाकी था।‘ ( पृष्ठ 86, कुंती प्रसंग)
तथा
‘मोह से अंधे हो उठे वायुदेव
काम
का एक ज्वार-सा जागा तन-मन में
हो
गया एकाग्र चित्त उनका अंजना में ही ।‘ (पृष्ठ 99)
अपने
चरित नायक से प्रायः तादात्मीकृत कवि उसके उद्भव और विकास में उसके समानान्तर उन
वाक् धाराओं और शब्द बिंबों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है जो चेतना की जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में समावर्तित हैं । कवि की परा चेतना की यह
अंतर्यात्रा उसे इस ‘आदि पुरुष’
को नाना रूप और नामों में अभिव्यक्ति देने
की असाधारण क्षमता प्रदान करती है । अतः कोई विस्मय नहीं यदि धीरप्रशांत बना यह धीरोदात्त
वायु पुरुष अगले ही क्षण धीरोद्धत्त भी बन जाता है –
‘शायद समय आने ही वाला है
बाढ़ों
को तोड़ गिराने का
सीमाओं
से पत्थरों को हटा फेंकने का
बीजों
और ताजा दूर्वा के गट्ठरों को फैला देने का
पृथिवी
की महाविशाल परिधि पर ।‘ (पृष्ठ 70)
यह
स्वाभाविक ही है कि कवि श्री उपेंद्र कुमार अपनी इस कृति के उपसंहार में इसे वेद
के उन ऋषियों को समर्पित करता है ‘जिन्होने इस अदृश्य
वायु पुरुष को अवश्य देखा है’ (पृष्ठ 120 )। वेद के ऐसे परम
द्रष्टा ऋषि अगस्त्य के ‘कया शुभी’
सूक्त (ऋग्वेद मण्डल 1/165/15) का यहाँ स्मरण मुझे निम्न उद्धरण सहित मौजूं प्रतीत
होता है –
‘एषः वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः
एषा
यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीर्दानुम् ।
तुम्हें
अर्पित हमारी यह प्रार्थना मरुतो,
तुम्हें
अर्पित हमारी यह वाक्
आनन्दकर, हम करें अब सम्प्राप्त
पोषण
अन्न, बल, जय सर्वदा इस लोक में । १५ ।‘
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ईडन गार्ड, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल
462016 (9425079072)
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