Thursday 16 February 2017

सत्यं परं धीमहि

कृति -  शाश्वत सत्य /रचनाकार – रामनिवास खंडेलवाल
सम्पादन- डा. स्वाति तिवारी/प्रकाशन- परम्परा प्रकाशन, साईं कृपा कोलोनी, इंदौर  
                      सत्यं परं धीमहि
                                  प्रभुदयाल मिश्र
श्री रामनिवास खंडेलवाल द्वारा अपने प्रियजनों को लिखे शताधिक पत्रों से सुप्रसिद्ध लेखिका डा. स्वाति तिवारी ‘शाश्वत सत्य’ का साक्षात्कार करते हुए उसे इस कृति के पाठकों को भी परिचित कराते हुए चुनौतीपूर्ण कार्य किया है. इस तरह का महान संकल्प द्वापर युग में भागवत की रचना करते हुए भगवान् वेदव्यास ही कभी सामने लेकर आये थे जिन्होंने इस महापुराण के आरम्भ में यह प्रतिज्ञा कथन किया कि मैं ‘परम सत्य के अनुसंधान में प्रवृत्त हुआ हूँ – सत्यं परम धीमहि ! यहाँ प्रश्न यह उठता है कि परम अर्थात शाश्वत सत्य के साक्षात्कार की विधा क्या हो सकती है – ध्यान, तप, उपासना, कविता या कि पत्र ? इस सम्बन्ध में सामान्य सहमति न भी बने तब भी यह कहा जा सकता है कि एक विशुद्ध रचनाधर्मिता निश्चित ही इस महत कार्य की भूमिका हो सकती है. और स्वातिजी की स्वधर्मिता जब इसका साक्ष्य दे रही होती है तो इस पर संदेह की गुंजायश प्रायः नहीं बचती.
‘शब्दों’ के शिलालेख’, ‘विद्वानों की बात’, ‘ज्ञानवाण’, ’जीवन अनंत है’ और ‘किताबें’ आदि संश्लिष्ट शीर्षों में पिरोये इन पत्रों के सार भाग को ही संग्रहीत किया गया है. दुनिया की अनेक भाषाओं में पत्र शैली में कालजयी कथा साहित्य, उपन्यास और संस्मरण साहित्य की रचना हुई है. किन्तु इन्हें पढ़ते हुए पाठक जैसे इस मूलभूत अविश्वास को सदा दवाकर रखता है कि ये पत्र वास्तव में तो नहीं ही लिखे गए हैं तथा यह कि वे केवल कल्पना की उड़ान भर हैं. किन्तु यहाँ वैसा बिलकुल नहीं है. इन पत्रों के लेखक श्री खंडेलवाल का आत्मसंघर्ष, जिजीविषा और अपने प्रियजनों- विशेषकर पुत्री और दौहित्र आदि के कल्याण का भाव लेखक को लेकर उत्कृष्ट पारिवारिक, सामाजिक, संस्कृत और लोक चेतना का परिचायक है.
वर्तमान युग में मुद्रण, प्रकाशन और संचार के साधन सुगमता से उपलब्ध हैं. यदि आज के रामनिवास खंडेलवाल अपने पूर्वोक्त दायित्व के भाव को लेकर चलते हैं तो वे, ट्वीटर, फेसबुक, इन्स्ताग्राम,जीप्लस,लिंक्डइन,व्हात्सप आदि नाना माध्यमों को साधकर भी इतना लिख और प्रकाशित नहीं करा सकते थे. आज के माध्यमों की सीमा यह है कि संक्षेप और सीमा की शर्त उसमें रचनाधर्मी को पंख फैलाने की फुर्सत नहीं देती. इस अर्थ में यह किताब हाल में ही बीत गए उस युग की सलामती का दस्तावेज हो जाती है जो हमारे हाथ से लगातार खिसकता जा रहा है.
एक प्रश्न यह भी प्रायः उठता है कि ‘शब्दों के ये शिलालेख’ इतिहास – साहित्य, संवाद, परिवार, समाज और संस्कृति की धारा में कितनी दूर तलक ठहरेंगे ? यह बहुत ही स्वाभाविक है कि यह ललक शब्द शिल्पी में ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति में ही होती है कि वह स्वयं न होते हुए भी अपने शब्द, क्रिया और सम्बन्ध की भूमिका में बहुत दूर तक जिए. किन्तु ‘कविहिं अरथ आखर बल साँचा’- एक शब्द शिल्पी, रचना कार की अपने बल की सत्यता पर निर्भरता कहीं बहुत अधिक होती है. इस पुस्तक के लोकार्पण के समय डा. स्वाति तिवारी ने शब्द ब्रह्म की सत्ता का उल्लेख किया था. गीता में ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ कहा गया है. तुलसीदास जी ने रामायण में ‘वरणानाम अर्थसंघानाम’ की बात कही है. दार्शनिक दृष्टि से ‘शब्द’ आकाश की तन्मात्रा है. आकाश स्वयं में परम व्याप्ति है. अतः यह परम, शाश्वत सत्य ही है कि शब्द का आश्रय अपनी व्याप्ति में आकाश के समानांतर पहुंचाता है. अस्तु इति शम .   
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