Saturday 1 November 2014

ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना

                              ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना  
                                                                                  प्रभुदयाल मिश्र 
मानस के आरणयकांड में दोहा क्रमांक १३ से १६ तक श्री राम लक्ष्मण संवाद को विद्वान ‘लक्ष्मण- गीता’ की संज्ञा देते हैं. श्री राम द्वारा ज्ञानोपदेश का यह विशेष अवसर है. मानस की दूसरी गीता ‘विभीषण-गीता’ है जो लंकाकाण्ड तथा तीसरी गीता ‘भरत- गीता’ है जो उत्तर कांड में आती है. इसी लक्ष्मण- गीता में भगवान यह सूत्रवाक्य ‘ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना’ प्रदान करते हैं. 
इसमें तीन बातें प्रधान हैं  ज्ञान, मोक्ष और वेद . इन तीनों शब्दों की व्याख्या इस सूत्र को समझने के लिए आवश्यक है. भगवान का कहना है कि ज्ञान से मोक्ष मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा वेदों ने वर्णित किया है. सबसे पहले हम वेद के प्रमाण को ही लेते हैं. श्रुति कहती है ऋते ज्ञानात न मुक्ति. अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं. भगवद्गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं- सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ( ४/३३) अर्थात हे पार्थ सभी कर्मों का परिसमापन ज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर हो जाता है. उल्लेखनीय है कि अकेले इस चतुर्थ अध्याय में ही भगवान ने पन्द्रह वार ज्ञान शब्द का प्रयोग किया है. उन्होंने तो यहाँ यह भी कह दिया है कि ‘ज्ञान से पवित्रतर कुछ है ही नहीं’- नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते (४/४८). इससे ज्ञान की महत्ता की सनातन भारतीय मनीषा में प्रतिष्ठा सुपष्ट हो जाती है. 
यह ज्ञान है क्या ? गीता के दूसरे अध्याय में सत् की प्रतिष्ठा और असतके मिथयात्व का बोध कराते हुए भगवान अर्जुन को सांख्य के प्रबोध ( एषा तेभिहिता सांख्ये २/३९ ) के बाद योग की शिक्षा देते हैं. आगे सातवें अध्याय में उन्होंने अर्जुन को ज्ञान को विज्ञान सहित और विस्तार से समझाया (ज्ञानं ते सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः -७/२) यहाँ पर भगवान ने वेदान्त दर्शन की सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान करते हुए यही कहा है कि वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता और नियामक हैं किन्तु माया के वशीभूत जीव उन्हें (भगवान को) अपने ही समान साधारण जीव मान लेता है- अव्यक्त व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामअबद्धय ७/२४) 
अथात शुद्ध वेदान्त की प्रतिष्ठा ही सनातन भारतीय मेधा की परिसीमा है तथा यही वास्तविक ज्ञान है. इसके द्वारा जीव में ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ब्रह्मैवनापरं’ का बोध जागता है. ब्रह्मसूत्र, उपनिषद इस ज्ञान की सम्यक प्रतिष्ठा कराते हैं. आदि शंकर ने कर्मकांड की जड़ता का प्रतिरोध कर वर्तमान युग में इस ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा की. श्रुति के चार महावाक्य  अहं ब्रह्मास्मि , तत्वमसि , प्रज्ञानं ब्रह्म और अयं आत्मा ब्रह्म जीव और ईश्वर के इसी अपार्थक्य की उद्घोषणायें है.
इस लक्ष्मण गीता के प्रसंग में भी स्वयं श्री राम लक्षमण को समझाते हैं-
माया ईश न आपु कह जान कहिय सो जीव 
ध मोच्छप्रद सर्वपर माया प्रेरक सीव . आरणकांड / १५
वेदान्त कहता है कि परमब्रह्म जब माया संयुत तो होता है किन्तु इसका उसे बोध रहता है तथा वह ईश्वर कहलाता है. यही ब्रह्म पञ्च महाभूतों से जुडकर संसार और पञ्च कोशों से सम्प्रक्त हो जीव बन जाता है. इस तरह ब्रह्म या चैतन्न्य ही उपाधियुक्त होकर ईश्वर, संसार या जीव बनता है. तत्वतः इनमें कोई भेद नहीं है. इस ज्ञान को प्राप्त कर जीव परमात्मा से अपने अपार्थक्य की प्रतीति कर लेता है .
और भी सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीव और ईश्वर में तत्वतः कोई भेद नहीं है. दोनों मायोपहित ही हैं. सूक्ष्म सा अंतर केवल इतना है कि ईश्वर को इसका ज्ञान है जबकि जीव को नहीं है. और यह ज्ञान ही मोक्ष है. 

मुक्ति के नाम पर बैकुंठ या स्वर्ग की कल्पना प्राथमिक शिक्षा के सोपान हैं. इनमें भोग की धारणा तो और भी निम्नतर है. यदि स्वर्ग भोग की ही भूमि है तबतो पशु- लोक और स्वर्ग में कोई भेद ही नहीं रहेगा. इससे भी आगे यह बोध महत्वपूर्ण है कि मोक्ष का यह विकल्प मनुष्य के सामने स्वतः खुला हुआ है. इसके लिए वह पराश्रित नहीं है. 
स्वामी अनुभवानन्द जी इस सम्बन्ध में एक बड़ा सटीक उदाहरण देते हैं. उनका कहना है इस सम्पूर्ण स्थिति की कल्पना क्रिकेट के खेल से की जा सकती है. ष्टि के इस खेल में जीव बल्लेबाज है तो संसार मैदान (फील्डिंग टीम ) है. ईश्वर अम्पायर (निर्णयकर्ता ) है. अब यह एक सीधी सी बात है. यदि बल्ले वाला वाक ओवर दे देता है, खेलना खत्म कर देता है, तो मैदान और अम्पायर का काम अपने आप खत्म हो जाता है. इसके बाद न तो संसार की कोई भूमिका शेष बचेगी और न ही ईश्वर की ! 
वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी इस सूक्ति में भारतीय मेधा का सार सर्वस्व भर दिया है. अद्वैत का यह परमोच्च ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपने लीला संवरण के समय भागवत के एकादश स्कंध के २८वे अध्याय में सविस्तार प्रदान किया है. यहाँ उद्धव के यह पूछने पर कि भगवन, मारता कौन है, शरीर या आत्मा? वास्तविकता तो यह समझ आती है कि शरीर जड है अतः उसका मरना निरर्थक है और आत्मा अविनाशी है अतः उसके मरने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता !
इस पर श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि सत्य यही है कि न तो शरीर मरता है और न ही आत्मा. वास्तव में मरता तो मनुष्य का वह अज्ञान है जो आत्मा को शरीर मान रखता है-
यावद देहेंद्रियप्राणरात्मनः संनिकर्षणम् 
संसारः फलवांसतावदपार्थोप्यव्वेकिन .( श्रीमदभागवत ११/२८/१२) 
अर्थात जिस प्रकार बंधन जीव ने ही स्वीकार किया है उसी तरह मोक्ष का वरण करने की भी उसकी स्वतंत्रता है.  यह ज्ञान ही मुक्ति है  ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना.
                                    ३५ ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल १६                                    indiamart.com/vishwatm

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